अंग्रेज़ी न्यायालय एकदम ख़ाली हो गये थे। ‘मृत्युदण्ड’ घोषित किये रहने पर भी प्रजातान्त्रिक न्यायालय खचाखच भरे रहते थे। देशवासियों का झुकाव प्रजातन्त्र की ओर था। अब परिस्थिति भी बहुत बदल चुकी थी। हमारे सैनिक रायफ़लें लेकर खुल्लम-खुल्ला घूमने लगे। जहाँ-तहाँ लोग उनका ख़ूब स्वागत करते।
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भगतसिह की जेल नोटबुक: एक महान विचारयात्रा का दुर्लभ साक्ष्य
कैसा अनुपम इच्छा-बल था उस वीर का! उन अकथनीय परिस्थितियों में, फाँसी से पहले एक पुस्तक पढ़ना! परन्तु लेनिन के व्यक्तित्व का प्रभाव इतना प्रबल था कि सुदूर औपनिवेशिक भारत में मृत्युदण्ड प्राप्त क़ैदी उनके जीवन का वर्णन करने वाली पंक्तियों को यों पढ़ते थे, मानो जीवनदायी स्रोत से घूँट भर रहे हों।
शहीदेआज़म की जेल नोटबुक
भारतीय इतिहास के इस दुर्लभ दस्तावेज़ का महत्त्व सिर्फ़ इसकी ऐतिहासिकता में ही नहीं है। भगतसिह के अधूरे सपने को पूरा करने वाली भारतीय क्रान्ति आज एक ऐसे पड़ाव पर है जहाँ से नये, प्रचण्ड वेग से आगे बढ़ने के लिए इसके सिपाहियों को ‘इन्क़लाब की तलवार को विचारों की सान पर’ नयी धार देनी है। यह नोटबुक उन सबके लिए विचारों की रोशनी से दमकता एक प्रेरणापुंज है जो इस विरासत को आगे बढ़ाने का जज़्बा रखते हैं।
भगतसिह की जेल नोटबुक जो शहादत के तिरसठ वर्षों बाद छप सकी
भगतसिह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिह के चिन्तक व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक स्पष्ट रोशनी पड़ी है, उनकी विकास की प्रक्रिया समझने में मदद मिली है और यह सच्चाई और अधिक पुष्ट हुई है कि भगतसिह ने अपने अन्तिम दिनों में, सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था।
भगतसिंह – मैं नास्तिक क्यों हूँ?
प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से सम्बन्धित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे। प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अन्तरे की विवेकपूर्ण जाँच-पड़ताल उसे करनी होगी। यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच-विचार के बाद किसी सिद्धान्त या दर्शन में विश्वास करता है तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसकी तर्क-पद्धति भ्रान्तिपूर्ण, ग़लत, पथ-भ्रष्ट और कदाचित हेत्वाभासी हो सकती है, लेकिन ऐसा आदमी सुधरकर सही रास्ते पर आ सकता है, क्योंकि विवेक का ध्रुवतारा सही रास्ता बनाता हुआ उसके जीवन में चमकता रहता है। मगर कोरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक होता है। क्योंकि वह दिमाग़ को कुन्द करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का घोषणापत्र
हम हिंसा में विश्वास रखते हैं – अपनेआप में अन्तिम लक्ष्य के रूप में नहीं, बल्कि एक नेक परिणाम तक पहुँचने के लिए अपनाये गये तौर-तरीक़े के नाते। अहिंसा के पैरोकार और सावधानी के वकील यह बात तो मानते हैं कि हम अपने यक़ीन पर चलने और उसके लिए कष्ट सहने के लिए तैयार रहते हैं। तो क्या हमें इसीलिए अपने साथियों की साझी माँ की बलिवेदी पर क़ुर्बानियों की गिनती करानी पड़ेगी? अंग्रेज़ सरकार की जेलों की चारदीवारी के अन्दर रूह कँपा देने और दिल की धड़कन रोक देने वाले कई दृश्य खेले जा चुके हैं। हमें हमारी आतंकवादी नीति के कारण कई बार सज़ाएँ हुई हैं। हमारा जवाब है कि क्रान्तिकारियों का मुद्दा आतंकवाद नहीं होता; तो भी हम यह विश्वास रखते हैं कि आतंकवाद के रास्ते ही क्रान्ति आ जायेगी।
भगतसिंह – षड्यन्त्र क्यों होते हैं और कैसे रुक सकते हैं?
हो सकता है कि अमीर लोग ऐशो-आराम में आज़ादी को भूल जायें और ग़ुलामी को पसन्द करें क्योंकि उनके लिए तो ऐश-परस्ती ही आज़ादी हो सकती है, लेकिन जो लोग भूखे मर रहे हैं, वे समझते हैं कि हमें मरना ही है, तो फिर क्यों न मर्दे-मैदान बनकर इस अन्यायपूर्ण और ज़ालिम व्यवस्था को रद्द करने में मरें, क्यों न देश के ग़रीबों को जगाने के लिए और भारतमाता को आज़ाद करवाने के लिए शीश दिये जायें? हो सकता है ऐसे विचार कुछ देर तक ग़रीबों के दिमाग़ में न आयें, लेकिन कब तक रुक सकेंगे, इस अन्याय, ग़ुलामी और ग़रीबी के खि़लाफ़ शुरू से ही षड्यन्त्र होते आये हैं। जब तक यह हाल रहेगा, जोशीले लोग षड्यन्त्र करते रहेंगे, क्योंकि तमाम षड्यन्त्रों की जड़ ग़रीबी और ग़ुलामी ही है।
भगतसिंह – पुलिस की कमीनी चालें
जिन आदमियों को फाँसी पर चढ़ाने की कोशिश की गयी थी, उनके ख़िलाफ़ कोई भी सबूत नहीं मिल पाया था, इसीलिए वह मुक़दमा नहीं चलाया गया। सरकार की यह चाल ख़राब और घृणित है। आतंकवादी आन्दोलन को रोकने के लिए भी यह कोई अच्छा तरीक़ा नहीं। लेकिन नक़ली साज़िशों में निर्दोषों को मारने से राज की नींवें पक्की नहीं, बल्कि खोखली हो रही हैं। (इस सन्दर्भ में) रूस के ज़ार और फ्रांस के लुइस को नहीं भूलना चाहिए।
भगतसिंह – साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज
जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ दम गजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बह चले हैं। सिर छिपा कर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है, और क्या साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।