क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास (चापेकर बन्धुओं से भगतसिह तक) / शिव वर्मा

क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास (चापेकर बन्धुओं से भगतसिह तक)

शिव वर्मा

स्वाधीनता संग्राम में क्रान्तिकारियों के प्रवेश की घोषणा करने वाला पहला धमाका 1897 में पूना में चापेकर बन्धुओं ने किया था। पूना शहर में उन दिनों प्लेग ज़ोरों पर था। रैण्ड नाम के एक अंग्रेज़ को वहाँ प्लेग कमिश्नर बनाकर भेजा गया। वह बड़ा ही ज़ालिम और तानाशाह क़िस्म का आदमी था। उसने प्लेग से प्रभावित मकानों को बिना कोई अपवाद ख़ाली कराये जाने का हुक्म जारी कर दिया। जहाँ तक उस हुक्म का सवाल है उसमें कोई ग़लत बात नहीं थी। लेकिन जिस तरह रैण्ड ने इस हुक्म पर अमल करवाया, उससे वह अलोकप्रिय हो गया। लोगों को उनके घरों से निकाला गया और उन्हें कपड़े, बरतन आदि तक ले जाने का समय नहीं दिया गया।

4 मई, 1897 को लोकमान्य तिलक ने अपने पत्र केसरी में एक लेख लिखकर न सिर्फ़ नीचे के अफ़सरों पर बल्कि ख़ुद सरकार पर इल्ज़ाम लगाया कि वह जान-बूझकर जनता का उत्पीड़न कर रही है। उन्होंने रैण्ड को निरंकुश बतलाया और सरकार पर “दमन का सहारा लेने” का आरोप लगाया।

Vaicharik vikasफिर आया शिवाजी समारोह। इस अवसर पर, 12 जून, 1897 को एक सार्वजनिक सभा में अध्यक्ष पद से बोलते हुए तिलक ने कहा: “क्‍या शिवाजी ने अफ़ज़ल ख़ाँ को मारकर कोई पाप किया था? इस प्रश्न का उत्तर महाभारत में मिल सकता है। गीता में श्रीमन कृष्ण ने अपने गुरुओं और बान्धवों तक को मारने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार अगर कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है तो वह किसी भी तरह पाप का भागी नहीं बनता है। श्री शिवाजी ने अपने उदर-पूर्ति के लिए कुछ नहीं किया था। बहुत ही नेक इरादे के साथ, दूसरों की भलाई के लिए उन्होंने अफ़ज़ल ख़ाँ का वध किया। अगर चोर हमारे घर में घुस आयें और हमारे अन्दर उनको बाहर निकालने की ताक़त न हो तो हमें बेहिचक दरवाज़ा बन्द करके उनको ज़िन्दा जला देना चाहिए। ईश्वर ने हिन्दुस्तान के राज्य का पट्टा ताम्र-पत्र पर लिखकर विदेशियों को तो नहीं दिया है। शिवाजी महाराज ने उनको अपनी जन्मभूमि से बाहर खदेड़ने की कोशिश की। ऐसा करके उन्होंने दूसरों की वस्तु हड़पने का पाप नहीं किया। कुएँ के मेढ़क की तरह अपनी दृष्टि को संकुचित मत करो, ताजीराते-हिन्द की क़ैद से बाहर निकलो, श्रीमद्भगवद्गीता के अत्यन्त उच्च वातावरण में पहुँचो और महान व्यक्तियों के कार्यों पर विचार करो।”1

और 22 जून को चापेकर भाइयों ने रैण्ड व ऐवर्स्ट को मार दिया। इस तरह, ऊपरी तौर पर देखने से यही लगता है कि चापेकर भाइयों के कार्य के तात्कालिक प्रेरक तत्त्व रैण्ड की निरंकुशता और तिलक का भाषण थे। लेकिन यह सिर्फ़ अर्द्धसत्य है। दरअसल, चापेकर बन्धुओं के विचार महामारी फैलने या रैण्ड के पूना आने से बहुत पहले से ही एक शक्ल अख्‍त़ियार करने लगे थे।

1894 में ही चापेकर भाइयों ने पूना में शारीरिक और सैनिक प्रशिक्षण के लिए ‘हिन्दू धर्म अवरोध निवारण समिति’ क़ायम कर रखी थी कि जिसे हिन्दू संरक्षिणी समिति भी कहा जाता था। यह समिति हर साल नियमपूर्वक शिवाजी व गणपति समारोह आयोजित करती थी। इन समारोहों में चापेकर भाइयों द्वारा पढ़े जाने वाले श्लोकों से उनकी भावना का पता चलता है। जनता से तलवार उठाने का आग्रह करते हुए ‘शिवाजी श्लोक’ कहता है:

“भाँड की तरह शिवाजी की कहानी दुहराने-मात्र से स्वाधीनता प्राप्त नहीं की जा सकती। आवश्यकता इसकी है कि शिवाजी और बाज़ी की तरह तेज़ी के साथ काम किये जायें। आज हर भले आदमी को तलवार और ढाल पकड़नी चाहिए – यह जानते हुए कि हमें राष्ट्रीय संग्राम के युद्धक्षेत्र में जीवन का जोखिम उठाना होगा। हम धरती पर उन दुश्मनों का ख़ून बहा देंगे जो हमारे धर्म का विनाश कर रहे हैं। हम तो मारकर मर जायेंगे, लेकिन तुम औरतों की तरह सिर्फ़ कहानियाँ सुनाते रहोगे।”2

‘गणपति श्लोक’ तो ‘शिवाजी श्लोक’ से भी ज़्यादा उग्र था। गौ और धर्म की रक्षा के लिए उठ खड़े होने का आह्वान करते हुए इसमें हिन्दुओं से कहा गया है: “अफ़सोस, तुम ग़ुलामी की ज़िन्दगी पर शर्मिन्दा नहीं हो; जाओ, आत्महत्या कर लो। उफ़! ये कमीने कसाइयों की तरह गाय और बछड़ों को मार रहे हैं; उसे (गौ को) इस संकट से मुक्त कराओ; मरो लेकिन अंग्रेज़ों को मारकर; नपुंसक होकर धरती पर बोझ न बनो। इस देश को हिन्दुस्तान कहा जाता है; अंग्रेज़ भला किस तरह यहाँ राज कर रहे हैं?3

इस तरह हम देखते हैं कि चापेकर बन्धु और उनके सहयोगी मुख्यतः तीव्र धार्मिक भावनाओं से उत्प्रेरित थे और उनका दृष्टिकोण घोर कट्टरपन्थी था। सम्भवतः इसी कारण से वे ब्रिटिश विरोधी ही नहीं, मुस्लिम विरोधी भी थे।

चापेकर बन्धुओं की देशभक्ति हिन्दुत्व पर आधारित थी। वे हिन्दू धर्म और गौ की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों को बाहर भगाना चाहते थे। रैण्ड की हत्या भी एक ऐसे व्यक्ति के प्रति उनकी गहरी नफ़रत का नतीजा थी जो अपनी दमन और निरंकुशता की कार्रवाइयों के कारण पूरी जनता की घृणा का पात्र बन गया था।

जहाँ तक उनको प्रेरित करने वाले दूसरे कारणों का सवाल है, इसका कोई सुबूत नहीं मिलता कि वे 1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम से या फ्रांसीसी व इतालवी क्रान्तियों से प्रभावित रहे हों।

इन तमाम सीमाओं के बावजूद मुक़दमे के दौरान या बाद में, चापेकर भाइयों ने जिस वीरता, साहस और आत्मबलिदान की भावना का परिचय दिया उसके महत्त्व को किसी भी तरह कम करके आँका नहीं जा सकता। सर ऊँचा किये हुए तीनों भाइयों ने फाँसी के फन्दे को चूमा।

ग़ुलामी और आज़ादी की समस्याओं के प्रति यह धार्मिक दृष्टिकोण चापेकर भाइयों तक ही सीमित नहीं था। सावरकर बन्धु भी धार्मिक रहे…बंगाल के क्रान्तिकारियों ने भी धर्म के सहारे लोगों को उभाड़ा था। इस वाक्य से शायद यह ग़लतफ़हमी हो कि वे धर्म को न मानते थे केवल उभाड़ने का काम उससे लेते थे, इसलिए यह कह देना ज़रूरी है कि वे स्वयं धर्म के कट्टर मानने वाले थे।4

1902 में कलकत्ता में क़ायम अनुशीलन समिति की कार्यप्रणाली का वर्णन करते हुए तारिणीशंकर चक्रवर्ती लिखते हैं: “क्रान्तिकारी कार्य के लिए जो इस समिति में आते थे, उनको दो वर्गों में बाँटा जाता था। धर्म में जिनकी आस्था थी उनको एक वर्ग और धर्म-विशेष में, जिन्हें आस्था नहीं थी परन्तु क्रान्तिकारी कार्यों में विशेष निष्ठा थी, ऐसी लड़कों को दूसरे वर्ग में रखा जाता था।” “धर्म के प्रति जो श्रद्धावान थे वे इस बग़ीचे (मानिकतल्ला बागान – स-) में रहते थे…ये ही लड़के प्रथम कोटि के क्रान्तिकारी समझे जाते थे।”5

उस समय बंगाल के क्रान्तिकारियों का बहुमत बंकिमचन्द्र चटर्जी और स्वामी विवेकानन्द से बेहद प्रभावित था। “अनुशीलन समिति के सदस्यों को हिन्दू ग्रन्थों, ख़ासकर गीता को बहुत ध्यान से पढ़ना पड़ता था।”6

“बंकिमचन्द्र चटर्जी और स्वामी विवेकानन्द की बौद्धिक परम्परा में पले-बढ़े बंगाल के बीसवीं सदी के पहले दशक के ये क्रान्तिकारी धार्मिक उपादानों और कर्मकाण्डों से तथा प्राचीन व तात्कालिक हिन्दुत्व के पौराणिक उपाख्यानों, प्रतीकों, गीतों और नारों से प्रेरणा ग्रहण करते थे।”7

इस तरह, क्रान्तिकारी आन्दोलन के पहले चरण (1897-1913) के क्रान्तिकारी आमतौर पर हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान थे और उससे प्रेरणा ग्रहण करते थे। यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी। इसके ऐतिहासिक कारण थे। पिछली सदी के आठवें दशक में तरुण भारत के दिलों को एक नयी भावना मथ रही थी। शिक्षित युवक राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचने लगे थे। एक नयी क़िस्म का राष्ट्रवाद जन्म ले रहा था। यह नया राष्ट्रवाद पुराने राजनीतिवाद के मुक़ाबले ज़्यादा संजीदा, ज़्यादा खुले दिमाग़ वाला था। यह इस विचार से लैस और प्रेरित था कि पूरे राष्ट्रीय जीवन का पुनरुत्थान आवश्यक है। भारतीय मानस किस सीमा तक आन्दोलित हो उठा था, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सभी बेहतरीन सोच के लोगों की नयी भावनाएँ और विचार धर्म से अनुप्राणित थे। पुराने देवताओं की जगह घृणा और रक्त के नये देवताओं की पूजा होने लगी थी।8

इस सीमा तक, धर्म की एक सकारात्मक भूमिका अवश्य थी। लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी था। इस दौर में बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचन्द्र पाल, ब्रह्म बान्धव उपाध्याय और अरविन्द घोष जैसे सभी जुझारू राष्ट्रीय नेता राजनीति को धर्म के रंग में रँग रहे थे। इस तरह अचेतन रूप में ही सही, उन्होंने साम्प्रदायिक राजनीति के विषवृक्ष लगाये। गाँधी और उनके अनुयायियों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया और अन्त तक उससे चिपके रहे, जबकि क्रान्तिकारियों ने 1914 में ही, जब उनका आन्दोलन दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा था, इसे छोड़कर धर्मनिरपेक्षता को अपना लिया था। धर्म और राजनीति का यह तालमेल तब से आज तक लगातार हमारे सार्वजनिक जीवन को तबाह करता रहा है, और अब तो इसके कारण हमारी राष्ट्रीय एकता का ढाँचा ही चरमराता नज़र आ रहा है।

हालाँकि महाराष्ट्र के चापेकर बन्धु और बंगाल के पहले दशक के क्रान्तिकारी, दोनों प्राचीन भारतीय संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण करते थे लेकिन दोनों के बीच एक मार्के का अन्तर भी है।

30 अप्रैल, 1908 को किग्सफ़ोर्ड की बग्घी पर एक बम आकर गिरा जिससे दो महिलाओं की मृत्यु हो गयी। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए 22 जून के केसरी में लोकमान्य तिलक ने लिखा: “1897 की हत्या और बंगाल के बमकाण्ड के बीच काफ़ी अन्तर है। जहाँ तक दिलेरी और कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने का सवाल है, चापेकर भाइयों का दर्जा बंगाल की बम पार्टी के सदस्यों से ऊँचा है। लेकिन अगर साध्य और साधन के नज़रिये से देखें तो बंगालियों की ज़्यादा तारीफ़ करनी होगी…वर्ष 1897 में पूना निवासी प्लेग के समय के दमन के शिकार थे, और उस दमन से उत्पन्न उत्तेजना का कोई शुद्ध राजनीतिक चरित्र नहीं था। यह शासन-प्रणाली ही ख़राब है और जब तक अधिकारियों को छाँट-छाँटकर व्यक्तिगत रूप से आतंकित नहीं किया जाता, तब तक वे व्यवस्था को बदलने पर तैयार नहीं होंगे – ऐसा कोई महत्त्वपूर्ण प्रश्न चापेकर भाइयों के सामने नहीं था। उनका कर्म प्लेग के बाद जारी दमन के, यानी एक विशेष कार्य के खि़लाफ़ था। निश्चय ही बंगाल की बम पार्टी की दृष्टि एक ज़्यादा व्यापक पटल पर थी जिसे बंगाल के विभाजन ने उभारा था।”9

इतना ही नहीं, बंगाल के क्रान्तिकारी धर्म को बहुत ज़्यादा महत्त्व देते थे, इस तथ्य के बावजूद आन्दोलन के अन्तिम लक्ष्य की दृष्टि से कहें तो, 1902 में ही उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण घोषणा की थी। इसी वर्ष बंगाल के क्रान्तिकारियों ने अपने को ‘अनुशीलन समिति’ नाम की एक पार्टी के रूप में संगठित किया था। समिति की स्थापना के समय जारी घोषणापत्र में कहा गया था: “अनुशीलन की कल्पना के समाज में अनपढ़, ग़रीब लोग नहीं होंगे, कायर, दुष्ट लोग नहीं होंगे और अस्वस्थ लोग भी नहीं होंगे। ऐसे समाज के निर्माण के लिए सभी प्रकार की विषमताओं को समाप्त करना होगा। विषमता के बीच मानव की मानवता विकसित नहीं हो सकती। मानव समाज से धन की विषमता, सामाजिक विषमता, साम्प्रदायिक विषमता और प्रादेशिक विषमता दूर कर सभी मनुष्यों में समानता लानी होगी। केवल राष्ट्रीय सरकार द्वारा ही ऐसा किया जाना सम्भव है। पराधीनता की दशा में अनुशीलन के स्वप्न के समाज की स्थापना सम्भव नहीं है, इसीलिए अनुशीलन पराधीनता के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा करती है। अनुशीलन भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता चाहती है।”10

अनुशीलन समिति की यह घोषणा निश्चय ही आगे की तरफ़ एक बहुत बड़ा क़दम था। यहीं पर बंगाल के क्रान्तिकारी 1897 के पूना केन्द्र से आगे हैं। चापेकर बन्धु विदेशियों से नफ़रत तो करते थे मगर वे ख़ुद क्या चाहते हैं इसके बारे में स्पष्ट नहीं थे। यह बात बंगाल के क्रान्तिकारियों के साथ नहीं थी। ये लोग मुस्लिम विरोधी भी नहीं थे, हालाँकि वे धार्मिक लोग थे और हिन्दू ग्रन्थों से प्रेरणा प्राप्त करते थे।

इसके विपरीत इस दौर के पंजाब के क्रान्तिकारी आरम्भ से ही साम्प्रदायिकता के दोष से मुक्त थे। सरदार अजीत सिह, लालचन्द ‘फ़लक’, सूफ़ी अम्बा प्रसाद, लाला हरदयाल और उनके सभी सहयोगी धर्मनिरपेक्ष थे। धर्म उनके लिए एक निजी मामला था।

शताब्दी के पहले दशक के क्रान्तिकारी जिन स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण कर रहे थे उनमें धर्म के अलावा एक था 1857 का भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम। “इस विषय पर 1907 या 1908 में लन्दन में लिखी गयी वीर सावरकर की पुस्तक ने अपनी तमाम अपर्याप्तताओं के बावजूद, जो उस दौर में और उस समय के हालात में स्वाभाविक थी, बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस विषय पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी लेखकों द्वारा फैलाये गये लांछनों तथा उनके झूठे ऐतिहासिक लेखन की धज्जियाँ उड़ाकर इस पुस्तक ने बहुत बड़ा काम किया। इसने बातों को सही तौर पर सामने रखा। इस किताब पर ब्रिटिश शासकों ने फ़ौरन प्रतिबन्ध लगा दिया, लेकिन फिर भी यह मेहनत से और गुप्त रूप से तैयार की गयी पाण्डुलिपि के रूप में भारत के उस समय के क्रान्तिकारियों के बीच घूमती रही।”11

वास्तविकता यह है कि 1857 का जन-विद्रोह पूरे स्वाधीनता संग्राम के दौरान सभी स्वाधीनता सेनानियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहा।

शताब्दी के पहले दशक में क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणा का दूसरा स्रोत था फ्रांसीसी, इतालवी और रूसी क्रान्तिकारियों की कहानियाँ।

आन्दोलन के पहले चरण की कमज़ोरियाँ और सीमाएँ

आन्दोलन के पहले चरण के दौरान पूना और बंगाल के क्रान्तिकारियों की पहली कमज़ोरी थी उनका हिन्दू पूर्वाग्रह। इस पूर्वाग्रह ने मुस्लिम जनता को आन्दोलन से दूर रखा। हालाँकि बंगाल के क्रान्तिकारी मुस्लिम विरोधी नहीं थे, लेकिन मुस्लिम जनता से कार्यकर्ता भरती करने का कोई गम्भीर प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। इस कथन के कुछ अपवाद यहाँ-वहाँ मिल सकते हैं। लेकिन अपवाद कभी नियम नहीं बनते।

आन्दोलन के दायरे को सीमित करने वाली दूसरी कमज़ोरी थी जनता के साथ जीवन्त सम्बन्धों का न होना। स्वदेशी आन्दोलन के तीन या चार सालों को छोड़कर, जब बंगाल के क्रान्तिकारी जनता के बीच गये और लोगों को सक्रिय होने के लिए प्रोत्साहित किया, आमतौर पर क्रान्तिकारी व्यक्तिगत क्रियाशीलता में विश्वास रखते थे, जिसे सरकार आतंकवाद के ग़लत नाम से पुकारती थी। जनता इन क्रान्तिकारियों के आत्मबलिदान, निर्भीकता और साहस की प्रशंसा तो करती थी लेकिन अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं के साथ उनकी कार्रवाइयों को जोड़ सकने में असमर्थ रहती थी। ऐसी स्थिति में साम्राज्यवादियों के लिए क्रान्तिकारियों का दमन कर सकना और भी आसान हो जाता था।

आन्दोलन की तीसरी सीमा थी उसके कार्यकर्ताओं का वर्ग-चरित्र। क्रान्तिकारी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का एक बड़ा बहुमत निम्न-मध्यम वर्ग से सम्बन्धित था। इस चरण में यह एकदम स्वाभाविक था। यह वही दौर था जबकि नई पीढ़ी विदेशी शासन से पूर्ण मुक्ति का दावा करने लगी थी। यह पीढ़ी ख़ुद को ‘वयस्क’ समझने लगी थी। नौजवान तबके में बेचैनी थी मगर पुराना नेतृत्व होम रूल के लिए प्रस्तावों और प्रार्थनापत्रों से आगे बढ़ने को तैयार न था। लेकिन शिक्षित नौजवान एक नयी दुनिया पाने के लिए अपना सब लुटा देने पर आमादा था। नौजवानों का विश्वास था कि वे जुझारू सशस्त्र संघर्ष के जरिये देश को आज़ाद करा सकते हैं। इसके लिए वे अपना जीवन तक होम कर देने को तैयार थे।

मध्यम वर्ग स्वभाव से ही व्यक्तिवादी होता है। यह एक शक्तिशाली सहयोगी हो सकता है। अगर यह पूँजीपति वर्ग की तरफ़ जाता है तो प्रतिक्रियावाद का वाहक हो जाता है। अगर यह मज़दूर वर्ग के साथ खड़ा होता है तो, स्वयं नेतृत्व प्रदान कर सकने की क्षमता न होते हुए भी, एक क्रान्तिकारी शक्ति बन जाता है। इसकी स्वतन्त्र कार्रवाइयाँ प्रायः व्यक्तिगत कार्रवाइयों का रूप ले लेती हैं। जिस दौर की बात हम कर रहे हैं उस समय स्वाधीनता के लिए जनान्दोलन खड़ा कर सकने में न तो पूँजीपति वर्ग समर्थ था और न मज़दूर वर्ग ही। इस चुनौती का सामना अपने सपनों को साकार करने के लिए सबकुछ क़ुर्बान कर देने को तैयार इन मध्यमवर्गीय नौजवानों ने स्वभावतः अपने ढंग से किया जो आरम्भ में व्यक्तिगत कार्रवाइयों का ही रूप ले सकती थी। यह सीमा एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज थी।

ग़ुलामी की अपमानजनक स्थिति के सामने समर्पण करने से बेहतर होता है चोट करना और नष्ट हो जाना। किसी न किसी को पहली चोट करनी ही पड़ती है। पहली चोट का कोई नतीजा नहीं निकलता और पहली चोट करने वाले ज़्यादातर नष्ट हो जाते हैं। लेकिन उनकी क़ुर्बानियाँ कभी बेकार नहीं जातीं। झरना बढ़कर गरजता हुआ दरिया बन जाता है, चिनगारी ज्वालामुखी बनती है, व्यक्ति समष्टि से एकाकार हो जाता है। पुरानी व्यवस्था की जगह एक नयी व्यवस्था आती है, और सपना एक हक़ीक़त का रूप ले लेता है। क्रान्तियाँ इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ती हैं। भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन भी ठीक इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ा।

“भारतीय क्रान्तिकारियों ने, अकल्पनीय कठिनाइयों के बीच भी, आधुनिक युग की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी ताक़त को चुनौती देने की ज़ुर्रत की। इतना ही नहीं, उस युग के क्रान्तिकारी शूरवीरों – चापेकर भाइयों, ख़ुदीराम, कनाईलाल और मदनलाल धींगरा ने अपने आत्मबलिदान और शहादत के माध्यम से अपने ऊँघते हुए देशवासियों को जगाया और उन्हें राष्ट्रीय स्वाधीनता तथा अपने जन्मसिद्ध जनवादी राजनीतिक अधिकारों के उच्च विचारों से भी परिचित कराया। क्रान्तिकारी आन्दोलन, ऐतिहासिक रूप से, अपने ढंग का वह पहला आन्दोलन था जिसने राष्ट्रीय स्वाधीनता और सम्प्रभुता के लिए भारत के संघर्ष के राजनीतिक उद्देश्य के रूप में पूर्ण स्वाधीनता तथा ब्रिटिश साम्राज्य से हर तरह के राजनीतिक सम्बन्ध-विच्छेद के लक्ष्य को जनता के सामने रखा। ठीक इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उन्होंने विदेशी साम्राजी शासन के विरुद्ध संगठित हथियारबन्द संघर्ष के लिए जनता का आह्वान किया।”

“वे शुरू से ही भारतीय जनता के लिए पूर्ण राष्ट्रीय प्रभुसत्ता और लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे और उस लक्ष्य से कभी डिगे नहीं।”

“उनकी शहादतों ने उनके प्रति जनता की प्रशंसा को उभारकर विदेशी साम्राज्यवादी शासन के प्रति उसकी नफ़रत को और भी तीखा बनाया और उसके संघर्षशील साहस को और भी ऊँचा उठाया।”12

ग़दर पार्टी की स्थापना

क्रान्तिकारी आन्दोलन के पहले दौर में बहुत-से क्रान्तिकारी देश छोड़कर यूरोप और अमेरिका चले गये थे। उनका उद्देश्य था भारत में क्रान्तिकारी गतिविधियों के संचालन के लिए धन संग्रह करना, प्रचार करना और साहसी, आत्मत्यागी तथा समर्पित युवकों की एक टीम खड़ी करना। इस काम में उनको कुछ कम सफलता नहीं मिली। लेकिन जहाँ तक अन्तिम लक्ष्य का प्रश्न है, उनके विचार अभी तक भारत की आज़ादी की एक भावनात्मक धारणा तक ही सीमित थे। क्रान्ति के बाद स्थापित होने वाली सरकार की रूपरेखा क्या होगी, दूसरे देशों की क्रान्तिकारी शक्तियों के साथ उसके सम्बन्ध क्या होंगे, नई व्यवस्था में धर्म का क्या स्थान होगा, आदि प्रश्नों पर उस समय के अधिकांश क्रान्तिकारी स्पष्ट नहीं थे। यह सूरत कमोबेश 1913 तक जारी रही। इन सभी मुद्दों पर स्पष्ट रवैया अपनाने का श्रेय ग़दर पार्टी के नेताओं को जाता है।

इस शताब्दी के पहले दशक में भारत छोड़कर जाने वाले क्रान्तिकारियों को अंग्रेज़ सरकार के हाथों में पड़ने से बचने के लिए एक देश से दूसरे देश तक भटकना पड़ता था। अन्त में, उनमें से कइयों ने अमेरिका में बसने और उस देश को अपने कार्य का आधार-क्षेत्र बनाने का फ़ैसला किया। इनमें प्रमुख थे – तारकनाथ दास, शैलेन्द्र घोष, चन्द्र चक्रवर्ती, नन्दलाल कार, बसन्तकुमार राय, सारंगधर दास, सुधीन्द्रनाथ बोस तथा जी.डी. कुमार। पहले दशक के अन्त तक लाला हरदयाल भी उनसे आ मिले। इन लोगों ने अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीय प्रवासियों से सम्पर्क किया, धन संग्रह किया, अख़बार निकाले, और कई जगहों पर गुप्त संस्थाएँ क़ायम कीं।

तारकनाथ दास ने फ्री हिन्दुस्तान नाम से अख़बार निकाला और अमेरिका में रह रहे भारतीय छात्रों तथा भारतीय प्रवासियों के लिए व्याख्यान देते रहे। वे समिति नाम की एक गुप्त संस्था के प्रधान भी थे। इस संस्था के अन्य सदस्य थे – शैलेन्द्रनाथ बोस, सारंगधर दास, जी.डी. कुमार, लस्कर और ग्रीन नामक एक अमेरिकी।

रामनाथ पुरी ने 1908 में ओकलैण्ड में ‘हिन्दुस्तान एसोसिएशन’ नाम की एक संस्था क़ायम की, और सर्कुलर ऑफ़ फ्रीडम नाम से एक अख़बार निकाला। ये इस अख़बार के माध्यम से अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़े जाने की वकालत करते रहे। जी.डी. कुमार ने वैंकूवर से स्वदेशी सेवक नामक अख़बार निकाला। वे वहाँ की एक गुप्त संस्था के सदस्य भी थे। इस संस्था के सदस्य रहीम और सुन्दर सिह भी थे। सुन्दर सिह आर्यन नाम के एक अख़बार का सम्पादन भी करते थे और उसके जरिये लगातार ब्रिटिश-विरोधी प्रचार चलाते थे। रहीम और आत्माराम ने वैंकूवर में ‘यूनाइटेड इण्डिया लीग’ का गठन किया।

लाला हरदयाल 1911 में अमेरिका पहुँचे और वहाँ स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हो गये। सैन फ्रांसिस्को में ‘हिन्दुस्तानी स्टूडेण्ट्स एसोसिएशन’ नाम की एक संस्था उन्होंने गठित की। 1913 में एस्टोरिया की ‘हिन्दुस्तानी एसोसिएशन’ का गठन हुआ। करीम बख़्श, नवाब ख़ान, बलवन्त सिह, मुंशीराम, केसर सिह और कर्तार सिह सराभा इसके सदस्य थे। ठाकुरदास और उनके मित्रों ने सेण्ट जॉन में रहने वाले भारतीयों की एक संस्था गठित की। 1913 में शिकागो में ‘हिन्दुस्तानी एसोसिएशन ऑफ़ दि युनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका’ का गठन हुआ।13

लाला हरदयाल ने महसूस किया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत इन संगठनों की गतिविधियों का समन्वय आवश्यक है। अतः उन्होंने कनाडा और अमेरिका में रहने वाले भारतीय क्रान्तिकारियों की एक मीटिग बुलायी। इस मीटिग में ‘हिन्दुस्तानी एसोसिएशन ऑफ़ द पैसिफ़िक कोस्ट’ नाम की एक संस्था के गठन का फ़ैसला लिया गया। बाबा सोहन सिह भकना और लाला हरदयाल इसके क्रमशः अध्यक्ष और सचिव चुने गये। लाला हरदयाल नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अपना पूरा समय एसोसिएशन के काम में लगाने लगे।

मार्च 1913 में एसोसिएशन ने सैन फ्रांसिस्को से ग़दर नाम से एक अख़बार निकालने का फ़ैसला किया। उसके बाद एसोसिएशन का नाम भी बदलकर ‘ग़दर’ पार्टी कर दिया गया।

आगे की तरफ़ एक बड़ा क़दम

1913 में ग़दर पार्टी का गठन क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास की दिशा में एक बहुत बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण क़दम था। इसने राजनीति को धर्म से मुक्त किया और धर्मनिरपेक्षता को अपनाया। धर्म को निजी मामला घोषित कर दिया गया।

अख़बार ग़दर ने हिन्दू-मुसलमान दोनों का आह्वान किया कि वे आर्थिक मसलों पर ज़्यादा ध्यान दें क्योंकि उनका दोनों के जीवन पर एक जैसा प्रभाव पड़ता है। प्लेग से हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मर रहे हैं। अकाल पड़ने पर अन्न से दोनों ही वंचित रहते हैं। पगार के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती दोनों पर की जाती है और दोनों को ही अत्यधिक ऊँची दरों पर भू-राजस्व तथा जल-कर देना पड़ता है। समस्या हिन्दू बनाम मुसलमान की नहीं बल्कि भारतीय बनाम अंग्रेज़ शोषकों की है। हिन्दू-मुस्लिम एकता को इतना मज़बूत बनाया जाना चाहिए कि कोई उसे तोड़ न सके।14

ग़दर पार्टी “धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती थी और ठोस हिन्दू-मुस्लिम एकता की तरफ़दार थी। वह छूत और अछूत के भेदभाव को भी नहीं मानती थी। भारत की एकता और भारत के स्वाधीनता-संग्राम के लिए एकता, यही उसे प्रेरित करने वाले प्रमुख सिद्धान्त थे।”15 इस मामले में ग़दर पार्टी उस समय के भारतीय नेताओं से मीलों आगे थी। सोहन सिह जोश के अनुसार, “ग़दर के क्रान्तिकारी राजनीतिक-सामाजिक सुधार के सवालों पर अपने समसामयिकों से आगे थे।”16

14 मई, 1914 को ग़दर में प्रकाशित एक लेख में लाला हरदयाल ने लिखा: “प्रार्थनाओं का समय गया; अब तलवार उठाने का समय आ गया है। हमें पण्डितों और क़ाज़ियों की कोई ज़रूरत नहीं है।”17 1913 में पोर्टलैण्ड में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि ग़दर के क्रान्तिकारियों को आगामी क्रान्ति के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें भारत जाकर और वहाँ से अंग्रेज़ों को भगाकर अमेरिका जैसी एक जनतान्त्रिक सरकार क़ायम करनी चाहिए जिसमें धर्म, जाति और रंग के अन्तर से परे सभी भारतीय समान और स्वतन्त्र हों।

लाला हरदयाल ने, जो अपनेआप को अराजकतावादी कहा करते थे, एक बार कहा था कि स्वामी और सेवक के बीच कभी कोई समानता नहीं हो सकती, भले ही वे दोनों मुसलमान हों, सिख हों, अथवा वैष्णव हों। अमीर हमेशा ग़रीब पर शासन करेगा…आर्थिक समानता के अभाव में भाईचारे की बात सिर्फ़ एक सपना है।18

हिन्दुस्तानियों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने को ग़दर पार्टी ने अपना एक उद्देश्य बनाया। युगान्तर आश्रम नाम के ग़दर पार्टी के दफ्तर में सवर्ण हिन्दू, अछूत, मुसलमान और सिख, सभी जमा होते और साथ-साथ भोजन करते थे।

धर्म जब राजनीति के साथ घुलमिल जाता है तो वह एक घातक विष बन जाता है जो राष्ट्र के जीवन्त अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ाता है, जनता के हौसले पस्त करता है, उसकी दृष्टि को धुँधला बनाता है, असली दुश्मन की पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मनःस्थिति को कमज़ोर करता है, और इस तरह राष्ट्र को साम्राज्यवादी साज़िशों की आक्रमणकारी योजनाओं का लाचार शिकार बना देता है। भारत में इस बात को सबसे पहले ग़दर के क्रान्तिकारियों ने महसूस किया। उन्होंने दिलेरी के साथ एलान किया कि वे इस ज़हर को अपनी राजनीति से दूर ही रखेंगे। और उन्होंने जो कहा वैसा ही किया भी। भारतीय राजनीति में यह उनकी पहली महान उपलब्धि थी।

ग़दर के क्रान्तिकारियों की दूसरी महान उपलब्धि थी, उनका अन्तरराष्ट्रीय दृष्टिकोण। “ग़दर का आन्दोलन एक अन्तरराष्ट्रीय आन्दोलन था। उसकी शाखाएँ मलाया, शंघाई, इण्डोनेशिया, ईस्ट इण्डीज़, फिलीपींस, जापान, मनीला, न्यूज़ीलैण्ड, हांगकांग, सिगापुर, फिजी, बर्मा और दूसरे देशों में कार्यरत थीं। ग़दर पार्टी के उद्देश्यों के प्रति इण्डस्ट्रियल वर्कर्स ऑफ़ द वर्ल्ड (आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू.) की बहुत हमदर्दी थी…वे (ग़दर के क्रान्तिकारी) सभी देशों की आज़ादी के तरफ़दार थे।”19

कई कवियों की लिखी हुई कविताओं के संग्रह ग़दर दी गूँज में एक कवि कहता है: “भाइयो, चीन के ख़िलाफ़ जंग में न लड़ो। भारत, चीन और तुर्की के अवाम आपस में भाई हैं। दुश्मन को इसकी इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए कि वह इस भाईचारे को तहस-नहस कर सके।”20

वैंकूवर में 1911 में एक संस्था क़ायम हुई थी जिसका उद्देश्य था बाक़ी दुनिया के साथ भारतीय राष्ट्र के स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे के सम्बन्ध क़ायम करना। लाला हरदयाल ने भी कई बार अपने भाषणों में यह घोषणा की थी कि वे केवल भारत में ही नहीं बल्कि हर उस देश में क्रान्ति चाहते हैं जहाँ ग़ुलामी और शोषण मौजूद है।21

ग़दर के क्रान्तिकारियों के प्रचार का एक प्रमुख अंग था दुनिया की श्रमिक यूनियनों के नाम अपील जारी करना। उन्होंने पूरी दुनिया के जनसाधारण से अपील की कि वे साम्राजी निज़ाम को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट हों।22

विचारधारा और कार्यक्रम

ग़दर पार्टी ब्रिटिश शासन की विरोधी थी और उसका उद्देश्य था सशस्त्र संघर्ष के जरिये भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त करके यहाँ अमेरिकी ढंग का प्रजातन्त्र स्थापित करना। उसका विश्वास था कि प्रस्तावों, प्रतिनिधि-मण्डलों और प्रार्थना-पत्रों से हमें कुछ मिलने वाला नहीं है। अंग्रेज़ शासकों के सामने नरमदलीय नेताओं का नाचना भी वे पसन्द नहीं करते थे। जिस गणतन्त्र की बात वे करते थे उसमें किसी तरह के राजा की नहीं, बल्कि एक चुने हुए राष्ट्रपति की गुंजाइश थी।

भारत की आज़ादी हासिल करने के लिए ग़दर पार्टी व्यक्तिगत कार्रवाइयों पर उतना निर्भर नहीं करती थी जितना इस बात पर कि सेना में प्रचार करके सैनिकों को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित किया जाये। उन्होंने सैनिकों से अपील की कि वे विद्रोह के लिए उठ खड़े हों।

ग़दर के क्रान्तिकारियों का वर्ग-चरित्र भी पहले के क्रान्तिकारियों से भिन्न था। पुराने क्रान्तिकारी मुख्यतः निम्न-मध्यम वर्ग के कुछ शिक्षित लोग थे जबकि ग़दर पार्टी के अधिकांश सदस्य किसान से मज़दूर बने लोग थे, और इसलिए उन्होंने विद्रोह के लिए किसानों से भी उठ खड़े होने की अपील की।

दो कमज़ोरियाँ

ग़दर पार्टी की स्थापना अमेरिका में हुई थी जहाँ लोगों को कुछ नागरिक स्वाधीनताएँ और अभिव्यक्ति की आज़ादी हासिल थी जबकि उस समय भारत में ये चीज़ें नहीं थीं। वहाँ ग़दर के नेता खुलकर अपनी योजनाओं, इरादों और कार्यक्रम पर बहस करते और उन पर लेख लिखते थे। इस तरह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को उनकी योजनाओं की पूरी-पूरी जानकारी रहती थी और वे ग़दर के क्रान्तिकारियों की गतिविधियों से पैदा हो सकने वाली हर स्थिति से निपटने को तैयार थे। ग़दर के नेताओं और कार्यकर्ताओं की इस अगोपनीयता की बहुत बड़ी क़ीमत पार्टी को चुकानी पड़ी।

दूसरी प्रमुख कमज़ोरी उनका यह भ्रामक विश्वास था कि एक साम्राज्यवादी शक्ति उनको दूसरी साम्राज्यवादी शक्ति के चंगुल से आज़ाद कराने में ईमानदारी के साथ सहायता करेगी। उनके दिमाग़ में यह बात साफ़ नहीं थी कि जर्मन हो या ब्रिटिश या कोई और – सभी साम्राज्यवादी शक्तियों की प्रवृत्ति एक जैसी होती है। जब पहला विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ तब ग़दर पार्टी और दूसरे क्रान्तिकारियों ने नारा दिया कि “ब्रिटेन की मुसीबत हमारे लिए सुनहरा अवसर है,” और कि “दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है”। इस विश्वास के साथ उन्होंने जर्मनी के क़ैसर से सहायता के लिए सम्पर्क किया। क़ैसर के प्रतिनिधियों से बातचीत के दौरान स्वाधीन भारत की भावी व्यवस्था से सम्बन्धित कुछ शर्तें भी उन्होंने रखने की कोशिश की। मगर इस नुक्ते पर क़ैसर का जवाब हमेशा अस्पष्ट रहा। उसकी दिलचस्पी जंग के दौरान ब्रिटेन के ख़िलाफ़ ग़दर पार्टी के क्रान्तिकारियों का अधिक से अधिक इस्तेमाल कर सकने तक ही सीमित थी। उसके अपने जंगी उद्देश्य थे – ब्रिटेन और फ्रांस से अधिक से अधिक उपनिवेश छीनना। इस तरह ग़दर के क्रान्तिकारी साम्राज्यवाद की वास्तविक प्रकृति से एकदम अनजान थे। वास्तविक और स्थायी मुक्ति के लिए ग़ुलाम देशों को पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था से लड़ाई लड़नी होगी। – यह बात रूस में अक्टूबर (नई प्रणाली में नवम्बर) 1917 की क्रान्ति के बाद ही पूरी तरह स्पष्ट हुई।

महान अक्टूबर क्रान्ति और उसका प्रभाव

1917 की अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति मानवता के इतिहास में एक युगान्तरकारी घटना है। उसने केवल रूस में ही साम्राज्यवाद को पराजित नहीं किया बल्कि पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था को भी एक ज़बरदस्त झटका दिया। इस क्रान्ति ने रूस में मनुष्य द्वारा मनुष्य के और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण पर आधारित व्यवस्था को समाप्त कर दिया। सोवियत जनता अपने भाग्य की स्वामी बन गयी। खेतों, कारख़ानों और वर्कशॉपों पर उसका सामूहिक स्वामित्व क़ायम हो गया। अक्टूबर क्रान्ति ने न सिर्फ़ रूस के अवाम को पूँजीपतियों और ज़मींदारों की ग़ुलामी से मुक्त किया बल्कि एक बिल्कुल नये समाज और नये इन्सान को भी जन्म दिया। उसने ग़ुलाम देशों के स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरित किया और उनके अन्दर विश्वास जगाया कि उनकी लड़ाई क़ामयाब होकर रहेगी। उसने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चल रहे मुक्ति-संघर्षों को नये आयाम भी दिये।

विश्वव्यापी साम्राज्यवाद-विरोधी संग्राम का अंग होने के नाते भारत का स्वाधीनता संग्राम भी इससे अछूता नहीं रहा। उसके दृष्टिकोण में भी एक फैलाव आया और महसूस किया गया कि आर्थिक और सामाजिक समानताओं के बिना आज़ादी का कोई अर्थ नहीं होगा।

अक्टूबर क्रान्ति और यूरोप तथा एशिया में साम्राज्यवाद-विरोधी क्रान्ति की लहर ने, और साथ ही प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त भारतीय जनता के क्रान्ति की तरफ़ बढ़ते क़दमों ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को चौकन्ना कर दिया था। उन्होंने अप्रिय स्थिति से निपटने के लिए दोतरफ़ा नीति अपनायी। एक तरफ़ तो उन्होंने मॉण्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों का ढकोसला खड़ा करके नरमपन्थी राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की और दूसरी तरफ़ राजद्रोह के मामलों की छानबीन करने और क्रान्तिकारियों के दमन के उपाय सुझाने के लिए न्यायमूर्ति रौलट की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी की सिफ़ारिशें बड़ी ही पाशविक थीं। उसने साधारण राजनीतिक गतिविधियों तक को राजद्रोह क़रार दे दिया था। रौलट कमेटी की दमनकारी सिफ़ारिशों के विरोध में गाँधीजी ने एक दिन आम हड़ताल का आह्वान किया। इस आह्वान के अप्रत्याशित प्रभाव हुए और जनता अपना क्रोध व्यक्त करने के लिए एकजुट होकर सामने आ गयी। यह सरकार के लिए ही नहीं, हमारे नेताओं के लिए भी एक नयी बात थी। अंग्रेज़ों ने भारतीयों को सबक सिखाने का निश्चय किया और 13 अप्रैल, 1919 को जलियाँवाला बाग़ में इस निश्चय को अमली रूप भी दे दिया गया। इसके बाद तो जनता में ग़ुस्से की लहर दौड़ गयी और पंजाब के लगभग सभी शहरों में लोग सड़कों पर निकल आये। सरकार ने उसे संगठित विद्रोह की संज्ञा दी। लेकिन वास्तव में गाँधीजी भी इस सबके लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने एलान किया कि एक दिन की आम हड़ताल का नारा देकर उन्होंने भयंकर भूल की थी। उन्होंने लोगों से आन्दोलन बन्द करने और सुधारों पर अमल करने का अनुरोध किया।

सितम्बर, 1920 में लाला लाजपत राय ने कांग्रेस को आगाह करते हुए कहा था कि जनता क्षुब्ध एवं परेशान है और कुछ कर गुज़रने के मूड में है। उन्होंने कांग्रेस से यह भी कहा कि अगर जनता के इस ग़ुस्से को सही रास्ते पर न डाला गया तो वह अपना रास्ता अपनायेगी जो देश के लिए अहितकर होगा। “इस तथ्य की ओर से आँखें बन्द करने से कोई लाभ नहीं होगा कि हम क्रान्तिकारी युग से होकर गुज़र रहे हैं।” उन्होंने एलान किया और कहा, “प्रकृति से और परम्परा से हम क्रान्तियों को पसन्द नहीं करते हैं।”23 कांग्रेस ने नागपुर अधिवेशन में लाला जी की उस चेतावनी पर भी विचार किया और गाँधीजी को निर्देश दिया गया कि वे स्वराज्य के लिए असहयोग आन्दोलन आरम्भ करें। आन्दोलन शुरू करने से पहले महात्मा जी बंगाल गये और कुछ क्रान्तिकारी नेताओं से मिलकर उनसे एक साल का समय माँगा और कहा कि अगर वे एक साल के अन्दर स्वराज्य न प्राप्त कर लें तो क्रान्तिकारियों को अपने रास्ते पर चलने की पूरी छूट होगी। क्रान्तिकारी नेताओं ने गाँधीजी की बात मान ली। सत्याग्रह आन्दोलन शुरू हुआ। देखते-देखते वह सारे देश में फैल गया और गाँवों की छोटी-छोटी झोंपड़ियों तक में ‘स्वराज्य’ शब्द गूँजने लगा। आन्दोलन में भाग लेने के लिए गाँधीजी ने जो भी रोकथाम की शर्तें लगाई थीं उन सबको भी तोड़कर किसान पूरे जोश के साथ आन्दोलन में कूद पड़े। “सरकार परेशान और घबरायी हुई थी, उसके हाथ-पैर फूलने लगे थे। यदि सरकार की चौमुखी अवज्ञा की छूत शहरों से चलकर करोड़ों किसानों तक पहुँच जाती है तो अंग्रेज़ी हुकूमत के पास बचत के लिए कोई चारा नहीं रह जायेगा; तीस करोड़ जनता के विद्रोह की खौलती हुई हाँडी से उनकी सारी तोपें और हवाई जहाज़ भी उन्हें बचा नहीं सकेंगे।”24 गाँधीजी भी ख़ुश नहीं थे और उतने ही घबराये हुए थे। वे आन्दोलन वापस लेने के लिए किसी अवसर की प्रतीक्षा में थे और फ़रवरी, 1922 में चौरी-चौरा की घटना से उन्हें यह अवसर मिल गया। बजाय इसके कि वे उस घटना का स्वागत करते और जनता से उसी प्रकार की हज़ारों और घटनाओं की माँग करते, उन्होंने किसी से सलाह लिये बग़ैर चुपचाप आन्दोलन वापस ले लिया और राजनीति से अलग हो गये। इस पृष्ठभूमि में क्रान्तिकारियों ने, जिन्होंने गाँधीजी के कहने पर हथियार रख दिये थे, अपने को संगठित करके फिर से हथियार उठाने का फ़ैसला किया।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन

सभी क्रान्तिकारियों को एक अखिल भारतीय पार्टी में संगठित करने में पहल की शचीन्द्रनाथ सान्याल ने। इसी उद्देश्य से उन्होंने 1923 के अन्त में ‘हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ’ (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) की बुनियाद डाली। उन्होंने पार्टी का संविधान भी तैयार किया जो पीले काग़ज़ पर छपा था और इसीलिए वह ‘पीला परचा’ के नाम से मशहूर है। एक और महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ जो उन्होंने तैयार किया वह था ‘हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ’ का घोषणापत्र जिसका शीर्षक था (दि रिवोल्यूशनरी)। यह दस्तावेज़ पहली जनवरी, 1925 की रात में पूरे उत्तर भारत में बाँटा गया था। 1917 की अक्टूबर क्रान्ति से प्रभावित होकर घोषणापत्र में भारतीय क्रान्तिकारियों के उद्देश्य का एलान नीचे लिखे शब्दों में किया गया था:

“राजनीति के क्षेत्र में क्रान्तिकारी पार्टी का तात्कालिक उद्देश्य संगठित सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत के संयुक्त राज्यों का एक संघीय गणराज्य (फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ इण्डिया) स्थापित करना है। इस गणराज्य के अन्तिम संविधान का निर्माण एवं घोषणा तब होगी जब सम्पूर्ण भारत के प्रतिनिधि अपने निर्णयों को लागू करने में सक्षम होंगे। लेकिन इस गणराज्य का मूलभूत सिद्धान्त सार्वजनिक मताधिकार पर और शोषण पर आधारित ऐसी समस्त व्यवस्थाओं की समाप्ति पर आधारित होगा जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को सम्भव बनाती हैं। इस गणराज्य में मतदाताओं को, यदि वे चाहें तो, प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार होगा, अन्यथा प्रजातन्त्र एक मखौल बनकर रह जायेगा।”

घोषणापत्र में कहा गया था कि “यह क्रान्तिकारी पार्टी इन अर्थों में राष्ट्रीय न होकर अन्तरराष्ट्रीय है कि इसका अन्तिम उद्देश्य विश्व में मेल एवं सामंजस्य स्थापित करना है। यह विभिन्न राष्ट्रों और राज्यों के बीच प्रतिद्वन्द्विता के बजाय सहयोग चाहती है; और इन अर्थों में वह भारत के उज्ज्वल अतीत के महान ट्टषियों एवं आज के बोल्शेविक रूस का अनुसरण करेगी।”25

घोषणापत्र में साम्प्रदायिक समस्या के बारे में, जनता के आर्थिक एवं सामाजिक हितों के सवाल पर और कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक पार्टियों के बारे में क्रान्तिकारियों के दृष्टिकोण को स्पष्ट किया गया था।

इन सभी सवालों पर घोषणापत्र का दृष्टिकोण निश्चित रूप से अतीत का दामन छोड़कर समाजवाद का और सोवियत को ‘विजयी समाजवाद का पहला देश’ कहकर उसका स्वागत करता है। उसमें हमें राष्ट्रीय आज़ादी के लिए चलने वाले आन्दोलनों के अन्तरराष्ट्रीय चरित्र की समझ भी देखने को मिलती है। हालाँकि यह समझ अभी बहुत साफ़ नहीं है। स्वतन्त्र भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कैसी होगी, घोषणापत्र में उस पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मज़दूरों और किसानों को संगठित करने की आवश्यकता को भी स्वीकार किया गया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि घोषणापत्र का लेखक मार्क्सवादी था या उसने वैज्ञानिक समाजवाद के सारतत्त्व को आत्मसात कर लिया था। उसका झुकाव ख़ासतौर पर ईश्वर और रहस्यवाद की ओर है। घोषणापत्र के अनुसार, “पार्टी का उद्देश्य सत्य को प्रस्थापित करना और उसका प्रचार करना है। विश्व न माया है न भ्रम कि उसकी तरफ़ से आँख बन्द कर ली जाये और उसकी उपेक्षा की जाये। वह एक अविभाज्य आत्मा का प्रकट स्वरूप है, आत्मा जो शक्ति, ज्ञान और सौन्दर्य का सर्वोच्च उद्गम है।” लेखक मार्क्सवाद के आर्थिक पक्ष को स्वीकार करता है, जो काकोरी से पहले के क्रान्तिकारियों के मुक़ाबले निश्चय ही एक आगे बढ़ा हुआ क़दम है। लेकिन जहाँ तक मार्क्सवाद के दार्शनिक पक्ष का सवाल है, लेखक भौतिकवाद को न मानकर भगवान और धैर्य पर अडिग रहता है। आगे चलकर सान्याल जी स्वयं लिखते हैं: “कम्युनिस्ट दर्शन में इतिहास के भौतिकवादी विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। और इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या में वर्ग-संघर्ष की अवधारणा शुरू से आखि़र तक लगातार मौजूद है…मैं आज भी इन सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं कर पाया हूँ…।”26

एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दा जिस पर उनका कम्युनिज़्म से मतभेद था, वह था सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व की अवधारणा। उनका यह मत था कि “सिर्फ़ मध्यम वर्ग के नौजवान ही नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखते हैं, जबकि मज़दूर और किसान क्रान्तिकारी सेना के सिपाही का काम करेंगे।”27

शचीन्द्रनाथ सान्याल और उनके समय के अन्य क्रान्तिकारियों की सैद्धान्तिक मान्यताओं का सत्येन्द्र नारायण मजूमदार ने अपनी पुस्तक इन सर्च ऑफ़ ए रिवोल्यूशनरी आइडियोलोजी एण्ड रिवोल्यूशनरी प्रोग्राम में संक्षेप में बड़ा अच्छा खुलासा प्रस्तुत किया है। दोनों दस्तावेज़ों (क्रान्तिकारी और संविधान) पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा है: “ये दोनों दस्तावेज़ उन क्रान्तिकारियों की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं जो उन दिनों साम्यवाद की तरफ़ आकर्षित हो रहे थे।”28 इसके बाद दोनों दस्तावेज़ों की विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं: “इन दोनों दस्तावेज़ों की विशिष्टताएँ हैं – (क) समाजवाद की विजय-पताका फहराने वाले पहले देश के रूप में बोल्शेविक रूस के प्रति और साम्यवाद के प्रति स्पष्ट झुकाव; (ख) राष्ट्रीय मुक्ति के लिए क्रान्ति के अन्तरराष्ट्रीय चरित्र को समझने की शुरुआत, हालाँकि यह समझ अभी बहुत साफ़ नहीं थी; (ग) स्वतन्त्र भारत की सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश; (घ) मज़दूरों और किसानों को संगठित करने के लिए कृत-संकल्प होना;

(घ) पार्टी में जनवादी-केन्द्रीयता के सिद्धान्त का प्रवेश।”29

दोनों दस्तावेज़ों की कमज़ोरियों को मजूमदार ने इस प्रकार गिनाया है: “

(क) साम्यवाद के प्रति झुकाव अवश्य था, लेकिन अभी तक साम्यवाद के अध्ययन का ठोस आधार उसे नहीं मिला था; (ख) राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष में मज़दूरों और किसानों की भूमिका के वास्तविक महत्त्व को स्पष्ट रूप से नहीं समझा गया था; (ग) घोषणापत्र का लेखक अभी तक धार्मिक रहस्यवाद के प्रभाव से ग्रस्त है; (घ) घोषणापत्र यह समझने में असफल रहा कि आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए जवाबी आतंकवादी अभियान का मज़दूरों और किसानों को संगठित करने के कार्य से सामंजस्य बैठाना अव्यावहारिक है; (घ) राष्ट्रीय स्थिति का ग़लत विश्लेषण देते हुए घोषणापत्र में कहा गया था कि ‘हमारे जीवन के हर क्षेत्र में चरम असहायता की भावना विद्यमान है और आतंकवाद उसमें यथोचित उत्साह पैदा करने का प्रभावकारी साधन’ आदि। जबकि उस समय तक भारत की मेहनतकश जनता संघर्ष की राह पर कूच कर चुकी थी। उसका अगुवा दस्ता मज़दूर वर्ग निर्मम पुलिस-दमन के बावजूद लगातार और बहादुरी के साथ शानदार लड़ाइयाँ लड़ रहा था।”30

बंगाल में भी उसी दिशा में विकास हो रहा था। वहाँ अनुशीलन और युगान्तर के कई नेताओं ने सोवियत रूस तथा कम्युनिज़्म में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी। लेकिन यह दिलचस्पी साम्यवाद के अध्ययन पर या अक्टूबर क्रान्ति और उसकी विशिष्टता की ठीक समझ पर आधारित नहीं थी। वे सोवियत यूनियन और कोमिण्टर्न को “हथियार तथा अन्य प्रकार की सहायता, मसलन बम बनाने की शिक्षा आदि, प्राप्त करने के एक सम्भावित स्रोत के रूप में देखते थे। लेकिन जब उन्हें पता चला कि सोवियत यूनियन और कम्युनिस्ट इण्टरनेशलन दोनों ही जनता से अलग किसी प्रकार की सशस्त्र गतिविधियों को प्रोत्साहन नहीं देते हैं तो उनकी दिलचस्पी ठण्डी पड़ गयी।”31

उस समय, अर्थात तीसरे दशक के उत्तरार्द्ध में भारतवर्ष में कम्युनिस्ट विचारधारा जनप्रिय हो रही थी। अक्टूबर क्रान्ति और रूस के ख़िलाफ़ साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की पराजय के अलावा इस बदलाव के कुछ अन्य कारण भी थे। जैसे: (क) पेशावर और कानपुर के बोल्शेविक षड्यन्त्र केस; (ख) देश के कई भागों में किसानों के जुझारू संघर्ष; (ग) मज़दूरों की देशव्यापी बड़ी-बड़ी हड़तालें

(घ) मज़दूर-किसान पार्टी का गठन; (घ) देश के विभिन्न कम्युनिस्ट ग्रुपों को मिलाकर एक अखिल भारतीय पार्टी के गठन का प्रयास। राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर घटित इन घटनाओं से प्रभावित होकर अनुशीलन के कुछ कार्यकर्ता पार्टी से अलग होकर कम्युनिस्ट आन्दोलन में चले गये। अनुशीलन में उनका अच्छा सम्मान था और क्रान्तिकारी युवकों में साम्यवाद को जनप्रिय बनाने में उन लोगों की काफ़ी हद तक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ का गठन

संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) में 1925 में क्रान्तिकारी पार्टी के प्रायः सभी प्रमुख नेता काकोरी षड्यन्त्र केस के सिलसिले में पकड़कर जेल में बन्द कर दिये गये थे। इससे हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के संगठन को बहुत बड़ा धक्का लगा। केवल चन्द्रशेखर आज़ाद और कुन्दनलाल गुप्त ही पुलिस के चंगुल से बचकर निकल पाये थे। इनके अतिरिक्त बाहर जो साथी रह गये थे वे सब दूसरी पंक्ति के सिपाही थे। पार्टी को फिर से संगठित करने का दायित्व इन्हीं दूसरी पंक्ति के साथियों पर पड़ा। उस समय अर्थात 1925 में कुछ क्रान्तिकारी लाहौर में सक्रिय थे और कुछ कानपुर में फिर से काम आरम्भ करने का प्रयास कर रहे थे। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से उस समय तक इन दोनों केन्द्रों के साथियों के दिमाग़ साफ़ नहीं थे। हाँ, एक सही सिद्धान्त की तलाश अवश्य आरम्भ हो गयी थी। इस दिशा में दोनों केन्द्रों के साथियों को योग्य मार्गदर्शक भी मिल गये थे।

इस समय (1925-26) लाहौर के साथी, ख़ासकर भगतसिह और सुखदेव, रूसी अराजकतावादी बाकुनिन से प्रभावित थे। भगतसिह को अराजकतावाद से समाजवाद की ओर लाने का श्रेय दो व्यक्तियों को है – कामरेड सोहन सिह जोश जो अब हमारे बीच में नहीं हैं और लाला छबीलदास। जोश एक मशहूर कम्युनिस्ट नेता और किरती नाम की पंजाबी मासिक पत्रिका के सम्पादक थे। वे भगतसिह से विभिन्न विषयों पर बातचीत करते और उन्हें किरती में लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। लाला छबीलदास ‘तिलक स्कूल ऑफ़ पोलिटिक्स’, जो नेशनल कॉलेज के नाम से भी प्रसिद्ध था, के प्रधानाचार्य थे। वे नौजवान क्रान्तिकारियों को बतलाते रहते थे कि क्या पढ़ें और कैसे पढ़ें। भगवतीचरण वोहरा का समाजवाद की तरफ़ आरम्भ से ही रुझान था। सोहन सिह जोश का सारा मार्ग-दर्शन और लाला छबीलदास के किताबों के बारे में सारे सुझाव पुस्तकों के अभाव में व्यर्थ ही रह जाते। इस आवश्यकता को कुछ हद तक पूरा किया लाला लाजपत राय की ‘द्वारकादास लाइब्रेरी’ ने। इस पुस्तकालय में राजनीति-सम्बन्धी पुस्तकों का अच्छा संग्रह था जिनमें मार्क्सवादी और सोवियत रूस पर ऐसी पुस्तकें भी शामिल थीं जिन्हें सरकार ने ज़ब्त नहीं किया था।

लाहौर के क्रान्तिकारियों ने उस पुस्तकालय से पूरा लाभ उठाया। उस काम में उन्हें पुस्तकालय के अध्यक्ष और क्रान्तिकारियों के हमदर्द श्री राजाराम शास्त्री (अब स्वर्गीय) से काफ़ी सहायता मिलती थी। पुस्तकें प्राप्त करने का एक और भी सोर्स था रामकृष्ण एण्ड सन्स नाम की किताबों की एक दूकान। यह दूकान अनारकली बाज़ार में थी और उसके पास इंग्लैण्ड से ज़ब्तशुदा पुस्तकें मँगवाने की अच्छी व्यवस्था थी। पंजाब के क्रान्तिकारियों ने, ख़ासकर भगतसिह और भगवतीचरण वोहरा ने, इन सुविधाओं से पूरा लाभ उठाया। श्री राजाराम शास्त्री ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि भगतसिह वस्तुतः पुस्तकों को पढ़ता नहीं निगलता था, लेकिन फिर भी उसकी ज्ञान की पिपासा सदा अनबुझी ही रहती थी। भगतसिह पुस्तकों का अध्ययन करता, नोट्स बनाता, अपने साथियों से उन पर विचार-विमर्श करता, अपनी समझ को नये ज्ञान की कसौटी पर आत्मालोचनात्मक ढंग से परखने का प्रयास करता और इस प्रक्रिया में अपनी समझ में जो-जो ग़लतियाँ दिखलायी पड़तीं उन्हें सुधारने की कोशिश करता। इन सब बातों ने पंजाब ग्रुप को तेज़ी के साथ आगे बढ़ने में मदद की। परिणामस्वरूप 1928 के आरम्भ में उन्होंने अराजकतावाद को छोड़कर समाजवाद को ध्येय के रूप में स्वीकार कर लिया। इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने मार्क्सवाद को पूरी तरह से समझ लिया था। अतीत के प्रभाव से अभी पूरी तरह छुटकारा नहीं मिल पाया था।

कानपुर के साथी भी ठीक उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे, हालाँकि उनकी आगे बढ़ने की गति में वह तेज़ी नहीं थी जो लाहौर के साथियों में थी। कानपुर में राधामोहन गोकुलजी, सत्यभक्त और मौलाना हसरत मोहानी अपने को कम्युनिस्ट कहते थे। इनमें से राधामोहन जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके पास पुस्तकों का अच्छा संग्रह था। अध्ययनशील व्यक्ति होने के साथ ही वे एक सशक्त लेखक भी थे। 1927 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी – कम्युनिज़्म क्या है? सरल और सीधी-सादी भाषा में इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने हिन्दी के पाठकों के सामने कम्युनिस्ट सिद्धान्त के प्रमुख मुद्दों को प्रस्तुत किया था। इन पंक्तियों के लेखक को भी कम्युनिज़्म का पहला सबक राधामोहन जी से ही मिला था। राधामोहन जी कट्टर नास्तिक थे। ईश्वर, धर्म, अन्धविश्वास आदि पर उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में काफ़ी कुछ लिखा था। उनका यह रूप देखकर हिन्दी के उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द ने उन्हें ‘आधुनिक चार्वाक’ कहकर पुकारा था।

सत्यभक्त का कम्युनिज़्म अध्यात्मवादी रंग का था और मौलाना हसरत मोहानी के विचार कम्युनिज़्म और इस्लाम की खिचड़ी कहे जा सकते हैं। इन कमज़ोरियों के बावजूद सोवियत रूस और साम्यवाद को हिन्दी भाषा-भाषी जनता के बीच जनप्रिय बनाने में इन तीनों की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। कानपुर के युवा क्रान्तिकारियों ने समाजवाद की प्रथम दीक्षा इन्हीं महानुभावों से प्राप्त की थी। शौक़त उस्मानी भी विजयकुमार सिन्हा के माध्यम से कानपुर ग्रुप के सम्पर्क में थे, लेकिन हम लोगों को उनसे किसी प्रकार का सैद्धान्तिक मार्गदर्शन नहीं मिल सका था। श्री गणेशशंकर विद्यार्थी से भी, जो कानपुर की बहुत बड़ी मशहूर हस्ती थे, क्रान्तिकारियों को हर तरह की सहायता मिलती रहती थी। वे राजनीतिक अध्ययन और जनता के बीच काम पर विशेष रूप से बल देते थे।

इस सबके परिणामस्वरूप कानपुर के साथियों का झुकाव भी समाजवाद की तरफ़ हो गया था। लेकिन यह झुकाव बुद्धिसंगत होने के बजाय भावात्मक अधिक था। उस समय तक कानपुर ग्रुप चन्द्रशेखर आज़ाद और कुन्दनलाल गुप्त से सम्पर्क स्थापित कर चुका था। ये दोनों साथी काकोरी षड्यन्त्र केस में फ़रार घोषित किये जा चुके थे।

यह थी पृष्ठभूमि, जब 1928 के आरम्भ में भगतसिह ने विभिन्न दलों को मिलाकर क्रान्तिकारियों का एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का विचार अपने साथियों के सामने रखा। उनके प्रस्ताव इस प्रकार थे: (क) समय आ गया है कि हम समाजवाद को साहस के साथ अपना अन्तिम लक्ष्य घोषित करें;

(ख) पार्टी का नाम तदनुसार बदला जाना चाहिए ताकि लोग जान सकें कि हमारा अन्तिम लक्ष्य क्या है; (ग) हमें सिर्फ़ उन्हीं कामों को हाथ में लेना चाहिए जिनका सीधा सम्बन्ध जनता की ज़रूरतों और भावनाओं से हो सकता है, और हमें मामूली पुलिस अधिकारियों अथवा भेदियों को मारने में अपनी शक्ति और समय का अपव्यय नहीं करना चाहिए; (घ) धन के लिए हमें सरकारी ख़ज़ाने पर ही हाथ डालना चाहिए और यथासम्भव निजी घरों पर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए; और (घ) सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त का कड़ाई से पालन करना चाहिए।

भगतसिह ने इन सब मुद्दों पर लाहौर और कानपुर के अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श किया और चन्द्रशेखर आज़ाद तथा कुन्दनलाल की सहमति भी ले ली। इसके बाद यह तय किया गया कि विभिन्न प्रान्तों के प्रतिनिधियों की एक बैठक 8 और 9 सितम्बर, 1928 को दिल्ली में आयोजित की जाये। पाँच प्रान्तों के प्रतिनिधियों को इसके लिए आमन्त्रित किया गया, लेकिन इनमें से चार प्रान्तों ने ही अपनी स्वीकृति दी। बंगाल को मीटिग में भाग लेने के लिए हम राज़ी नहीं कर पाये।

इस सम्बन्ध में एस.एन. मजूमदार ने लिखा है कि “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के बंगाल के प्रतिनिधियों ने मीटिग में भाग नहीं लिया क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि वे आतंकवाद तथा हिंसा के ख़िलाफ़ थे।” यह सही नहीं है। पार्टी की ओर से स्वयं मुझे ही अगस्त 1928 के अन्तिम सप्ताह में कलकत्ता भेजा गया था ताकि बंगाल के साथियों के साथ प्रस्तावों पर बातचीत करके उन्हें दिल्ली मीटिग में आने के लिए आमन्त्रित किया जा सके। सम्पर्क मिला था वाराणसी के एक तारापद भट्टाचार्य से। कलकत्ते में मेरा परिचय जिन सज्जन से कराया गया उनके बारे में कहा गया कि वे अभी-अभी जेल से छूटकर आये हैं। देखने से वे बुज़ुर्ग लगते थे, उनका शरीर मोटा और थुलथुला था और उनका व्यवहार बड़ा ही अरुचिकर था। उनकी बातचीत और हाव-भाव से मुझे यह समझने में देरी नहीं लगी कि मैं जिस व्यक्ति से मिल रहा हूँ, वह तानाशाही प्रवृत्ति वाला एक दम्भी एवं बड़ा अहंकारी व्यक्ति है। चार-पाँच नौजवान लड़के जो बराबर वहाँ मौजूद रहे, उन्हें सुशील दा कहकर सम्बोधित करते थे। मैंने जैसे ही उनके कमरे में प्रवेश किया वैसे ही उन्होंने यू.पी. ग्रुप को काकोरी काण्ड के लिए डाँटना-फटकारना शुरू कर दिया, “तुम लोगों ने यह काम हम लोगों से पूछे बग़ैर क्यों किया? और अब सारा संगठन चौपट कर देने के बाद हमसे सहायता माँगने आने से क्या फ़ायदा?” मैंने उनसे कहा कि मैं आपसे कोई सहायता माँगने नहीं आया हूँ बल्कि कुछ मुद्दों पर बातचीत करने और आपको दिल्ली मीटिग के लिए आमन्त्रित करने आया हूँ। इसके बाद मैंने एक-एक करके सभी प्रस्तावों के बारे में उन्हें बतलाया और उनसे दिल्ली मीटिग में भाग लेने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि वे अपनी शर्तों पर ही मीटिग में भाग ले सकेंगे और मुझसे यह आश्वासन माँगा कि उनकी शर्तें मान ली जायेंगी। उनकी शर्तें इस प्रकार थीं: (क) कि हम लोग समाजवाद या कम्युनिज़्म से कोई सरोकार नहीं रखेंगे; (ख) कि पार्टी का नाम नहीं बदला जायेगा; (ग) कि हमें सरकार से सीधे भिड़ा देने वाले काकोरी जैसे काम भविष्य में हमसे पूछे बग़ैर नहीं किये जायेंगे; (घ) कि केन्द्रीय कमेटी जैसी कोई चीज़ नहीं होगी और हम लोगों को केवल उन्हीं के माध्यम से बंगाल के मातहत रहकर काम करना होगा; (घ) कि हम लोगों को अपनी गतिविधियाँ सिर्फ़ संगठन बनाने, हथियार और पैसा जमा करने तक ही सीमित रखनी होंगी; (च) कि पैसे के लिए सिर्फ़ अराजनीतिक कामों की ही इजाज़त होगी। मैंने उन्हें इस बात पर राजी करने की कोशिश की कि वे बग़ैर किसी प्रकार की शर्तें लगाये खुले दिल से मीटिग में आयें और सभी बातों पर बहस में हिस्सा लें। उन्होंने मेरी बात मानने से साफ़ इन्कार कर दिया। चूँकि उनकी सभी शर्तें हमारे प्रस्तावों से बिल्कुल भिन्न थीं इसलिए मैंने विनम्रतापूर्वक उनकी शर्तें मानने से इन्कार कर दिया। इन कारणों से दिल्ली मीटिग बंगाल के साथियों की अनुपस्थिति में ही करनी पड़ी।

दिल्ली मीटिग और उसके बाद

आठ सितम्बर, 1928 को मीटिग में भाग लेने के लिए चार प्रान्तों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुल मिलाकर दस साथी कोटला फ़िरोज़शाह में जमा हुए थे। इनमें दो बिहार से, दो पंजाब से, एक राजस्थान से और पाँच संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) से थे। यू.पी. के पाँच साथियों में से भी दो ने मीटिग में बैठने से इन्कार कर दिया क्योंकि बाक़ी साथियों ने उनकी कुछ शर्तें नहीं मानीं। इस प्रकार केवल आठ साथियों ने ही बातचीत में भाग लिया। आज़ाद को सुरक्षा की दृष्टि से दिल्ली नहीं लाया गया था। लेकिन उनसे सभी मुद्दों पर पूर्वस्वीकृति प्राप्त कर ली गयी थी। मीटिग में दो दिन की बहस के बाद भगतसिह द्वारा रखे गये सभी प्रस्तावों को दो के ख़िलाफ़ छह के बहुमत से स्वीकार कर लिया गया। फणीन्द्रनाथ घोष और मनमोहन बनर्जी (दोनों बिहार से) ने समाजवाद को पार्टी के अन्तिम लक्ष्य के रूप में अपनाये जाने और पार्टी का नाम बदलने के प्रस्ताव का विरोध किया। आगे चलकर जब दिसम्बर 1928 में भगतसिह कलकत्ता गये और त्रैलोक्य चक्रवर्ती तथा प्रतुल गांगुली, जो उस समय तक जेल से छूटकर बाहर आ चुके थे, से मिले तो उन्होंने बताया कि दिल्ली मीटिग के लिए बंगाल को आमन्त्रित करने जो साथी पहले आये थे, उनको दुर्भाग्यवश एक ग़लत आदमी से मिला दिया गया था। भगतसिह ने दोनों नेताओं को दिल्ली के फ़ैसलों से अवगत कराया और सभी मुद्दों पर उनकी सहमति भी प्राप्त कर ली। वे हममें से कुछ साथियों को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए यतीन्द्रनाथ दास को आगरा भेजने के लिए भी सहमत हो गये।

1928 के आते-आते हम लोगों ने समाजवाद को सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया था, लेकिन अमल में हम पर अतीत का साया अब भी हावी था। फिर भी यह कहना ग़लत होगा कि साण्डर्स वध और केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने के पीछे भगतसिह की किसी प्रकार की मानसिक कुण्ठा या निराशा काम कर रही थी, जैसाकि एस.एन. मजूमदार ने साबित करने की कोशिश की है। वे लिखते हैं: “त्रैलोक्य चक्रवर्ती ने उन्हें (भगतसिह को) पाँच हज़ार की एक युवा वालण्टियर वाहिनी संगठित करने की सलाह दी, जैसीकि कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के समय (दिसम्बर 1928) संगठित की गयी थी। चक्रवर्ती ने आगे लिखा है कि भगतसिह ने उनकी सलाह पर अमल करने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। इसने उसके दिमाग़ में कुण्ठा और निराशा को जन्म दिया और कुछ सनसनीख़ेज़ काम की अनिवार्य आवश्यकता के बारे में उसके विश्वास को और पक्का कर दिया। शीघ्र ही उसके बाद असेम्बली में बम फेंकने की घटना हुई।”32

यह सारी कहानी तथ्यों से मेल नहीं खाती है। पहली बात तो यह कि भगतसिह ने कभी कोई बड़ा राजनीतिक क़दम पार्टी की केन्द्रीय कमेटी को विश्वास में लिये बग़ैर नहीं उठाया। पाँच हज़ार नौजवानों की एक वालण्टियर सेना गठित करने का प्रश्न कभी भी केन्द्रीय समिति के सामने बहस के लिए नहीं आया। दूसरी बात यह कि इस प्रकार की किसी वालण्टियर सेना का विचार हवा में पुल बाँधने जैसा विचार था। चार-पाँच दिनों के लिए थैलियों के सहारे खुलेतौर पर पाँच हज़ार की वालण्टियर सेना (कांग्रेस द्वारा – स-) खड़ी कर लेना एक बात थी, लेकिन गुप्त क्रान्तिकारी काम के लिए राजनीतिक तौर पर सजग, प्रशिक्षित और अनुशासित नौजवानों की इतनी बड़ी सेना कुछ महीनों में खड़ी कर लेना सम्भव भी नहीं था। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि भगतसिह कलकत्ते से जनवरी 1929 के पहले सप्ताह में वापस आये। फ़रवरी में जब यतीन्द्रनाथ दास आगरा आये तो हममें से हर कोई किसी न किसी रूप में बम फ़ैक्टरी स्थापित करने के काम में व्यस्त हो गया था। फिर मेरठ की गिरफ्तारियों से पहले फ़रवरी के अन्त में आगरा में ही असेम्बली में बम फेंकने का फ़ैसला लिया गया। ऐसी स्थिति में भगतसिह का त्रैलोक्य बाबू की सलाह पर अमल करने का प्रयास करना, विफल होना, निराशा और पस्ती का शिकार होना आदि का प्रश्न नहीं उठता था। इस प्रकार की असफलता, निराशा, कुण्ठा आदि की मनगढ़न्त बातों से असेम्बली में बम फेंकने के काम का राजनीतिक महत्त्व ही समाप्त हो जाता है और वह एक व्यक्ति की कुण्ठा और निराशा का परिणाम-मात्र रह जाता है।

ऐसी ही हानिकारक और असेम्बली में बम फेंकने के महत्त्व को कम करने वाली कहानी मन्मथनाथ गुप्त ने दी है। सुखदेव राज (शहीद सुखदेव नहीं – स-), जो 1928 और ’29 के पूर्वार्द्ध में कहीं भी तस्वीर में नहीं था, द्वारा प्रसारित एक सौ फ़ीसदी मनगढ़न्त कहानी को आधार बनाकर गुप्त जी ने कहा है कि पार्टी असेम्बली में बम फेंकने के लिए सुखदेव तथा बटुकेश्वर दत्त को भेजने के पक्ष में थी। लेकिन भगतसिह के प्रति व्यक्तिगत ईर्ष्या के कारण उसने भगतसिह को बी.के. दत्त के साथ जाने के लिए मजबूर कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद और दूसरे लोग निकल आने के पक्ष में थे। लेकिन भगतसिह इसके लिए राज़ी नहीं हुए। उनका तर्क था कि जनता को जगाने के लिए उच्चतम बलिदान की आवश्यकता है।33

यहाँ पर यह कहना ही ग़लत है कि असेम्बली में बम फेंकने के लिए सुखदेव को चुना गया था। आगरे में केन्द्रीय कमेटी की पहले दिन की मीटिग में जो दो नाम तय हुए थे, वे थे बटुकेश्वर दत्त और विजयकुमार सिन्हा। इस काम के लिए किसी भी स्तर पर सुखदेव का नाम कमेटी में विचारार्थ नहीं आया। हमारे सामने विचार-विमर्श का मुख्य विषय राजनीति था न कि व्यक्तिगत ईर्ष्या या वैरभाव, जो सौभाग्यवश उस समय हमारे बीच में नहीं था। इसमें सन्देह नहीं कि असेम्बली में बम फेंकने के लिए विजयकुमार सिन्हा के स्थान पर भगतसिह को भेजने के लिए सुखदेव पूरी तरह उत्तरदायी था। उसने यह इसलिए किया क्योंकि वह ईमानदारी के साथ विश्वास करता था कि भगतसिह के अलावा और किसी के जाने से काम का राजनीतिक उद्देश्य पूरा नहीं होगा। जहाँ तक उच्चतम बलिदान का सवाल है, क्रान्तिकारी आन्दोलन में बलिदान की कमी नहीं रही (और हर बलिदान उच्चतम होता है)। ऐसा नहीं था कि भगतसिह एक निराश एवं विफल मनोरथ नौजवान था, जिसने असेम्बली में बम फेंककर आत्महत्या करने का एक आसान रास्ता निकाल लिया था।

असेम्बली में बम फेंकने का फ़ैसला कैसे और कब लिया गया?

राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष के इतिहास में तीसरे दशक के अन्तिम वर्ष, ख़ासकर 1928-30 के वर्ष, बड़े ही महत्त्वपूर्ण थे। यही समय था जब वामपन्थी शक्तियों ने संगठित रूप से एवं दृढ़तापूर्वक बोलना आरम्भ कर दिया था। सर्वहारा वर्ग की बड़ी-बड़ी जुझारू हड़तालों ने देशव्यापी रूप धारण कर लिया था। मज़दूरों की संगठित ट्रेड यूनियन गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थीं, जिसके फलस्वरूप मज़दूर काम के हालात में सुधार और मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए और अधिक मुस्तैदी के साथ संघर्ष करने की स्थिति में आ गये थे। मज़दूरों, नौजवानों और विद्यार्थियों में कम्युनिस्टों का प्रभाव तेज़ी के साथ बढ़ रहा था: देश में पहली बार बायें बाज़ू का राजनीतिक आन्दोलन सर उठा रहा था। उस समय की युवा पीढ़ी की सोच की दिशा का वर्णन करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, “बुद्धिजीवियों, यहाँ तक कि सरकारी अफ़सरों में भी साम्यवाद और समाजवाद के अस्पष्ट विचार फैल चुके थे। कांग्रेस के नौजवान पुरुष और महिलाएँ, जो पहले ‘ब्राइस ऑन डेमोक्रेसी’, मार्ले और कीथ और मैज़िनी को पढ़ा करते थे, अब जब भी उन्हें उपलब्ध होतीं तो समाजवाद, कम्युनिज़्म और रूस पर किताबें पढ़ते थे: इन नये विचारों की तरफ़ लोगों का रुझान पैदा करने में मेरठ षड्यन्त्र केस ने काफ़ी सहायता पहुँचाई थी। विश्व-आर्थिक संकट ने भी लोगों को इस तरफ़ ध्यान देने के लिए मजबूर कर दिया था। चारों तरफ़ जिज्ञासा की एक नयी भावना स्पष्ट दिखलायी पड़ रही थी – मौजूदा संस्थाओं के प्रति एक प्रश्नवाचक और चुनौती भरी जिज्ञासा। उस मानसिक तूफ़ान का आम रुख स्पष्ट था। लेकिन वह अभी एक हलकी बयार थी – स्वयं अपने से अनभिज्ञ।”34

अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों को इस सबसे चिन्ता हुई और उन्होंने आन्दोलन को प्रारम्भ में ही कुचल देने का फ़ैसला किया। अधिकारी कितने घबराये हुए थे और सरकार का दिमाग़ किस तरह काम कर रहा था, यह देखने के लिए एक मिसाल ही पर्याप्त होगी। गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक सर डेविड पैट्रिक ने ‘भारत में कम्युनिज़्म’ पर अपनी रिपोर्ट में, जिसे उन्होंने 1929 में तैयार किया था, ‘बोल्शेविक अभिशाप’ के स्वरूप का नीचे लिखे शब्दों में वर्णन किया है: “सन् 1920 में तीसरी इण्टरनेशनल ने अपनी दूसरी कांग्रेस में जो थीसिस पास की थी उसमें सर सेसिल केए ने भारत के खि़लाफ़ एक सुनिश्चित षड्यन्त्र के कीटाणुओं को ठीक ही पहचाना था। उस थीसिस में कहा गया था, ‘उपनिवेशिक और अर्द्ध-उपनिवेशिक देशों का राष्ट्रीय आन्दोलन वस्तुगत दृष्टिकोण से और बुनियादी तौर पर क्रान्तिकारी संघर्ष है, और इसलिए वह विश्व-क्रान्तिकारी संघर्ष का हिस्सा है।’ इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि ग्रेट ब्रिटेन ने बोल्शेविक हमले का मुख्य प्रहार अपने ऊपर लिया है…क्योंकि वह विश्व-क्रान्ति, जिसे बोल्शेविक लोग अपनी अन्तिम सफलता के लिए ज़रूरी शर्त मानते हैं, के ख़िलाफ़ मुख्य क़िलों में से एक है। बोल्शेविकों का यह विश्वास है कि ब्रिटिश साम्राज्य में भारत सबसे कमज़ोर बिन्दु है। और वे इसे धार्मिक विश्वास के रूप में दिल में सँजोये हुए हैं कि जब तक भारत आज़ाद नहीं हो जाता तब तक रूस इंग्लैण्ड के अभिशाप से मुक्त नहीं हो सकेगा।”35

जे. क्रेरर ने, जो उस समय भारत सरकार के होम मेम्बर थे, कहा था कि एक व्यवस्थित समाज के लिए कम्युनिज़्म के सिद्धान्त और अमल से अधिक विध्वंसक और कोई चीज़ नहीं हो सकती।36

कम्युनिज़्म, बायें बाज़ू की शक्तियों और श्रमिक वर्ग के आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में दो बिल पेश करने का फ़ैसला किया – पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल। पहला बिल उन लोगों के खि़लाफ़ था जो ब्रिटिश-भारत या किसी भारतीय रजवाड़े के निवासी नहीं थे। पहले बिल में गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया था कि वह अंग्रेज़ या अन्य विदेशी कम्युनिस्ट को भारत से निकाल दें। दूसरे बिल का उद्देश्य मज़दूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों की कटौती करना था।

असेम्बली में पूरे विरोध पक्ष ने, जनता ने और प्रेस ने दोनों बिलों का जमकर विरोध किया। इस चौमुखी विरोध को नज़रअन्दाज़ करते हुए सरकार ने 6 सितम्बर, 1928 को पब्लिक सेफ्टी बिल असेम्बली में पेश किया। 24 सितम्बर को सदन ने उसे नामंज़ूर कर दिया। जनवरी 1929 में कुछ फेर-बदल के साथ सरकार ने उसे फिर असेम्बली के सामने रखा।37

जिस समय समाचारपत्रों में यह ख़बर छपी कि सरकार ने बिल को असेम्बली में फिर से पेश करने का फ़ैसला कर लिया है उस समय भगतसिह आगरे में था। समाचार पर उसकी जो प्रतिक्रिया हुई वह बड़ी तीखी थी। उसने कहा कि सरकार के इस मनमानेपन के ख़िलाफ़ प्रतिवाद के रूप में कुछ न कुछ ज़रूर करना चाहिए। वह लाहौर गया, सुखदेव के साथ अपने प्रस्तावों पर बात की, वापस आया, केन्द्रीय कमेटी की बैठक बुलायी और उसके सामने अपने प्रस्ताव रखे। संक्षेप में उसके प्रस्ताव इस प्रकार थे: (1) पार्टी को असेम्बली में बम फेंककर सरकार के इस सख़्त एवं हठी रवैये का विरोध करना चहिए; (2) इस काम को करने के लिए जो साथी तैनात किये जायें वे काम के बाद भागने की कोशिश करने के बजाय वहीं आत्मसमर्पण कर दें और केस के दौरान अदालत को पार्टी के उद्देश्यों के प्रचार के लिए मंच के तौर पर इस्तेमाल करें; और (3) इस फ़ैसले को कार्यान्वित करने के लिए एक और साथी के साथ उसे स्वयं जाने की अनुमति दी जाये। भगतसिह के पहले दो सुझावों का केन्द्रीय कमेटी के सभी सदस्यों ने स्वागत किया। लेकिन उसका तीसरा सुझाव किसी ने भी नहीं माना। यह मीटिग आगरे में हुई थी और पहले दिन सुखदेव उसमें उपस्थित नहीं था। वह दूसरे दिन आया। सुखदेव के आ जाने पर भगतसिह को बल मिला और काफ़ी बहस के बाद अन्त में कमेटी ने भगतसिह का तीसरा प्रस्ताव भी मान लिया।

दूसरा बिल (ट्रेड डिस्प्यूट बिल) असेम्बली में 4 सितम्बर, 1928 को पेश किया गया था। सदन ने उसे सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया। वहाँ से कुछ फेर-बदल के साथ उसे 2 अप्रैल, 1929 को बहस के लिए असेम्बली के सामने फिर लाया गया। सदन ने 8 अप्रैल को 38 के ख़िलाफ़ कुछ वोटों से उसे पास कर दिया। जैसे ही अध्यक्ष महोदय वोटिग का परिणाम घोषित करने के लिए उठे वैसे ही भगतसिह और बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से असेम्बली भवन में बम फेंके और नारे लगाने के साथ-साथ परचे भी गिराये, जिनमें बम फेंकने के राजनीतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया था। यह परचा उसी दिन हिन्दुस्तान टाइम्स के सन्ध्याकालीन परिशिष्ट में प्रकाशित हो गया था। यह हमें क्रान्तिकारी आन्दोलन के एक छोटे दौर में पहुँचा देता है, जिसका ज़िक्र लोग कभी-कभी आतंकवादी-साम्यवाद या टेरो-कम्युनिज़्म के नाम से करते हैं।

टेरो-कम्युनिज़्म या आतंकवादी-साम्यवाद

लाहौर तथा कानपुर के क्रान्तिकारियों ने 1926-27 से ही समाजवाद की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था। आठ-नौ सितम्बर 1928 की दिल्ली मीटिग में हालाँकि समाजवाद को सिद्धान्त के रूप में और समाजवादी समाज की स्थापना को अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था, अमल में हम लोग उसी पुराने व्यक्तिवादी ढंग के कामों में ही लगे रहे। हम मज़दूरों, किसानों, युवकों और मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों को संगठित करने की बात तो करते थे लेकिन पंजाब में नौजवान भारत सभा के गठन को छोड़कर और कहीं भी संजीदगी के साथ उस दिशा में क़दम उठाने की कोशिश नहीं की गयी। उस मायने में हमारी वैज्ञानिक समाजवाद अर्थात मार्क्सवाद की समझ अधकचरी थी। मार्क्सवाद अमल को सिद्धान्त से अलग करने की इजाज़त नहीं देता, यह बात हम समझ नहीं पाये थे और यह कि उसमें व्यक्तिगत कामों के लिए कोई स्थान नहीं है। हम हिंसात्मक गतिविधियों को, जिसमें ज़ालिम सरकारी अधिकारियों की हत्या और छुटपुट विद्रोह शामिल थे, मज़दूरों, किसानों, युवकों और विद्यार्थियों के जन-संगठन बनाने के काम में मिलाना चाहते थे। लेकिन अमल में हमारा ज़ोर हिंसात्मक गतिविधियों और सशस्त्र कामों की तैयारी तक ही सीमित रहा। हमारा विश्वास था कि लोगों को नींद से जगाने के लिए और सरकारी दमन का जवाब देने के लिए यह सब आवश्यक है। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के अवसर पर दिसम्बर, 1928 में भगतसिह ने का. सोहन सिह जोश से कहा था, “हम आपकी पार्टी के कामों से और उसके कार्यक्रम से सौ फ़ीसदी सहमत हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब जनता में विश्वास की भावना जागृत करने के लिए दुश्मन के प्रहार का सशस्त्र कामों द्वारा तत्काल जवाब देना आवश्यक हो जाता है।”38 उस समय हमारे दिमाग़ इसी तरह काम कर रहे थे। हमारी समझ में निहित अन्तरविरोध का अपना तर्क था। मज़दूरों-किसानों को संगठित करने का हमारा फ़ैसला केवल एक पवित्र इरादा बनकर ही रह गया। हमारी शक्ति का अधिकांश हिस्सा प्रतिशोधात्मक कामों को संगठित करने में ही ज़ाया हुआ।

हमारी ग़लत समझ को ठीक करने का एक प्रयास तीसरे इण्टरनेशनल ने किया था। यह प्रयास विदेश में गठित भारत की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा “राष्ट्रवादियों से अपील” के ज़रिये किया गया था। यह अपील 15 दिसम्बर, 1924 के वैनगार्ड के परिशिष्ट में प्रकाशित हुई थी। अपील में क्रान्तिकारियों के बारे में कहा गया था:

“गुप्त सभाओं द्वारा किये जाने वाले छुटपुट आतंकवादी काम भी कुछ कम प्रभावहीन नहीं हैं। इस प्रकार के व्यर्थ उग्रवाद को अपनाने वालों की क्रान्ति की समझ भी उतनी ही ग़लत है। समाज की मौजूदा स्थिति में ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती है कि राजनीतिक और सामाजिक क्रान्तियाँ अहिंसात्मक होंगी या उनमें रक्तपात नहीं होगा। लेकिन हर रक्तपात या हिंसात्मक काम को क्रान्ति नहीं कहा जा सकता। एक ख़ास सामाजिक व्यवस्था को या राजनीतिक संस्था को उसके चन्द समर्थकों को मारकर कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है। और यह तो और भी नामुमकिन है कि थोड़े से सरकारी अफ़सरों को मारकर या ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से बहुत से सुधार पास करवाकर देश की आज़ादी हासिल की जा सके। ये दोनों उपाय समान रूप से प्राणहीन हैं, क्योंकि इनमें से कोई भी बुराई की जड़ पर चोट नहीं करता। दोनों ही राजनीतिक भूल हैं। लेकिन आतंकवादियों को ‘क्रान्तिकारी अपराधी’ कहना निपट मूर्खता है, क्योंकि ‘संवैधानिकतावादी’ निश्चित रूप से ग़ैर-क्रान्तिकारी हैं और निर्णायक घड़ी आते ही वे प्रतिक्रियावादी हो जायेंगे।”39

उसी लेख में दूसरी जगह पर क्रान्ति की सही-सही परिभाषा दे दी गयी थी:

“क्रान्ति क्या है? भारत के राष्ट्रीय हलकों में इसके बारे में एक बड़ी ग़लत धारणा बनी हुई है। आमतौर पर क्रान्ति को बम, रिवाल्वर और गुप्त संस्थाओं से जोड़ दिया जाता है। भारतीय राजनीतिक शब्दकोष में बहु-प्रचलित वाक्य ‘क्रान्तिकारी अपराध’ क्रान्ति की इसी ग़लत अवधारणा की उपज है। बहरहाल, क्रान्ति इस सबसे कहीं अधिक गम्भीर समस्या है। क्रान्ति एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है, जो प्रस्तुत ऐतिहासिक युग का अन्त और उसके स्थान पर एक नये युग का शुभारम्भ करती है। चूँकि जाने वाले समाज के प्रतिनिधि या दलाल, आर्थिक वर्ग और राजनीतिक संस्थाएँ, जो उस समाज में प्रचलित हालात से लाभान्वित होते रहे हैं, एक भयानक प्रतिरोध के बग़ैर ऐसा कोई परिवर्तन नहीं होने देंगे जिससे उनके प्रभुत्व का अन्त हो जाये और, जैसाकि आमतौर पर होता है, जिसका अन्त उनके चौमुखी विनाश में हो जाये। इसीलिए आमतौर पर राजनीतिक हिंसा और सामाजिक उथल-पुथल ‘क्रान्ति’ कहलाने वाली ऐतिहासिक घटना के अंग बन जाते हैं।”40

सन् 1925 में यंग कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल ने बंगाल के युवा क्रान्तिकारी संगठन के नाम एक अपील शाया की थी। यह यंग कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के घोषणापत्र के रूप में थी जो मासेज़ के जिल्द 1, नम्बर 7 में प्रकाशित हुआ था। घोषणापत्र में इस बात को स्वीकार किया गया था कि पूर्व के क्रान्तिकारी नौजवान राष्ट्रीय आज़ादी की लड़ाई में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। जनता के लिए अपना जीवन बलिदान करने वाले ‘हीरो-आतंकवादी’ के साहस और बहादुरी के प्रति गहरा आदर व्यक्त करते हुए घोषणापत्र ने कहा था कि “एक क्रान्तिकारी जो जनता के लिए लड़ रहा है उसे नैतिक अधिकार है कि वह जनता का गला घोंटने वालों और जल्लादों को रास्ते से हटा दे।”41

दुर्भाग्यवश इनमें से कोई भी दस्तावेज़ उस समय हमें नहीं मिला और हमें अपने अनुभवों के सहारे ही आगे बढ़ना पड़ा। व्यक्तिगत कामों का दायरा बहुत सीमित है यह समझने में हमें तीन साल लग गये। हम क़दम-ब-क़दम समाजवाद की तरफ़ बढ़ रहे थे। गिरफ्तारी के बाद जेल में काफ़ी समय मिला, पढ़ने के लिए काफ़ी सामग्री मिली, आपस में बहस करने और अपने अतीत पर संजीदगी से सोचने का काफ़ी मौक़ा मिला और तब कहीं जाकर हम सही नतीजे पर पहुँच पाये।

इसका यह मतलब नहीं कि जिस दौर की समीक्षा की जा रही है उसमें सकारात्मक कुछ था ही नहीं। उसकी कमज़ोरियों के साथ ही उसके कुछ सकारात्मक और मज़बूत पहलू भी थे। मैं अपनी और अपने साथियों की समझ की ख़ास कमियों पर रोशनी डाल चुका हूँ। संक्षेप में फिर से दोहरा दूँ, पहली बात तो यह कि हमारा कम्युनिज़्म को स्वीकार करना मार्क्सवाद के सही अध्ययन पर आधारित नहीं था। दूसरी कमज़ोरी थी मज़दूरों और किसानों को संगठित करने और जवाबी आतंकवाद के बीच तालमेल बिठलाने की अव्यावहारिकता को न समझ पाना।

इन सारी कमियों और सीमाओं के बावजूद इस थोड़े समय चलने वाले चर्चित दौर के खाते में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भी हैं। लाहौर की ‘नौजवान भारत सभा का घोषणापत्र’ (1928), असेम्बली बम केस के दौरान भगतसिह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा अदालत के सामने दिया गया बयान (1929), कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के समय बाँटा गया ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ का घोषणापत्र’ (दिसम्बर 1929) और ‘बम का दर्शन’ (जनवरी 1930) उस युग के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि दस्तावेज़ हैं। इन दस्तावेज़ों के आधार पर हम कह सकते हैं कि ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ (हिसप्रस) का पहला आगे बढ़ा हुआ क़दम था मार्क्सवाद को सिद्धान्त के रूप में और समाजवाद को अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार करना। बंगाल में भी आन्दोलन का रुख़ यही था, हालाँकि गति अपेक्षाकृत धीमी थी। जिस समय हिसप्रस ने समाजवाद को डंके की चोट पर अपना अन्तिम उद्देश्य घोषित कर दिया था, उस समय बंगाल के लगभग सभी क्रान्तिकारी दल और प्रमुख पार्टियाँ इस सवाल पर अनिश्चितता की स्थिति में थे।

समाजवाद को ध्येय के रूप में स्वीकार करने के अलावा इस दौर के क्रान्तिकारी मनुष्य द्वारा मनुष्य के और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण से मुक्त वर्गहीन समाज के पक्ष में थे। उन्होंने एलान किया कि उनकी लड़ाई सिर्फ़ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ ही नहीं है, बल्कि विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के खि़लाफ़ है। उनके दिलों में सोवियत यूनियन के प्रति प्रगाढ़ आदर और अपनापन था। उनका विश्वास था कि क्रान्ति के बाद जो सरकार बनेगी उसका रूप एक प्रकार की सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का होगा। उन्होंने ईश्वर, धर्म और रहस्यवाद से पूरी तरह छुटकारा पा लिया था। वे धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करते थे और उनका दृष्टिकोण घोर साम्प्रदायिकतावाद विरोधी था।

असेम्बली बमकाण्ड के बाद हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ के अधिकांश साथी गिरफ्तार कर लिये गये। उन्होंने अपने मुक़दमे की सुनवाई के दौरान अपने दृष्टिकोण को प्रचारित करने, समाजवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाने और क्रान्तिकारी पार्टी के उद्देश्यों तथा प्रयोजनों को जनता के सामने रखने के लिए अदालत का मंच के रूप में जमकर इस्तेमाल किया।

उनकी यह रणनीति क़ामयाब हुई। इसके बारे में एस.एन. मजूमदार ने लिखा है: “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की तमाम ग़लतियों और कमज़ोरियों के बावजूद समूचे राष्ट्रीय आन्दोलन में और तरुण क्रान्तिकारियों को साम्यवाद की ओर आकर्षित करने में इस पार्टी के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।”42

जी.एस. देओल के अनुसार, “क्रान्तिकारी आन्दोलन का कार्यक्षेत्र चाहे जितना सीमित रहा हो उसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की गति को एक दूसरी धारा के माध्यम से और तेज़ किया। बेशक यह कहा जा सकता है कि उनके (भगतसिह और उनके साथियों के – शि-व-) कार्यकलापों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग करने और पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास करने का पथ प्रशस्त किया।”43

देओल के अनुसार क्रान्तिकारियों के कार्यकलापों और संघर्षों ने देश में अत्यन्त विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी थी, जिसके कारण कांग्रेस 1930 का असहयोग आन्दोलन शुरू करने के लिए मजबूर हो गयी थी। “यह आन्दोलन भगतसिह और उनके साथियों के उग्र आन्दोलन के विकल्प के रूप में शुरू किया गया था। इस मत की पुष्टि महात्मा गाँधी द्वारा 2 मार्च, 1930 को वायसराय को लिखे गये एक पत्र के इस अंश से होती है: ‘हिंसावादी पार्टी अपनी जगह बनाती जा रही है और उसने अपने अस्तित्व का अहसास कराना शुरू कर दिया है।’ उन्होंने आगे स्पष्ट किया था कि वे जिस तरह का अहिसक आन्दोलन शुरू करना चाहते हैं, उससे न सिर्फ़ ब्रिटिश हुकूमत की हिसक शक्ति का बल्कि उभरते हुए हिंसावादी दल की संगठित हिसक शक्तियों का भी प्रतिरोध किया जा सकेगा।”44

वैज्ञानिक समाजवाद की ओर

‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ के अधिकांश प्रमुख नेता 1929 के मध्य तक गिरफ्तार करके जेलों में बन्द कर दिये गये थे, जहाँ उन्हें पढ़ने और विचार-विमर्श करने का भरपूर मौक़ा मिला। इससे उनके अन्दर जो नयी समझ पैदा हुई थी, उसके आधार पर उन्होंने अपने पूरे अतीत को, ख़ासकर वैयक्तिक कार्यकलापों और शौर्य प्रदर्शन के आदर्श को नये सिरे से जाँचा-परखा और अपनी अब तक की कार्यप्रणाली को छोड़कर समाजवादी क्रान्ति का रास्ता अपनाने का निश्चय किया। गहन अध्ययन और बोर्स्टल जेल में दूसरे साथियों से लम्बे विचार-विमर्श के बाद भगतसिह इस निर्णय पर पहुँचे कि यहाँ-वहाँ कुछ भेदियों और सरकारी अफ़सरों की वैयक्तिक हत्याओं से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

भगतसिह ने 19 अक्टूबर, 1929 को पंजाब स्टूडेण्ट्स की कांग्रेस के नाम एक सन्देश भेजा था जिसमें उन्होंने कहा था – “आज हम नौजवानों को बम और पिस्तौल अपनाने के लिए नहीं कह सकते।…इन्हें औद्योगिक क्षेत्रों की गन्दी बस्तियों में और गाँवों के टूटे-फूटे झोंपड़ों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जगाना है।”

2 फ़रवरी, 1931 को उन्होंने ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम’ एक अपील लिखी थी जिसमें उन्होंने जनसाधारण के बीच काम करने के महत्त्व को बारम्बार रेखांकित किया था। उन्होंने कहा था, “गाँवों और कारख़ानों में किसान और मज़दूर ही असली क्रान्तिकारी सैनिक हैं।”

इसी अपील में भगतसिह ने बलपूर्वक इस बात से इन्कार किया था कि वे आतंकवादी हैं। उनका कहना था, “मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है। लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं तो ऐसा क्रान्तिकारी हूँ जिसके पास एक लम्बा कार्यक्रम और उसके बारे में सुनिश्चित विचार होते हैं। मैं पूरी ताक़त के साथ बताना चाहता हूँ कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ और कभी था भी नहीं, कदाचित उन कुछ दिनों को छोड़कर जब मैं अपने क्रान्तिकारी जीवन की शुरुआत कर रहा था। मुझे विश्वास है कि हम ऐसे तरीक़ों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।” उन्होंने नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सलाह दी कि वे मार्क्स और लेनिन का अध्ययन करें, उनकी शिक्षा को अपना मार्गदर्शक बनायें, जनता के बीच जायें, मज़दूरों, किसानों और शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करें, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित करें, उनमें वर्ग-चेतना उत्पन्न करें, उन्हें यूनियनों में संगठित करें, आदि। उन्होंने नवयुवकों से यह भी कहा कि यह सारा काम तब तक सम्भव नहीं है जब तक जनता की एक अपनी पार्टी न हो। वे किस तरह की पार्टी चाहते थे इसका खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा था, “हमें पेशेवर क्रान्तिकारियों की ज़रूरत है – यह शब्द लेनिन को बहुत प्रिय था – पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की, जिनकी क्रान्ति के सिवा और कोई आकांक्षा न हो, और न जीवन का कोई दूसरा लक्ष्य हो। ऐसे कार्यकर्ता जितनी बड़ी संख्या में एक पार्टी के रूप में संगठित होंगे, उतनी ही तुम्हारी सफलता की सम्भावनाएँ बढ़ जायेंगी।”

उन्होंने आगे कहा:

“व्‍यवस्थित ढंग से आगे बढ़ने के लिए आपको जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है, वह है एक पार्टी जिसके पास जिस टाइप के कार्यकर्ताओं का ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है वैसे कार्यकर्ता हों – ऐसे कार्यकर्ता जिनके दिमाग़ साफ़ हों और समस्याओं की तीखी पकड़ हो और पहल करने और तुरन्त फ़ैसला लेने की क्षमता हो। इस पार्टी का अनुशासन बहुत कठोर होगा और यह ज़रूरी नहीं है कि वह भूमिगत पार्टी हो, बल्कि भूमिगत नहीं होनी चाहिए.–पार्टी को अपने काम की शुरुआत अवाम के बीच प्रचार से करनी चाहिए। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने और उनकी सक्रिय सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह बहुत ज़रूरी है। इस पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया जा सकता है।”

यहाँ भगतसिह खुल्लम-खुल्ला मार्क्सवाद, साम्यवाद और एक साम्यवादी पार्टी की वकालत करते दिखायी देते हैं।

क्रान्ति की परिभाषा

क्रान्ति के सम्बन्ध में भगतसिह के विचार बहुत स्पष्ट थे। निचली अदालत में जब उनसे पूछा गया कि क्रान्ति शब्द से उनका क्या मतलब है, तो उत्तर में उन्होंने कहा था, “क्रान्ति के लिए ख़ूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रान्ति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुलेतौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।” अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, “क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक ख़तरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो तथा एक विश्वसंघ मानवजाति को पूँजीवाद के बन्धन से और साम्राज्यवादी युद्धों से उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।”

समाजवाद की दिशा में भगतसिह की वैचारिक प्रगति की रफ्तार बहुत तेज़ थी। उन्होंने 1924 से 1928 के बीच विभिन्न विषयों का विस्तृत अध्ययन किया था। लाला लाजपत राय की द्वारकादास लाइब्रेरी के पुस्तकालयाध्यक्ष राजाराम शास्त्री के अनुसार उन दिनों भगतसिह वस्तुतः “किताबों को निगला करता था।” उनके प्रिय विषय थे रूसी क्रान्ति, सोवियत संघ, आयरलैण्ड, फ्रांस और भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन, अराजकतावाद और मार्क्सवाद। उन्होंने और उनके साथियों ने 1928 के अन्त तक समाजवाद को अपने आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य घोषित कर दिया था और अपनी पार्टी का नाम भी तदनुसार बदल दिया था। उनकी यह वैचारिक प्रगति उनके फाँसी पर चढ़ने के दिन तक जारी रही।

ईश्वर और धर्म के बारे में

ईश्वर, धर्म तथा रहस्यवाद पर भगतसिह के विचारों के बारे में कुछ शब्द कहे बग़ैर यह भूमिका अधूरी रह जायेगी। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि आज हर तरह के प्रतिक्रियावादी, रूढ़िवादी और साम्प्रदायिकतावादी लोग भगतसिह तथा चन्द्रशेखर आज़ाद के नाम और यश को अपनी निज की राजनीति और विचारधारा के पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं।

अपनेआप को नास्तिक बताते हुए “भगतसिह ने शुरू के क्रान्तिकारियों के तरीक़े और दृष्टिकोण के लिए पूरा सम्मान प्रदर्शित किया है और उनकी धार्मिकता के स्रोतों की पड़ताल की है। वे संकेत करते हैं कि अपने स्वयं के राजनीतिक कार्यों की वैज्ञानिक समझ के अभाव में उन क्रान्तिकारियों को अपनी आध्यात्मिकता की रक्षा करने, वैयक्तिक प्रलोभनों के विरुद्ध संघर्ष करने, अवसाद से उबरने, भौतिक सुखों और अपने परिवारों तथा जीवन तक को त्यागने की सामर्थ्य जुटाने के लिए विवेकहीन विश्वासों एवं रहस्यवादिता की आवश्यकता थी। एक व्यक्ति जब निरन्तर अपने जीवन को जोखिम में डालने और दूसरे सारे बलिदान करने के लिए तत्पर होता है तो उसे प्रेरणा के गहरे स्रोत की आवश्यकता होती है। शुरू के क्रान्तिकारी, आतंकवादियों की यह अनिवार्य आवश्यकता रहस्यवाद और धर्म से पूरी होती थी। लेकिन उन लोगों को ऐसे स्रोतों से प्रेरणा लेने की ज़रूरत नहीं रह गयी थी जो अपने कामों की प्रकृति को समझते थे, जो क्रान्तिकारी विचारधारा की दिशा में आगे बढ़ चुुके थे, जो कृत्रिम आध्यात्मिकता की बैसाखी लगाये बिना अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर सकते थे, जो स्वर्ग और मोक्ष के प्रलोभन और आश्वासन के बिना ही विश्वास के साथ और निर्भीक भाव से फाँसी के तख़्ते पर चढ़ सकते थे, जो दलितों की मुक्ति और स्वतन्त्रता के पक्ष में इसलिए लड़े क्योंकि लड़ने के अलावा और कोई रास्ता ही न था।”46

असेम्बली बमकाण्ड के केस की अपील के दौरान लाहौर हाईकोर्ट में बयान देते हुए भगतसिह ने विचारों की महत्ता पर बल देते हुए कहा था: “इन्‍क़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ की जाती है,” और उसके आधार पर उन्होंने यह सूत्र प्रस्तुत किया कि “आलोचना और स्वतन्त्र विचार किसी क्रान्तिकारी के दो अपरिहार्य गुण हैं,” और यह कि “जो आदमी प्रगति के लिए संघर्ष करता है उसे पुराने विश्वासों की एक-एक बात की आलोचना करनी होगी, उस पर अविश्वास करना होगा और उसे चुनौती देनी होगी। इस प्रचलित विश्वास के एक-एक कोने में झाँककर उसे विवेकपूर्वक समझना होगा।” उन्होंने दृढ़ता के साथ कहा था कि “निरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक है, इससे मस्तिष्क कुण्ठित होता है और आदमी प्रतिक्रियावादी हो जाता है।”

भगतसिह स्वीकार करते थे कि “ईश्वर में कमज़ोर आदमी को ज़बरदस्त आश्वासन और सहारा मिलता है और विश्वास उसकी कठिनाइयों को आसान ही नहीं बल्कि सुखकर भी बना देता है।” वे यह भी जानते थे कि “आँधी और तूफ़ान में अपने पाँवों पर खड़े रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है।” लेकिन वे सहारे के लिए किसी भी बनावटी अंग के विचार को दृढ़तापूर्वक अस्वीकार करते थे। वे कहते थे, “अपनी नियति का सामना करने के लिए मुझे किसी नशे की ज़रूरत नहीं है।” उन्होंने एलान किया था कि “जो आदमी अपने पाँवों पर खड़े होने की कोशिश करता है और यथार्थवादी हो जाता है, उसे धार्मिक विश्वास को एक तरफ़ रखकर, जिन-जिन मुसीबतों और दुखों में परिस्थितियों ने उसे डाल दिया है, उनका एक मर्द की तरह बहादुरी के साथ सामना करना होगा।”

ईश्वर, धार्मिक विश्वास और धर्म को यह तिलांजलि भगतसिह के लिए न तो आकस्मिक थी और न ही उनके अभिमान या अहं का परिणाम थी। उन्होंने बहुत पहले 1926 में ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था। उन्हीं के शब्दों में, “1926 के अन्त तक मुझे इस बात पर यक़ीन हो गया था कि सृष्टि का निर्माण, व्यवस्थापन और नियन्त्रण करने वाली किसी सर्वशक्तिमान परम सत्ता के अस्तित्व का सिद्धान्त एकदम निराधार है।”

भावना कभी नहीं मरती

वह जुलाई, 1930 का अन्तिम रविवार था। भगतसिह लाहौर सेण्ट्रल जेल से हमें मिलने के लिए बोर्स्टल जेल आये थे। वे इस तर्क पर सरकार से यह सुविधा हासिल करने में क़ामयाब हो गये थे कि उन्हें दूसरे अभियुक्तों के साथ बचाव के तरीक़ों पर बातचीत करनी है। तो उस दिन हम किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे कि बातों का रुख़ फ़ैसले की तरफ़ मुड़ गया, जिसका हम सबको बेसब्री से इन्तज़ार था। मज़ाक़-मज़ाक़ में हम एक-दूसरे के खि़लाफ़ फ़ैसले सुनाने लगे, सिर्फ़ राजगुरु और भगतसिह को इन फ़ैसलों से बरी रखा गया। हम जानते थे कि उन्हें फाँसी पर लटकाया जायेगा।

“और राजगुरु और मेरा फ़ैसला? क्या आप लोग हमें बरी कर रहे हैं?” मुस्कुराते हुए भगतसिह ने पूछा।

किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

“असलियत को स्वीकार करते डर लगता है?” धीमे स्वर में उन्होंने पूछा। चुप्पी छाई रही।

हमारी चुप्पी पर उन्होंने ठहाका लगाया और बोले, “हमें गरदन से फाँसी के फन्दे से तब तक लटकाया जाये जब तक कि हम मर न जायें। यह है असलियत। मैं इसे जानता हूँ। तुम भी जानते हो। फिर इसकी तरफ़ से आँखें क्यों बन्द करते हो?”

अब तक भगतसिह अपने रंग में आ चुके थे। वे बहुत धीमे स्वर में बोल रहे थे। यही उनका तरीक़ा था। सुनने वालों को लगता था कि वे उन्हें फुसलाने की कोशिश कर रहे हैं। चिल्लाकर बोलना उनकी आदत नहीं थी। यही शायद उनकी शक्ति भी थी।

वे अपने स्वाभाविक अन्दाज़ में बोलते रहे, “देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूँ। वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जायेंगे। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मँडराते रहेंगे जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर न हो जायें।”

भगतसिह पूरे आवेश में बोल रहे थे। कुछ समय के लिए हम लोग भूल गये कि जो आदमी हमारे सामने बैठा है वह हमारा सहयोगी है। वे बोलते जा रहे थे: “लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा पहलू भी उतना ही उज्ज्वल है। ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिह जीवित भगतसिह से ज़्यादा ख़तरनाक होगा। मुझे फाँसी हो जाने के बाद मेरे क्रान्तिकारी विचारों की सुगन्ध हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जायेगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे आज़ादी और क्रान्ति के लिए पागल हो उठेंगे। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुँचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इन्तज़ार कर रहा हूँ जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।”

भगतसिह की भविष्यवाणी एक साल के अन्दर ही सच साबित हुई। उनका नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। समाजवादी समाज की स्थापना का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया और ‘इन्‍क़लाब ज़िन्दाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया। 1930-32 में जनता एक होकर उठ खड़ी हुई। कारागार, कोड़े और लाठियों के प्रहार उसके मनोबल को तोड़ नहीं सके। यही भावना, इससे भी ऊँचे स्तर पर, ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान दिखायी दी थी। भगतसिह का नाम होंठों पर और उनका नारा अपने झण्डों पर लिये हुए किशोरों और बच्चों ने गोलियों का सामना इस तरह किया मानो वे मक्खन की बनी हुई हों। पूरा राष्ट्र पागल हो उठा था। और फिर आया 1945-46 का दौर जब विश्व ने एक सर्वथा नये भारत को करवटें बदलते देखा। मज़दूर, किसान, छात्र, नवयुवक, नौसेना, थलसेना, वायुसेना और पुलिस तक – सब कड़ा प्रहार करने के लिए आतुर थे। निष्क्रिय प्रतिरोध की जगह सक्रिय जवाबी हमले ने ले ली। बलिदान और यातनाओं को सहन करने की जो भावना 1930-31 तक थोड़े से नौजवानों तक सीमित थी, अब समूची जनता में दिखायी दे रही थी। विद्रोह की भावना ने पूरे राष्ट्र को अपनी गिरफ्त में जकड़ लिया था। भगतसिह ने ठीक ही तो कहा था, “भावना कभी नहीं मरती।” और उस समय भी वह मरी नहीं थी।

सन्दर्भ

  1. 1. Quoted in the Sedition Committee (Rowlatt) Report, 1919, p. 3
  2. 2. वही, पृष्ठ 2
  3. 3. वही, पृष्ठ 2
  4. मन्मथनाथ गुप्त: भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास, दूसरा संस्करण, 1960, पृष्ठ 44
  5. तारिणी शंकर चक्रवर्ती: भारत में सशस्त्र क्रान्ति की भूमिका, क्रान्तिकारी प्रकाशन, मिज़ार्पुर, पृष्ठ 142
  6. Budhadeva Bhattacharya (ed.), Freedom Struggle & Anushilan Samiti, p. 48
  7. वही, पृष्ठ 68
  8. J. C. Car: Political Troubles in India 1907-1917, Preface, 1973, p. XIII
  9. Quoted in Sedition Committee Report, p. 7
  10. तारिणी शंकर चक्रवर्ती: पृष्ठ 93
  11. G. Adhikari: Challenge, PPH, New Delhi, Jan. 1984, p. 3
  12. Tridib Chaudhary: Freedom Struggle and Anushilan Samiti, Introduction,
    p. XVI-XVII
  13. अमेरिका के भारतीय क्रान्तिकारियों की गतिविधियों के बारे में अधिकतर सामग्री एल-पी. माथुर की पुस्तक Indian Revolutionary Movement in United States of America से ली है। यह पुस्तक एस. चाँद एण्ड क-, नयी दिल्ली से 1970 में प्रकाशित हुई थी।
  14. 14. Paraphrased from Ghadar Weekly, Vol. 1, No. 3 (Dec. 30, 1913) by Sohan Singh Josh, Hindustan Ghadar Party, A Short History, p. 160
  15. वही, पृष्ठ 189
  16. वही, पृष्ठ 175
  17. वही, पृष्ठ 192
  18. वही, पृष्ठ 177
  19. वही, पृष्ठ 193
  20. वही, पृष्ठ 193
  21. L.P. Mathur, op. Cit., p. 23
  22. वही, पृष्ठ 29
  23. Presidential Address to Special (Calcutta) Session of the Indian National Congress, September 1920. Quoted by R.P. Dutt; India Today, p. 280
  24. वही, पृष्ठ 284
  25. देखिये परिशिष्ट न- 1
  26. शचीन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक बन्दी जीवन से विश्वमित्र उपाध्याय द्वारा शचीन्द्रनाथ सान्याल और उनका युग में उद्धृत, पृष्ठ 195
  27. वही, पृष्ठ 156
  28. S.N. Mazumdar: In Search of a Revolutionary Theory and a Revolutionary Program. p. 178
  29. वही, पृष्ठ 177
  30. वही, पृष्ठ 178
  31. वही, पृष्ठ 154
  32. वही, पृष्ठ 181-2
  33. वही, पृष्ठ 183
  34. Jawaharlal Nehru: An Autobiography, John Lane, The Bodley Head, London, 1936, p. 164-5
  35. Quoted by Pratima Ghosh, Meerut Conspiracy Case & the Left-Wing in India, p. 47
  36. वही, पृष्ठ 53
  37. यह बिल सदन में बहस के लिए 21 मार्च को पेश किया गया। लेकिन अध्यक्ष ने उसे 2 अप्रैल, 1929 तक के लिए स्थगित कर दिया। 2 अप्रैल को उन्होंने निर्णय दिया कि चूँकि बिल का आधार और मेरठ षड्यन्त्र केस में अभियुक्तों के खि़लाफ़ लगाये गये अभियोग एक जैसे हैं, इस स्थिति में बिल पर जो बहस होगी उससे अभियुक्तों के बचाव पर असर पड़ेगा। इन कारणों से उन्होंने बिल पर बहस की अनुमति नहीं दी। 4 अप्रैल को भारत सरकार ने उसे फिर सदन के सामने पेश किया और बहस की अनुमति माँगी। 11 अप्रैल को अध्यक्ष ने सरकार की अपील ठुकरा दी और अपना निर्णय बरक़रार रखा। 13 अप्रैल को वायसराय ने उसे अध्यादेश के रूप में लागू कर दिया।
  38. Quoted by G. Adhikari in an article in Mainstream, April 29, 1981
  39. G. Adhikari (ed.): Documents of the History of the Communist Party of India, Vol. II, p. 443
  40. वही, पृष्ठ 442
  41. वही, पृष्ठ 473
  42. S.N. Mazumdar, op. Cit. p. 176
  43. G. S. Deol, Sardar Bhagat Singh
  44. वही, पृष्ठ 113
  45. 45. Bipan Chandra, Introduction to ‘Why I am an Atheist?’, Sardar Bhagat Singh Research Committee, New Delhi. 1979
  46. वही

शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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One Thought to “क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास (चापेकर बन्धुओं से भगतसिह तक) / शिव वर्मा”

  1. बहुत बढ़िया लेख! भारतीय क्रन्तिकरोयों की विक्सित होती हुई समाजवादी विचारधारा को अछे से समझाया है! आजकल कुछ पूंजीवादी दलाल और दल भगत सिंह और साथियों के बारे में दुष्प्रचार कर रहे है!
    इन क्रांतिकारियों को पूरा मौका नहीं मिला और आगे बढ़ने का, समाजवादी समाज स्थापित करने का, फिर भी जो क्रांति की लहर पैदा की, एक मार्ग दर्शक की तरह काम करेबा!
    जरुरत है मार्क्स और लेनिन को समझाने की, सोवियत के ध्वस्त होने के कारणों को समझाने को, और पुन्न्जिवाद के खिलाफ मजदुर वर्ग और किसान को एकता बढ करने की! समाजवाद ही एकमात्र रास्ता, पीड़ित मनावाता को आजाद करने की!

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