भगतसिंह – ‘ड्रीमलैण्ड’ की भूमिका

ड्रीमलैण्डकी भूमिका

लाला रामसरन दास आज़ादी की लड़ाई के पुराने सिपाही थे। 1907 में जब भगतसिंह का जन्म हुआ तब वह उनके चाचा अजीत सिंह के साथ जंगे-आज़ादी में क़दम रख चुके थे। उम्रक़ैद काटकर बाहर आये तो क्रान्तिकारियों की मदद करने लगे। लाहौर षड्यन्त्र केस में उन्हें फँसाया गया और फिर पाँच साल की क़ैद हुई। जेल में ही वे अंग्रेज़ी में कविता लिखते थे। उनकी काव्य पुस्तक द ड्रीमलैण्डजब तैयार हुई तो भगतसिंह से उन्होंने इसकी भूमिका लिखने का अनुरोध किया। भगतसिंह ने इसे बड़े संकोच से स्वीकारा और लाहौर सेण्ट्रल जेल में ही 15 जनवरी, 1931 को भूमिका के तौर पर यह आलोचनात्मक लेख लिखा। यह उनकी साहित्यिक समझ, गहन अन्तर्दृष्टि, गहरी संवेदना और आलोचनात्मक विवेक का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। स.

मेरे श्रेष्ठ मित्र लाला रामसरन दास ने मुझसे अपनी काव्यकृति ‘द ड्रीमलैण्ड’ की भूमिका लिखने के लिए कहा है। मैं न तो कवि हूँ, न साहित्यकार हूँ और न पत्रकार या आलोचक ही हूँ, इसलिए उनकी इस माँग का औचित्य मैं किसी भी तरह से नहीं समझ पा रहा हूँ। लेकिन जिन परिस्थितियों में मैं हूँ उनमें लेखक से इस बारे में बहस-मुबाहसा कर पाना सम्भव नहीं है, इसलिए मेरे सामने मित्र की इच्छा पूरी करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता।

चूँकि मैं कवि नहीं हूँ, इसलिए मैं उस दृष्टिकोण से इस पर बहस करने नहीं जा रहा हूँ। मैं छन्दों-तुकों के ज्ञान से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ और यह भी नहीं जानता कि छन्दों के मानदण्डों पर यह खरी उतरेगी या नहीं। एक साहित्यकार नहीं होने के नाते मैं राष्ट्रीय साहित्य में इसका उचित स्थान दिलाने के दृष्टिकोण से इस पर बहस करने नहीं जा रहा हूँ।

एक राजनीतिक कार्यकर्ता होने के नाते अधिक से अधिक मैं इस पर उसी दृष्टिकोण से बहस कर सकता हूँ। लेकिन यहाँ भी एक बात मेरे काम को व्यावहारिक तौर पर असम्भव, या कम से कम बहुत कठिन बना देती है। नियमानुसार भूमिका हमेशा वह आदमी लिखता है जो कृति की विषयवस्तु के बारे में वही विचार रखता हो जो लेखक रखता है। लेकिन यहाँ मामला काफ़ी भिन्न है। मैं अपने मित्र से सभी मामलों पर एकमत नहीं हूँ। वे इस तथ्य से परिचित थे कि विभिन्न अहम बिन्दुओं पर मैं उनसे भिन्न विचार रखता हूँ। इसलिए, मैं यह जो लिख रहा हूँ वह कम से कम इस पुस्तक की भूमिका नहीं होने जा रही है, और चाहे जो हो। यह काफ़ी हद तक उसकी आलोचना हो सकती है, इसलिए इसका स्थान पुस्तक के अन्त में होगा न कि उसके आरम्भ में।

राजनीतिक क्षेत्र में ‘ड्रीमलैण्ड’ का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान परिस्थिति में वह आन्दोलन की एक महत्पूर्ण रिक्तता को भरती है। वास्तव में, हमारे देश के सभी राजनीतिक आन्दोलनों में, जिन्होंने हमारे आधुनिक इतिहास में कोई न कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, उस आदर्श की कमी रही है जिसकी प्राप्ति उसका लक्ष्य था। क्रान्तिकारी आन्दोलन इसका अपवाद नहीं है। एक ग़दर पार्टी को छोड़कर जिसने अमेरिकी प्रणाली की सरकार से प्रेरित होकर स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे मौजूदा सरकार की जगह गणतान्त्रिक ढंग की सरकार क़ायम करना चाहते हैं, मुझे अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद एक भी ऐसी क्रान्तिकारी पार्टी नहीं मिली जिसके सामने यह विचार स्पष्ट हो कि वह किसलिए लड़ रही है। सभी पार्टियों में केवल ऐसे लोग थे जिनके पास केवल एक विचार था और वह यह था कि उन्हें विदेशी शासकों के विरुद्ध संघर्ष करना है। यह विचार पर्याप्त रूप से सराहनीय है। लेकिन इसे एक क्रान्तिकारी विचार नहीं कहा जा सकता। हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि क्रान्ति का अर्थ मात्र उथल-पुथल या रक्तरंजित संघर्ष नहीं होता। क्रान्ति में, मौजूदा हालात (यानी सत्ता) को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद, एक नये और बेहतर स्वीकृत आधार पर समाज के सुव्यवस्थित पुनर्निर्माण का कार्यक्रम अनिवार्य रूप से अन्तर्निहित रहता है।

राजनीतिक क्षेत्र में, उदारवादी लोग मौजूदा सरकार में ही कुछ सुधार चाहते थे, जबकि उग्रवादी इससे कुछ अधिक चाहते हैं और उस उद्देश्य के लिए उग्रवादी साधन अपनाने के लिए तैयार थे। क्रान्तिकारी लोग हमेशा अतिवादी साधनों को अपनाने के पक्षधर रहे हैं और उनका एक ही उद्देश्य रहा है – विदेशी प्रभुत्व को उखाड़ फेंकना। बेशक इनमें कुछ ऐसे लोग भी रहे हैं जो इन साधनों से कुछ सुधार प्राप्त करने के पक्षधर थे। इन सभी आन्दोलनों को सही मायने में क्रान्तिकारी आन्दोलन की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

लेकिन, लाला रामसरन दास पहले क्रान्तिकारी हैं जिन्हें 1908 में एक बंगाली फ़रार (क्रान्तिकारी) ने पंजाब में औपचारिक रूप से क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल किया था। तब से वे लगातार क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े रहे और अन्ततोगत्वा ग़दर पार्टी में शामिल हो गये, लेकिन उन्होंने अपने उन विचारों का परित्याग नहीं किया जो आन्दोलन के आदर्शों के बारे में पुराने क्रान्तिकारियों के थे। पुस्तक के आकर्षण और मूल्य को बढ़ाने वाला यह दूसरा दिलचस्प तथ्य है। लाला रामसरन दास को 1915 में मौत की सज़ा मिली थी और बाद में उसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया था। आज ख़ुद फाँसी की कालकोठरी में बैठकर मैं पाठकों को साधिकार बता सकता हूँ कि आजीवन कारावास मौत की अपेक्षा कहीं अधिक कठोर है। लाला रामसरन दास को पूरे चौदह वर्ष जेल की सज़ा भुगतनी पड़ी। यह कविता उन्होंने दक्षिण की किसी जेल में लिखी थी। लेखक की उस समय की मनःस्थिति और मानसिक संघर्ष का कविता पर स्पष्ट प्रभाव है जो इसे और अधिक सुन्दर और दिलचस्प बना देता है। उसने जिस समय इसे लिखने का निश्चय किया उस समय वह किन्हीं नैराश्यपूर्ण मनोभावों के विरुद्ध कठिन संघर्ष कर रहा था। उन दिनों में, जब बहुत से साथी आश्वासन (‘अण्डरटेकिग’) देकर छूट चुके थे और सबके सामने, उसके (लेखक के) सामने भी बड़े-बड़े प्रलोभन थे, और जब पत्नी और बच्चों की मधुर दुखदायी यादें अपनी मुक्ति की आकांक्षा को और अधिक मज़बूत कर रही थीं, ऐसी स्थिति में लेखक को इन चीज़ों के पस्तहिम्मती पैदा करने वाले प्रभाव के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा था और उसने अपना ध्यान इस रचना-कार्य की ओर मोड़ दिया था। इसलिए, प्रारम्भिक पदों में हमें इस तरह का आकस्मिक भावोद्वेग मिलता है –

                पत्नी, बच्चे और मित्र

                  जो मुझे घेरे रहते थे

                वे चारों ओर घूमते

                  ज़हरीले साँपों के समान थे।”

(“Wife, children, friends, that me surround

Were poisonous snakes all around”)

वह (कवि) शुरू में दर्शन की चर्चा करता है। यह दर्शन बंगाल और पंजाब के सभी क्रान्तिकारी आन्दोलनों की रीढ़ है। इस बिन्दु पर मैं लेखक से बहुत व्यापक मतभेद रखता हूँ। उसकी ब्रह्माण्ड की व्याख्या हेतुवादी और आधिभौतिक है, जबकि मैं एक भौतिकवादी हूँ और इस परिघटना (फेनॉमेना) की मेरी व्याख्या कारणसम्बद्ध होगी। फिर भी किसी भी तरह से यह रचना देश-काल की दृष्टि से अनुपयुक्त नहीं है। जो सामान्य विचार हमारे देश में मौजूद हैं वे लेखक द्वारा अभिव्यक्त विचारों के अनुरूप अधिक हैं। अपनी नैराश्यपूर्ण मनोदशा से संघर्ष के लिए उसने प्रार्थना का रास्ता अख्‍त़ियार किया है। यह इस बात से स्पष्ट है कि पुस्तक का प्रारम्भ पूरी तरह ईश्वर, उसकी महिमा के वर्णन और उसकी परिभाषा को समर्पित है। ईश्वर में विश्वास रहस्यवाद का परिणाम है जो निराशा का स्वाभाविक प्रतिफलन है। यह विश्व एक ‘माया’, एक स्वप्न या कल्पना है – यह स्पष्टतः रहस्यवाद है जिसे शंकराचार्य तथा दूसरे अन्य प्राचीन काल के हिन्दू सन्तों ने जन्म दिया और विकसित किया। लेकिन भौतिकवादी दर्शन में इस चिन्तन-पद्धति के लिए कोई स्थान नहीं है। फिर भी लेखक का यह रहस्यवाद किसी भी तरह से हेय या खेदजनक नहीं है। इसका अपना सौन्दर्य और आकर्षण है। उसके विचार उत्साहप्रद हैं, उदाहरण के लिए –

“नींव के पत्थर बनो, अनजाने-अज्ञात,

और अपने सीने पर बरदाश्त करो ख़ुशी-ख़ुशी

विशाल भारी-भरकम निर्माण का बोझ,

पा लो आश्रय कष्ट सहन में,

मत करो ईर्ष्या शीर्ष पर जड़े पत्थर से

जिस पर उड़ेली जाती है सारी लौकिक प्रशंसा,” आदि आदि।

(“Be a foundation stone obscure,

And on thy breast cheerfully bear

The architecture vast and huge,

In suffering find true refuge.

On which all worldly praise is thrown”, etc. etc.)

अपने निजी अनुभव के आधार पर मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूँ कि गुप्त कार्यों के दौरान, जब मनुष्य ‘बिना किसी आशा और भय के’, लगातार अपरिचित, असम्मानित, अप्रशंसित व्यक्ति की मौत मरने के लिए तैयार रहते हुए’ लगातार एक जोखिम भरी ज़िन्दगी बिताता है, तो वह व्यक्तिगत प्रलोभनों और इच्छाओं से सिर्फ़ इस तरह के रहस्यवाद के सहारे ही लड़ सकता है और ऐसा रहस्यवाद किसी भी तरह से पस्तहिम्मती पैदा करने वाला नहीं होता। असली चीज़ जिसका उन्होंने वर्णन किया है वह एक क्रान्तिकारी की मानसिकता है। लाला रामसरन दास जिस क्रान्तिकारी पार्टी के सदस्य थे, उसे कई हिंसात्मक कार्यों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था। लेकिन इससे किसी भी तरह यह साबित नहीं होता कि क्रान्तिकारी ध्वंस में सुख अनुभव करने वाले ख़ून के प्यासे राक्षस होते हैं। पढ़िये –

“अगर ज़रूरत हो, तो उग्र बनो ऊपरी तौर पर

लेकिन हमेशा नरम रहो अपने दिल में

अगर ज़रूरत हो, तो फुँफकारो पर डसो मत

दिल में प्यार को ज़िन्दा रखो और लड़ते रहो ऊपरी तौर पर”।

(“If need be, outwardly be wild,

But in thy heart be always mild

Hiss if need be, but do not bite

Love in thy heart and outside fight”.)

निर्माण के लिए ध्वंस ज़रूरी ही नहीं, अनिवार्य है। क्रान्तिकारियों को इसे अपने कार्यक्रम के एक आवश्यक अंग के रूप में अपनाना पड़ता है, और ऊपर की पंक्तियों में हिंसा और अहिंसा के दर्शन को ख़ूबसूरत ढंग से बयान किया गया है। लेनिन ने एक बार गोर्की से कहा कि उन्हें ऐसा संगीत सुनने को नहीं मिला जो सभी नाड़ियों-शिराओं को झकझोर दे और जिसे सुनकर कलाकार का सिर थपथपाने की इच्छा पैदा हो जाये। “लेकिन,” उन्होंने आगे कहा था, “यह समय सिर थपथपाने का नहीं है। इस समय हाथों को खोपड़ियाँ तोड़नी हैं, हालाँकि हमारा चरम उद्देश्य हर प्रकार की हिंसा को समाप्त करना है।”* एक भयानक आवश्यकता के रूप में हिंसात्मक साधनों का उपयोग करते हुए क्रान्तिकारी भी ठीक ऐसा ही सोचते हैं।

इसके बाद लेखक परस्पर-विरोधी धर्मों की समस्या पर विचार करता है। वह सभी धर्मों में समन्वय स्थापित करने की चेष्टा करता है जैसाकि प्रायः सभी राष्ट्रवादी किया करते हैं। इस सवाल को हल करने का यह तरीक़ा लम्बा और गोलमोल है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं इस मसले को कार्ल मार्क्स के एक वाक्य द्वारा ख़ारिज कर दूँगा कि “धर्म जनता के लिए अफ़ीम है।”

अन्त में उसकी कविता का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा आता है जहाँ उसने उस भावी समाज के बारे में लिखा है जिसकी रचना करने के लिए हम सभी लालायित हैं। लेकिन मैं शुरू में ही एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। ‘ड्रीमलैण्ड’ दरअसल एक यूटोपिया है। लेखक ने स्वयं इस बात को स्पष्ट रूप से शीर्षक में ही स्वीकार किया है। वह इस विषय पर कोई वैज्ञानिक शोध-प्रबन्ध लिखने का दावा नहीं करता। लेकिन निस्सन्देह, यूटोपिया की सामाजिक प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सेण्ट साइमन, फूरिये, रॉबर्ट ओवेन और उनके सिद्धान्तों के अभाव में वैज्ञानिक मार्क्सवादी समाजवाद भी नहीं होता। लाला रामसरन दास की ‘यूटोपिया’ का भी उसी तरह से महत्त्व है। जब हमारा कार्यकर्ता अपने आन्दोलन के दर्शन को व्यवस्थित रूप देने और एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का महत्त्व समझेगा, उस समय यह पुस्तक उसके लिए बहुत ही उपयोगी साबित होगी।

इस बात की ओर मेरा ध्यान गया है कि लेखक की अभिव्यक्ति की शैली अपरिष्कृत है। अपनी ‘यूटोपिया’ का वर्णन करते हुए लेखक वर्तमान समाज के विचारों से अछूता नहीं रह पाया है।

ज़रूरतमन्दों को दान देना

भविष्य के समाज में यानी कम्युनिस्ट समाज में जिसे हम बनाना चाहते हैं हम धर्मार्थ संस्थाएँ स्थापित करने नहीं जा रहे हैं, बल्कि उस समाज में न ज़रूरतमन्द होंगे न ग़रीब। न दान देने वाले। इस असंगति के बावजूद, इस प्रश्न को बड़े ख़ूबसूरत ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

लेखक ने समाज की जिस सामान्य रूपरेखा की चर्चा की है वह काफ़ी हद तक वैज्ञानिक समाजवाद जैसी ही है। लेकिन कुछ ऐसी भी चीज़ें पुस्तक में हैं जिनका विरोध या खण्डन करने, या और सटीक ढंग से कहें, तो जिनमें सुधार करने की ज़रूरत है। उदाहरण के तौर पर 427वें पद के नीचे के एक फुटनोट में वे लिखते हैं कि सरकारी कर्मचारियों को अपनी रोजी कमाने के लिए प्रतिदिन चार घण्टे खेतों या कारख़ानों में काम करना होगा। लेकिन यह फिर एक काल्पनिक और अव्यावहारिक बात है। सम्भवतः आज की व्यवस्था में राजकर्मचारी जो अनावश्यक रूप से ऊँचा वेतन पाते हैं, यह बात उसी की प्रतिक्रिया की उपज है। वास्तव में बोल्शेविकों को भी यह मानना पड़ा था कि मानसिक श्रम भी उतना ही उत्पादक श्रम है जितना शारीरिक श्रम। और भविष्य के समाज में जब विभिन्न तत्त्वों के सम्बन्धों का समायोजन समानता के आधार पर होगा तो उत्पादक और वितरक दोनों को समान महत्त्व का दर्जा प्राप्त होगा। आप एक नाविक से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह चौबीस घण्टे में एक बार जहाज़ चलाना रोक कर उतर जाये और रोजी कमाने के लिए चार घण्टे काम करने चला जाये, या एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला या अपना प्रयोग (काम) छोड़कर अपना काम का कोटा पूरा करने खेत में चला जाये। दोनों ही अत्यन्त उत्पादक श्रम कर रहेे हैं। समाजवादी समाज में एकमात्र इस अन्तर की आशा की जानी चाहिए कि मानसिक श्रम करने वाला शारीरिक श्रम करने वाले से श्रेष्ठ नहीं माना जायेगा।

निःशुल्क शिक्षा के बारे में लाला रामसरन दास के विचार वाक़ई ध्यान देने योग्य हैं। रूस में समाजवादी सरकार ने बहुत कुछ उसी तरह के क़दम उठाये हैं।

अपराध के बारे में उन्होंने जो चर्चा की है, वह सचमुच सर्वाधिक विकसित चिन्तनधारा है। अपराध सर्वाधिक गम्भीर सामाजिक समस्या है जिसे हल करने में बहुत सतर्कता की ज़रूरत है। लेखक ने अपनी ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा जेल में बिताया है। उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव हैं। एक स्थान पर उन्होंने ‘हलकी मशक्क़त, दरमियानी मशक्क़त, सख़्त मशक्क़त’ जैसे ठेठ जेल की शब्दावली का इस्तेमाल किया है। सभी दूसरे समाजवादियों की तरह वे सुझाव देते हैं कि दण्ड का आधार प्रतिशोध के बजाय सुधार का सिद्धान्त होना चाहिए। न्याय व्यवस्था का निर्देशक सिद्धान्त दण्ड देना न होकर सुधारना होना चाहिए और जेलों का रूप वास्तविक नर्क के बजाय सुधारालयों का होना चाहिए। इस सम्बन्ध में पाठकों को रूसी जेल-व्यवस्था का अध्ययन करना चाहिए।

सेना की चर्चा करते समय उन्होंने युद्ध की भी चर्चा की है। मेरे विचार से उस समय विश्वकोशों में एक संस्था के रूप में युद्ध की चर्चा बहुत थोड़े पन्नों में रहेगी और युद्ध सामग्रियाँ संग्रहालयों की गैलरियों की शोभा बढ़ायेंगी, क्योंकि उस समाज में परस्पर शत्रुतापूर्ण हित नहीं रह जायेंगे जो युद्ध को जन्म देते हैं।

ज़्यादा से ज़्यादा हम यह कह सकते हैं कि एक संस्था के रूप में युद्ध का अस्तित्व संक्रमण काल तक रहेगा। वर्तमान रूस के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। वहाँ पर इस समय सर्वहारा का अधिनायकत्व क़ायम है। वे समाजवादी समाज की स्थापना करना चाहते हैं। तब तक के लिए पूँजीवादी समाज से अपनी रक्षा के लिए उन्हें एक सेना रखनी पड़ रही है। पर उनके युद्ध-उद्देश्य भिन्न होंगे। हमारे स्वप्नलोक की जनता को साम्राज्यवादी योजनाएँ युद्ध के लिए प्रेरित नहीं करेंगी। युद्ध की ट्राफियों का अस्तित्व शेष नहीं रह जायेगा। क्रान्तिकारी सेनाएँ दूसरे देशों में वहाँ की जनता पर शासन करने के लिए या उन्हें लूटने के लिए नहीं बल्कि वहाँ के परजीवी शासकों को सिहासनों से नीचे गिराने के लिए, वहाँ की जनता का ख़ून चूसने वाले शोषण को बन्द करने के लिए और मेहनतकश जनता को मुक्त करने के लिए जायेंगी। लेकिन हमारे जवानों को युद्ध के लिए उकसाने वाले पुराने राष्ट्रीय या जातीय विद्वेष का अस्तित्व नहीं रह जायेगा।

मुक्त चिन्तन करने वाले सभी लोगों के लिए, विश्व संघ की स्थापना सर्वाधिक लोकप्रिय और फ़ौरी उद्देश्य है। लेखक ने इस विषय पर अच्छी चर्चा की है और तथाकथित ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ की सुन्दर आलोचना की है।

571(572) वें पद के नीचे के एक फुटनोट में लेखक ने साधन के प्रश्न की संक्षिप्त चर्चा की है। वह कहता है, “ऐसा राज्य शारीरिक हिंसात्मक क्रान्तियों द्वारा स्थापित नहीं हो सकता। यह समाज पर बाहर से थोपा नहीं जा सकता। यह अन्दर से विकसित होगा…इसकी प्राप्ति धीरे-धीरे क्रमविकास की प्रक्रिया द्वारा और जनता को ऊपर चर्चित लाइन पर प्रशिक्षित करके होगी”, आदि। यह वक्तव्य अपनेआप में असंगत नहीं है। यह सर्वथा सही है, लेकिन पूरी तरह व्याख्या न की जाने के कारण यह ग़लतफ़हमी या भ्रम पैदा कर सकता है। क्या इसका यह मतलब है कि लाला रामसरन दास को बल-प्रयोग के रास्ते की निरर्थकता का आभास हो गया है? क्या वे अहिंसा के पुरातनपन्थी समर्थक हो गये है? नहीं, इसका यह मतलब नहीं है।

आइये, इस बात की व्याख्या करें कि ऊपर उद्धृत बयान का क्या मतलब है? किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा क्रान्तिकारी इस बात को ज़्यादा अच्छी तरह समझते हैं कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक साधनों से नहीं हो सकती है बल्कि उसे अन्दर से प्रस्फुटित और विकसित होना चाहिए। लेखक इसके लिए एकमात्र अस्त्र के रूप में शिक्षा को अपनाने का सुझाव देता है। लेकिन हर आदमी इस बात को आसानी से समझ सकता है कि यहाँ की वर्तमान सरकार और दरअसल सभी पूँजीवादी सरकारें न केवल ऐसे प्रयासों की सहायता नहीं करेंगी बल्कि इसके विपरीत निर्दयतापूर्वक इसका दमन करेंगी। तब उसके ‘क्रमिक विकास’ से क्या उपलब्धि होगी? हम क्रान्तिकारी लोग सत्ता पर अधिकार करने और एक क्रान्तिकारी सरकार के गठन का प्रयास कर रहे है, जो जन-शिक्षा के लिए अपने सभी साधनों का इस्तेमाल करेगी जैसाकि आज रूस में हो रहा है। सत्ता पर अधिकार करने के पश्चात रचनात्मक कार्यों के लिए शान्तिपूर्ण तरीक़े अपनाये जायेंगे और बाधाओं को कुचलने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जायेगा। यदि लेखक का यही मतलब है तो हम उससे सहमत हैं और मुझे विश्वास है कि यही उसका मतलब है।

मैंने इस पुस्तक पर विस्तार से चर्चा की है। बल्कि मैंने उसकी आलोचना ही कर डाली है। लेकिन मैं पुस्तक में किसी प्रकार का परिवर्तन करने के लिए नहीं कहने जा रहा हूँ क्योंकि उसका एक ऐतिहासिक मूल्य है। 1914-15 के क्रान्तिकारियों के यही विचार थे।

मैं विशेष तौर पर नौजवानों के लिए इस पुस्तक की ज़ोरदार सिफ़ारिश करता हूँ लेकिन एक चेतावनी के साथ, कृपया आँख मूँदकर अनुकरण करने के लिए इसे मत पढ़िये। इसे पढ़िये, इसकी आलोचना कीजिये, इस पर सोचिये और इसकी सहायता से अपनी समझदारी क़ायम करने की कोशिश करिये।

(जनवरी, 1931)


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्‍पर्क करें।

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