भगतसिंह – शहीदों के जीवन-चरित्र (सूफ़ी अम्बा प्रसाद, श्री बलवन्त सिंह, डॉक्टर मथुरा सिंह)

शहीदों के जीवन-चरित्र

काकोरी के शहीदों को दिसम्बर, 1927 में फाँसी होने के बाद भगतसिंह ने अपने साथियों – भगवतीचरण वोहरा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर आदि – से विचार-विमर्श करते हुए अपने देश के शहीदों व क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्बन्धी जानकारी देने के निरन्तर यत्न शुरू किये। वे स्वयं भी इन आन्दोलनों का गहराई से अध्ययन कर रहे थे और देशवासियों को जागृत भी कर रहे थे।

फ़रवरी, 1928 में ‘चाँद’ का ‘फाँसी अंक’ प्रकाशित हुआ। भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन और शहीदों के जीवन-चरित्र सम्बन्धी इस अंक में ‘विद्रोही’ छद्म नाम से भगतसिंह ने कई देशभक्तों के जीवन-चरित्र लिखे। यहाँ प्रस्तुत तीन जीवन-चरित्र वहीं से लिये गये हैं। – स.

सूफ़ी अम्बा प्रसाद

sufi_amba_prasadआज भारतवर्ष में कितने लोग उनका नाम जानते हैं? कितने उनकी स्मृति में शोकातुर होकर आँसू बहाते हैं? कृतघ्न भारत ने कितने ही ऐसे रत्न खो दिये और क्षरभर के लिए भी दुख अनुभव नहीं किया।

वे सच्चे देशभक्त थे। उनके हृदय में देश के लिए दर्द था। वे भारत की प्रतिष्ठा देखना चाहते थे, भारत को उन्नति के शिखर पर पहुँचाना चाहते थे, तो भी आज भारत के बहुत कम लोग उनका नाम जानते हैं। उनकी क़दर भी की तो ईरान ने, आज यहाँ आका सूफ़ी का नाम सर्वप्रिय हो रहा है।

सूफ़ी जी का जन्म 1858 में मुरादाबाद में हुआ था। आपका दाहिना हाथ जन्म से ही कटा था। आप हँसी में कहा करते थे – अरे भाई! हमने सत्तावन में अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध किया। हाथ कट गया। मृत्यु हो गयी। पुनर्जन्म हुआ, हाथ कटे का कटा आ गया!

आपने मुरादाबाद, बरेली और जालन्धर आदि कई शहरों में शिक्षा पायी। एफ़.ए. पास करने के पश्चात आपने वकालत पढ़ी, परन्तु की नहीं। आप उर्दू के प्रभावशाली लेखक थे। आपने यही काम सँभाला।

सन् 1890 में आपने मुरादाबाद से जाम्युल इलूक नामक उर्दू साप्ताहिक पत्र निकाला। इसका प्रत्येक शब्द उनकी आन्तरिक अवस्था का परिचय देता था। वे हास्यरस के प्रसिद्ध लेखक थे, परन्तु इनमें गम्भीरता भी कम न थी। वे हिन्दू-मुस्लिम-एकता के कट्टर पक्षपाती थे और शासकों की कड़ी आलोचना किया करते थे।

सन् 1897 में आपको राजद्रोह के अपराध में डेढ़ वर्ष का कारागार मिला। जब 1899 में छूटकर आये तो यू.पी. के कुछ छोटे राज्यों पर अंग्रेज़ लोग हस्तक्षेप कर रहे थे। सूफ़ी जी ने वहाँ के अंग्रेज़ों तथा रेज़िडेण्टों का ख़ूब भण्डाफोड़ किया। आप पर मिथ्या दोषारोपण का अभियोग चलाया गया और सारी जायदाद ज़ब्त कर 6 साल का कारागार दिया गया। जेल में उन्हें अकथनीय कष्ट सहन करने पड़े, परन्तु वे कभी विचलित नहीं हुए।

सूफ़ी जी जेल में बीमार पड़े। एक गलीज़ कोठरी में बन्द थे। उन्हें औषधि नहीं दी जाती थी, यहाँ तक कि पानी आदि का भी ठीक प्रबन्ध न था। जेलर आता और हँसता हुआ प्रश्न करता – सूफ़ी, अभी तक तुम ज़िन्दा हो? ख़ैर! ज्यों-त्यों कर जेल कटी और 1906 के अन्त में आप बाहर आये।

सूफ़ी जी का निज़ाम हैदराबाद से घनिष्ठ सम्बन्ध था। जेल से छूटते ही वहाँ गये। निज़ाम ने उनके लिए एक अच्छा-सा मकान बनवाया। मकान बन जाने पर उन्होंने सूफ़ी जी से कहा – ‘आपके लिए मकान तैयार हो गया।’ आपने उत्तर दिया – ‘हम भी तैयार हो गये हैं।’ आपने वस्त्रादि उठाये और पंजाब के लिए चल दिये। वहाँ जाकर आप ‘हिन्दुस्तान’ अख़बार में काम करने लगे। सुनते हैं वहाँ आपकी चतुरता, वाक्पटुता और समझदारी देखकर सरकार की ओर से 1000 रुपया मासिक जासूस विभाग से पेश किये गये थे, परन्तु आपने उनकी अपेक्षा जेल और दरिद्रता को ही श्रेष्ठ समझा। बाद को ‘हिन्दुस्तान’-सम्पादक से भी आपकी न बनी। आपने वहाँ से भी त्यागपत्र दे दिया।

उन्हीं दिनों सरदार अजीत सिंह ने भारतमाता सोसाइटी की नींव डाली और पंजाब के न्यू कालोनी बिल के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। सूफ़ी जी का भी मेल उनसे बनने लगा। उधर वे इनकी ओर आकर्षित होने लगे।

सन् 1906 में पंजाब में फिर धर-पकड़ आरम्भ हुई तो सरदार अजीत सिंह के भाई सरदार किशन सिंह और भारतमाता सोसाइटी के मन्त्री मेहता आनन्द किशोर के साथ वे नेपाल चल दिये। वहाँ नेपाल राज्य के गवर्नर श्री जंगबहादुर जी से आपका परिचय हो गया। वे इनसे बहुत अच्छी तरह पेश आये। बाद को श्री जंगबहादुर जी सूफ़ी को आश्रय देने के कारण ही पदच्युत कर दिये गये। उनकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गयी। ख़ैर, सूफ़ी जी वहाँ पकड़े गये और लाहौर लाये गये। लाला पिण्डीदास जी के पत्र ‘इण्डिया’ में प्रकाशित आपके लेखों के सम्बन्ध में ही आप पर अभियोग चलाया गया, परन्तु निर्दोष सिद्ध होने के बाद में आपको छोड़ दिया गया।

तत्पश्चात सरदार अजीत सिंह भी छूटकर आ गये। और सन् 1909 में भारतमाता बुक सोसाइटी की नींव डाली गयी। इसका अधिकतर कार्य सूफ़ी जी ही किया करते थे। आपने ‘बाग़ी मसीह’ या ‘विद्रोही मसीह’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित करवायी जो बाद को ज़ब्त कर ली गयी।

इसी वर्ष लोकमान्य तिलक पर अभियोग चलाया गया और उन्हें भी 6 वर्ष का कारावास मिला। तब देशभक्त-मण्डल के सभी सदस्य साधु बनकर पर्वतों की ओर यात्रा करने निकल पड़े। पर्वतों के ऊपर जा रहे थे। एक भक्त भी साथ आया। साधु बैठे तो उस भक्त ने सूफ़ी जी के चरणों पर सीस नवाकर नमस्कार किया। बड़ा जैण्टलमैन था। ख़ूब सूट-बूट पहने था। सूफ़ी जी के चरणों पर शीश रखा और पूछने लगा – बाबा जी, आप कहाँ रहते हैं?

सूफ़ी जी ने कठोर शब्दों में उत्तर दिया – रहते हैं तुम्हारे सर में!

 – साधु जी, आप नाराज़ क्यों हो गये?

 – अरे बेवव़फ़ूफ़! तूने मुझे क्यों नमस्कार किया! इतने और साधु भी थे, इनको प्रणाम क्यों न किया?

 – मैं आपको साधु समझा था।

 – अच्छा ख़ैर जाओ, खाने-पीने की वस्तुएँ लाओ।

वह कुछ देर बाद अच्छे-अच्छे पदार्थ लेकर आया। खा-पीकर सूफ़ी जी ने उसे फिर बुलाया और कहने लगे – क्यों बे, हमारा पीछा छोड़ेगा या नहीं?

 – भला मैं आपसे क्या कहता हूँ जी?

 – चालाकी को छोड़। आया है जासूसी करने! जा, अपने बाप से कह देना कि सूफ़ी पहाड़ में ग़दर करने जा रहे हैं।

वह चरणों पर गिर पड़ा – हजूर, पेट की ख़ातिर सबकुछ करना पड़ता है!

आपने सन् 1909 में ‘पेशवा’ अख़बार निकाला। उन्हीं दिनों बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा। सरकार को चिन्ता हुई कि कहीं यह पंजाब को भी जला न डाले। अस्तु, दमन-चक्र आरम्भ हुआ। तब सूफ़ी जी, सरदार अजीत सिंह और ज़िया-उल-हक़ ईरान चले गये। वहाँ पहुँचकर ज़िया-उल-हक़ की नीयत बदल गयी। उसने चाहा, इन्हें पकड़वा दूँ तो इनाम मिलेगा और सज़ा भी न होगी। परन्तु सूफ़ी जी ताड़ गये। उन्होंने उसे आगे भेज दिया। फलस्वरूप वह स्वयं ही पकड़ा गया और ये दोनों बच निकले।

ईरान में वे कैसे रहे, क्या हुआ, ये बातें तो किसी अवसर पर खुलेंगी परन्तु जो कुछ सुनने में आया, उसी का उल्लेख इस स्थान पर किया जाता है। ईरान में अंग्रेज़ों ने उनकी बहुत खोज की और उन्हें कई प्रकार के कष्ट सहन करने पड़े। कहा जाता है कि वे एक स्थान पर घेर लिये गये। वहाँ से निकलना असम्भव-सा हो गया। वहाँ व्यापारियों का एक क़ाफ़िला ठहरा हुआ था। ऊँटों पर बहुत-से सन्दूक लदे थे। आगे वस्त्र आदि भरे थे। एक ऊँट के दोनों सन्दूकों में सूफ़ी जी तथा अजीत सिंह को बन्द कर दिया गया और वहाँ से बचाकर निकाला गया।

फिर किसी अमीर के घर ठहरे। पता चल गया और वह घेर लिये गये। उसी समय उन दोनों को बुरका पहना ज़नाने में बिठा दिया गया। सबकी तलाशी ली गयी और अन्त में स्त्रियों की भी तलाशी ली जाने लगी। एक-दो स्त्रियों के बुरके उठाये भी गये, परन्तु मुसलमान लोग लड़ने-मरने को तैयार हो गये और फिर अन्य किसी स्त्री का बुरका नहीं उठाने दिया गया। इस तरह वे दोनों यहाँ से भी बचे।

पीछे उन्होंने वहाँ से ‘आबे हयात’ नामक पत्र निकाला और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने लगे। सरदार साहिब के टर्की चले जाने पर वहाँ का सारा कार्य इन्हीं के सर आ पड़ा और फिर ये वहाँ आकर सूफ़ी के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् 1915 में जिस समय ईरान में अंग्रेज़ों ने पूर्ण प्रभुत्व जमाना चाहा तो फिर कुछ उथल-पुथल मची थी। शीराज़ पर घेरा डाला गया। उस समय सूफ़ी जी ने बायें हाथ से रिवाल्वर चलाकर मुक़ाबला किया था, परन्तु अन्त में आप अंग्रेज़ों के हाथ आ गये। उनका कोर्ट मार्शल किया गया। फ़ैसला हुआ कि कल गोली से उड़ा दिये जायेंगे। सूफ़ी कोठरी में बन्द थे। प्रातः समय देखा तो वे समाधि की अवस्था में थे। उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे! उनके जनाज़े के साथ असंख्य ईरानी गये और उन्होंने बहुत शोक मनाया। कई दिन तक नगर में उदासी छायी रही। सूफ़ी जी की क़ब्र बनायी गयी। अभी तक हर वर्ष उनकी क़ब्र पर उत्सव मनाया जाता है। लोग उनका नाम सुनते ही श्रद्धा से सर झुका लेते हैं। वे पैर से भी लेखनी पकड़कर अच्छी तरह लिख सकते थे। एक दिन एक महाशय कह रहे थे कि मुझे उन्होंने पैर से ही लिखकर एक नुस्ख़ा दिया था।

एक और कहानी मित्रों ने सुनायी थी। पता नहीं कहाँ तक सच है। परन्तु बहुत सम्भव है वह सच हो। कहते हैं, जब भोपाल या किसी और स्टेट में रेज़िडेण्ट कुछ गड़बड़ कर रहे थे और उसको हड़प करने की चिन्ता में थे, तो वहाँ का भेद प्रकाशित करने के लिए अमृत बाज़ार पत्रिका की ओर से सूफ़ी जी वहाँ भेजे गये। यह बात 1890 के लगभग की है।

एक पागल-सा मनुष्य रेज़िडेण्ट के बैरे के पास नौकरी की खोज में आया और अन्त में केवल भोजन पर ही रख लिया गया। वह पागल बरतन साफ़ करता तो मिट्टी में लथपथ हो जाता। मुँह पर मिट्टी पोत लेता। वह सौदा ख़रीदने में बड़ा चतुर था, अस्तु चीज़ें ख़रीदने वही भेजा जाता था।

उधर अमृत बाज़ार पत्रिका में रेज़िडेण्ट के विरुद्ध धड़ाधड़ लेख निकलने लगे। अन्त में इतना बदनाम हुआ कि पदच्युत कर दिया गया। जिस समय वह स्टेट से बाहर पहुँच गया तो एक जंक्शन पर एक काला-सा आदमी हैट लगाये, पतलून-बूट पहने उसकी ओर आया। उसे देखकर रेज़िडेण्ट चकित-सा रह गया। ये तो वही है जो मेरे बरतन साफ़ किया करता था! आज पागल नहीं है। उसने आते ही अंग्रेज़ी में बातचीत शुरू की। उसे देखकर रेज़िडेण्ट काँपने लगा। आख़िर उसने कहा – तुम्हें इनाम तो दिया जा चुका है, अब तुम मेरे पास क्यों आये हो?

 – आपने कहा था – जो आदमी उस गुप्तचर को, जिसने कि आपका भेद खोला है, पकड़वाये तो आप कुछ इनाम देंगे।

 – हाँ, कहा तो था। क्या तुमने उसे पकड़ा?

 – हाँ, हाँ…इनाम दीजिये। वह मैं स्वयं ही हूँ।

वह थर-थर काँपने लगा। बोला – यदि राज्य के अन्दर ही मुझे तेरा पता चल जाता तो बोटी-बोटी उड़वा देता। ख़ैर, उसने उन्हें एक सोने की घड़ी दी और कहा – यदि तुम स्वीकार करो तो जासूस विभाग से 1000 रु. मासिक वेतन दिला सकता हूँ। परन्तु सूफ़ी जी ने कहा – अगर वेतन ही लेना होता तो आपके बरतन क्यों साफ़ करता?

आज सूफ़ी जी इस देश में नहीं हैं। पर ऐसे देशभक्त का स्मरण ही स्फूर्तिदायक होता है। भगवान उनकी आत्मा को चिर शान्ति दे।

फ़रवरी, 1928

श्री बलवन्त सिंह

bhaibalwantsinghkhurdpur_smallवे बड़े ईश्वर-भक्त थे। धर्मनिष्ठा के कारण उन्हें सिक्खों में पुरोहित बना दिया गया था। शान्ति के परम उपासक बलवन्त का स्वभाव बड़ा मृदुल था। वे सुमधुर भाषी थे। पहले-पहल वे ईश्वरोपासना की ओर लगे। फिर लोगों को उस ओर लाने की चेष्टा प्रारम्भ की। बाद में लोगों के कष्ट दूर करने के प्रयास में धीरे-धीरे गौराँग महाप्रभुओं से मुठभेड़ होती गयी और अन्त में फाँसी पर मुस्कुराते हुए आपने प्राण-त्याग किया।

श्री बलवन्त सिंह का जन्म गाँव ख़ुर्दपुर, ज़िला जालन्धर में पहिली आश्विन, सम्वत 1939 विक्रम शुक्रवार को हुआ था। आपके पिता का नाम सरदार बुद्ध सिंह था।

परिवार बड़ा धनाढ्य था। पिता को धन के अतिरिक्त स्वभाव तथा अन्य गुणों के कारण सभी मान तथा आदर की दृष्टि से देखते थे। आपको होश सँभालते ही आदमपुर के मिडिल स्कूल में शिक्षा के लिए दाख़िल करवा दिया। विद्यार्थी-जीवन में ही आपका विवाह हो गया। परन्तु विवाह के बाद शीघ्र ही धर्मपत्नी की मृत्यु हो गयी। मिडिल पास किये बिना ही स्कूल छोड़कर वे फ़ौज में जा भरती हुए। पल्टन में आपका सन्त कर्म सिंह जी से संसर्ग हुआ। उनकी संगति से आपका ईश्वर-भजन की ओर झुकाव हो गया। दस साल ज्यों-त्यों नौकरी की, फिर एकाएक नौकरी छोड़ अपने गाँव में रहकर ईश्वरोपासना शुरू कर दी। पल्टन की नौकरी में ही आपका दूसरा विवाह भी हुआ था। गाँव के पास एक गुफा थी। उसी में बन्द रहकर भगवद्भजन में तल्लीन रहने लगे। ग्यारह महीने वहीं रहने के बाद बाहर आते ही सन् 1905 में कैनेडा जाने का निश्चय कर, उधर ही प्रस्थान कर दिया।

कैनेडा में जाकर आपने अपने दूसरे साथी श्री भाग सिंह जी से, जिन्हें एक देशद्रोही ने बाद में गोली मार दी थी, मिलकर गुरुद्वारा बनाने का कार्य आरम्भ किया। वैंकोवर में ही उनके प्रयत्न से अमेरिका का सबसे पहला गुरुद्वारा स्थापित हुआ। उस समय वहाँ गये हुए भारतवासियों में कोई संगठन न था। उन्हें गोरे लोग तंग किया करते थे, परन्तु हमारे नायक वहाँ गये तो उन्होंने इन सब त्रुटियों को दूर करने का भरसक प्रयत्न किया।

उस समय वहाँ के प्रवासी हिन्दुओं तथा सिक्खों को मृतक-संस्कार करने में बड़ी विपत्ति होती। मुर्दे जलाने की उन्हें आज्ञा न थी। ऐसी अवस्था में बेचारे उन लोगों को अनेकानेक कष्ट सहन करने पड़ते। कई बार उन्हें वर्षा में, बर्फ़ में, शव को जंगल में ले जाकर, कुछ लकड़ियाँ इकट्ठा कर, तेल डाल आग लगाकर भागना पड़ता। ऐसी अवस्था में भी कैनेडियन लोगों की गोली का निशाना बनने का डर रहता। श्री बलवन्त सिंह जी ने यह असुविधा दूर करने का प्रबन्ध किया। कुछ ज़मीन ख़रीद ली। दाह-संस्कार करने की आज्ञा भी प्राप्त कर ली। गुरुद्वारे में भारतीय मज़दूरों का संगठन भी करने लगे। उनमें सच्चरित्रता तथा ईश्वरोपासना का प्रचार किया करते। गुरुद्वारा बड़े प्रयत्न से बन पाया था, उन सबमें आपका परिश्रम ही सबसे अधिक था, अतः सबने मिलकर आपको ही ग्रन्थी बनाने का निश्चय किया। पहले तो आपने कुछ इन्कार किया, परन्तु बाद में स्वीकार कर लिया।

सिक्ख लोग बड़े हृष्ट-पुष्ट तथा परिश्रमी होते हैं। उनके कैनेडा में जाने से गोरे मज़दूरों की क़द्र कम हो गयी। उधर अंग्रेज़ मज़दूरों से उनका वेतन भी कहीं कम होता। उनके पहले दल के पहुँचते ही गोरे मज़दूरों ने दंगा-फ़साद शुरू कर दिया था। परन्तु योद्धा-वीर सिक्ख इन बातों से डरने वाले नहीं थे। इससे गोरे और भी चिढ़ उठे। और उधर गुरुद्वारा बनने से इनका संगठन बढ़ने लगा। नवीन आगन्तुकों को हर प्रकार की सुविधा होने लगी। यह सब देखकर वहाँ की गोरी सरकार ने उनको निकालने के लिए यत्किचित उपाय ढूँढ़ने शुरू किये। इमिग्रेशन विभाग वालों ने भारतीय मज़दूरों को बहुत-कुछ फुसलाकर हण्डूरॉस नामक द्वीप में चले जाने पर राजी करने का प्रयत्न किया। उस द्वीप की बहुत तारीफ़ की गयी। परन्तु भाई बलवन्त सिंह जी ख़ूब समझते थे कि यह सब धोखे की टट्टी है। आपने अपने किसी विश्वस्त सज्जन को वह स्थान देख आने के लिए भेजा। उस सज्जन का नाम था श्री नागर सिंह। उन्हें वहाँ इमिग्रेशन विभाग वालों ने भारत में पाँच मुरब्बे ज़मीन और पाँच हज़ार डॉलर देने का लोभ देकर इस बात पर राजी करना चाहा कि वह भारतवासियों को हण्डूरॉस में आने पर राजी कर दें। उन्होंने आते ही सब भेद खोल दिया। इमिग्रेशन विभाग भी खुल खेले। अब खुल्लमखुल्ला युद्ध छिड़ गया। इमिग्रेशन विभाग ने औचित्यानौचित्य का विचार छोड़ दिया। ज्यों-ज्यों मामला बढ़ा त्यों-त्यों श्री बलवन्त सिंह जी भी आगे बढ़ते गये।

प्रवासी भारतवासियों की इच्छा थी कि वे लोग भारत लौटकर अपने परिवारों को साथ ले जा सकें। बहुत दिनों तक खींचातानी हुई। आख़िर एक सलाह सोची गयी। श्री बलवन्त सिंह, श्री भाग सिंह तथा भाई सुन्दर सिंह जी को भारत लौटकर अपने परिवार लाने के लिए भेजने का प्रस्ताव हुआ। वे तीनों सज्जन भारत को लौट आये।

1911 में वे फिर सपरिवार रवाना हुए। हाँगकाँग पहुँचकर टिकट न मिलने के कारण रुक जाना पड़ा। वहीं पड़े रहकर वे वैंकोवर गुरुद्वारा वालों से पत्र-व्यवहार द्वारा सलाह करते रहे। आख़िर तीनों सज्जन चल दिये। श्री सुन्दर सिंह जी तो गये वैंकोवर को तथा शेष दोनों सज्जन तीनों परिवार सहित सानफ्रांसिस्को रवाना हुए। भाई सुन्दर सिंह तो वैंकोवर पहुँच गये, परन्तु संयुक्त राज्य अमेरिका भी तो आख़िर गोरों का देश था और इधर तो वे ही ग़ुलाम भारतवासी थे, परिवारों सहित उन दोनों सज्जनों को वहाँ उतरने की आज्ञा न मिली। वे फिर हाँगकाँग लौट आये। फिर बहुत दिन बाद बड़े यत्न से परिवारों के लिए वैंकोवर के टिकट मिले। वैंकोवर में उन दोनों सज्जनों को तो उतरने की आज्ञा मिल गयी, परिवारों को उतरने की आज्ञा न मिली। बड़ा झंझट बढ़ा। आख़िर परिवारों को उतने दिनों तक उतरने की आज्ञा मिली, जितने दिनों में कि आशा की जा सकती थी कि इमिग्रेशन विभाग के केन्द्रीय ओटावा (Ottava) से अन्तिम आज्ञा आ जायेगी। परिवार उतरे तो सही, पर जमानत पर। जमानत की अवधि पूरी हो जाने के दो दिन बाद इमिग्रेशन विभाग वाले परिवारों को लेने के लिए आये, परन्तु सिक्ख लोग झगड़े के लिए तैयार हो गये। अफ़सर लोग ज़रा गरम हुए, परन्तु वीर योद्धाओं की लाल आँखें देख, अपना-सा मुँह लेकर लौट गये। लाल आँखों के पीछे कौन-सा बल था, कौन-सी दृढ़ता थी और कौन-सा निश्चय था जिससे कैनेडा की राजशक्ति और उनका इमिग्रेशन विभाग थर-थर काँप उठे, और उन परिवारों को वहीं रहने दिया गया – ये बातें तब ग़ुलाम भारतवासी नहीं समझ सकते थे। उनकी कूपमण्डूकता, उनका संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं समझ सकता था कि राष्ट्रों को बनाने में कैसे समय, कैसी घड़ियाँ उपस्थित हुआ करती हैं। स्वतन्त्र भारत अपने स्वातंत्र्य संग्राम की इन अद्वितीय घटनाओं को याद किया करेगा। उसके इतिहास-लेखक ही इन सब बातों को ख़ूब वास्तविक रूप में लिख सकने का सुअवसर पा सकेंगे। दफ़ा 124अ आदि विकराल दानव गला दबाये, आँखें निकाले उनकी साँस बन्द नहीं किये रहा करेंगे। वे परिवार तो वहीं रह गये, परन्तु शेष भारतीयों के परिवार लाने की समस्या वैसे-की-वैसी खड़ी रही। दो साल तक निरन्तर झगड़ा किया, परन्तु परिणाम कुछ न निकला। आख़िर तय पाया कि इंग्लैण्ड की सरकार तथा जनता और भारत सरकार तथा जनता के सामने अपनी माँगें रखी जावें और उनकी सहायता से इस उलझन को सुलझाया जाये।

एक डेपूटेशन बनाया गया जो इंग्लैण्ड भी गया और भारतवर्ष भी। उसके तीन सदस्यों में एक हमारे नायक श्री बलवन्त सिंह भी थे। इंग्लैण्ड गये। सभी उच्च अधिकारियों से मिले। कहा गया – “मामला भारत सरकार द्वारा यहाँ पहुँचना चाहिए।” निराश हो भारत में आये। आन्दोलन शुरू किया। उस समय प्रमुख नेता लाला लाजपत राय जी ने भी सड़ा-सा उत्तर देकर उनसे पीछा छुड़ा लिया था। फिर क्या था? कुछेक सज्जनों की सहायता मिली। सार्वजनिक सभाएँ की गयीं। क्रोध था, घायल राष्ट्रीय भाव था, विवशता थी और थी घोर निराशा। जले दिलों से जो कुछ निकला, कहा और फिर? सर माईकेल ओडायर अपने, ‘India : As I Knew it’ नामक ग्रन्थ में लिखते हैं – “At this Stage I sent a warning to the delegates that if this continued, I would be compelled to take serious action… The delegates on this asked for an interview with me. I had a long talk with them and repeated my warning. Two of them were… and spacious, the manned of third seemed to be that of a dangerous revolutionary. They wished to see The Viceroy, and in sending them on to him, I particularly warned him about this man.”

यह तीसरे सज्जन, जिन पर हमारे लाट ने इतना कुछ कह डाला है, यह वही नायक बलवन्त थे। उस भावुक हृदय ने तो गहरे घाव खाये थे। आत्मसम्मान का भाव बार-बार ठुकराया जा चुका था। उन्होंने धीरे-धीरे निश्चय कर लिया था कि भारत को हरसम्भव उपाय से स्वतन्त्र करवाना ही प्रत्येक भारतवासी का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। ख़ैर!

डेपूटेशन हताश-निराश हो 1914 के आरम्भ में वापस लौट गया। इन्हीं दिनों भारतीय विद्रोही श्री भगवान सिंह तथा श्री बरकतुल्ला भी अमेरिका पहुँच गये। संयुक्त राज्य अमेरिका में इन दिनों हिन्दुस्थान-एसोसिएशन (Hindusthan Association) का कार्य ज़ोरों पर होने लगा। ग़दर दल, ग़दर प्रेस, ग़दर अख़बार जारी हो गये। परन्तु उपरोक्त डेपूटेशन वाले सज्जनों का उस समय तक उनसे कोई सम्बन्ध न था। किन्तु उनको सर माईकेल ओडायर ने ग़दर दल के ही प्रतिनिधि लिखा है। अस्तु।

उस समय तक भारतवर्ष के अभियोग अन्य जातियों के सामने नहीं रखे गये थे। परन्तु यह डेपूटेशन जापान और चीन के राजनीतिज्ञों से मिलता हुआ ही गया था और इन्होंने भारत की ओर उन लोगों की सहानुभूति आकृष्ट करने का भरसक प्रयत्न किया था। वैंकोवर लौटकर अपने निष्फल प्रयत्न का इतिहास सुनाते हुए श्री बलवन्त सिंह जी ने एक बड़ी प्रभावशाली वक्तृता दी थी। ऐसी वक्तृताएँ राष्ट्रों के इतिहास में विशेष मान पाती हैं। गहरे मनन के बाद आपको चारों ओर से यही सुनायी देने लगा था, उनके अन्तस्तल से यही एक ध्वनि उठने लगी थी कि ‘सब रोगाेंं की एकमात्र औषधि भारत की स्वतन्त्रता है।’ आपने भाषण में अपना अनुभव तथा गहरे मनन से जो परिणाम निकाला था, सब कह सुनाया।

वह उनकी सफ़ाई, शान्ति, वीरता, गम्भीरता और निर्भीकता को देखकर कहा करते थे कि “बलवन्त सिंह सिक्खों के पादरी हैं अथवा सेनापति (General), यह निश्चय करना बड़ा कठिन है।” अस्तु।

शीघ्र भविष्य में क्या किया जावे, यह तो कुछ निश्चय करने का अवसर नहीं मिला, कि एक और समस्या सामने आ खड़ी हुई – कामागाटामारू जहाज़ आ पहुँचा। किनारे पर लगने की आज्ञा ही नहीं मिली, उलटे उन पर अनेक अत्याचार ढाये जाने लगे। जितने दिनों जहाज़ वहाँ रहा उतने दिन सभी भारतीय दत्तचित्त हो उसी की सहायता में लगे रहे। नेतृत्व फिर हमारे नायक के हाथ में था। आपने दिन-रात एक कर दिया। इतना परिश्रम और कोई कर पाता अथवा नहीं, सो नहीं कह सकते। किराये के क़िस्त की अदायगी में देर लगवाकर जो अड़चन गोरेशाही डालना चाहती थी, उसका भार भी आप पर पड़ा। 11 हज़ार डॉलर की आवश्यकता थी। सभा में 11 हज़ार डॉलर के लिए जो अपील आपने की थी, उसमें इतना दर्द और इतना प्रभाव था कि वर्णन नहीं किया जा सकता। 11 हज़ार डॉलर इकट्ठा हो गये। उनकी आर्थिक आवश्यकताएँ पूरी करने के बाद आप और सलाह-मशवरा करने के लिए दक्षिण की ओर बहुत दूर चले गये। अचानक वे अमेरिका की सीमा पर पहुँच गये। गोरी सरकार ने पकड़ लिया। कहा, “अमेरिका से आये हो और चोरी से कैनेडा में प्रविष्ट हुए हों।” यह निराधार दोष भी एक लम्बे झगड़े का कारण हुआ, आख़िर कुछ झगड़े के बाद मामला तय हुआ और वैंकोवर पहुँचे। कुछ दिन बाद निराश होकर कामागाटामारू जहाज़ भी लौटने पर विवश हो गया।

कामागाटामारू के साथ भारत की जितनी आशाएँ सम्बद्ध थीं, सभी एकाएक मटियामेट कर दी गयीं। भारत का व्यवसाय की ओर यही तो पहला प्रयत्न था। उसी में भारत-हितकारी शासकों ने पूरी तरह से ऐसा पीसने की कोशिश की कि फिर कोई ऐसी चेष्टा करने का दुःसाहस न कर सके। कैनेडा में जितने दिन जहाज़ ठहरा, उतने दिन उनके साथ जो अमानुषिक व्यवहार हुए थे, उनका रोमांचकारी वर्णन लिखने का यह स्थान नहीं। पर उनकी याद दिल को आग लगा देती है, पागल कर देती है, रुला-रुला जाती है। उन सबका उत्तरदायित्व इमिग्रेशन विभाग के वैंकोवर वाले मुख्य अध्यक्ष मि. हॉपकिसन पर ही था। ये लोग उनसे बहुत नाराज़ थे, परन्तु ज़रा और सुनिये। श्री बलवन्त सिंह, श्री भाग सिंह ये दो ही सज्जन तो थे, जो पहले दिन से इमिग्रेशन विभाग वालों से वीरतापूर्वक लड़ते चले आये थे। कामागाटामारू जहाज़ के मामले में भी सभी कार्य इन्हीं दो सज्जनों ने तो किये थे। वे इमिग्रेशन विभाग की आँखों के काँटे हो रहे थे। एक देशद्रोही भाड़े का टट्टू मिल गया। गुरुद्वारे में दीवान हो रहा था। उस विभीषण ने ईश्वर-भजन में तल्लीन श्री भाग सिंह और श्री बलवन्त सिंह पर पिस्तौल से फ़ायर कर दिये। श्री भाग सिंह जी तो वहीं स्वर्गलोक सिधार गये, परन्तु श्री बलवन्त सिंह बच गये। गोली उनके न लगकर एक और देशभक्त श्री वतन सिंह के जा लगी। वे भी वहीं शहीद हो गये। यह हत्यारा उपस्थित लोगों के पंजे से बच गया। कैनेडा-सरकार का क़ानून भी उसे कुछ दण्ड न दे सका। वह आज भी जीता है। वह पंजाब सरकार का लाड़ला बना रहा है। उसने यह सब काण्ड क्यों किया और इसमें उसे क्या भलाई दीख पड़ी, यह सब वही जाने!

इसी प्रकार की सरगर्मी से कितने ही महीने गुज़र गये। सन् 1914 का अन्तिम पक्ष आ गया। महायुद्ध छिड़ चुका था। अमेरिका स्थित सब भारतीय देश में वापस आने की तैयारी करने लगे। फिर हमारे नायक वहाँ कैसे ठहर सकते थे। सपरिवार प्रस्थान कर दिया। आप शंघाई पहुँचे, वहीं आपके घर एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। वहाँ कार्य के सम्बन्ध में आपको अपना घर लौटने का इरादा बदलना पड़ा। परिवार तो श्री करतार सिंह के साथ भारत को भेज दिया और आप वहीं ठहर गये। वहाँ जो सब कार्य करने को था, करते हुए आप 1915 में बेंकॉक (Bangkok) पहुँचे।

उन दिनों दूर पूर्व में जो विद्रोह के प्रयत्न हो रहे थे; उन्हीं के संगठन तथा नियन्त्रण में आपको कार्य करने के लिए ठहरना पड़ा था। उन सब विफल आयोजनों का रोमांचकारी इतिहास लिखने का यह स्थान नहीं। सप्ताहभर सिगापुर में जो रणचण्डी का ताण्डव-नृत्य हुआ था, उसमें साम्राज्यवादी जापान तथा फ्रांस की सर्व शस्त्रसुसज्जित सेनाओं की सहायता से अंग्रेज़ विजयी हुए। भारत का स्वतन्त्रता प्रयत्न निष्फल हो गया। Eastern Plot ख़त्म हो गया। ऐसी ही अवस्था में श्री बलवन्त सिंह जी बेंकॉक पहुँचे थे। दुर्भाग्यवश आप बीमार हो गये। दशा नाज़ुक हो गयी, अस्पताल जाना पड़ा। नासमझ डॉक्टर ने ऑपरेशन कर डाला और वह भी बिना क्लोरोफ़ार्म सुँघाये ही। आपको कष्ट और निर्बलता बढ़ गयी। अभी चलने-फिरने योग्य भी न हुए थे कि अस्पताल वालों ने उन्हें चले जाने को कहा। चलने-फिरने की अयोग्यता की बात पर भी ध्यान नहीं दिया गया। अस्पताल से बाहर निकाल दिया गया। इतना उतावलापन क्यों किया गया, सो भी सुन लीजिये। बाहर पुलिस गिरफ्तार करने के लिए खड़ी थी। द्वार से निकलते न निकलते आपको गिरफ्तार कर लिया गया। वहाँ रहने वाले भारतवासियों के जमानत-अमानत के सब प्रयत्न विफल हो गये। स्याम (थाईलैण्ड) की स्वतन्त्र सरकार ने श्री बलवन्त सिंह जी तथा उनके अन्य साथियों को चुपचाप भारत की अंग्रेज़ सरकार के सुपुर्द कर दिया। सो क्यों? इसका भी एकमात्र कारण यही है कि भारत ग़ुलाम था। ग़ुलाम जाति के लिए कौन ख़्वाहमख़्वाह की बला सिर पर लेता है। ख़ैर!

श्री बलवन्त सिंह जी को सिगापुर लाया गया। संसारभर की धमकियाँ तथा लोभ देकर सब भेद कह देने के लिए राजी करने के प्रयत्न किये गये, परन्तु उनके पास मौन के सिवा क्या धरा था? आख़िर 1916 में आपको लाहौर-षड्यन्त्र के दूसरे अभियोग में शामिल किया गया। अपराध वही था, जिसमें निष्फलता होने पर मृत्यु-दण्ड ही मिला करता है। आप पर विद्रोह का आरोप लगाया गया। 24 दिन नाटक हुआ। बेला सिंह जैण्ड आदि कई-एक गवाह आपके विरुद्ध पेश हुए। नाटक दुखान्त था। अभियुक्त को साम्राज्य की बलि-वेदी पर क़ुर्बान करने का निश्चय हुआ। मृत्यु-दण्ड सुनते ही देवता सहम गये। इस देवता को मृत्यु-दण्ड! राक्षसों- दानवों में भीषण अट्टहास मच गया होगा।

काल कोठरी में बन्द हैं, सिक्ख होने पर टोपी नहीं पहन सकते। कम्बल ही सर पर लपेट लिया है। बदनाम करने के लिए किसी ने शरारत की – कम्बल के किसी एक कोने में अफ़ीम बाँध दी और कहा गया कि आप आत्महत्या करना चाहते हैं। आपने अत्यन्त शान्ति से उत्तर दिया – “मृत्यु सामने खड़ी है। उसके आलिगन के लिए तैयार हो चुका हूँ। आत्महत्या कर मैं मृत्यु-सुन्दरी को कुरूपा नहीं बनाऊँगा। विद्रोह के अपराध में मृत्यु-दण्ड पाने में गर्व अनुभव करता हूँ। फाँसी के तख़्ते पर ही वीरतापूर्वक प्राण दूँगा।” पूछताछ करने पर भेद खुल गया। कुछ नम्बरदार क़ैदियों तथा वार्डर को कुछ सज़ाएँ हुईं। सभी ने आपकी देशभक्ति तथा निर्भीकता की दाद दी।

सन् 1916 के दिन थे। भारतवर्ष में कालेपानी और फाँसियों का ज़ोर था। समस्त उत्तर भारत में एकाएक खलबली मच गयी थी! अन्दर ही अन्दर एक विराट गुप्त विप्लव का आयोजन हो गया था, यह भारत की जनता न जानती थी। नेतागण उन लोगों की ओर ताकने तक का साहस न करते थे। बहुत-से लोग समझते थे कि सरकार ने यों ही देश को भयभीत करने के लिए ऐसे-ऐसे भीषण अभियोग चला दिये हैं। जो भी हो, उस विराट आयोजन के निष्फल हो जाने पर भी उसकी सुन्दर स्मृति बाक़ी है। वह सुन्दर है, इसलिए कि आदर्शवादी युवकों के पवित्र रक्त से लिखी गयी है। बाक़ी है इसलिए कि क़ुर्बानियाँ कभी व्यर्थ नहीं जाया करतीं। इसी वर्ष में (मार्च) चैत्र की 18 तारीख़ को श्री बलवन्त सिंह जी की धर्मपत्नी भेंट के लिए गयीं। पुस्तक तथा वस्त्र देकर बताया गया – “कल 17 चैत्र को उन्हें फाँसी दे दी गयी।” उनकी धर्मपत्नी कलेजा थामकर रह गयीं।

श्री बलवन्त की फाँसी के दिन के समाचार बाद में मिले। आपने प्रातःकाल स्नान किया तथा अपने छह और साथियों सहित (जिन्हें उसी दिन फाँसी मिली थी) भारतमाता को अन्तिम नमस्कार किया। भारत-स्वतन्त्रता का गान गाया। हँसते-हँसते फाँसी के तख़्ते पर जा खड़े हुए। फिर क्या हुआ? क्या पूछते हो? वही जल्लाद, वही रस्सी! ओह! वही फाँसी और वही प्राणत्याग!

आज बलवन्त इस संसार में नहीं, उनका नाम है, उनका देश है, उनका विप्लव है।

फ़रवरी, 1928

डॉक्टर मथुरा सिंह

mathura-singhबावजूद सबसे अधिक विपत्तियाँ सहन करने के, सबसे अधिक गणना में अपने नर-रत्नों के स्वतन्त्रता-बलिवेदी पर बलिदान देने के, आज पंजाब राजनीतिक क्षेत्र में फिसड्डी (Politically backward) प्रान्त कहलाता है। बंगाल में श्री ख़ुदीराम बसु फाँसी पर लटके। उन्हें इतना उठाया गया कि आज उनका नाम उस प्रान्त के कोने-कोने में सुनायी देता है। भारतवर्ष के प्रत्येक प्रान्त में उनका नाम सुविख्यात है। परन्तु पंजाब में कितने रत्न देश के लिए जीवन-दान दे गये, कितने ही हँसते-हँसते फाँसी पर चढ़ गये, कितने ही लड़ते-लड़ते छाती में गोली खाकर शहीद हो गये, परन्तु उन्हें कौन जानता है? और कहीं की तो बात ही क्या कहें, पंजाब प्रान्त में ही उन्हें कितने लोग जानते हैं? कोई साधारण विप्लवी यों ही फाँसी पर लटक गया हो और उसे लोग यों ही भूल गये हों, सो भी तो नहीं। जिन लोगों ने अथक परिश्रम से, अदम्य उत्साह से तथा अतुल साहस से भारतोत्थान के लिए ऐसे-ऐसे यत्न कर दिये थे कि आज उन्हें सुन-सुनकर अवाक रह जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं! यदि ऐसे रत्न किसी और देश में जन्म धारण किये होते तो आज उनकी वाशिंगटन, गैरिबाल्डी तथा विलियम वालीस की भाँति पूजा होती। परन्तु उन्होंने एक अक्षम्य अपराध यह किया था कि वे भारत में पैदा हुए थे। इसी का दण्ड यह है कि आज उनको विस्मृति के अन्धकार में फेंक दिया गया है। न उनके कार्य की चर्चा है, न उनके त्याग की, न उनके बलिदान की ख्याति है, न उनके साहस की। परन्तु ऐसी कृतघ्नता दिखाने वाले देश की उन्नति कैसे होगी?

कट्टर आदर्शवादी डॉक्टर मथुरा सिंह जी का स्थान वास्तव में बहुत ऊँचा है। आपका जन्म सन् 1883 ई. में ढुढियाल नामक गाँव, ज़िला झेलम (पंजाब) में हुआ था। आपके पिता का नाम सरदार हरि सिंह था। आपने पहले अपने गाँव में ही शिक्षा पायी, तत्पश्चात आप चकवाल के हाई स्कूल में पढ़ने लगे। आपकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। आप सदैव अपने सहपाठियों में सबसे अच्छे रहते थे। वहाँ पर मैट्रिक पास करने के बाद आप प्राइवेट तौर पर डॉक्टरी का कार्य सीखने लगे। मैसर्स जगत सिंह एण्ड ब्रदर्स की दुकान रावलपिण्डी में थी। वहीं पर आपने यह कार्य सीखना शुरू किया। बड़ी चेष्टा से आप सब कार्य करते। तीन-चार वर्ष में ही आप इस कार्य में प्रवीण हो गये। फिर आपने अपनी दुकान अलग खोल दी। वह दुकान नौशेरा छावनी में थी, आप सभी देशों से चिकित्सा सम्बन्धी पत्र-पत्रिकाएँ मँगवाया करते थे। विशेष शिक्षा ग्रहण करने के लिए आपने अमेरिका जाने का विचार किया। दुकान का झंझट अभी तय भी न हो पाया था कि आपकी सुपत्नी तथा सुपुत्री का देहान्त हो गया। परन्तु इससे क्या होता था? आपने उधर प्रस्थान कर दिया। 1913 में आप चले थे। कुछ अधिक धन पास न होने के कारण आपको शंघाई में ही रुक जाना पड़ा। वहीं पर आपने चिकित्सा-कार्य शुरू कर दिया, जिसमें आपको बहुत सफलता हुई। परन्तु आपका इरादा कैनेडा जाने का था; आप कुछ और भारतीयों के साथ उधर गये। परन्तु वहाँ पर बहुत दिक्क़तें पेश आयीं। पहले केवल आपको तथा एक और सज्जन को वहाँ उतरने की आज्ञा मिली, दूसरे लोगों को नहीं। इस पर आपने वहाँ उतरना उचित न समझा। परन्तु साथियों के आग्रह करने पर आप उतरे तो सही, परन्तु वहाँ पर इमिग्रेशन विभाग से अन्य साथियों के लिए झगड़ा शुरू कर दिया। अभियोग तक चला। परन्तु क़ानून और कोर्ट शक्तिशाली लोगों के लिए होते हैं न कि पराधीन देशवालों के लिए। वहाँ से आपको तथा अन्य भारतीय यात्रियों को वापस लौटा दिया गया। बहाना वही कि कैनेडा में किसी जहाज़ द्वारा सीधे नहीं आये। आप शंघाई लौट आये। आकर भारतीय लोगों में अपनी दीन-हीन दशा की मार्मिक कथा सुनायी और श्री बाबा गुरुदत्त सिंह जी को एक अपना जहाज़ बनाने की सलाह दी, जो सीधा कैनेडा जावे, इसी सलाह पर बाबा जी ने कामागाटामारू जहाज़ किराये पर ले लिया और उसका नाम गुरु नानक जहाज़ रखा। आपको इधर पंजाब आना पड़ा। जहाज़ जल्दी से तैयार हो गया, अतः आप निश्चित दिन पर वहाँ न पहुँच सके। सिगापुर से, 35 के लगभग अन्य साथियों सहित, दूसरे जहाज़ से चले, ताकि शंघाई तक कामागाटामारू से मिलकर उस पर सवार हों। हाँगकाँग पहुँचने पर पता चला कि जहाज़ वहाँ से भी चल चुका है। इसलिए आप वहीं पर ठहर गये। अब तक आप भारत-स्वतन्त्रता के लिए जीवन अर्पण करने का निश्चय कर चुके थे।

हाँगकाँग में आपने प्रचार-कार्य शुरू कर दिया। अमेरिका से ग़दर पार्टी का ‘ग़दर’ अख़बार आता था। आप भी वहीं पर वैसा ही गुप्त अख़बार छपवाकर लोगों में बाँटने लगे। उधर कामागाटामारू जहाज़ पर जो-जो अत्याचार होने लगे उन सबके समाचार आपको मिल रहे थे। जब मालूम हुआ कि कामागाटामारू जहाज़ को वापिस आना ही पड़ेगा तब आपने बड़े ज़ोरों से प्रचार शुरू किया। उस समय कैण्टन में एक सिक्ख पुलिस इंस्पेक्टर महाशय इन सभी आन्दोलनों को दबाने की बहुत चेष्टा कर रहे थे। आपने उनसे मिलकर जो बातचीत की तो वे महाशय भी इनकी सहायता करने लगे। आप किसी कार्यवश शंघाई गये। जाते समय सबसे कह गये कि अब कामागाटामारू जहाज़ में सवार होकर भारत को लौट चलना चाहिए। परन्तु उनका यह निश्चय जान सरकार ने जहाज़ को शंघाई में न ठहरने दिया। उसके दो-एक रोज़ बाद वे सभी लोग दूसरे जहाज़ों द्वारा भारत लौट आये; कामागाटामारू जहाज़ अभी हुगली में ही खड़ा था कि आप लोग कलकत्ते पहुँच गये। वहाँ पर सरकार ने आपको पंजाब के टिकट देकर गाड़ी पर चढ़ा दिया। अमृतसर पहुँचते न पहुँचते बजबज की घटना हो गयी। सब समाचार मिला। क्रोध से विह्नल-से हो उठे। प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक उठी। परन्तु डॉक्टर जी ने अपने अन्य साथियों को समझा-बुझाकर कुछ शान्त किया, और उन्हें प्रचार-कार्य के लिए उद्यत किया तथा स्वयं संगठन-कार्य शुरू कर दिया। उधर इस विराट चेष्टा में आपको बम बनाने का कार्य सौंपा गया था। आप उसमें थे भी बड़े निपुण। अमेरिका से सैकड़ों मतवाले योद्धा विप्लव-अग्नि भड़काने के लिए आने लगे। झट-से सारा प्रबन्ध हो गया। विप्लव-दल का इतना वृहत संगठन खड़ा हो गया कि समस्त भारत में एक साथ विद्रोह खड़ा कर देने का विचार उठा और तिथि तक निश्चित हो गयी। देखते-देखते सब प्रयत्न, सब आयोजन विफल हो गये। कृपाल की नीचता से सब किया-धरा बीच में ही रह गया। इधर-उधर पकड़-धकड़ शुरू हो गयी। परन्तु आप पकड़े न गये। एक बार एक सरकारी जासूस द्वारा आपको कहा गया कि यदि वे सरकारी गवाह बन जायें तो उन्हें क्षमा के साथ ही साथ बहुत भारी पुरस्कार भी दिया जायेगा। तब आपने उस प्रस्ताव को बिल्कुल उपेक्षा से ठुकरा दिया। फिर एक बार एक ख़ुफ़िया ऑफ़िसर आपके पास तक आ पहुँचा। परन्तु वह ख़ूब जानता था कि डॉक्टर साहब बड़े निर्भीक क्रान्तिकारी हैं, अतः उसे अकेले उनको गिरफ्तार करने का साहस न हुआ। उलटा वह उनसे कहने लगा कि सरकार ने आपके लिए क्षमा प्रदान की है तथा पुरस्कार देने का वचन दिया है, यही कहने के लिए आया हूँ। आप भी ख़ूब समझते थे कि वह उस समय उन्हें पकड़ने का साहस न कर सकने के कारण ही ऐसी बातें करता था। इसलिए आपने कुछ रज़ामन्दी दिखायी और उससे पीछा छुड़ाकर बच निकले। इस तरह आपने समझा कि अब देश में बचकर रहना एकदम असम्भव है, इसलिए आपने काबुल की ओर प्रस्थान कर दिया। वज़ीराबाद स्टेशन पर पुलिस ने पकड़ लिया, परन्तु वहाँ पर आपने कुछ घूस दे दी और बच निकले। आप कोहाट की ओर रवाना हो गये। पुलिस को भी समचार मिल गया। कोहाट स्टेशन पर पुलिस का बड़ा भारी दस्ता पहरे पर लगा दिया गया। उसी ट्रेन में बहुत-सी पुलिस भी चढ़ा दी गयी। मार्ग में एकाएक सब डिब्बों की तलाशी भी ले डाली गयी, परन्तु आप न पकड़े जा सके। कुछ दिन वहीं पर ठहरने के पश्चात आप काबुल जा पहुँचे। वहाँ शीघ्र ही आप बहुत प्रसिद्ध हो गये। आपकी योग्यता देखकर आपको काबुल का चीफ़ मेडिकल ऑफ़िसर नियुक्त कर दिया।

भारत के भीतर राज्य-क्रान्ति की सब चेष्टा विफल हो चुकी थी तो क्या, बाहर तो अभी बड़े ज़ोरों में प्रयत्न हो ही रहा था। काबुल में उस समय भारत की अस्थायी सरकार (Provisional Government of India) बनी हुई थी, जो जर्मनी कमेटी से सहयोग करती हुई भारत-स्वतन्त्रता के प्रयत्न में लगी हुई थी। इस समय अरब, मिड्ड, मैसोपोटेमिया और ईरान आदि सभी प्रदेशों में भारतीय विप्लवी – जिनमें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख भी सम्मिलित थे – भारत में क्रान्ति करने की चेष्टा कर रहे थे। उस सब प्रयास में डॉक्टर जी फिर से जुट गये। उसी के सम्बन्ध में आपको जर्मनी जाना पड़ा। कुछ दिनों बाद आप फिर लौट आये। ईरान तक तो आपको बहुत बार जाना पड़ा। फिर निश्चय हुआ कि अस्थायी सरकार की ओर से एक स्वर्ण पत्र ज़ार, रूस के पास इस आशय का भेजा जाये कि वह भारत-क्रान्ति की सहायता करे। अब की बड़ी शान से प्रस्थान किया गया। कई सेवक तथा सामान के लदे हुए कई ऊँट आपके साथ थे। परन्तु उस समय कोई नीच पुरुष आपकी यात्रा की सब ख़बर अंग्रेज़ सरकार को दे रहा था। यह वह नहीं जानते थे। ताशकंद नगर में आपको गिरफ्तार कर लिया गया। ईरान में लाकर शिनाख़्त की गयी। अभियोग चला। बहुत लोगों ने यत्न किया कि आपको भारत सरकार के सुपुर्द न किया जाये, परन्तु अब तक अन्य सभी प्रयत्नों में जो निष्फलता हुई थी, अब ही क्यों सफलता होती?

लाहौर में लाये गये। इधर उन दिनों ओडायरशाही का ज़ोर था। कुछ दिन न्याय-नाटक हुआ। मृत्यु-दण्ड सुनाया गया। आपने अत्यन्त आनन्द प्रदर्शित करते हुए सुना। आपके छोटे भाई मुलाक़ात के लिए गये। आपने पूछा –“क्यों भाई, मेरे मरने की तुम्हें चिन्ता तो नहीं? बालक ने रो दिया। आपने क्रोध-मिश्रित उत्साहवर्द्धक स्वर से कहा – “वाह जी! यह समय आनन्द मनाने का है। क्या सिक्ख लोग भी देश के लिए मरते समय रोया करते हैं? मुझे तो अत्यन्त आनन्द है कि मैं भारतीय विप्लव को सफल बनाने के लिए जो मुझसे हो सका, कर चुका हूँ, मैं बड़ी शान्ति से फाँसी के तख़्ते पर प्राण त्याग करूँगा।” इस तरह आपने उसका उत्साह बढ़ाया।

फिर? फिर 27 मार्च, 1917 का दिन आ पहुँचा। उस दिन फिर वही नाटक प्रारम्भ हुआ। उस दिन के नाटक में एक ही दृश्य हुआ करता है; और वह भी कुछेक मिनट का। ये पगले लोग न जाने कहाँ से आ गये, जिन्हें न मृत्यु का भय था, न जीने की चाह; कार्य-क्षेत्र में हँसे, युद्ध-क्षेत्र में हँसे, फाँसी के तख़्ते पर भी मुस्कुरा दिये। उनकी महिमा अपरम्पार है।

‘हों फ़रिश्ते भी फ़िदा जिन पर ये वो इन्सान हैं!’


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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