भगतसिंह – कूका विद्रोह: दो

कूका विद्रोह: दो

अक्टूबर, 1928 में ‘किरती’ मासिक पत्रिका में भगतसिंह ने ‘युग पलटने का अग्निकुण्ड’ शीर्षक से पंजाब के तख़्तापलट आन्दोलनों के इतिहास के रूप में लेख लिखे। यह लेख उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से लिखा था। – स.

आज हम पंजाब के तख़्ता पलटने के आन्दोलन और पोलिटिकल जागृति का इतिहास पाठकों के सामने रख रहे हैं। पंजाब में सबसे पहली पोलिटिकल हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है। वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक-सा नज़र आता है, लेकिन ज़रा ग़ौर से देखें तो वह बड़ा भारी पोलिटिकल आन्दोलन था, जिसमें धर्म भी मिला हुआ था, जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धर्म और राजनीति मिली-जुली थी। ख़ैर, हम देखते हैं कि हमारी आपस की साम्प्रदायिकता और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े-बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते हैं जैसेकि वे हुए ही न हों। यही स्थिति हम अपने बड़े भारी महापुरुष ‘गुरु’ राम सिंह के सम्बन्ध में देखते हैं। हम ‘गुरु’ नहीं कह सकते और वे गुरु कहते हैं, इसीलिए हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं – आदि बातें कहकर हमने उन्हें दूर फेंक रखा है। यही पंजाब का सबसे बड़ा घाटा है। बंगाल के जितने भी बड़े-बड़े आदमी हुए हैं, उनकी हर साल बरसियाँ मनायी जाती हैं, सभी अख़बारों में उन पर लेख दिये जाते हैं, यह समझा जाता है कि मौक़ा मिला तो इस पर फिर विचार करेंगे और जो मसाला मिला, वह पाठकों के सामने पेश करेंगे।

पंजाब को सोये थोड़े ही दिन हुए थे, लेकिन नींद बड़ी गहरी आयी। हालाँकि अब फिर होश आने लगा है। बड़ा भारी आन्दोलन उठा। उसे दबाने की कोशिश की गयी। कुछ ईश्वर ने स्थिति भी ऐसी ही पैदा कर दी – वह आन्दोलन भी कुचल दिया गया। उस आन्दोलन का नाम था ‘कूका आन्दोलन’। कुछ धार्मिक, कुछ सामाजिक रंग-रूप रखते हुए भी वह आन्दोलन एक तख़्ता पलटने का नहीं, युग पलटने का था।

चूँकि अब इन सभी आन्दोलनों का इतिहास यह बताता है कि आज़ादी के लिए लड़ने वाले लोगों का एक अलग ही वर्ग बन जाता है, जिनमें न दुनिया का मोह होता है और न पाखण्डी साधुओं जैसा दुनिया का त्याग ही। जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नहीं, बल्कि सिर्फ़ अपने फ़र्ज़ के लिए या किसी काम के लिए कहें; वे निष्काम भाव से लड़ते और मरते थे। सिक्ख इतिहास यही कुछ था, मराठों का आन्दोलन भी यही कुछ बताता है। राणा प्रताप के साथी राजपूत भी इसी तरह के योद्धा थे। बुन्देलखण्ड के वीर छत्रसाल के साथी भी ऐसे थे।

ऐसे ही लोगों का एक वर्ग पैदा करने वाले बाबा राम सिंह ने प्रचार और संगठन शुरू किया। बाबा राम सिंह का जन्म 1824 में लुधियाना ज़िले के भैणी गाँव में हुआ। आपका जन्म बढ़ई घराने में हुआ। जवानी में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की। ईश्वर-भक्ति अधिक होने से नौकरी-चाकरी छोड़कर गाँव जा रहे। नाम का प्रचार शुरू कर दिया।

1857 के ग़दर में जो-जो ज़ुल्म हुए, वे सब देखकर और पंजाब की ग़द्दारी देखकर कुछ असर ज़रूर हुआ होगा। क़िस्सा यह कि बाबा राम सिंह जी ने उपदेश शुरू करवा दिया। साथ-साथ बताते गये कि ‘फिरंगियों’ से पंजाब की मुक्ति बहुत ज़रूरी है। उन्होंने तब उस असहयोग का प्रचार किया, जैसे वर्षों बाद 1920 में महात्मा गाँधी ने किया। उनके कार्यक्रम में अंग्रेज़ी राज की शिक्षा, नौकरी, अदालतों आदि का और विदेशी चीज़ों का बहिष्कार तो था ही, साथ में रेल और तार का भी बहिष्कार किया गया था।

पहले-पहले सिर्फ़ नाम का ही उपदेश होता था। हाँ, यह ज़रूर कहा जाता था कि शराब-मांस का प्रयोग बिल्कुल बन्द कर दिया जाये। लड़कियाँ आदि बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ भी प्रचार होता था, लेकिन बाद में उनका प्रचार पोलिटिकल रंग में रँगा गया।

पंजाब सरकार के पुराने काग़ज़ों में एक स्वामी रामदास का ज़िक्र आता है, जिसे कि अंग्रेज़ी सरकार एक पोलिटिकल आदमी समझती थी और जिस पर निगाह रखी जाती थी। 1857 के बाद जल्द ही उसके रूस की ओर जाने का पता चलता है। बाद में कोई ख़बर नहीं मिलती। उसी आदमी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने एक दिन बाबा राम सिंह से कहा कि अब पंजाब में राजनीतिक कार्यक्रम और प्रचार की ज़रूरत है। इस समय देश को आज़ाद करवाना बहुत ज़रूरी है। तब से आपने स्पष्ट रूप से अपने उपदेश में इस असहयोग को शामिल कर लिया।

1863 में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव रहे टी.डी. फार्सिथ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1863 में ही मैं समझ गया था कि यह धार्मिक-सा आन्दोलन किसी दिन बड़ा ग़दर मचा देगा। इसीलिए मैंने भैणी के उस गुरुद्वारे में ज़्यादा आदमियों का आना-जाना और इकट्ठा होना बन्द कर दिया। इस पर बाबा जी ने भी अपना काम का ढंग बदल लिया। पंजाब प्रान्त को 22 ज़िलों में बाँट लिया। प्रत्येक ज़िले में एक-एक व्यक्ति प्रमुख नियत किया गया, जिसे ‘सूबा’ कहा जाता था। अब उन्होंने ‘सूबों’ में प्रचार और संगठन का काम शुरू कर दिया। गुप्त तरीक़ों से आज़ादी का भी प्रचार जारी रखा। संगठन बढ़ता गया, प्रत्येक नामधारी सिख अपनी आय का दसवाँ हिस्सा अपने धर्म के लिए देने लगा। बाहर का हंगामा बन्द हो जाने से सरकार का शक दूर हो गया और 1869 में सभी बन्दिशें हटा ली गयीं। बन्दिशें हटते ही ख़ूब जोश बढ़ा।

एक दिन कुछ कूके अमृतसर में से जा रहे थे। पता चला कि कुछ कसाई हिन्दुओं को तंग करने के लिए उनकी आँखों के सामने गोहत्या करते हैं। गाय के तो वे बड़े भक्त थे। रातों-रात सभी कसाइयों को मार डाला और भैणी का रास्ता पकड़ा। बहुत-से हिन्दू पकड़े गये। गुरु जी ने पूरी कहानी सुनी। सबको लौटा दिया कि निर्दोष व्यक्तियों को छुड़ायें और अपना अपराध मान लें। यही हुआ और वे लोग फाँसी चढ़ गये। ऐसी ही कोई घटना फ़िरोज़पुर ज़िले में भी हो गयी। फाँसियों से जोश और बढ़ गया। उस समय उन लोगों के सामने आदर्श था पंजाब में सिख-राज स्थापित करना और गोरक्षा को वे अपना सबसे बड़ा धर्म मानते थे। इसी आदर्श की पूर्ति के लिए वे प्रयत्न करते रहे।

13 जनवरी, 1872 को भैणी में माघी का मेला लगने वाला था। दूर-दूर से लोग आ रहे थे। एक कूका मलेर कोटला से गुज़र रहा था। एक मुसलमान से झगड़ा हो जाने से वे उसे पकड़कर कोतवाली में ले गये और उसे बहुत मारा-पीटा व एक बैल की हत्या उसके सामने की गयी। वह बेचारा दुखी हुआ, भैणी पहुँचा। वहाँ जाकर उसने अपनी व्यथा सुनायी। लोगों को बहुत जोश आ गया। बदला लेने का विचार ज़ोर पकड़ गया। जिस विद्रोह का भीतर ही भीतर प्रचार किया गया था, उसे कर देने का विचार ज़ोर पकड़ने लगा, लेकिन अभी मनचाही तैयारी भी नहीं हुई थी। बाबा राम सिंह ऐसी स्थिति में क्या करते? यदि उन्हें मना करते हैं तो वे मानते नहीं और यदि उनका साथ देते हैं तो सारा किया-धरा तबाह होता है। क्या करें? आख़िर जब 150 आदमी चल ही पड़े तो आपने पुलिस को ख़बर भेज दी कि ये व्यक्ति हंगामा कर रहे हैं और शायद कुछ ख़राबी करें, मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ। ख़याल था कि हज़ारों आदमियों के संगठन में से सौ-डेढ़ सौ आदमी मारे गये (जायें) और बाक़ी संगठन बचा रहा तो यह कमी तो फिर पूरी हो जायेगी और जल्द ही फिर पूरी तैयारी होने से विद्रोह हो सकेगा। लेकिन हम यह देखते हैं कि दुनिया में ‘end Justifies the means’ (परिणाम से ही तय होता है कि तरीक़े जायज़ थे या नाजायज़) का सिद्धान्त राजनीति के मैदान में प्रायः लागू होता है। अर्थात यदि सफलता मिल जाये तब तो चालें नेकनियती से भरी और सोच-समझकर चली गयी कहलाती हैं और यदि कभी मिले असफलता तो बस फिर कुछ भी नहीं। नेताओं को बेवव़फ़ूफ़, बदनीयत आदि ख़िताब मिलते हैं। यही बात हम देखते हैं। जो चाल बाबा राम सिंह ने अपने आन्दोलन से बचने के लिए चली, वह क्योंकि सफल नहीं हुई, इसीलिए अब कोई उन्हें कायर और बुज़दिल कहता है और कोई बदनीयत व कमज़ोर बताता है। ख़ैर।

हम तो समझते हैं कि वह राजनीति की एक चाल थी। उन्होंने पुलिस को ख़बर कर दी ताकि वे कोई ऐसा इलाज कर लें जिससे कोई बड़ी ख़राबी पैदा न हो, लेकिन सरकार उनके इस बड़े भारी आन्दोलन से बहुत डरती थी और उसे पीस देने का अवसर खोज रही थी। उसने कोई ख़ास कार्यवाही न की और उन्हें मर्जी अनुसार जाने दिया।

लेकिन 11 जनवरी के पत्र में डिप्टी कमिश्नर लुधियाना मि. कावन ने यह बात कमिश्नर को लिख भेजी कि राम सिंह ने उन लोगों से अपने सम्बन्ध न होने की बात ज़ाहिर की है और उनके सम्बन्ध में हमें सावधान भी कर दिया है। ख़ैर! वे 150 नामधारी सिंह बड़े जोश-ख़रोश में चल पड़े।

जब वे 150 व्यक्ति वहाँ से बदला लेने के विचार से चल पड़े, तो पुलिस को पहले से बताया जा चुका था, लेकिन सरकार ने कोई इन्तज़ाम नहीं किया। क्यों? क्योंकि वे चाहते थे कि कोई छोटी-मोटी गड़बड़ हो जाये और बहाना मिल जाये, जिससे कि वे उस आन्दोलन को पीस दें। सो वह अब मिल गया।

वे कूके वीर उस दिन तो पटियाला राज्य की सीमा पर एक गाँव रब्बों में पड़े रहे। अगले दिन भी वे वहीं टिके रहे। 14 जनवरी, 1872 की शाम को उन्होंने मलोध के क़िले पर धावा बोल दिया। यह क़िला कुछ सिख सरदारों का था, लेकिन इन्होंने इस पर हमला क्यों किया? इस सम्बन्ध में डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में लिखा है कि उन्हें उम्मीद थी कि मलोध सरकार उनके विद्रोह की नेता बनेगी, लेकिन उन्होंने मना कर दिया और इन्होंने हमला कर दिया। बहुत सम्भव है कि बाबा राम सिंह की बड़ी भारी तैयारी में मलोध सरकार ने मदद देने का वायदा किया हो, लेकिन जब उन्होंने देखा कि विद्रोह तो पहले ही हो गया है और बाबा राम सिंह भी साथ नहीं हैं और पूरी संगत भी नहीं बुलायी गयी है तो उन्होंने मना कर दिया होगा। ख़ैर! जो भी हो, वहाँ लड़ाई हुई। कुछ घोड़े, हथियार और तोपें ले वे वहाँ से चले गये। दोनों ओर के दो-दो आदमी मारे गये और कुछ घायल हुए।

अगले दिन सवेरे 7 बजे वे मलेर कोटला पहुँच गये। अंग्रेज़ी सरकार ने मलेर कोटला सरकार को पहले ही सूचित कर रखा था। उधर बड़ी तैयारियाँ की गयी थीं। सेना हथियार लिये खड़ी थी, लेकिन इन लोगों ने इतनी बहादुरी से हमला किया कि सेना और पुलिस के कुछ वश में न रहा। हमला कर वे शहर में घुस गये और जाकर महल पर हमला कर दिया। वहाँ भी सेना उन्हें रोक न सकी। वे जाकर ख़ज़ाना लूटने की कोशिश करने लगे। लूट ही लिया जाता, लेकिन दुर्भाग्य से वे एक और दरवाज़ा तोड़ते रहे, जिससे कि उनका बहुत-सा समय नष्ट हो गया और भीतर से कुछ भी न मिला।

उधर से सेना ने बड़े ज़ोर से धावा बोला। आख़िर लड़ते-लड़ते वहाँ से लौटना पड़ा। उस लड़ाई में उन्होंने 8 सिपाही मारे और 15 को घायल किया। उनके सात आदमी मारे गये। वहाँ से भी कुछ हथियार और घोड़े लेकर भाग निकले। आगे-आगे वे और पीछे-पीछे मलेर कोटला की सेना और –

“A sort of running fight was kept along. Shots fired and many more Kookas were wounded till both the parties reached the village of Rur in the Patiala State, the Kookas carrying most of the wounded with them.”

यानी भागते जा रहे थे। और लड़ते जा रहे थे। उनके और कई आदमी घायल हो गये और वे उन्हें भी साथ ही उठा ले जाते थे। आख़िर पटियाला राज्य के रूड़ गाँव में ये पहुँचे और जंगल में छिप गये। कुछ घण्टों के बाद शिवपुर के नाज़िम ने फिर हमला बोल दिया। लड़ाई छिड़ गयी पर बेचारे कूके थके-हारे थे। आख़िर 68 व्यक्ति पकड़ लिये गये। उनमें से दो औरतें थीं, वे पटियाला राज को दे दी गयीं।

इसी बात को विद्रोह कहा जाता है। डिप्टी कमिश्नर लुधियाना मि. कावन ने एक पत्र में कहा था –

“It looks like the commencement of an insurrection…”

यानी यह एक विद्रोह की तरह नज़र आता है।

अगले दिन मलेर कोटला लाकर तोप गाड़ दी गयी और एक-एक कर 50 कूके वीर तोप के आगे बाँध-बाँधकर उड़ा दिये गये। हरेक बहादुरी से अपनी-अपनी बारी पर तोप के आगे झुक जाता और सत्त श्री अकाल कहता हुआ तोप से उड़ जाता। फिर कुछ पता नहीं चलता कि वह किस संसार में चला गया। इस तरह 49 व्यक्ति उड़ा दिये गये। पचासवाँ एक तेरह वर्ष का लड़का था। उसके पास झुककर डिप्टी कमिश्नर ने कहा कि बेवकूफ़ राम सिंह का साथ छोड़ दे, तुम्हें माफ़ कर दिया जायेगा। लेकिन वह बालक यह बात सहन नहीं कर सका और उछलकर उसने कावन की दाढ़ी पकड़ ली और तब तक न छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ न काट दिये गये। बाक़ी 16 आदमी अगले दिन मलोध जाकर फाँसी पर लटका दिये गये। उधर बाबा राम सिंह को उनके चार सूबों के साथ गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में रंगून भेज दिया गया। यह गिरफ्तारी (रेगूलेशन) 1818 के अनुसार हुई थी।

जब यह ख़बर देश में फैली तो और लोग बहुत हैरान हुए कि यह क्या बना। विद्रोह शुरू करके बाबाजी ने हमें भी क्यों न बुलाया और सैकड़ों लोग घर-बार छोड़कर भैणी की ओर चल पड़े। एक गिरोह जिसमें कि 172 आदमी थे, कर्नल बायली से मिला। वह अधीक्षक था। उसने झट उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। उनमें से 120 को तो घरों को लौटा दिया, लेकिन 50 ऐसे थे जिनका कोई घरबार नहीं था। वे सब सम्पत्ति आदि बेच-बाचकर लड़ने-मरने के लिए तैयार होकर निकले थे। उन्हें जेल में डाल दिया गया। इस तरह वह आन्दोलन दबा दिया गया और बाबा राम सिंह का पूरा यत्न निष्फल हो गया। बाद में देश में जितने कूके थे, वे सभी एक तरह से नज़रबन्द कर दिये गये। उनकी हाज़िरी ली जाती थी। भैणी साहिब में आम लोगों का आना-जाना बन्द कर दिया गया। ये बन्दिशें 1920 में आकर हटायी गयीं।

यही पंजाब की आज़ादी के लिए दी गयी सबसे पहली कोशिश का संक्षिप्त इतिहास है।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
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