भगतसिह – श्री मदनलाल ढींगरा

श्री मदनलाल ढींगरा

शहीद भगतसिंह ने ‘किरती’ में मार्च, 1928 से अक्टूबर 1928 तक ‘आज़ादी की भेंट शहादतें’ शीर्षक से एक लेखमाला लिखी। अगस्त, 1928 के ‘किरती’ में इस लेखमाला का उद्देश्य इस रूप में बताया गया – हमारा इरादा है कि उन जीवनियों को उसी तरह छापते हुए भी उनके आन्दोलनों का क्रमशः हाल लिखें ताकि हमारे पाठक यह समझ सकें कि पंजाब में जागृति कैसे पैदा हुई और फिर काम कैसे होता रहा और किन कामों के लिए, किन विचारों के लिए उन शहीदों ने अपने प्राण तक अर्पित कर दिये।” – स.

अब फिर यह बताने की ज़रूरत नहीं कि भारतवर्ष की आज़ादी के लिए जितनी क़ुर्बानी पंजाब प्रान्त ने की है, उतनी किसी और प्रान्त ने नहीं की। बीसवीं सदी के शुरू होने के साथ ही भारत में एक बार नयी अशान्ति की लहर दौड़ गयी, जिसका परिणाम स्वदेशी-आन्दोलन की शक्ल में प्रकट हुआ। तब भी पंजाब ही बंगाल का साथ दे सका था। ग़ुलामी की ज़ंजीरें दिनोदिन जकड़ी देखकर जब दर्द शुरू हुआ तब बहुत-से नौजवान अपने देशप्रेम में पागल हुए दिलों को केवल लेक्चरबाज़ी और प्रस्तावबाज़ी-मात्र से सन्तोष न दे सके और कुछ दिल-जले लोगों ने युग पलट आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन उन देशप्रेमी युवकों को अपनी ओर खींचने में सफल हो गया और इन परवानों ने स्वतन्त्रता देवी के चरणों में अपने जीवन तक बलिदान कर दिये और मुर्दा देश को फिर मृत्यु के प्रति निर्भयता दिखाकर पुराने बुज़ुर्गों की याद ताज़ा कर दी।

यह युग पलटने वाले या विद्रोही लोग कैसे विचित्र होते हैं, इसका कुछ वर्णन बंगाल के विद्रोही कवि नज़रुल इस्लाम ने अपनी ‘विद्रोही’ कविता में किया है। मौत के हाथ में हाथ डालकर खेल करने वाले, ग़रीबों के सहायक, आज़ादी के रक्षक, ग़ुलामी के दुश्मन, ज़ालिमों, अत्याचारियों और मनमानी करने वाले शासकों के शत्रु इन विद्रोही वीरों के दिल का, मन का, स्वभाव का, इच्छा का बड़ा सुन्दर चित्र उन्होंने अपनी कविता में खींचा है। पहले ही वे कहते हैं –

बोलो बीर –

चिर उन्नत मम शीर

शिर नेहारि आमारि

नत शिर ओई शिखर हिमाद्रीर!

यानी हे विद्रोही वीर! तुम एकदम यह कहते हो कि मैं कब से सिर उठाये खड़ा हूँ। मेरा ऊँचा सिर देखकर हिमालय ने भी अपना सिर शर्म के मारे झुका दिया।

आगे जाकर उसकी सख़्ती और नरमी का वर्णन किया है। कहीं वह मौत से (के साथ) नाच कर रहा है, कहीं वह संसार का एक ही बार सर्वनाश करने पर तुला हुआ है। वह बिजली की तरह चमकता है। वह संगीत की तरह मीठा है। विधवा, ग़ुलाम, मज़लूम, ग़रीब, भूखे और पीड़ित लोगों में बैठकर वह लगातार रोता रहता है। ऐसे विचित्र जीव की विचित्र महिमा का वर्णन करते हुए अन्त में वे विद्रोही के मुँह से कहलवाते हैं –

महा बिद्रोही रणक्लान्त

आमि शेई दिन हॅबो शान्त,

जॅबे उत्पीड़ितेर क्रन्दन-रोल

आकाशे बातासे ध्वनिबे ना

अत्याचारीर खड्ग कृपाण

भीम रणभूमे रणिबे ना

बिद्रोही रणक्लान्त

आमि शेई दिन हॅबो शान्त!

अर्थात, मैं विद्रोही अब लड़ाई से थक गया हूँ। और मैं भी उसी दिन शान्त हो जाऊँगा जिस दिन किसी दुखी की आह या चीत्कार आकाश में जाकर आग न लगा सकेगा, यानी कोई दुखी न रहेगा, और जब ज़ालिमों, अत्याचारियों की भयानक तलवार मैदान में चलनी बन्द हो जायेगी, यानी बाक़ी ही न रहेंगी, तब, और तभी मैं शान्त हो सकूँगा और हो भी जाऊँगा।

ऐसे विचित्र विद्रोही जीव जो पूरे विश्व से टकरा जाते हैं और स्वयं को जलती आग में झोक देते हैं, अपना ऐशो-आराम सब भूल जाते हैं और दुनिया की सुन्दरता, शृंगार में कुछ वृद्धि कर देते हैं और उनके बलिदानों से ही विश्व में कुछ प्रगति होती है। ऐसे ही वीर हर देश में हर समय होते हैं। हिन्दुस्तान में भी यही पूजनीय देवते जन्म लेते रहे हैं, ले रहे हैं और लेते रहेंगे। हिन्दुस्तान में से भी पंजाब ने ऐसे रत्न अधिक दिये हैं, बीसवीं शती के ऐसे ही सबसे पहले शहीद श्री मदनलाल जी ढींगरा हैं।

वे कोई लीडर तो थे नहीं कि उनके जीते-जी उनका जीवन-चरित्र छापकर दो-दो आने में बिक जाता। वे अवतार भी नहीं थे कि ज्योतिष से बताकर शोर मचा दिया जाता कि हम तो पहले ही समझ गये थे कि वे बहुत ‘बड़े’ आदमी थे। उनकी किन्हीं ऐसी बातों का भी हमें पता नहीं कि हम लिख सकें कि ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’

वह ग़रीब और एक बदक़िस्मत विद्रोही था। उसके पिता ने उसे अपना पुत्र मानने से इन्कार कर दिया था। देशभक्त और ख़ुशामदी सभी अख़बारों में और उस समय के गर्म नेता बिपिनचन्द्र पाल तक ने उन्हें कोस-कोसकर गालियाँ दीं। तो फिर बताओ इन हालात में, आज बीस साल बाद उनके बारे में तथ्यों को फिर से इकट्ठा करने की कोशिश में किसी को कितनी सफलता मिल पायेगी?

इन कठिनाइयों में हम आज उनका जीवन-वृतान्त लिखने बैठ गये हैं। धीरे-धीरे हम लोग, उनका नाम भी न भूल जायें, यही सोचकर आज उनके बारे में जैसे भी तथ्य मिल सकते हैं, यह वृतान्त पाठकों के सामने रख रहे हैं।

आप शायद अमृतसर के रहने वाले थे। घर से अच्छे थे। बी.ए. पास कर पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। कहा जाता है कि वहाँ आप कुछ अय्याशी में फँस गये। यह बात यक़ीन से नहीं कही जा सकती, लेकिन यह कोई अनहोनी बात भी नहीं है। उनका मन बड़ा रसिक व भावुक था, इस बात का प्रमाण भी मिलता है। इंग्लैण्ड के ख़ुफ़िया विभाग (Scotland Yard) के एक प्रसिद्ध जासूस श्री ई.टी. वुडहॉल ने (Union Jack) यूनियन जैक नामक साप्ताहिक अख़बार में अपनी डायरी छापी थी। मार्च, 1925 के अंक में उन्होंने श्री मदनलाल ढींगरा का हाल लिखा है। यह जासूस उनके पीछे लगाया गया था। वह लिखता है –

“Dhingra was and extraordinary man. Dhingra’s passion for flowers was remarkable.”

यानी ढींगरा एक असाधारण व्यक्ति था। ढींगरा का फूलों के प्रति ज़बरदस्त लगाव था। आगे जाकर उन्होंने लिखा है कि वे बाग़ के किसी सुन्दर कोने में जाकर बैठ जाते थे और घण्टों तक फूलों को एक कवि की तरह मस्त होकर निहारते रहते और कभी उनकी आँखों से बड़ी तेज़ चमक कौंध उठती थी। उसी चमक को देखकर ई.टी. वुडहॉल उस्ताद सिकलाहिन आगे लिखता है –

“There is a man to keep an eye on. He will do something desperate someday.”

यानी उस व्यक्ति पर आँख रखनी चाहिए। किसी न किसी दिन वह कुछ धमाका करेगा। ख़ैर।

हम बात कर रहे थे कि वे शायद अय्याशी में फँस गये। उस कहानी के आगे यों कि फिर स्वदेशी आन्दोलन का असर इंग्लैण्ड तक भी पहुँचा और जाते ही श्री सावरकर ने इण्डियन हाउस नामक सभा खोल दी। मदनलाल भी उसके सदस्य बने।

इधर हिन्दुस्तान में खुले आन्दोलन को दबाने के कारण युग-पलट लोगों ने ख़ुफ़िया सोसाइटियाँ स्थापित कर लीं। यहाँ तक कि 1908 में अलीपुर की साज़िश का मुक़दमा बन गया। श्री कन्हाई और श्री सतेन्द्रनाथ को फाँसी मिल गयी। धीरेन्द्र और उल्लासकर दत्त को भी उसी समय फाँसी की सज़ा सुनायी गयी थी। ये ख़बरें इंग्लैण्ड में भी पहुँचीं और इन गरम नौजवानों में आग लग गयी। वे कहते हैं कि एक दिन रात को श्री सावरकर और मदनलाल ढींगरा बहुत देर तक मशवरा करते रहे। अपनी जान तक दे देने की हिम्मत दिखाने की परीक्षा में मदनलाल को ज़मीन पर हाथ रखने के लिए कहकर सावरकर ने हाथ पर सुआ गाड़ दिया, लेकिन पंजाबी वीर ने आह तक न भरी। सुआ निकाल लिया गया। दोनों की आँखों में आँसू भर आये। दोनों एक-दूसरे के गले लग गये। आहा, वह समय कैसा सुन्दर था! वह अश्रु कितने अमूल्य व अलभ्य थे। वह मिलाप कितना सुन्दर, कितना महिमामय था! हम दुनियादार क्या जानें, मौत के विचार तक से डरने वाले हम कायर लोग क्या जानें कि देश की ख़ातिर क़ौम के लिए प्राण दे देने वाले वे लोग कितने ऊँचे, कितने पवित्र और कितने पूजनीय होते हैं।

अगले दिन से ढींगरा फिर इण्डियन हाउस, सावरकर वाली सभा में नहीं गये और भारतीय विद्यार्थियों और विशेष ख़ुफ़िया पुलिस का प्रबन्ध करने वाले और उनकी छोटी-मोटी आज़ादी को कुचलने वाले सर कर्जन बायली, जोकि Secretary of State for India के एड-डी-कांप Aid-de-Camp थे, द्वारा चलायी हिन्दुस्तानी विद्यार्थियों की सभा में जा शामिल हुए। यह देखकर इण्डियन हाउस वाले लड़कों को बड़ा जोश आया और उन्होंने उन्हें देशघातक, देशद्रोही तक कहना शुरू कर दिया, लेकिन उनका ग़ुस्सा भी तो सावरकर ने यह कहकर शान्त किया कि आख़िर उन्होंने हमारी सभा को चलाने के लिए भी तो सर तोड़ प्रयत्न किया था और उनकी मेहनत के फलस्वरूप ही हमारी सभा चल रही है, इसलिए हमें उनका धन्यवाद करना चाहिए। ख़ैर। कुछ दिन तो चुपचाप गुज़र गये।

1 जुलाई, 1909 को इम्पीरियल इंस्टीच्यूट के जहाँगीर हॉल में एक बैठक थी। सर कर्जन बायली भी वहाँ गये हुए थे। वे दो और लोगों से बातें कर रहे थे कि अचानक ढींगरा ने पिस्तौल निकालकर उनके मुँह की ओर तान दीं। कर्जन साहिब की डर के मारे चीख़ निकल गयी, लेकिन कोई इन्तज़ाम होने से पहले ही मदनलाल ने दो गोलियाँ उनके सीने में मारकर उन्हें सदा की नींद सुला दिया। फिर कुछ संघर्ष के बाद वे पकड़े गये। बस फिर क्या था, दुनियाभर में सनसनी मच गयी। सब लोग उन्हें जी-भरकर गालियाँ देने लगे। उनके पिता ने पंजाब से तार भेजकर कहा कि ऐसे बाग़ी, विद्रोही और हत्यारे आदमी को मैं अपना पुत्र मानने से इन्कार करता हूँ। भारतवासियों ने बड़ी बैठकें कीं। बड़े-बड़े भाषण हुए। बड़े-बड़े प्रस्ताव पास हुए। सब उनकी निन्दा में। पर उस समय भी एक सावरकर वीर थे, जिन्होंने खुल्लमखुल्ला उनका पक्ष लिया। पहले तो उनके ख़िलाफ़ प्रस्ताव न पास होने देने के लिए यह बहाना पेश किया कि अभी तक उन पर मुक़दमा चल रहा है और हम उन्हें दोषी नहीं कह सकते। आख़िर में जब इस प्रस्ताव पर वोट लेने लगे तो सभा के अध्यक्ष श्री बिपिनचन्द्र पाल यह कह ही रहे थे कि क्या यह सभी की सर्वसम्मति से पास समझा जाये, तो सावरकर साहब उठ खड़े हुए और आपने व्याख्यान शुरू कर दिया। इतने में ही एक अंग्रेज़ ने इनके मुँह पर घूँसा मार दिया और कहा – “Look! how straight the English fist goes.” एक, हिन्दुस्तानी नौजवान ने उस अंग्रेज़ के सिर पर एक लाठी जड़ दी और कहा – “Look! how straight the India club goes!” यानी, “देखा, यारों का हिन्दुस्तानी डण्डा कैसे ठिकाने पर पड़ता है!” शोर मच गया। बैठक बीच में ही छूट गयी। प्रस्ताव भी ऐसे ही रह गया। ख़ैर।

मुक़दमा चल रहा था। मदनलाल बड़े ख़ुश थे। बड़े शान्त थे। सामने दर पर मौत खड़ी देखकर भी वे मुस्कुरा रहे थे। वे निर्भय थे। आहा! वे वीर विद्रोही थे। आपने अन्त में जो बयान दिया वह आपकी नेक-दिली, आपकी देशभक्ति और योग्यता का बड़ा भारी सबूत है। हम उनके ही शब्दों में देते हैं। यह 12 अगस्त के ‘Daily News’ (डेली न्यूज़) में छपा था –

“I admit the other day, I attempted to shed blood as an humble revenge for the inhuman hangings and deportations of patriotic Indian youth. In the attempt I have consulted none but my own conscience, I have conspired with none but my duty.”

“I believe that a nation held down by foreign bayonet is in a perpetual state of war. Since open battle is rendered impossible to disarmed races, I attacked by surprise, since guns were denied to me I drew forth my pistol and fired.”

“As an Hindu, I fell that wrong to my country is insult to God. Her

cause is the cause of Shri Rama, her service is the service of shri Krishna. Poor in wealth and intellect, a son like myself has nothing else to offer but his own blood, and so I have sacrificed the same on her altar.”

“The only lesson required in India at present is to learn how to die, and the only way to teach it is by dying ourselves. Therefore I die and I glory in my martyrdom.”

“This war will continue, as long as the Hindu and English races last if this present unnatural relation does not cease.”

My only prayer to God is –  “May I be reborn of the same mother and may I redie in the same sacred cause, till the cause is successful, and she stands free for the good of humanity and to the glory of God, – Bande Matram.”

अर्थात, मैं मानता हूँ कि मैंने उस दिन एक अंग्रेज़ का ख़ून किया और कहता हूँ कि यह उन निर्दयता भरी सज़ाओं का मामूली-सा बदला है जोकि हिन्दुस्तानी देशभक्त नौजवानों को फाँसी और कालेपानी की दी गयी हैं। मैंने इस काम में अपने ज़मीर के सिवा किसी और की सलाह नहीं ली। अपने फ़र्ज़ के सिवाय किसी से साज़िश नहीं की।

मेरा यह विश्वास है कि एक राष्ट्र, जिसे विदेशी लोगों ने बन्दूक़ों से दबाया हो, वह हमेशा युद्ध की स्थिति में होता है और चूँकि हथियार छीनकर खुली लड़ाई असम्भव बना दी जाती है, मैंने छिपकर बिना बताये हमला किया है। क्योंकि हमें बन्दूकें रखने से मना किया जाता है, इसीलिए मैंने पिस्तौल खींच लिया और चला दिया।

मैं एक हिन्दू के रूप में समझता हूँ कि मेरे देश के साथ किया गया अन्याय ईश्वर का अपमान है, क्योंकि देश की पूजा श्री रामचन्द्र जी की पूजा है और देश की सेवा श्रीकृष्ण जी की सेवा है।

एक ग़रीब और मूर्ख, मेरे जैसे नौजवान के पास अपनी माता की सेवा में भेंट करने के लिए अपने रक्त के सिवाय और क्या हो सकता है? सो मैंने अपना रक्त माता के चरणों में चढ़ाया है।

इस समय यदि हिन्दुस्तान को किसी सबक की ज़रूरत है तो यह कि मरना कैसे चाहिए। और इसे सिखाने का तरीक़ा है कि हम ख़ुद मरकर दिखायें। इसीलिए मैं मर रहा हूँ। इसीलिए मुबारक़ हो शहीदाना मौत।

यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक हिन्दुस्तानी और अंग्रेज़ दो राष्ट्र रहेंगे और इनका यह अस्वाभाविक गठबन्धन बना रहेगा। मेरी ईश्वर के आगे यही प्रार्थना है कि मैं फिर इसी माँ की गोद से जन्म लूँ और जब तक वह स्वतन्त्र न हो जाये और मानव-समाज की पूर्ण सेवा और उन्नति योग्य न बन जाये, मैं यहीं जन्मता रहूँ और मरता रहूँ।

 – वन्देमातरम!

16 अगस्त, 1909 का दिन भी इतिहास में याद रहेगा। उस दिन इंग्लैण्ड में हिन्दुस्तानी युग-पलट पार्टी की आवाज़ गुँजाने वाला ढींगरा वीर अपनी मतवाली चाल चलता हुआ तख़्ते पर जा चढ़ा था। श्रीमती एग्निस स्मेडले एक जगह इस घटना का ज़िक्र करती हुई लिखती हैं –

“He walked to the scaffold with his head high and shook off hands of those who offered to support him, saying that he was not afraid of death.”

आहा! सहारा देकर ले जाने वाले व्यक्तियों के हाथ पीछे झटककर वह कहने लगा, ‘मैं मौत से नहीं डरता’। आहा! धन्य हैं मृत्युंजय!

“As he stood on the scaffold he was asked if he had a last word to say. He answered, – Bande Matram.”

माँ से इतना प्यार! फाँसी के तख़्ते पर खड़े हुए से पूछा जाता है – कुछ कहना चाहते हो? तो उत्तर मिलता है, ‘वन्देमातरम!’ माँ! भारत माँ! तुम्हें नमस्कार! वह वीर फाँसी पर लटक गया और उनकी लाश भी भीतर ही दफ़ना दी गयी और हिन्दुस्तानियों को उनकी दाह-क्रिया आदि कराने की इजाज़त नहीं दी गयी। धन्य था वह वीर! धन्य है उसकी याद! मुर्दा देश के अमूल्य हीरे को बारम्बार नमस्कार!

मार्च, 1928 किरती


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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