एक महान क्रान्तिकारी की आख़ि‍री लड़ाई और उसकी याद के आईने में हमारा समय

कड़वी सच्चाई यही है कि जतिन दास, भगतसिंह और उनके तमाम साथी आज होते तो जेलों में होते, और जेल के भीतर वैसे ही लड़ रहे होते। फ़र्क़ बस इतना होता कि टीवी चैनलों और अख़बारों के दफ़्तरों में बैठे दल्ले उन्हें अपराधी, ख़ून के प्यासे और देशद्रोही साबित कर चुके होते। जैसे आज भी देश की जेलों में क़ैद हज़ारों नागरिकों के साथ किया जा रहा है, जिनका गुनाह सिर्फ़ यह है कि उन्होंने चन्द लुटेरों के हक़ में करोड़ों-करोड़ आम लोगों की लूट और बर्बादी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है, करोड़ों-करोड़ लोगों को धर्म और जाति के आधार पर दोयम दर्जे के नागरिक बना देने की साज़िशों का विरोध किया है, और हर ज़ोरो-ज़ुल्म के सामने डटकर खड़े होते रहे हैं। जतिन दास की शहादत को आज याद करने का तभी कोई मतलब है जब आप इस “निज़ामे कोहना” के ख़िलाफ़ बोलने का हौसला रखते हों, वरना हर क्रान्तिकारी के शहादत दिवस पर ट्वीट करने वाले पाखण्डी नेताओं और हममें कोई फ़र्क़ नहीं रह जायेगा।

भारत में इंकलाब के कीर्तिस्‍तम्‍भ शहीद भगतसिंह के उद्धरण

कानून की पवित्रता तभी तक रखी जा सकती है जब तक वह जनता के दिल यानी भावनाओं को प्रकट करता है। जब यह शोषणकारी समूह के हाथों में एक पुर्ज़ा बन जाता है तब अपनी पवित्रता और महत्व खो बैठता है। न्याय प्रदान करने के लिए मूल बात यह है कि हर तरह लाभ या हित का ख़ात्मा होना चाहिए। ज्यों ही कानून सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करना बन्द कर देता है त्यों ही जुल्म और अन्याय को बढ़ाने का हथियार बन जाता है। ऐसे कानूनों को जारी रखना सामूहिक हितों पर विशेष हितों की दम्भपूर्ण ज़बरदस्ती के सिवाय कुछ नहीं है।

नौजवानों से दो बातें

आज मैं नौजवानों को सम्बोधित करना चाहता हूं। बूढ़े इस पैम्फ़लेट को रख दें और ऐसी बातें पढ़कर अपनी आंखें न दुखायें जो उन्हें कुछ भी नहीं देंगी। जाहिर है बूढ़ों से मेरा मतलब उनसे है जो दिल और दिमाग से बूढ़े हैं। मैं यह मानकर चल रहा हूं कि आप अठारह या बीस वर्ष की उम्र के हैं; कि आपने अपनी अप्रेण्टिसशिप या पढ़ाई पूरी कर ली है; कि आप जीवन में बस प्रवेश कर रहे हैं। मैं यह मानकर चलता हूं कि आपका दिमाग उस अंधविश्वास से मुक्त है जो आपके अध्यापक आप पर थोपने की कोशिश करते रहे; कि आप शैतान से नहीं डरते, और आप पादरियों और धर्माचार्यों की अनाप-शनाप बातें सुनने नहीं जाते। इसके साथ ही, आप उन सजे-धजे छैलों, एक सड़ रहे समाज के उन उत्पादों में से नहीं हैं जिन्हें देखकर अफ़सोस होता है, जो अपनी बढ़िया काट की पतलूनों और बंदर जैसे चेहरे लिये पार्कों में घूमते-फि़रते हैं और जिनके पास इस कम उम्र में ही सिर्फ़ एक ही चाहत होती है किसी भी कीमत पर मौज-मस्ती लूटने की कभी न बुझने वाली चाहत।… इसके उलट, मैं यह मानता हूं कि आपके सीनों में गर्मजोशी से भरा एक दिल धड़कता है और इसीलिए मैं आपसे बात कर रहा हूं।

भगतसिंह को फाँसी के बाद जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट का प्रमाणपत्र

मैं एतद् द्वारा प्रमाणित करता हूँ कि भगतसिंह को दिये गये मृत्युदण्ड की तामील कर दी गयी है, और कि तद्नुसार उपरोक्त भगतसिंह को सोमवार 23 मार्च, 1931 को शाम 7 बजे लाहौर सेण्ट्रल जेल में गरदन से उस समय तक लटकाये रखा गया जब तक उसकी मृत्यु न हो गयी, कि शरीर पूरे एक घण्टे तक लटका रहा, और उसे तब तक नीचे नहीं उतारा गया जब तक मेडिकल अफ़सर द्वारा जीवन निश्शेष होने की पुष्टि नहीं कर ली गयी; और कि कोई दुर्घटना, त्रुटि या कोई अन्य अनिष्ट नहीं हुआ।

भगतसिंह को सज़ा-ए-मौत की तामीली का ट्रिब्यूनल द्वारा जारी वारण्ट

इस आदेश द्वारा आपको, उपरोक्त सुपरिण्टेण्डेण्ट को, अधिकृत किया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि इस आदेश पर अमल करते हुए 17 अक्टूबर के दिन लाहौर में उपरोक्त भगतसिंह को गरदन से तब तक लटकाया जाये जब तक उसकी मृत्यु न हो जाये, और आदेश पर अमल के प्रमाणपत्र के साथ इस वारण्ट को हाईकोर्ट को वापस भेज दें।

एक दुर्लभ दस्तावेज़

मुझे 29 मई 1927 को भारतीय दण्ड विधान की धारा 302 के अन्तर्गत गिरफ़्तार किया गया और पाँच सप्ताह तक पुलिस हिरासत में बन्द रखा गया। मुझे 4 जुलाई 1927 को जमानत पर छोड़ा गया। तब से मुझे कभी भी पुलिस द्वारा या किसी भी अदालत द्वारा इस धारा के अन्तर्गत मुक़दमे का सामना करने के लिए नहीं बुलाया गया, अतः मैं मान रहा हूँ कि आपकी छानबीन पूरी हो गयी है और मेरे ख़िलाफ़ कुछ नहीं मिला है और व्यवहारतः आपने केस वापिस ले लिया है। इन परिस्थितियों में मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि मेरी गिरफ्तारी के समय मेरे शरीर से बरामद सभी वस्तुएँ कृपया लौटा दें। मुझे सूचित करें कि इस उद्देश्य के लिए मैं आपसे कब और कहाँ मिलूँ। जल्द अनुग्रह का बहुत आभार होगा।

वर्ग-रुचि का आन्दोलनों पर असर

अन्त में इतना ही कहूँगा कि वह नौजवान जो दुनिया में कुछ काम करना चाहते हैं या जो लोग भगवान के हर बन्दे की सेवा करने के लिए अपनी क़ीमती ज़िन्दगियाँ वक़्फ़ करना चाहते हैं, वे हिन्दुस्तानी मज़दूरों और किसानों में मिलकर उनकी रुचि समझने की कोशिश करें और उनकी असली तकलीफ़ें दूर करते हुए उनकी सच्ची उन्नति के लिए आन्दोलन करें। मैंने सरसरी निगाह से वर्तमान समय की गतिविधियों के कुछेक प्रमाण देकर एक ख़ास रुचि की ओर इशारा किया है। इसमें कुछेक नेकदिल लोगों को जोकि इन लहरों में शामिल हैं, नाराज़ नहीं होना चाहिए। मैं उनकी हमदर्दी और सच्चाई को अनुभव करते हुए भी इस ग़लती की ओर उनका ध्यान दिलाना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि यूरोपियन मुदबर का यह कथन सोलह आने सही है कि एक कारकुन का अपने काम से ही अनजान होना ख़तरनाक और हलाल कर देने वाली बात है।

शहीद अशफ़ाक़उल्ला का फाँसीघर से सन्देश

हिन्दुस्तानी भाइयो! आप चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले हों, देश के काम में साथ दो! व्यर्थ आपस में न लड़ो। रास्ता चाहे अलग हों, लेकिन उद्देश्य सबका एक है। सभी कार्य एक ही उद्देश्य की पूर्ति के साधन हैं, फिर यह व्यर्थ के लड़ाई.झगड़े क्यों? एक होकर देश की नौकरशाही का मुक़ाबला करो अपने देश को आज़ाद कराओ।