भगतसिह की जेल नोटबुक: एक महान विचारयात्रा का दुर्लभ साक्ष्य

भगतसिह की जेल नोटबुक: एक महान विचारयात्रा का दुर्लभ साक्ष्य

एल. वी. मित्रोखिन

अक्टूबर, 1967 में एक वयोवृद्ध भारतीय क्रान्तिकारी विजय कुमार सिन्हा से मेरी भेंट हुई। 1929 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें उस मुक़दमे में सज़ा दिलवायी थी, जो इतिहास में लाहौर षड्यन्त्र केस के नाम से जाना जाता है। उन दिनों की घटनाओं को याद करते हुए श्री सिन्हा ने महान भारतीय क्रान्तिकारी भगतसिह के बारे में बताया, जो फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने से कुछ घण्टे पहले तक लेनिन की जीवनी पढ़ते रहे थे।

कैसा अनुपम इच्छा-बल था उस वीर का! उन अकथनीय परिस्थितियों में, फाँसी से पहले एक पुस्तक पढ़ना! परन्तु लेनिन के व्यक्तित्व का प्रभाव इतना प्रबल था कि सुदूर औपनिवेशिक भारत में मृत्युदण्ड प्राप्त क़ैदी उनके जीवन का वर्णन करने वाली पंक्तियों को यों पढ़ते थे, मानो जीवनदायी स्रोत से घूँट भर रहे हों।

…सुबह का वक़्त था। इस दिन भगतसिह तेईस वर्ष, पाँच महीने और छब्बीस दिन के हुए थे। लाहौर का एक अख़बार देखते हुए भगतसिह की नज़र हाल ही में छपी लेनिन की जीवनी के बारे में एक लेख पर पड़ी।

लेनिन पर एक किताब…वह हर हालत में उसे पढ़ना चाहते थे। भगतसिह जानते थे कि औपनिवेशिक “न्‍यायालय” अपना फ़ैसला सुना चुका है और उन्हें फाँसी मिलकर रहेगी। ये ऐसे क्षण होते हैं, जब आदमी की सबसे बड़ी इच्छा होती है कि अपने प्रियजनों के अन्तिम दर्शन पा ले।

‘युगदृष्टा भगतसिह और उनके मृत्युंजय पुरखे’ पुस्तक में भगतसिह की भतीजी वीरेन्द्र सिन्धु ने उनके अन्तिम दिनों का वर्णन इस प्रकार किया है। वह लिखती हैं: “भगतसिह के लिए लेनिन से अधिक क़रीबी और कौन था? वह अपनी मृत्यु से पहले उनसे मिलने को उत्सुक थे और उनके लिए लेनिन की जीवनी पढ़ने का अर्थ लेनिन से मिलना था।”

एक विलक्षण क्रान्तिकारी और भारत के राष्ट्रीय नायक भगतसिह का जीवन, जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने 1931 में फाँसी दे दी, एक वीर का जीवन था। भारत के अलावा उनके बारे में सोवियत संघ और दूसरे देशों में भी पुस्तकें लिखी गयी हैं।[1] मेरी ‘लेनिन के बारे में भारत’ में एक पूरा अध्याय ‘वह पुस्तक, जो भगतसिह ने पढ़ी’ इस वीर के जेल के जीवन को समर्पित है।[2]

और अब दस साल बाद मुझे नये दस्तावेज़ों के होने का पता चला, जो भगतसिह के भाई कुलबीर सिह ने कृपापूर्वक मुझे दिखाये। उनका सारा परिवार अपने रिश्तेदार से, जिसे नेहरू ने भारतीय लोगों के स्वतन्त्रता संग्राम का प्रतीक कहा, सम्बन्धित सभी दस्तावेज़ जमा करता और सँभालकर रखता है। इन दस्तावेज़ों से इस बात पर नया प्रकाश पड़ता है कि किस प्रकार भगतसिह एक आतंकवादी से विकसित होते हुए एक आस्थावान मार्क्सवादी बने। इनसे उनके साथियों पर भगतसिह के प्रभाव तथा उनके विचारधारात्मक विकास में भगतसिह की भूमिका का पता चलता है।

ये दस्तावेज़ हैं भगतसिह की जेल डायरी, उन्होंने जो पुस्तकें पढ़ीं, उनके सारांश और उद्धरण। इनके अस्तित्व का ज्ञान भारतीय पत्र-पत्रिकाओं से हुआ। 1968 में भारतीय इतिहासकार जी. देवल ने ‘पीपुल्स पाथ’ पत्रिका के लिए ‘शहीद भगतसिह’ लेख लिखा, जिसमें उन्होंने 200 पृष्ठों की एक कापी का ज़िक्र किया और बताया कि उसमें अनेक विषयों पर भगतसिह के नोट हैं, जिनसे उनकी रुचि की व्यापकता का पता चलता है। कापी में पूँजीवाद, समाजवाद, राज्य की उत्पत्ति, कम्युनिज़्म, धर्म, समाजविज्ञान, भारत, फ्रांस की क्रान्ति, मार्क्सवाद, सरकार के रूपों, परिवार और अन्तरराष्ट्रीयतावाद पर नोट हैं। देवल ने ये नोट पढ़े और इस बात पर ज़ोर दिया कि इन्हें प्रकाशित किया जाना चाहिए, हालाँकि उनकी यह इच्छा अभी तक साकार नहीं हो पायी है।

यह कापी, जिसके बारे में श्री देवल ने लिखा, क्रान्तिकारी के दूसरे काग़ज़ात के साथ जेल अधिकारियों ने 23 मार्च, 1931 को भगतसिह को फाँसी देने के बाद उनके परिवारवालों को सौंप दी और अब फरीदाबाद में रह रहे उनके भाई कुलबीर सिह के पास है।

इन दस्तावेज़ों की प्रामाणिकता की न केवल इस तथ्य से पुष्टि होती है कि वे क्रान्तिकारी के परिवार में सुरक्षित रखे गये हैं; कापी के पृष्ठ भगतसिह की छोटे अक्षरों की लिखायी से भरे हुए हैं, वह अंग्रेज़ी में लिखते थे, कहीं-कहीं उर्दू का भी इस्तेमाल उन्होंने किया। पृष्ठ 68 पर तिथि अंकित है: 12-7-1930 और हस्ताक्षर हैं: ‘भगतसिह’।

ये दस्तावेज़ युवा क्रान्तिकारी के समृद्ध आत्मिक जीवन पर, आत्म शिक्षा के लिए उनके घोर परिश्रम तथा जेल में क़ैद के दौरान उनकी विचारधारात्मक खोज पर प्रकाश डालते हैं। इन काग़ज़ों को सरसरी तौर पर देखने पर भी यह पता चलता है कि इनका लेखक प्रखर बुद्धि का धनी व्यक्ति था, जो सोचने के आदतन ढंग को त्यागने में सफल रहा और जिसने प्रगतिशील पश्चिमी चिन्तकों के विचारों को आत्मसात किया। इन नोटों में मार्क्सवाद में भगतसिह की रुचि ही शायद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उनके दृष्टिकोणों के इस पहलू को ही भारत और दूसरे देशों के बुर्जुआ इतिहासकार छिपाने का यत्न करते हैं। अमेरिकी इतिहासकारों जी. डी. ओवरस्ट्रीट और एम. विण्डमिलर का दावा है कि “ज्‍यादातर इस सम्बन्ध के आधार पर ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भगतसिह को पार्टी का हीरो दिखाने की कोशिश की है।”[3]

भगतसिह के नोट, जो उन्होंने संक्षिप्त, सारगर्भित शीर्षकों के साथ लिखे, उनकी व्यक्तिगत भावनाओं को भी प्रतिबिम्बित करते हैं। वह आज़ादी के लिए तड़प रहे थे, इसीलिए उन्होंने बायरन, व्हिट्मैन और वर्ड्सवर्थ की स्वतन्त्रता के विषय पर पंक्तियाँ अपनी कापी में उतारीं। उन्होंने इब्सन के नाटक, दोस्तोयेव्स्की का ‘अपराध और दण्ड’ और ह्यूगो का ‘पददलित’ उपन्यास पढ़े । रूसी क्रान्तिकारी वेरा फ़िग्नर तथा रूसी विद्वान और क्रान्तिकारी न. मोरोज़ोव की रचनाओं से जेल जीवन की कठिनाइयों के जो उद्धरण उतारे, वे उनकी मनोभावनाओं के अनुरूप थे। उमर ख़य्याम की पंक्तियाँ भी थीं, जो यह दिखाती हैं कि किस प्रकार भगतसिह ने जीवन और मृत्यु के प्रश्नों पर मनन किया, जबकि वे औपनिवेशिक अदालत के फ़ैसले की प्रतीक्षा कर रहे थे। भगतसिह ने अपने को मुक़दमे के लिए तैयार करने के उद्देश्य से क़ानून का भी अध्ययन किया।

जेल में पुस्तकें भगतसिह की चिन्ता का प्रमुख विषय थीं। जुलाई, 1930 में उन्होंने अपने मित्र जयदेव गुप्ता को लिखा: “कृपया लाहौर के द्वारकादास पुस्तकालय के लाइब्रेरियन से पूछना कि बोर्स्टेल जेल में क़ैदियों को किताबें भेजी गयी हैं या नहीं। उन्हें किताबों की बहुत तंगी है। उन्होंने सुखदेव के भाई जयदेव के हाथ सूची भेजी थी, मगर किताबें उन्हें नहीं मिलीं। अगर सूची खो गयी है, तो जरा लाला फ़िरोज़चंद से विनती करना कि उसके बदले अपनी पसन्द से कुछ रोचक पुस्तकें भेज दें। इस इतवार को उन्हें किताबें मिल जानी चाहिए थीं। कृपया विनती करना कि किताबें ज़रूर भेज दें।”[4]

16 सितम्बर, 1930 को उन्होंने दुखी मन से अपने भाई कुलबीर सिह को लिखा कि फ़ैसला सुनाये जाने तक उनसे मिलने कोई नहीं आ सकता: “इसलिए मेरी विनती है कि तुम ख़ान साहब के दफ्तर जाना और वहाँ से मेरी किताबें और दूसरी जो चीज़ें मैंने वहाँ छोड़ी हैं, ले लेना। मुझे लाइब्रेरी की पुस्तकों की बड़ी चिन्ता है। फ़िलहाल मेरे लिए कोई किताबें लाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि मेरे पास अभी कुछ हैं। अच्छा हो, अगर तुम लाइब्रेरी से उन किताबों की सूची माँग लो, जो मैंने वहाँ से निकलवायी थीं।”

क्रान्तिकारी जे. सान्याल ने, जो कुछ समय तक भगतसिह के साथ जेल में रहे थे, इस बात पर ज़ोर दिया है कि वह बड़े ध्यान से पढ़ने के लिए पुस्तकें चुनते थे, डिकेंस, सिक्लेयर, वाइल्ड और गोर्की उन्हें अधिक पसन्द थे।[5]

जेल में उन्होंने जिस राजनीतिक और वैज्ञानिक साहित्य की माँग की, उससे उनकी रुचियों का पता चलता है। जुलाई, 1930 में उन्होंने दूसरे इण्टरनेशनल का पतन और “वामपन्थी” कम्युनिज़्म (“वामपन्थी” कम्युनिज़्म: एक बचकाना मर्ज – प्रत्यक्षतः ये दोनों पुस्तकें लेनिन की थीं), प. क्रोपोत्किन की ‘परस्पर सहायता’ तथा मार्क्स की ‘फ्रांस में गृहयुद्ध’ रचनाएँ मँगवायीं।

भगतसिह के कुछ नोट उनकी जीवनी का आदर्शवाक्य हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिकी समाजवादी यूजीन वी. डेब्स का निम्न कथन: “जब तक निम्न वर्ग है, मैं उसमें हूँ। जब तक कोई अपराधी तत्त्व है, मैं उसमें हूँ। जब तक कोई जेल में है, मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ” (भगतसिह की डायरी का पृष्ठ 21। आगे उनकी डायरी की पंक्तियों के बाद उसका पृष्ठ इंगित किया गया है)। पृष्ठ 29 पर उन्होंने लिखा: “निरर्थक घृणा की ख़ातिर नहीं, सम्मान, यश और आत्मश्लाघा की ख़ातिर नहीं, बल्कि अपने ध्येय की कीर्ति की ख़ातिर तुमने ऐसा कुछ किया है, जो कभी भुलाया नहीं जायेगा।”

स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष और दूसरों के लिए आत्मबलिदान के विचार हम उनकी डायरी के हर पृष्ठ पर पाते हैं। पृष्ठ 23 पर भगतसिह ने टॉमस जैफरसन[6] के ये प्रसिद्ध शब्द लिखे: “आज़ादी के बिरवे को समय-समय पर देशभक्तों और तानाशाहों के ख़ून से ताज़ा किया जाना चाहिए। यह क़ुदरती खाद है।” इतिहास, दर्शन और अर्थशास्त्र के विभिन्न विद्वानों की पुस्तकों से जो उद्धरण भगतसिह ने अपनी डायरी में उतारे, वे अत्यन्त रोचक हैं। कहना न होगा कि जेल के हालात में वह कोई सुव्यवस्थित अध्ययन नहीं कर सकते थे, उनके लिए तो बाहर से किताबें पाना तक मुश्किल था। उनके नोट पढ़ते हुए एक बात की ओर ध्यान जाता है: उन्होंने ठेठ भारतीय समस्याओं की ओर कहीं कम ध्यान दिया। केवल कुछेक बार ही लाला लाजपत राय, बिपिनचन्द्र पाल और मदन मोहन मालवीय जैसे स्वतन्त्रता सेनानियों का उल्लेख किया। एक ब्रिटिश लेखक की पुस्तक में से उन्होंने महात्मा गाँधी का केवल एक उद्धरण उतारा। वर्षों तक अंग्रेज़ों द्वारा भारत के शोषण की विधियों का विश्लेषण और औपनिवेशिक राज्यतन्त्र के निरंकुश उपायों का भण्डाफोड़ भारतीय देशभक्तों के अध्ययन का परम्परागत विषय रहा था। भगतसिह ने केवल दो-तीन बार इसका ज़िक्र किया है, शायद यह मानते हुए कि इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, कि औपनिवेशिक दासता से उनके देश को मुक्त कराने की आवश्यकता सबके लिए स्पष्ट और प्रमाणित बात हो गयी है। उस समय उनका ध्यान समाज के विकास की आम समस्याओं में अधिक था, सो वह भारतीय चिन्तकों की अपेक्षा पश्चिमी चिन्तकों की ओर अधिक उन्मुख हुए। जहाँ उनके पूर्ववर्ती – राष्ट्रीय क्रान्तिकारी – भारत को ही विश्व के अन्तरविरोधों का केन्द्र मानते थे, वहीं भगतसिह संकीर्ण राष्ट्रीयतावादी पूर्वाग्रहों से पूरी तरह ऊपर उठ गये थे और यह मानते थे कि भारत की समस्याएँ विश्व के विकास की परिधि में ही हल की जा सकती हैं।

जिन लेखकों के उद्धरण भगतसिह ने अपनी डायरी में उतारे, उनके प्रति उनके रुख में पूरी सुसंगति है। शुरू में वह 18वीं सदी की अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रान्तियों तथा विचारकों के प्रति भारतीय क्रान्तिकारियों का परम्परागत लगाव दर्शाते हैं। उन्होंने रूसो[7], टॉमस पेन[8], टॉमस जैफरसन और पैट्रिक हेनरी[9] के स्वतन्त्रता तथा मानव के जन्मसिद्ध अधिकारों पर विचार नोट किये। पृष्ठ 16 पर उन्होंने पैट्रिक हैनरी का निम्न भावपूर्ण कथन नोट किया: “क्‍या ज़िन्दगी इतनी प्यारी और चैन इतना मीठा है कि बेड़ियों और दासता की क़ीमत पर उन्हें ख़रीदा जाये। क्षमा करो, सर्वशक्तिमान प्रभु! मैं नहीं जानता कि वे क्या रास्ता अपनायेंगे, मुझे तो बसः ‘स्वतन्त्रता या मौत’ दो।”

तानाशाही की भर्त्सना करने के लिए भगतसिह दर्शन की रचनाओं का ही नहीं, ललित साहित्य का भी सहारा लेते हैं। मार्क ट्वेन के निम्न शब्द उन्होंने अपनी डायरी में उतारे: “हम इस बात को भयानक मानते हैं कि लोगों की गरदनें उड़ायी जाती हैं, लेकिन हमें यह देखना नहीं सिखाया गया है कि ज़िन्दगीभर लम्बी वह मौत कितनी भयानक है, जो ग़रीबी और तानाशाही पूरी आबादी पर लादती है।”

पूँजीवादी विकास के नियमों को समझने के भगतसिह के प्रयासों को प्रदर्शित करती भी बहुत सारी सामग्री है। उन्होंने इस विषय को गम्भीरता से लिया और सांख्यिक सामग्रियों का अध्ययन किया। ज्वलन्त सामाजिक अन्तरविरोधों को दिखाते आँकड़ों की ओर उन्होंने सबसे पहले ध्यान दिया। विभिन्न लेखकों से जो उद्धरण उन्होंने लिये, वे संक्षिप्त, किन्तु प्रभावोत्पादक हैं। उदाहरण के लिए, वह लिखते हैं कि ब्रिटेन की आबादी का नौवाँ हिस्सा वहाँ के आधे उत्पाद को हथियाता है और इस उत्पाद का केवल सातवाँ हिस्सा दो तिहाई आबादी के हिस्से में आता है; कि अमेरिका की आबादी का एक प्रतिशत से कम अंश वह धनिक वर्ग है, जिसके पास 67 अरब डालर तक की सम्पत्ति है, जबकि 70 प्रतिशत आबादी सर्वहाराओं की है, जो राष्ट्रीय उत्पाद के केवल चार प्रतिशत पर दावा कर सकती है।

बहुत से उद्धरण यह दिखाते हैं कि श्रमिकों के प्रति उनके मन में गहरी सद्भावना थी और पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति उनका रुख आलोचनात्मक था। उदाहरणतः, फूरिये का एक उद्धरण उन्होंने नोट किया और उसका शीर्षक रखा: ‘सबके ख़िलाफ़ अकेला’: “वर्तमान सामाजिक व्यवस्था एक बेहूदा कार्यतन्त्र है, जिसमें समग्र के अंश एक-दूसरे के विपरीत हैं और समग्र के ख़िलाफ़ काम करते हैं। हम देखते हैं कि समाज में प्रत्येक वर्ग अपने स्वार्थ के कारण दूसरे वर्गों का अहित चाहता है, हर तरह से व्यक्तिगत हित को जन कल्याण के ख़िलाफ़ रखता है” (और आगे यह लिखते हैं कि डॉक्टर का स्वार्थ यह है कि समाज में ज़्यादा से ज़्यादा रोग हों, वकील ज़्यादा से ज़्यादा मुक़दमे चाहता है, वास्तुकार और बढ़ई चाहते हैं कि मकान जलें, इत्यादि)। इसी भावना में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जापानी विद्यार्थियों के समक्ष उस भाषण का उद्धरण है, जिसमें ठाकुर ने जापान में पैसे के पीछे दौड़ को “मानवजाति के लिए भयानक ख़तरा” बताया, जो “शक्ति के आदर्श को परिष्कार के ऊपर रखती है”।

ये सभी उद्धरण दिखाते हैं कि भगतसिह पूँजीवाद को अस्वीकार करते हैं। इसीलिए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला: “सवाल यह नहीं है कि वर्तमान सभ्यता को बदला जाना चाहिए या नहीं, बल्कि यह कि उसे कैसे बदला जायेगा।”

भगतसिह ने पूँजीवाद की आलोचना सामाजिक और राजकीय, दोनों व्यवस्थाओं के प्रसंग में की। पृष्ठ 46 पर लेनिन का नाम पहली बार आया है। यहाँ भगतसिह ने अमेरिकी समाजवादी मॉरिस हिलक्विट की पुस्तक ‘मार्क्स से लेनिन तक’ से बुर्जुआ लोकतन्त्र के सीमित स्वरूप पर उद्धरण लिया: “पूँजीवाद में लोकतन्त्र एक सार्विक अमूर्त लोकतन्त्र नहीं था, बल्कि विशिष्ट बुर्जुआ लोकतन्त्र, या जैसाकि लेनिन ने इसे कहा था, बुर्जुआ वर्ग के लिए लोकतन्त्र।” आगे वह लिखते हैं: “लोकतन्त्र सिद्धान्ततः राजनीतिक और क़ानूनी समानता की व्यवस्था है, किन्तु ठोस और व्यावहारिक रूप में यह झूठ है, क्योंकि जब तक आर्थिक सत्ता में भारी असमानता है, तब तक कोई समानता नहीं हो सकती, न राजनीति में और न ही क़ानून के सामने।…पूँजीवादी शासन में लोकतन्त्र की सारी मशीनरी शासक अल्पमत को श्रमिक बहुमत की यातनाओं के जरिये सत्ता में बनाये रखने के लिए काम करती है।”

भगतसिह ने बुर्जुआ व्यवस्था की विचारधारात्मक संरचना की ओर भी ध्यान दिया और इस सिलसिले में बुर्जुआ समाज में धर्म की भूमिका में रुचि ली। अपने लिए वह धर्म का प्रश्न हल कर चुके थे, इस समय तक वह एक पक्के निरीश्वरवादी बन चुके थे। लेकिन उन्होंने भारतीय समाज में धर्म की भूमिका और स्थान को तथा अपने साथियों, राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की विचारधारा पर इसके प्रभाव को समझना चाहा।

‘धर्म – स्थापित व्यवस्था का समर्थक: ‘दासता’ शीर्षक से उन्होंने अमेरिका के प्रेसबिटेरियन चर्च की महासभा (1835) के प्रस्ताव का यह उद्धरण नोट किया कि “दासता को बाइबिल के पुराने और नये धर्मग्रन्थों में मान्यता प्राप्त है और ईश्वर की सत्ता उसकी निन्दा नहीं करती।” भगतसिह आगे लिखते हैं कि उसी वर्ष चार्ल्सटन बैपटिस्ट एसोसिएशन ने “अपने दासों के समय का उपयोग करने के मालिकों के अधिकार” की पुष्टि की। इस सिलसिले में भगतसिह ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धर्म ने “पूँजीवाद का समर्थन” किया है।

धर्म की उत्पत्ति के कारणों और उसके मर्म को समझने की चेष्टा में वह मार्क्स की ओर उन्मुख हुए। पृष्ठ 40 पर हम मार्क्स की रचना ‘हेगेल के न्याय-दर्शन की समालोचना का प्रयास’ से ‘धर्म के बारे में मार्क्स के विचार’ शीर्षक का एक उद्धरण पाते हैं: “…मनुष्य धर्म की रचना करता है, धर्म मनुष्य की रचना नहीं करता।…मनुष्य का अर्थ है मनुष्य का संसार, राज्य, समाज। यह राज्य, यह समाज धर्म को, एक विकृत विश्वदृष्टिकोण को जन्म देते हैं, क्योंकि वे स्वयं एक विकृत संसार हैं। धर्म इस संसार का सामान्य सिद्धान्त, उसका सार-संग्रह, सुबोध रूप में उसका तर्क है।…धर्म के विरुद्ध संघर्ष परोक्ष रूप से उस संसार के विरुद्ध संघर्ष है, जिसका आध्यात्मिक सन्तोष धर्म है।– धर्म जनता के लिए अफ़ीम है।” उल्लेखनीय है कि पृष्ठ 192 पर भगतसिह ने अन्तिम वाक्य दोहराया है।

सो, अपने नोटों में भगतसिह ने पूँजीवाद के उन्मूलन के पक्ष में ठोस तर्क पेश किये। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के संस्थापकों की भाँति वह भी यही मानते थे कि भावी समाज केवल समाजवादी समाज ही हो सकता है। उनके नोटों में भावी समाज का कोई विस्तृत विवरण तो नहीं है, किन्तु कुछ विचार यह दिखाते हैं कि वह समाजवाद की धारणा का वैज्ञानिक अर्थ लगाते थे। उन्होंने भावी समाज के दक्षिणपन्थी सामाजिक-जनवादियों के आदर्श को अस्वीकार किया तथा पूँजीवाद के स्थान पर समाजवाद लाने की समस्या के प्रति सामाजिक-सुधारवादी रुख को भी। उन्होंने पश्चिम के दक्षिणपन्थी समाजवादियों की भर्त्सना की और आर. मैकडोनाल्ड को “ब्रिटिश लेबर पार्टी का साम्राज्यवादी नेता” कहा (पृष्ठ 13)। पृष्ठ 52 पर दूसरे इण्टरनेशनल के नेताओं द्वारा मज़दूर वर्ग के ध्येय से की गयी ग़द्दारी के बारे में हिलक्विट की पुस्तक से एक उद्धरण है।

जेल में वह पूरी तरह पूँजीवादी व्यवस्था का तख़्ता पलटने तथा सारी मानवजाति के हित में अर्थव्यवस्था और सारी प्राकृतिक सम्पदा पर नियन्त्रण स्थापित करने की ओर लक्षित विश्व समाजवादी क्रान्ति के विचार में तल्लीन रहे। पृष्ठ 190 पर उन्होंने लिखा: “समाजवादी व्यवस्था: प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार।” भगतसिह समाजवाद में संक्रमण को सर्वहारा के संघर्ष के साथ जोड़ते थे, जो भावी समाज में शासक वर्ग बनेगा। पृष्ठ 69 पर ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र’ का एक उद्धरण है:

“…मज़दूर वर्ग की क्रान्ति का पहला क़दम सर्वहारा वर्ग को उठाकर शासक वर्ग के आसन पर बैठाना और जनवाद के लिए होने वाली लड़ाई को जीतना है।

“सर्वहारा वर्ग अपना राजनीतिक प्रभुत्व पूँजीपति वर्ग से धीरे-धीरे कर सारी पूँजी छीनने के लिए, उत्पादन के सारे औज़ारों को राज्य, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग, के हाथों में केन्द्रीकृत करने के लिए तथा समग्र उत्पादक शक्तियों में यथाशीघ्र वृद्धि के लिए इस्तेमाल करेगा।”[10]

भगतसिह ने यह भी इंगित किया कि यदि सर्वहारा का पथप्रदर्शन उसका हरावल दस्ता, उसकी पार्टी, जो सर्वहारा क्रान्ति का अनिवार्य उपकरण है, न कर रही हो, तो कोई क्रान्ति नहीं हो सकती। उन्होंने सर्वहारा गीत ‘इण्टरनेशनल’ के शब्द अपनी डायरी में उतारे।

यह तर्कसंगत ही था कि भगतसिह क्रान्ति के आरम्भ के नाते सशस्त्र विद्रोह के प्रश्न पर पहुँचे। ऐसा विद्रोह भारतीय क्रान्तिकारियों की अनेक पीढ़ियों का लक्ष्य रहा था, परन्तु वे इसे ला पाने में सफल नहीं रहे थे। यही कारण है कि भगतसिह ने इस विषय पर मार्क्सवादी रचनाओं में ख़ास दिलचस्पी ली। उन्होंने एंगेल्स की रचना ‘जर्मनी में क्रान्ति तथा प्रतिक्रान्ति’ से लम्बे उद्धरण उतारे, हालाँकि ऐसा उन्होंने मूल रचना से नहीं, बल्कि एक अन्य पुस्तक से किया था और इसीलिए वह इस भ्रम में रहे कि वह मार्क्स को उद्धृत कर रहे हैं: “पहली चीज़ – विद्रोह से तब तक खिलवाड़ न करें, जब तक आप उस खेल के परिणामों का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होते। विद्रोह तो एक ऐसा कलन है, जिसके परिमाण सर्वथा अनिश्चित होते हैं, जिनका मूल्य रोज़ बदल सकता है। मुक़ाबले में खड़ी शक्तियों को संगठन, अनुशासन तथा परम्परागत प्रतिष्ठा के सारे लाभ उपलब्ध होते हैं। यदि विद्रोही अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ और बड़ी ताक़त मैदान में नहीं उतारेंगे, तो वे हार जायेंगे और बरबाद हो जायेंगे। दूसरी चीज़ – एक बार विद्रोह शुरू होने पर अधिकतम दृढ़संकल्प के साथ काम करने तथा प्रहार करने की ज़रूरत होती है। प्रतिरक्षा की स्थिति प्रत्येक सशस्त्र विद्रोह की मौत हुआ करती है; अपने शत्रु से मुक़ाबला होने से पहले ही मैदान हाथ से निकल जाता है।”[11]

इस उद्धरण में प्रत्येक शब्द विद्रोह के प्रश्न पर भगतसिह के साथियों के सतही रुख के ख़िलाफ़ तथा कुछ हद तक क्रान्तिकारी गतिविधियों के आरम्भ में स्वयं भगतसिह के दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ चेतावनी देता है।

काफ़ी लम्बे समय तक भारतीय क्रान्तिकारियों ने न तो भावी स्वतन्त्र भारत में सत्ता के स्वरूप पर और न ही उसकी सरकार की सामाजिक-आर्थिक नीति के प्रश्न पर विचार किया। वे यह सोचते थे कि स्वतन्त्रता ही एक “रामबाण” होगी। मार्क्सवादी साहित्य से प्रभावित होकर भगतसिह ने इन सभी प्रश्नों में गहरी दिलचस्पी ली। उनके कुछ नोट यह दिखाते हैं कि उन्होंने सर्वहारा अधिनायकत्व के विचार को स्वीकार कर लिया था। शुरू में उन्होंने एंगेल्स का यह कथन नोट किया कि विजयी सर्वहारा को वर्ग-शत्रु को कुचलने के लिए अधिनायकत्व की ज़रूरत है और इसलिए एक “स्‍वतन्त्र लोक राज्य” की बात करना बेतुका है (पृष्ठ 62)। इसके आगे उन्होंने लेनिन की परिभाषा जोड़ी: “अधिनायकत्व प्रत्यक्ष रूप से हिंसा पर आधारित और किसी भी क़ानून से न बँधी हुई सत्ता है।

“सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी अधिनायकत्व सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध हिंसा द्वारा हासिल की जाने वाली और बरक़रार रखी जाने वाली सत्ता है, किसी भी क़ानून से न बँधी हुई सत्ता है।”[12]

भगतसिह के नोटों में सर्वहारा अधिनायकत्व के सार पर संशोधनवादी रुखों की आलोचना हम पाते हैं। उन्होंने लेनिन की रचना ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की’ से लम्बे उद्धरण उतारे और लेनिन के इस विचार पर ख़ास ध्यान दिया कि बुर्जुआ निन्दक “शुद्ध लोकतन्त्र” के नारे का सहारा लेकर सोवियत सरकार पर अत्याचार का आरोप लगाते हैं: “परन्तु अब चूँकि श्रमिक तथा शोषित वर्गों ने साम्राज्यवादी युद्ध के कारण विदेशों के अपने भाइयों से कटे रहकर भी इतिहास में पहली बार स्वयं अपनी सोवियतों की स्थापना कर ली है, उन जन समूहों को राजनीतिक निर्माण के काम में जुटा दिया है, जिनका बुर्जुआ वर्ग उत्पीड़न करता था, जिन्हें वह कुचलता था और जिन्हें मतिमूढ़ बनाता था, अब चूँकि उन्होंने स्वयं एक नये, सर्वहारा राज्य का निर्माण करना आरम्भ कर दिया है, भीषण संघर्ष की ज्वाला के बीच, गृहयुद्ध की ज्वाला के बीच शोषकों से मुक्त राज्य के बुनियादी सिद्धान्तों की रूपरेखा तैयार करनी शुरू कर दी है – इसलिए सारे लुच्चे बुर्जुआ जन, ख़ून चूसने वालों का पूरा गिरोह ‘मनमानेपन’ का शोर मचाने लगा है और काउत्स्की भी उन्हीं के स्वर को प्रतिध्वनित कर रहे हैं!”[13]

सर्वहारा अधिनायकत्व को नये समाज के निर्माण का उपकरण मानते हुए भगतसिह ने ऐसे समाज की स्थापना के पथों की ओर बहुत ध्यान दिया। इस सिलसिले में वह सोवियत रूस के अनुभव और वहाँ कुछ समय पहले हुए क्रान्तिकारी पुनर्गठन की ओर निरन्तर उन्मुख होने लगे। डायरी के पृष्ठ 36 पर पहली बार “बोल्शेविक रूस” का ज़िक्र आया है। इसके आगे हाशियों पर विभिन्न लेखकों द्वारा रूस पर लिखी गयी पुस्तकों की सूची है: रेने फुलोप-मिलर की ‘बोल्शेविज़्म का चेहरा और दिमाग़’, एम. ओ’हारा की ‘रशिया’, लैंसलो लोटन की ‘रूसी क्रान्ति’, एण्टन कार्लग्रीन की ‘बोल्शेविक रूस’ और ‘मार्क्स, लेनिन तथा क्रान्ति का विज्ञान’ (पृष्ठ 191)। इस सूची में रूस पर वे सभी पुस्तकें नहीं हैं, जिनमें भगतसिह ने जेल में दिलचस्पी दिखायी थी। जे. सान्याल के अनुसार भगतसिह ने जॉन रीड की ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’, गोर्की की ‘माँ’ और स. स्तेप्न्याक-क्राव्चींस्की की ‘रूसी लोकतन्त्र का जन्म’ भी पढ़ी थीं।[14]

जे. सान्याल आगे लिखते हैं: “हालाँकि समाजवाद उनका विशेष विषय था, तथापि उन्होंने 19वीं सदी के आरम्भ में रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन की उत्पत्ति से लेकर 1917 की अक्टूबर क्रान्ति तक उसके इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। यह माना जाता है कि भारत में बहुत कम लोग ऐसे थे, जिनके इस विषय पर ज्ञान की तुलना भगतसिह के ज्ञान की जा सकती है। बोल्शेविक शासन में रूस में हो रहे आर्थिक प्रयोग में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी।”[15]

भगतसिह यह समझते थे कि समाजवादी क्रान्ति के सम्मुख विराट सृजनात्मक कार्यभार हैं जो इसे बुर्जुआ क्रान्ति से अलग करते हैं। निम्न उद्धरण में इस भेद पर ज़ोर दिया गया है: “बुर्जुआ क्रान्ति आमतौर पर सत्ता पाने के साथ समाप्त हो जाती है। सर्वहारा क्रान्ति के लिए सत्ता पाना एक शुरुआत ही है; सत्ता पा लेने पर उसका उपयोग पुरानी अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने और नयी अर्थव्यवस्था गठित करने के लिए किया जाता है।” (पृष्ठ 120)

क्रान्ति के मार्क्सवादी सिद्धान्त का स्वयं ही स्वतन्त्र रूप में अध्ययन करते हुए भगतसिह ने उसके सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व पहचाने। उन्होंने पुरानी राजकीय मशीनरी को तोड़ने और नयी मशीनरी बनाने की आवश्यकता पर लेनिन के विचार नोट किये और यह इंगित किया कि आन्तरिक कार्यों के अलावा समाजवादी क्रान्ति के सामने अन्तरराष्ट्रीय कार्यभार भी होते हैं, क्योंकि विश्व क्रान्ति के बिना किसी एक देश में कम्युनिस्ट शासन ख़तरे से मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवादी हस्तक्षेप का ख़तरा उसके सिर पर सदा मँडराता रहेगा (पृष्ठ 120)।

भारतीय क्रान्तिकारी हरावल के, जिसका जनसाधारण के साथ पहले कोई सम्पर्क नहीं रहा, प्रतिनिधि के नाते भगतसिह द्वारा लेनिन के इस विचार को स्वीकार किया जाना एक बहुत बड़ी बात थी कि जनता पर पार्टी का प्रभाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। पृष्ठ 121 पर उनके नोट लेनिन के इस विचार को प्रतिबिम्बित करते हैं कि सर्वहारा को आबादी के बड़े भाग को अपने पक्ष में लाना होता है और साथ ही वर्ग-सहयोग की वकालत करने वाले बुर्जुआ और टुटपुँजिया तत्त्वों के श्रमिकों पर प्रभाव को मिटाना होता है।

इस तरह हम देखते हैं कि जेल में थोड़े समय में ही भगतसिह ने मार्क्सवादी शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्तों को समझ लिया और आत्मसात कर लिया। उनके जीवन का ऐसे क्षण में त्रासद अन्त हो गया, जबकि वह मार्क्सवाद के ज्ञान का उपयोग करने के लिए तैयार हो गये थे।

परन्तु जेल में उन्होंने जो भगीरथ परिश्रम किया, वह निरर्थक नहीं था। भगतसिह ने स्वयं जो कुछ जाना-समझा, उसे उन्होंने अपने मित्रों और साथियों तक पहुँचाने की कोशिश की, यह समझते हुए कि भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास के लिए मार्क्सवादी सिद्धान्त कितना महत्त्वपूर्ण है। यह कोई संयोग की बात नहीं कि अपने एक पत्र में उन्होंने अपने को एक स्वतन्त्रता सेनानी नहीं, समाजवादी विचारों का प्रचारक कहा।[16]

जेल में भगतसिह ने अपने क्रान्तिकारी साथियों के साथ ही नहीं, बल्कि ग़दर पार्टी के बहुत से सदस्यों के साथ भी सम्पर्क स्थापित किये, जो प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों से जेल में बन्द थे। राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की समस्याओं पर उन्होंने ग़दर पार्टी वालों से लम्बी बातें कीं। जी. देवल ने ग़दर पार्टी के सदस्यों के साथ भगतसिह के सम्बन्धों के बारे में एक लेख लिखा है।[17] जेल में वह ग़दर पार्टी के एक नेता सोहन सिह भकना से मिले, जो कालान्तर में भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक प्रमुख नेता बने।[18]

भगतसिह अपने साथियों को सलाह देते थे कि वे मार्क्सवाद का अध्ययन करें। उदाहरण के लिए, उन्होंने मार्क्स की ‘पूँजी’ के अध्ययन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। जयदेव प्रसाद गुप्त को 24 जुलाई, 1930 को लिखे पत्र में उन्होंने अपने लिए किताबें मँगवायी थीं और कहा था कि अपने साथियों के लिए किताबों की सूची पहले भेज चुके हैं और विनती की थी कि उनका यह अनुरोध जल्दी पूरा किया जाये, क्योंकि उन्हें किताबों की सख़्त तंगी है।[19]

इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि जो साथी सौभाग्यवश जेल जाने से बच गये, उनके साथ भी भगतसिह ने सम्पर्क बनाये रखे। अपनी कालकोठरी से भी वह 1929 में लाहौर में हुई नौजवान भारत सभा की कांग्रेस को एक महत्त्वपूर्ण सन्देश भेजने में सफल रहे। अपनी क्रान्तिकारी पुस्तिकाओं की, जिनमें ‘बम का दर्शन’ भी था, पाण्डुलिपियाँ उन्होंने जेल से बाहर भिजवा दीं। फाँसी पर चढ़ने से कुछ दिन पहले ही उन्होंने युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपनी घोषणा लिखी और बाहर भिजवायी, जिसे उनकी अन्तिम इच्छा और वसीयतनामा कहा जा सकता है।[20]

जेल में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं: ‘आत्मकथा’, ‘समाजवाद का आदर्श’ और ‘भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन’। दुर्भाग्यवश, इन पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ नहीं बची रहीं, हालाँकि उनके व्यक्तिगत और राजनीतिक पत्र बचे रहे। इन पत्रों से भगतसिह के इस आत्ममूल्यांकन की पुष्टि होती है कि वह समाजवादी विचारों का प्रचारक हैं और इस बात की भी कि उन्होंने अपने साथियों की मार्क्सवादी रुख अपनाने में मदद करने की कोशिश की।

सुखदेव को, जिन्हें भगतसिह के साथ ही फाँसी दी गयी, उनका एक पत्र प्रकाशित हुआ है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि भगतसिह इस सच्चाई को समझने लगे थे कि भारत में व्याप्त परिस्थितियों में समाजवाद एक तर्कसंगत रास्ता है। इससे यह भी पता चलता है कि भगतसिह भारत के सामाजिक जीवन पर अपने प्रभाव को समझते थे।

उन्होंने लिखा कि अपने साथियों के साथ उन्होंने (राजनीतिक) वातावरण को काफ़ी बदला और वे अपने समय की पैदाइश थे। मार्क्स का हवाला देते हुए, जिन्होंने, भगतसिह के शब्दों में, औद्योगिक क्रान्ति से जन्मी विचारधारा को निरूपित किया, उन्होंने लिखा कि उन्होंने और उनके साथियों ने भारत में समाजवादी और कम्युनिस्ट विचारों की रचना नहीं की है, वे तो काल और परिस्थितियों के प्रभाव का परिणाम हैं। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने यथाशक्ति इन विचारों का प्रचार करने में मदद की है।[21]

भगतसिह अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक मार्क्सवादी विचारों का प्रचार करते रहे। ‘बम का दर्शन’ पुस्तिका में उन्होंने वर्ग रहित समाज और सर्वहारा अधिनायकत्व का समर्थन किया।[22] फाँसी की सज़ा सुनायी जा चुकने के बाद पंजाब के गवर्नर को भेजे एक पत्र में भगतसिह ने लिखा कि भारत में मेहनतकश जनसाधारण और उनके उत्पीड़कों के बीच लम्बा संघर्ष चल रहा है, कि यह संघर्ष दुगने उत्साह, साहस और अटूट संकल्प के साथ तब तक चलता रहेगा, जब तक कि एक समाजवादी गणतन्त्र की स्थापना नहीं हो जाती, वर्तमान व्यवस्था का स्थान एक नयी व्यवस्था नहीं ले लेती, जिसका उद्देश्य जन कल्याण होगा और जिसमें हर तरह के शोषण का अन्त हो जायेगा और मानवजाति सच्ची और विश्वव्यापी शान्ति के युग में पदार्पण करेगी। (इस पत्र की एक नक़ल मुझे भगतसिह के साथी विजय कुमार सिन्हा ने दी।)

भारत की स्वतन्त्रता के अदम्य सेनानी भगतसिह ने अपना तन-मन देश की आज़ादी के संघर्ष की समस्याओं में तथा राष्ट्रीय क्रान्तिकारी संगठनों को सृदृढ़ करने में लगाया। व्यक्तिगत आतंक की नीति से उन्होंने पूरी तरह इन्कार कर दिया। उन्होंने सारी पेचीदगियों, अप्रत्याशित मोड़ों और उतार-चढ़ावों के साथ राजनीतिक संघर्ष के महत्त्व को स्वीकार किया और वह इस बात के लिए उत्सुक थे कि उनके जो साथी जेल जाने से बच गये हैं, वे ठीक ऐसे संघर्ष में जुटें। 2 फ़रवरी, 1931 के अपने पत्र में साथियों को यह सलाह देते हुए उन्होंने लेनिन के अनुभव को ध्यान में रखा। इससे पता चलता है कि उन्होंने तत्कालीन भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए लाक्षणिक बहुत से “वामपन्थी” दृष्टिकोणों से छुटकारा पा लिया था। उन्हें इस बात का क़ायल करने के लिए कि संघर्ष की कुछ मंज़िलों में शत्रु के साथ बातचीत की जा सकती है, उन्होंने लिखा कि समझौता अपनेआप में कोई बुरी बात नहीं है और अपना उद्देश्य पाने में आरम्भ में उसका उपयोग किया जा सकता है। 1905-1907 में दूमा के प्रति लेनिन की नीति का हवाला देते हुए उन्होंने लिखा कि “समझौता” एक ऐसा हथियार है, जिसका राजनीतिक संघर्ष में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, ताकि राष्ट्र को थोड़ी देर के लिए आराम मिल सके और वह अपने को आगे के संघर्ष के लिए तैयार कर सके। भगतसिह ने क्रान्तिकारियों का आह्वान किया कि वे अपने अन्तिम लक्ष्य को कभी न भूलें।

मई, 1931 में यह पत्र भारतीय प्रेस में छप गया था। इसे प्रकाशित करने वालों में इलाहाबाद का साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ और पंजाब का ‘केसरी’ था।[23] इस तरह भारतीय जनता इससे अवगत हो पायी और इसने वह प्रयोजन पूरा किया, जिसके लिए लेखक ने इसे लिखा था।

भगतसिह की अप्रकाशित रचनाओं में वह भूमिका ध्यान देने योग्य है, जो उन्होंने ग़दर पार्टी के लाला रामशरण की यूटोपियाई रचना ‘स्वप्नलोक’ (ड्रीमलैण्ड) के लिए 15 जनवरी, 1931 को लिखी थी। यह पुस्तक तो नहीं छपी, लेकिन इसकी भूमिका भगतसिह के परिवारवालों ने सँभालकर रखी हुई है।[24] इस भूमिका की अन्तर्वस्तु पुस्तक के विषय से कहीं अधिक व्यापक है: भगतसिह ने घनीभूत रूप में अपने विचार व्यक्त करने के लिए तथा अपने साथियों को सलाह देने के लिए इस अवसर का लाभ उठाया।

भूमिका इस कथन से आरम्भ होती है कि भारत के राजनीतिक आन्दोलन का कोई सुस्पष्ट आदर्श नहीं है और इस दृष्टि से क्रान्तिकारी आन्दोलन भी कोई अपवाद नहीं है। केवल ग़दर पार्टी ने ही अपना आदर्श स्पष्टतः निरूपित किया था: शासन के गणतन्त्रीय रूप का समर्थन किया था। भगतसिह ने लिखा कि यह साफ़-साफ़ समझना चाहिए कि क्रान्ति का अर्थ उथल-पुथल या ख़ूनी युद्धमात्र नहीं है। क्रान्ति का आशय अनिवार्यतः एक ऐसे कार्यक्रम को लागू करना है, जो नये तथा अधिक अच्छे आधार पर समाज का पुनर्गठन करे। उन्होंने कहा कि न केवल वामपन्थी कांग्रेसी, बल्कि राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रतिनिधि भी “क्रान्तिकारी” कहलाने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि संघर्ष के उग्र उपायों को मानना ही इसके लिए पर्याप्त नहीं है।

लाला रामशरण की पुस्तक की चर्चा करते हुए भगतसिह ने लिखा कि लेखक उस दर्शन के विवेचन से शुरू करता है, जिसे वह बंगाल और पंजाब के सारे क्रान्तिकारी आन्दोलन का आधार मानता है। उन्होंने कहा कि वह लेखक से सहमत नहीं है, क्योंकि लेखक संसार की प्रयोजनपरक और अधिभूतवादी व्याख्या करता है, जबकि वह स्वयं भौतिकवादी हैं। उन्होंने ईश्वर में विश्वास और रहस्यवाद के लिए लेखक की आलोचना की, अलग-अलग धर्मों में सामंजस्य बिठाने के लेखक के प्रयासों को अस्वीकार किया और इस प्रश्न पर अपना रुख मार्क्स के शब्दों में व्यक्त किया: “धर्म जनता के लिए अफ़ीम है।”

लेखक द्वारा चित्रित भावी समाज का विश्लेषण करते हुए भगतसिह ने सामाजिक प्रगति में यूटोपियाई सिद्धान्तों की उपयोगी भूमिका को स्वीकार किया: “सेंट-सिमों, फूरिये और राबर्ट ओवेन और उनके सिद्धान्तों के बिना मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद निरूपित नहीं हो सकता था।” उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भावी समाज कम्युनिस्ट समाज होगा, जिसके निर्माण के लिए वह और उनके साथी प्रयत्नशील हैं। एकाधिक बार वह सोवियत रूस के इतिहास की ओर उन्मुख हुए, शारीरिक और बौद्धिक श्रम के लिए समान पारिश्रमिक तथा जन शिक्षा के क्षेत्र में उसकी नीति का उदाहरण दिया। भावी समाज में युद्धों के उन्मूलन की भविष्यवाणी करते हुए उन्होंने लिखा कि सोवियत रूस को सर्वहारा अधिनायकत्व का देश होने के कारण पूँजीवादी समाज से अपनी रक्षा के लिए फ़ौज रखनी पड़ रही है।

भगतसिह की जेल की डायरी और दूसरी सामग्रियाँ, जिन पर यहाँ ग़ौर किया गया है, इस युवा क्रान्तिकारी के दृष्टिकोण का विकास दिखाती हैं। साथ ही वे इस लिहाज़ से भी अमूल्य हैं कि इनमें हमें भगतसिह की विचारधारात्मक खोजों का पता चलता है, हम देखते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों का मार्क्सवाद की ओर रुझान था और वे लेनिन तथा अक्टूबर क्रान्ति के विचारों से प्रभावित हुए थे।

भगतसिह तत्कालीन मध्यवर्गीय नौजवानों की, जो कांग्रेस के बुर्जुआ नेताओं से निराश थे, भावनाओं का मूर्त रूप हैं। इन नौजवानों को भगतसिह ने यह दिखाया कि उन्हें कौन.सा रास्ता पकड़ना चाहिए। जब इस क्रान्तिकारी को फाँसी दे दी गयी, तो उनके उदाहरण का अनुसरण करते हुए क्रान्तिकारी दलों ने जेल में ही मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए पाठ्यक्रमों का प्रबन्ध किया।

सोवियत संघ में हो रहे क्रान्तिकारी कायाकल्प तथा पार्टी कार्यकर्ताओं को शिक्षित करने की उसकी विचारधारात्मक और राजनीतिक प्रणाली से भगतसिह बहुत आकर्षित हुए। वह अक्टूबर क्रान्ति के अनुभव का प्रत्यक्ष अध्ययन करना चाहते थे और उन्होंने अपने साथियों से ऐसे योग्य उम्मीदवार चुनने को भी कहा, जिन्हें इस उद्देश्य से मास्को भेजा जा सके।

सुविख्यात स्वतन्त्रता सेनानी बाबा पृथ्वी सिह आज़ाद ने ‘लेनिन की धरती में’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है:

“उन दिनों भगतसिह जेल में मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अध्ययन कर रहे थे और उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि को एक नया, अधिक परिपक्व आयाम प्राप्त हो रहा था। वह भारत की स्वतन्त्रता तथा जनसाधारण की शोषण से मुक्ति की समस्या पर अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में पुनर्विचार कर रहे थे। वह भली भाँति जानते थे कि उन्हें फाँसी होगी। परन्तु शहीद होने से पहले वह आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन उस नयी अवस्था में पदार्पण कर ले, जिसकी कल्पना उन्होंने मार्क्सवादी सिद्धान्तों और सोवियत क्रान्ति के अध्ययन के आधार पर की थी।”

आगे वह लिखते हैं: “चन्द्रशेखर और धन्वन्तरि ने मुझसे कहा: सरदार भगतसिह जेल में मार्क्स और लेनिन के कम्युनिस्ट दर्शन का गहरा अध्ययन करते रहे थे और अपने साथियों को भी इसकी प्रेरणा देते रहे थे।…उन्होंने ही तुमसे मिलने और तुम्हें इण्डियन सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का सदस्य बनाकर सोवियत संघ में अध्ययन के लिए भेजने को कहा था।”[25]

गिरफ्तारी से पहले भगतसिह ख़ुद भी सोवियत संघ जाकर समाजवाद के देश को अपनी आँखों से देखना चाहते थे। ‘सोवियत संघ में नव मानव’ पुस्तक में विजय कुमार सिन्हा लिखते हैं:

“उन दिनों ही शौक़त उस्मानी, जो कुछ दूसरे लोगों के साथ तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस में भाग लेने के लिए चोरी-छिपे मास्को जा रहे थे, कानपुर में मुझसे मिले और अपने साथ चलने को कहा।…मैंने भगतसिह से बात की: हमें लगा कि यह उचित समय नहीं है। हमने तय किया कि हम दोनों कुछ समय बाद मास्को जायेंगे।”[26] दुर्भाग्यवश, यह योजना कभी साकार नहीं हो पायी।

कुलबीर सिह ने, जिनकी कृपा से मैं उनके बड़े भाई भगतसिह की जेल डायरी का अध्ययन कर और उसकी नक़ल उतार सका, उनके जीवन तथा कार्यकलाप पर अद्वितीय सामग्री जमा की है, जिसका बारीक़ी से अध्ययन किया जाना चाहिए। उनके विचार में भगतसिह जेल में कूट भाषा में भी एक डायरी रखते थे, जो अभी तक नहीं मिल पायी है।

भगतसिह के दूसरे भाई, कुलतार सिह भी बड़े सौहार्द से मुझसे मिले। उनकी सुपुत्री वीरेन्द्र सिन्धू ने उपरोक्त पुस्तक लिखी है। इसमें वह बताती हैं कि जुलाई, 1929 में दिल्ली में मुक़दमे की सुनवाई में भगतसिह ने कहा था: हम उस ऐतिहासिक निष्कर्ष पर ज़ोर देते हैं, जिस पर हम पहुँचे हैं।…जिस तरह फाँसी के तख़्ते और साइबेरिया की ख़ानों के डर से रूस में क्रान्ति की ज्वाला नहीं बुझी, उसी तरह सरकार के आदेश और “असाधारण” क़ानून भारत में स्वतन्त्रता संग्राम की ज्वाला नहीं बुझा सकते।

21 जनवरी, 1930 को लेनिन की पुण्य तिथि पर भगतसिह और उनके साथी लाल रूमाल गले में बाँधकर अदालत में आये। कटघरे में पहुँचते ही उन्होंने नारे लगाये: “समाजवादी क्रान्ति ज़िन्दाबाद”, “कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल ज़िन्दाबाद”, “लेनिन का नाम अमर है”, “जनता ज़िन्दाबाद”, “साम्राज्यवाद मुर्दाबाद”।

इसके बाद भगतसिह ने वह तार पढ़ा, जो उन्होंने और उनके साथियों ने तीसरे इण्टरनेशनल को भेजने के लिए अदालत को दिया था। इसमें कहा गया था: लेनिन दिवस पर हम उन सब लोगों का हार्दिक अभिवादन करते हैं, जो महान लेनिन के विचारों को आगे ले जाने के लिए प्रयत्नशील हैं। रूस जो महान प्रयोग कर रहा है, उसमें सफलता की कामना हम करते हैं। हम अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हैं। सर्वहारा की जीत होकर रहेगी, पूँजीवाद की हार होगी। साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।

भारत में एक ऐसे व्यक्ति से भी मेरी मुलाक़ात हुई, जो भगतसिह को फाँसी दिये जाने से कुछ घण्टे पहले ही उनसे मिले थे। यह थे प्राणनाथ मेहता, भगतसिह के मित्र और वकील। उन्होंने मुझे बताया:

“उन दिनों मैं डायरी रखता था (अपने काम के लिए भी मुझे इसकी ज़रूरत होती थी)। बदक़िस्मती से 1947 में पार्टिशन के वक़्त मुझे लाहौर छोड़ना पड़ा, मेरे काग़ज़ात वहीं रह गये, कुछ पता नहीं उनका क्या हुआ।

“बहरहाल डायरियाँ तो खो गयी हैं, मगर उन दिनों की घटनाओं ने मेरे दिमाग़ पर इतनी गहरी छाप छोड़ी है कि उसे न वक़्त मिटा सका है, न कोई दूसरी घटनाएँ।…

“23 मार्च, 1931 को मुझे वह किताब मिल गयी, जो भगतसिह ने मँगवायी थी। मैं उससे मिलने गया। जेल के गेट पर मुझे बताया गया कि भगतसिह और उसके दोस्तों ने किसी से भी मिलने से इन्कार कर दिया है। वजह यह थी कि जेल के अधिकारियों ने क़रीबी रिश्तेदारों को छोड़कर और किसी से मिलने पर पाबन्दी लगा दी थी। इसके विरोध में भगतसिह और उसके साथियों ने कहा कि वे किसी से भी नहीं मिलेंगे।

“कुछ करना चाहिए था। मैं जेल के अधिकारियों से मिलने गया। उनमें एक मि- पुरी नेक इन्सान निकला। उसने मुझे सलाह दी कि तीन क़ैदियों के वकील के नाते मैं अर्जी दूँ कि मुझे उनकी आख़िरी इच्छा लिखने के लिए उनसे मिलना है। फिर उसने मुझे भगतसिह की कालकोठरी में ही उससे मिलने की इजाज़त दे दी। थोड़ी देर बाद राजगुरू और सुखदेव को भी वहाँ लाया गया।

“उस वक़्त मुझे यह पता नहीं था कि लाहौर जेल के इन तीन क़ैदियों से यह मेरी आख़िरी मुलाक़ात है, कि दो घण्टे बाद इन्हें फाँसी दे दी जायेगी।

“भगतसिह ने मुझसे पूछा कि मैं किताब लाया हूँ या नहीं। मैंने उसे किताब दी, तो वह बड़ा ख़ुश हुआ। किताब लेते हुए बोला: ‘आज रात को ही इसे ख़त्म कर दूँगा, इससे पहले कि वे…’ उस बेचारे को क्या पता था कि वह किताब आख़िर तक कभी नहीं पढ़ पायेगा।”

मैंने प्राणनाथ मेहता से पूछा कि उन्हें उस किताब का नाम याद है, जो वह भगतसिह के लिए ले गये थे। उनका जवाब था: “सच पूछें, तो मुझे याद नहीं कि यह लेनिन के बारे में किताब थी, या लेनिन की। एक छोटी-सी किताब थी।…अगले दिन जेल के सन्तरी ने मुझे बताया कि जब भगतसिह को लिवाने आये थे, तो वह यह किताब पढ़ रहा था। बाद में भगतसिह मेरे लिए जो चीज़ें छोड़ गये थे, उनके साथ मुझे वह किताब भी मिली।”

“शायद उसी सन्तरी ने,” मेहता ने आगे कहा, “भगतसिह के रिश्तेदारों को उनके अन्तिम क्षणों के बारे में बताया।”

वीरेन्द्र सिन्धू ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि भगतसिह प्राणनाथ मेहता की लायी लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, जब दरवाज़ा खुला। दहलीज पर अफ़सर खड़ा था।

“‘सरदार जी,’ उसने कहा। ‘फाँसी लगाने का हुक्म आ गया है। तैयार हो जाइये।’

“भगतसिह के दायें हाथ में किताब थी, उससे नज़रें उठाये बिना ही उन्होंने बायाँ हाथ उठाकर कहा: ‘ठहरिये। यहाँ एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है।’

“कुछ पंक्तियाँ और पढ़कर उन्होंने किताब एक तरफ़ रख दी और उठ खड़े हुए बोले: ‘चलिए!’”

भगतसिह के क्रान्तिकारी दल में से एक और कर्मठ क्रान्तिकारी निकला, जो आगे चलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बना। यह थे अजय कुमार घोष।

‘भगतसिह और उनके साथी’ नामक पुस्तक में अजय घोष ने लिखा कि भगतसिह भारत के राजनीतिक क्षितिज पर अल्पांश के लिए एक उल्का पिण्ड की तरह चमके और लुप्त होने से पहले वह लाखों लोगों के लिए एक नये भारत की आत्मा और आशाओं का प्रतीक बन गये, उन लोगों के लिए, जिन्हें मृत्यु का डर नहीं था, जो साम्राज्यवादी अंकुश को उतार फेंकने और अपने महान देश में एक स्वतन्त्र राज्य का भवन खड़ा करने के लिए कृतसंकल्प थे।

भगतसिह और उनके साथियों जैसे निडर क्रान्तिकारियों का बलिदान व्यर्थ नहीं था। उनके दल के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मुट्ठीभर नौजवान क्रान्ति नहीं ला सकते, कि बड़े धीरज और परिश्रम के साथ जनसाधारण के बीच काम करना चाहिए, लोगों को संघर्ष के लिए संगठित करना चाहिए, ठोस कार्यनीतियाँ तैयार करना, उन पर अमल करना तथा लोगों को सत्ता के अन्तिम संघर्ष की ओर ले जाना चाहिए।

(1981)

टिप्पणियाँ

1.

[1] अ. व. राइकोव, ‘भगतसिह और उनकी विचारधारात्मक धरोहर’, ‘नरोदी आज़ीइ ई आफ्रीकी’ (‘एशिया और अफ्रीका के जनगण’), अंक 1, 1971 (रूसी में)

[2] ल.व. मित्रोखिन, ‘लेनिन के बारे में भारत’, ‘नाऊका’ (‘विज्ञान’) प्रकाशन, मास्को, 1971, पृष्ठ 124-130 (रूसी में)

[3] M. Windmiller and G.D. Overstreet, Communism in India, Berkley, 1959, p. 240

[4] पूरा पत्र परिशिष्ट में देखें (शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के सम्‍पूर्ण उपलब्‍ध दस्‍तावेज, राहुल फाउण्‍डेशन प्रकाशित)

[5] J. Sanyal, Sardar Bhagat Singh, Lahore, 1930, p. 104 सान्याल की पुस्तक पर औपनिवेशिक अधिकारियों ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। उल्लेखनीय है कि भगतसिह और उनके साथियों के बारे में पुस्तकों, कविताओं और उनकी रक्षा की अपीलों का निषिद्ध साहित्य की सूची में विशेष स्थान था। अमेरिकी शोधकर्ता एन. जेरल्ड बैरियर की पुस्तक में सोलह ऐसे प्रकाशन गिनाये गये हैं (देखें: N. Gerald Barrier, Banned Controversial Literature and Political Control in British India, 1907-1947, pps. 224-225)

[6] टॉमस जैफ़रसन (1743-1828) – अमेरिकी राजनेता, 1801-1809 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति

[7] ज्याँ जाक रूसो (1712-1778) – फ्रांसीसी दार्शनिक और प्रबोधक

[8] टॉमस पेन (1737-1809) – अमेरिकी और ब्रिटिश सामाजिक एवं राजनीतिक नेता, प्रबोधकों के क्रान्तिकारी पक्ष के प्रतिनिधि

[9] पैट्रिक हेनरी (1736-1799) – अमेरिकी राजनीतिज्ञ और वक्ता

[10] कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स, ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र’, 1847-1848 (का. मार्क्स, फ़्रे. एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, तीन खण्डों में, हिन्दी संस्करण, मास्को, प्रगति प्रकाशन, खण्ड 1, भाग 1, 1978, पृष्ठ 152-153)

[11] फ़्रे. एंगेल्स, ‘जर्मनी में क्रान्ति तथा प्रतिक्रान्ति’, 1851-1852 (का. मार्क्स, फ़्रे. एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, तीन खण्डों में, खण्ड 1, भाग 2, 1978, पृष्ठ 103)

[12] व्ला. इ. लेनिन, ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्सकी’, 1918 (व्ला. इ. लेनिन, संकलित रचनाएँ, दस खण्डों में, खण्ड 8, 1984, पृष्ठ 88

[13] व्ला. इ. लेनिन, ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की’, 1918 (व्ला. इ. लेनिन, संकलित रचनाएँ, दस खण्डों में, खण्ड 8, 1984, पृष्ठ 137)

[14] J. Sanyal, Sardar Bhagat Singh, Lahore, 1930, p. 104

[15] J. Sanyal, Sardar Bhagat Singh, Lahore, 1930, p. 103. वीरेन्द्र सिन्धू ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि भगतसिह रूसी क्रान्ति को, उसने जो रास्ते तय किये थे और जो नतीजे हासिल किये थे, उनको समझ पाने के लिए रात दिन प्रयास करते रहे

[16] N. K. Singh, The impact of the Marxist ideas on Indian Revolutionary Movement after the October Revolution, Mitteilgen des Institus fur Orientforschung, BD. XVII, H. 2, 1971, S. 248

[17] G. Deol, The Ghadarites and Shaheed Bhagat Singh, Peoples Path, March 1968

[18] S.S. Josh, Baba Sohan Singh Bhakna, New Delhi, 1970, pp. 61 and 62

[19] Peoples Path, June 1968, p. 17

[20] N. K. Singh, The Impact of the Marxist Ideas on Indian Revolutionary Movement after the October Revolution., p. 247

[21] N. K. Singh, The Impact of the Marxist Ideas on Indian Revolutionary Movement after the October Revolution., p. 71

[22] B. Hardas, Armed Struggle for Freedom, Poona, 1958. pp. 383-389

[23] M. N. Gupta, History of the Indion Revolutionary Movement, Bombay-New Delhi, 1972, p. 132

[24] इस भूमिका का सारांश ‘लिक’ ने 24 अगस्त, 1969 के अंक में छापा था।

[25] Baba Prithvi Singh Azad, In Lenin’s Land, New Delhi, 1978, pp. 29, 32 and 35

[26] Bejoy Kumar Sinha, the New Man in The Soviet Union, Peoples Publishing House, New Delhi, 1971, p. 2

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