भाई बालमुकुन्द जी
अगस्त, 1928 के ‘किरती’ में प्रकाशित यह लेख भगतसिंह या उनके किसी साथी का लिखा हुआ है। – स.
अब तक हम पंजाबी शहीदों के जीवन ‘किरती’ में बिना क्रम के ही छापते रहे हैं। कभी बब्बर अकाली शहीदों के जीवन छापे तो कभी 1914-15 वाले ग़दर पार्टी के शहीदों के। कभी 1908 वाले मदनलाल जी का ही जीवन छापा। अब हमारा इरादा है कि उनके जीवन-वृत्तान्त को उसी तरह छापते हुए भी उन आन्दोलनों का क्रमशः हाल लिखें ताकि हमारे पाठक समझ सकें कि पंजाब में जागृति कैसे पैदा हुई और फिर काम कैसे होता रहा और किन कामों के लिए, किन विचारों के लिए, उन शहीदों ने अपने प्राण तक उत्सर्ग कर दिये।
वास्तव में अब का आन्दोलन 1907 से ही चलता है और फिर वह कभी किसी रंग में और कभी किसी ढंग से चलता चला गया। 1907 में बड़ा भारी आन्दोलन हुआ। जोश में आये लोगों ने कई जगह दंगे, झगड़े किये, उनकी कुछ बातें सरकार ने मान लीं और फिर आन्दोलन को कुचल डाला। बाद में 1908-09 में लिटरेचर पैदा करने और अच्छे-अच्छे विचारों को पक्का करने का काम होता रहा। बाद में एक ख़ुफ़िया सोसायटी बन गयी, जिसका परिणाम दिल्ली बम केस से प्रकट हुआ। इसमें चार सज्जनों – श्री अमीरचन्द जी, श्री अवध बिहारी, श्री बालमुकुन्द जी और श्री बसन्तकुमार बिस्वास को फाँसी हुई। बाद में कामागाटामारू की बजबज घटना हो गयी और 1914-15 यानी अगले ही वर्ष ग़दर-लहर की रौनक हुई और तीन-चार साल तक यही हंगामा रहा। 1919 में विद्रोह हुए और मार्शल लॉ लगा। फिर असहयोग आन्दोलन चला और अकाली आन्दोलन चले और आख़िर में बब्बर अकाली आन्दोलन चला, जिसमें 10-12 लोग फाँसी पर लटकाये गये या लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। पंजाब में बलिदानों और आन्दोलनों का इतिहास हिन्दुस्तान में सब प्रान्तों से अधिक सुन्दर और गर्व योग्य है, लेकिन अफ़सोस है कि उसे अभी तक किसी ने क्रमिक रूप में लिखा ही नहीं।
आज हम दिल्ली-षड्यन्त्र के शहीद, शहीद भाई बालमुकुन्द जी का जीवन लिख रहे हैं। अगली बार हम दिल्ली-षड्यन्त्र का इतिहास भी देंगे और हम उनके साथ के और शहीदों के हालात भी लिखेंगे।
श्री गुरु तेगबहादुर साहब की जब औरंगज़ेब ने दिल्ली में हत्या करवायी थी तब उनके साथ एक ब्राह्मण भाई मतिदास भी थे और उन्हें भी आरे से चीरकर शहीद किया गया था। तब से इनके ख़ानदान को भाई का ख़िताब मिला हुआ है। भाई बालमुकुन्द जी इसी ख़ानदान में से थे। आप करियाला ज़िला झेलम के रहने वाले थे। भाई परमानन्द जी के चाचा के लड़के थे। आपने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की थी।
आप तब जोधपुर के राजा के लड़कों को पढ़ाते थे, जब आपको गिरफ्तार किया गया था। वहाँ आपके घर की तलाशी ली गयी। आपके गाँव में भी घर की तलाशी हुई, लेकिन कोई चीज़ ऐसी न मिली जिससे कि आपके ख़िलाफ़ कुछ साबित किया जा सके।
वास्तव में 1907 में जो आन्दोलन चला था उसके साथ ही कुछ आदमियों में जोश भर गया था। 1908 की भारतमाता बुक सोसायटी और लाला हरदयाल के प्रचार ने भी कुछ और रंग चढ़ा दिया। उसके बाद बंगाल के एक-दो आदमी इधर आये। उन्होंने इनमें बहुत-से नौजवानों को एक ख़ुफ़िया पार्टी में शामिल किया। 1910 में श्री रासबिहारी बोस ने आकर पंजाब का काम स्वयं संगठित किया, जिसमें कि भाई बालमुकुन्द को ही लाहौर का जत्थेदार नियत किया गया।
दिसम्बर, 1912 में दिल्ली में वायसराय का जुलूस निकल रहा था। बड़ी शानो-शौक़त, बड़ी रौनक और हो-हल्ला मचा हुआ था। चाँदनी चौक में से जुलूस जा रहा था। वायसराय लॉर्ड हार्डिंग चौकी पर सवार थे। अचानक एक ओर से बम गिरा। वायसराय घायल हो गया और एक नौकर मर गया। बड़ा शोर हुआ। बड़े हाथ-पाँव मारे गये, लेकिन कुछ पेश न चली। कुछ पता न चला कि यह काम किसने किया। पाँच-छह महीने गुज़र गये। लाहौर के लारेन्स गार्डन के मिण्टगुमरी हॉल में गोरों का नाच हो रहा था। हॉल से बाहर एक बम फट गया। इससे एक हिन्दुस्तानी चपरासी मर गया। उस समय कोई गिरफ्तारी न हो सकी। फिर कहा जाता है कि एक बम लाहौर के क़िले में चला, उसका भी कुछ पता न चल सका।
लारेन्स बाग़ के बम चलने से कोई सात-आठ महीने बाद बंगाल में किसी जगह तलाशी थी। अवधबिहारी का दिल्ली का पता हाथ लग गया। उनकी तलाशी हुई और एक पत्र लाहौर से आया पकड़ा गया। उस पर मेहर सिंह के दस्तख़त थे। पूछने पर उन्होंने बता दिया कि यह पत्र दीनानाथ का लिखा हुआ है। कई दीनानाथ लाहौर में पकड़े गये। आख़िर में असली दीनानाथ भी मिल गया, जिसने कुछ दिनों में पूरा भेद खोल दिया और सरकारी वायदा-माफ़ गवाह बन गया। उसके बयान से कोई बारह आदमी और पकड़े गये। जोधपुर से भाई बालमुकुन्द जी भी पकड़े गये।
दिल्ली में मुक़दमा चला। सबसे बड़ा आरोप था, ‘लारेन्स गार्डन का बम और तख़्ता पलटने के परचों की योजना।’ भाई बालमुकुन्द चूँकि लाहौर के जत्थेदार थे और बड़े योग्य व कट्टर देशभक्त थे, इसलिए आपके ख़िलाफ़ कुछ भी सबूत न होने के बावजूद फाँसी की सज़ा दे दी गयी।
चीफ़ कोर्ट का जज अपील के फ़ैसले में स्वयं लिखता है –
“Firstly, it is pointed out rightly enough that the search of his houses at Jodhpur and Karyala, his home in the Jhelum district, failed to reveal anything in his possession any conditions literature. Secondly admittedly he had no direct connection with the Lahore bomb outrage or the July leaflets.”
यानी, यह तर्क पेश किया गया है कि उनके घरों की तलाशी से कोई काग़ज़ ऐसा नहीं निकला जोकि विद्रोह का प्रचार करने वाला हो। और दूसरी बात यह भी ठीक है कि लाहौर बम से और जुलाई में बाँटे गये तख़्ता पलट परचों से भी उनका कोई सम्बन्ध प्रमाणित नहीं होता और इस मुक़दमे में और किसी बम का ज़िक्र भी नहीं, फिर भी उन्हें मौत की सज़ा क्यों दी गयी? जज लिखता है कि क्या हुआ यदि उनसे लाहौर में बम चलाने से पहले नहीं पूछा गया, क्या हुआ कि यदि वे उन दिनों लाहौर में नहीं थे, क्या हुआ यदि इस बात का भी प्रमाण नहीं कि बाद में भी उन्हें बम चलाने की ख़बर दी गयी। आख़िर वह षड्यन्त्र का सदस्य तो था ही, वह साज़िश में शामिल तो हो ही चुका था। बस, इसी से वह हत्या का ज़िम्मेदार है और क़ानून के अनुसार उसे फाँसी की सज़ा मिलनी चाहिए। क़ानून की विशेषताओं का अब क्या ज़िक्र करें? हद ही हो गयी है। आपको फाँसी की सज़ा दी गयी, क्योंकि आप बड़े कट्टर तख़्ता पलटने वाले थे और बड़े योग्य थे। देशभक्ति की भावना बड़े ज़ोरों से भरी हुई थी और दूसरी बात यह थी कि दिल्ली बम के चल जाने के बाद भी उसके चलाने वालों का पता न चल सकने से सरकार का रोब ख़त्म हो गया था। O-Dyre (ओडायर) नया-नया लाट बनकर आया था, वह यह बरदाश्त नहीं कर सका। वह सारा क्रोध इसी मुक़दमे में निकाला गया। एक सज्जन बड़े सुन्दर शब्दों में ओडायर की पॉलिसी का ज़िक्र करते थे। वे कहते हैं कि ओडायर की पॉलिसी थी –
“Guilty or not guilty, a few must be punished to maintain the prestige of the Govt.”
यानी, चाहे अपराधी हों या निर्दोष कुछ आदमियों को सज़ा ज़रूर दी जाये, ताकि सरकार के रोब में कमी न हो।
ख़ैर! आपको फाँसी की सज़ा हुई। आपने बड़ी प्रसन्नता से सुनी। अपील ख़ारिज हो चुकने के बाद आपको 1915 में फाँसी पर लटका दिया गया। लोग बताते हैं कि आप बड़े चाव से दौड़े-दौड़े गये। फाँसी के तख़्ते पर चढ़ गये और अपने हाथों से ही फाँसी की रस्सी को गले में डाल लिया।
भाई बालमुकुन्द जी की अपनी शहादत बड़ी ऊँची और पूजा योग्य है, लेकिन उनके बलिदान को उनकी धर्मपत्नी के अतुलनीय प्रेम से, सती होने से और भी चार चाँद लग गये।
भाई बालमुकुन्द जी जेल में बन्द थे। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रामरखी उनसे मिलने आयीं। पूछा, “रोटी कैसी मिलती है?” उत्तर मिला, “आधी रेत और आधे आटे की जली हुई और बिल्कुल कच्ची रोटी मिलती है।” नमूना ले लिया। घर जाकर वैसा आटा तैयार किया, वैसी ही रोटी पकायी। कहा – “जब मेरे प्रीतम आप ऐसी रोटी खाते हैं तो मैं इससे अच्छी कैसे खा सकती हूँ।” वैसी ही रोटी खाती रहीं। फिर एक बार मुलाक़ात हुई। पूछा, “इतनी सख़्त गर्मी में सोते कहाँ हैं?” जवाब मिला, “अँधेरी कोठरी में, सख़्त गर्मी में दो कम्बल मिलते हैं।” घर आ गयीं। घर की सबसे पिछली कोठरी में जाकर सो गयीं। मच्छर काट-काटकर खाते थे। क्या करतीं? वहीं सोना था। सखी-सहेलियों ने कहा, “पगली, यह भी कोई ज़िन्दा रहने वालों का तरीक़ा है?” श्रीमती रामरखी ने पूछा, “तो क्या ऐसे रहने वाले बचते नहीं?” सखियों ने कहा, “और क्या। इस तरह करने वाले भी क्या बचे हैं?” उनकी आँखें भर आयीं। सहेलियाँ चुप होकर बैठ गयीं, वह वहीं सोती रहीं। एक दिन वे भीतर निढाल पड़ी थीं कि बाहर से औरतों के रोने-चिल्लाने की आवाज़ें आयीं। सब समझ लिया कि उनके प्रीतम भाई बालमुकुन्द जी को फाँसी हो चुकी है। उनकी लाश भी नहीं दी गयी। उठीं। नहायी-धोयी, सुन्दर-सुन्दर कपड़े और आभूषण पहनकर फ़र्श पर उनके ध्यान में मग्न होकर बैठ गयीं। फिर वे उठीं नहीं। धन्य थे भाई बालमुकुन्द और धन्य श्रीमती रामरखी। उन्होंने हिन्दुस्तानी क्रान्ति को कितना सुन्दर बना दिया।
शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं।
ये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।
व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्पर्क करें।
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