भगतसिंह – रूस की जेलें भी स्वर्ग हैं

रूस की जेलें भी स्वर्ग हैं

डब्ल्यू.जे. ब्राउन लिखित यह लेख ‘किरती’ सितम्बर, 1928 में प्रकाशित हुआ था, जिस पर एक सम्पादकीय टिप्पणी भी थी। यहाँ यह लेख ‘किरती’ के सम्पादकीय नोट सहित दिया गया है। – स.

(रूसी क्रान्ति केवल राजनीतिक क्रान्ति ही नहीं थी, बल्कि उसने राष्ट्र के जीवन के हर पहलू में क्रान्ति पैदा कर दी। जहाँ राजनीतिक सत्ता एक ज़ालिम बादशाह ज़ार से छीनकर देश की आम जनता के हाथों में सौंप दी गयी वहाँ आर्थिक मैदान में ‘कमाये कोई, और मौज़ उड़ाये कोई’ वाली बात भी समाप्त कर दी गयी। आज वहाँ न तो लाखों और करोड़ों श्रमिक भूखे नज़र आते हैं और न ही चन्द हरामख़ोरी करने वाले मोटे पेटवाले पूँजीपति ही नज़र आते हैं। सामाजिक जीवन में कोई ऊँच-नीच बाक़ी नहीं रही। स्त्रियों के भी समान अधिकार हैं। आज रूस ही ऐसा देश है जहाँ अधिक से अधिक लोग ख़ुश व प्रसन्न हैं। उनकी क्रान्ति वाक़ई सच्ची क्रान्ति है।

और तो और, उन्होंने जेलों सम्बन्धी भी एक बड़ी भारी क्रान्ति कर दी है। पहले भी कई बार वहाँ की जेलों का हाल पढ़ चुके हैं। वहाँ की जेलें हमारे देश से हज़ार दर्जा अच्छी हैं। और तो और, उनके क़ैदी हमारे आज़ाद आदमियों से हज़ार दर्जा बेहतर हैं। यहाँ रोटी का सवाल इतना मुश्किल होता जा रहा है कि ख़ामख़ाह दिल करता है कि यहाँ से तो रूस में जाकर जेलों में ही रहें। बड़ा शानदार रहन-सहन, बहुत अच्छा खाना-पीना और साथ में पढ़ाई भी होती है। कौशल सिखाये जाते हैं, काम करने का वेतन दिया जाता है। आज हम एक ताज़ा लेख पाठकों की सेवा में भेंट कर रहे हैं ताकि वे देख लें कि रूस की और बातों के साथ-साथ जेल-विभाग में भी क्या परिवर्तन हो गये हैं? यह ध्यान रहे कि समाजवाद में अपराध रोकने के लिए दण्ड ही पर्याप्त नहीं माना जाता, बल्कि वे अपराधियों को अच्छी शिक्षा देकर उन्हें हमेशा के लिए अपराध से रोकने की कोशिश करते हैं। सज़ा के दिनों में वे क़ैदी को काम सिखाते हैं। बाहर आते ही काम पर लगा देते हैं, ताकि बेकार रह भूखा मरता वह फिर अपराध न करने लगे। यही अपराध को जड़ से मिटाने का ढंग है। – एडीटर)

मैं रूस गया। बड़ी-बड़ी चीज़ें देखकर हैरान रह गया। सबसे ज़्यादा हैरानी हुई वहाँ की जेलें देखकर। मेरी इच्छा थी कि देखूँ यहाँ जेलों की क्या हालत है। ‘जार्जिया’ की जेल देखने का मौक़ा मिला। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि जेलर को मुझे जेल देखने की अनुमति मिलने की सूचना नहीं थी। इससे पहले थोड़ी मुश्किल हुई। लेकिन फिर यह निर्णय हुआ कि मैं उसके साथ जाऊँ व घूमकर सब देख लूँ। ख़ैर! मैं, जेलर व एक-दो और आदमी जेलयात्रा को निकले। सबसे पहले मुझे जेल के लंगर (खाद्य-भण्डार) का वार्डर मिला। वह आदमी ज़ार के समय भी जेल में नौकरी करता था और क्रेंसकी की अस्थायी पूँजीपति सरकार के अधीन भी जेल कर्मचारी रहा। वह दोनों सरकारों की बड़ी निन्दा करता था। वह कहता था कि उन दोनों सरकारों के अधीन क़ैदियों और वार्डरों को पशुओं की ख़ुराक दी जाती थी और बेचारे क़ैदियों पर बेहद अत्याचार होते थे। लेकिन सुनता कौन था। ज़ार के बाद अस्थायी सरकार भी कुछ अच्छी नहीं थी। हाँ, तब ज़ार की सरकार से एक बात अच्छी थी कि व्यक्ति अपनी तकलीफ़ों की शिकायत कर सकता था। पर इससे कोई व्यावहारिक लाभ नहीं होता था, क्योंकि कोई शिकायत दूर करने की कोशिश नहीं करता था। और सबसे अधिक क्रोध उसे इस बात पर था कि अस्थायी सरकार ने उनका तीन महीने का वेतन नहीं दिया। इस बात का अब तक बहुत प्रभाव है।

उससे पूछा कि अब क्या स्थिति है? तो उसने कहा, अब तो कमाल हो गया, अब तो ख़ूब मजे हैं। अब क़ैदियों और वार्डरों को बहुत अच्छा भोजन मिलता है। सबको सही समय पर वेतन मिलता है। बहुत ख़ुशी से कहता था, “अब तो मैं भी आदमी बन गया हूँ, भले ही अभी तक जेल का वार्डर हूँ।”

जेल में घुसते ही मैंने एक कमरा देखा, जिसमें बहुत-से आदमी क़ैदियों से मिल रहे थे। वहाँ क़ैदियों और दूसरे आदमियों के बीच सिर्फ़ एक लोहे का डण्डा था। वे बड़ी खुली तरह बातचीत कर सकते, हाथ मिला सकते और अपने प्रियजनों को चूम सकते थे। मैंने उस समय एक आदमी को अपने बच्चे को चूमते देखा, जिसे उसकी पत्नी साथ ले आयी थी। पता चला कि सप्ताह में तीन बार प्रत्येक क़ैदी के दोस्त, रिश्तेदार मुलाक़ात करने आ सकते थे और मुलाक़ात आधे घण्टे तक चल सकती है। मिलने वालों की संख्या पर भी कुछ ख़ास पाबन्दी नहीं, जितने लोग चाहें, मिलने आ जायें। यह देखकर मैं बहुत हैरान हुआ।

फिर यह जानकर बहुत हैरानी हुई कि अब अकेली कोठरी में क़ैदियों को बन्द नहीं रखा जाता। बड़ी-बड़ी बैरकें बनी हुई थीं, जिनमें 20-20 आदमी रहते हैं। उन बैरकों को न रात में और न दिन में ही ताला लगाया जाता है। हाँ, रात को निचली छत और ऊपरी छत के बीच की सीढ़ियों को ताला लगा दिन जाता है। दिन में उसे भी खोल दिया जाता है। प्रत्येक क़ैदी किसी भी कमरे में जा सकता है। वे चाहे सिगरेट पियें या पढ़ें या खेलें, जो चाहे करें, उन्हें पूरी छूट रहती है।

दिन में चार बार उन्हें कसरत के लिए बाहर निकाला जाता है। कसरत भी बन्द अहातों में बन्दूक़ों के पहरे में नहीं, बल्कि बाहर के खेल के मैदानों में बिना किसी ख़ास पहरे के। यह देखकर मेरी हैरानी की हद न रही।

पता चला कि शरीफ़ क़ैदियों को सप्ताह में एक दिन जेल से छुट्टी दी जाती है, तब वे अपने घर जा सकते हैं और घरवालों के साथ पूरा दिन बिता सकते हैं या सैर कर सकते हैं। मैंने पूछा – इस तरह क़ैदी भागते नहीं? उन्होंने कहा कि ऐसा अवसर कम ही आता है। कभी कोई क़ैदी इस तरह नहीं भागा। गर्मियों में शरीफ़ क़ैदियों को पन्द्रह दिन की छुट्टी मिल जाती है। तब वे जहाँ चाहे जा सकते हैं। इन छुट्टियों में भी क़ैदी भागते नहीं, समय पूरा होने पर लौट आते हैं।

कई क़ैदी हमारे साथ चल पड़े। एक क़ैदी थोड़ी-सी अंग्रेज़ी सीख गया था। उससे मैंने बात की। वह कहने लगा, जेल बड़ी अच्छी जगह है। क़ैदी आठ घण्टे काम करते हैं। ख़ुराक बहुत अच्छी मिलती है। कोई सख़्ती और ज़ुल्म नहीं होता। उनकी अपनी अध्ययन-सभा, लाइब्रेरी, संगीत-पार्टी आदि बने हुए हैं, जिनका प्रबन्ध उन्हीं की एक समिति करती है। सारी जेल देखकर कोई उसे जेल नहीं कह सकता। वह तो एक सभा या क्लब लगता है।

इमारत जेल की ही लगती थी और अन्य सामान भी जेल का ही नज़र आता था, लेकिन स्थिति बहुत-से परिश्रम करने वाले स्वतन्त्र लोगों से अच्छी थी। वहाँ सप्ताह में तीन बार सिनेमा और थियेटर भी दिखाये जाते हैं।

क़ैदियों के कपड़े देख बहुत हैरानी हुई। क़रीब चालीस क़ैदी, जेल-दारोग़ा व कुछ वार्डर खड़े थे। मजिस्ट्रेट साहिब आये। बातचीत में अंग्रेज़ी जेलों पर बात चल पड़ी। सभी लोग, क्या क़ैदी और क्या अधिकारी, एक समान हिस्सा ले रहे थे। यदि कोई अनजान आदमी वहाँ आ जाता तो बिल्कुल न पहचान पाता कि कौन क़ैदी है और कौन दारोग़ा और कौन मजिस्ट्रेट।

क़ैदियों की अपनी दुकानें हैं। वे स्वयं ही उन्हें चलाते हैं। वहाँ वे तम्बाकू, सिगरेट, मिठाई व ब्रुश आदि हज़ारों आवश्यक चीज़ें ख़रीद सकते हैं और जो मुनाफ़ा हो वह रिहा होने पर क़ैदियों में बाँट दिया जाता है। सवाल उठेगा कि बिना पैसे क़ैदी चीज़ें ख़रीदते कैसे हैं? लेकिन रूस में प्रत्येक क़ैदी को महीना परिश्रम करने के बाद वेतन मिलता है। वे जैसे चाहें, उस रकम को ख़र्च कर सकते हैं। क़ैदियों के अपराध अधिकारियों के पास नहीं जाते। क़ैदियों की समिति स्वयं ही सारी समस्याएँ हल करती है।

क़ैदियों की अपनी एक समिति बनी हुई है ताकि जो तकलीफ़ हो, वह दूर की जा सके। यह समिति अधिकारियों द्वारा मान्य है, वे फ़ौरन दारोग़ा को अपनी सब तकलीफ़ें बता देते हैं। और यदि कोई फ़ैसला न हो पाये तो स्वयं मजिस्ट्रेट के सामने अदालत में मामला पेश कर सकते हैं। इनका अपना अख़बार भी होता है। हाथ से ही लिखा जाता है। लेखक का नाम नहीं दिया जाता, लेकिन उन्हें जेल-व्यवस्था की आलोचना करने का पूरा अधिकार है। जेलर का एक बड़ा मजेदार कार्टून बना हुआ मैंने स्वयं देखा था।

कई कमरों में मैंने देखा कि क़ैदी अलग-अलग काम सीख रहे हैं। कहीं कपड़े सीने का काम, कहीं जूता सिलने का काम और कहीं बढ़ई का काम सिखाया जा रहा था।

और कई कमरों में पढ़ाई हो रही थी। कई मास्टर बाहर से पढ़ाने आते थे और कई क़ैदियों में से ही थे। क़ैदी अध्यापक को प्रत्येक दो दिन की क़ैद के बदले एक दिन की क़ैद माफ़ की जाती है।

मैं एक क़ैदी को एकान्त में ले गया। अधिकारी बड़ी ख़ुशी से अलग हो गये। उसने भी यही कहा कि सभी क़ैदी ख़ुश हैं और यह जगह बहुत अच्छी है। मुझसे पूछा गया कि इंग्लैण्ड में क़ैदियों से कैसा व्यवहार किया जाता है? उन्हें यह विश्वास ही नहीं होता था कि इंग्लैण्ड में क़ैदियों को अलग-अलग कोठरियों में बन्द किया जाता है और बातचीत करने की भी अनुमति नहीं होती।

वे पूछने लगे, फिर क़ैदियों की समिति क्या करती है? वह यह शिकायत दूर क्यों नहीं करती? मैंने उन्हें बताया कि वहाँ कोई समिति नहीं बनायी जा सकती, नहीं तो जेलर क्रोध से ही मर जायें। वे हैरान रह गये। वे विश्वास नहीं करते थे कि जेल में क़ैदियों की समिति के बग़ैर क़ैदियों की गुज़र होती होगी।

उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि मुझे अंग्रेज़ों की जेलों सम्बन्धी कुछ भी जानकारी नहीं है। वे मुझे अपने नहाने के कमरे में ले गये। ज़ार के समय ये अँधेरी कोठरियाँ थीं। अब वहाँ फव्वारे लगा दिये गये हैं और नहाने की बहुत अच्छी व्यवस्था की गयी थी।

आख़िर में मैं उनके साथ लंगर (मेस) में गया। खाना बहुत सादा, बहुत बढ़िया व स्वादिष्ट था। ऐसा बढ़िया खाना हमारे बहुत-से परिश्रम कर खाने वाले स्वतन्त्र मज़दूर भी नहीं पा सकते। मेरे जाने से उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने मुझसे इंग्लैण्ड के क़ैदियों तक उनकी दुआ-सलाम पहुँचाने को कहा। मुझे उन्होंने अपने बग़ीचे का गुलदस्ता भेंट किया और बड़े सम्मान के साथ विदा किया और कहा कि उम्मीद है आप फिर आयेंगे।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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