ग़दर आन्दोलन की कुछ व्यथा

ग़दर आन्दोलन की कुछ व्यथा

सितम्बर, 1927 के ‘किरती’ में एक बहुत महत्त्वपूर्ण लेख ‘ग़दर लहर की कुछ व्यथा’ छपा था। यह एक अख़बार से लेकर छापा गया था। लेखन-शैली और विचारों से यह लेख शहीद भगवतीचरण वोहरा का हो सकता है। – स.

पहले मैं यह बता दूँ कि विप्लववाद का क्या अर्थ है। फिर मैं आगे चलूँगा। हर गिरी हुई क़ौम हमेशा गिरी नहीं रहती और उस क़ौम के वीर उसकी उन्नति का यत्न करते हैं और क़ुर्बानियाँ देते हैं, और अब यह सोचना है कि क़ुर्बानियाँ कई तरह से दी जाती हैं। क़ौमों को उठाने का यत्न भी कई-कई तरीक़ों और हिम्मत से किया जाता है। एक तो देश में शिक्षा का प्रचार करना। यह भी कोई छोटी-सी बात नहीं। दूसरे, लोगों को उनके हक़ बताने और उन्हें हासिल करने के लिए सरकार के आगे प्रार्थना करना। उसे (ऐसे दल को) हम माडरेट कहते हैं। यह शब्द उस समय इस्तेमाल होता है, जब देश उस स्थिति से कुछ ऊपर उठ जाता है। दूसरा दर्जा होता है गर्म दल का, जिस तरह 1907 में लोकमान्य तिलक जी की पार्टी थी या आजकल महात्मा गाँधीजी का प्रचार कहा जा सकता है। लेकिन जिस समय इन दोनों रास्तों पर चलने से भी सफलता नहीं मिलती तो तेज़ नौजवानों का एक दल कुछ और आगे बढ़ता है। वह हाथोहाथ काम करना चाहता है, मरना और मारना चाहता है और इस ढंग से ही जीत प्राप्त करना चाहता है। उसे (ऐसे लोगों को) अंग्रेज़ी भाषा में रिव्ल्यूशनरीज़ (Revolutionaries) कहते हैं। इस आरोप में वे गुप्त काम करते हैं और बाद में बदलकर खुल्लमखुल्ला लड़ाई करने को तैयार हो जाते हैं, जिस तरह कि आयरलैण्ड वाले अब तक लड़ते रहे हैं। यह काम जब तक गुप्त रहता है, तब तक उसे दबाने का यत्न किया जाता है। इस स्थिति में उन्हें हिन्दुस्तानी भाषा में विप्लववादी कहते हैं, उर्दू में इन्‍क़लाबी कहा जाता है। यह शब्द इज़्ज़त और निन्दा, दोनों के लिए इस्तेमाल हो सकता है, अर्थात जब तक देश कमज़ोर है, तब तक वहाँ ख़ुशामदी अधिक होते हैं, तब तक वहाँ उन्हें सभी लोग बुरा कहते हैं और शासक तो उनके दुश्मन होते ही हैं, लेकिन बाद में उन्हें ही देशभक्त कहा जाता है।

हम किसी डर के कारण चाहे उन्हें बुरा कहें, लेकिन वास्तव में वे किसी से भी कम ‘देशभक्त’ नहीं होते, बल्कि हम यह कह सकते हैं कि वे दूसरे शोर मचाने वालों से देश का अधिक दर्द रखने वाले होते हैं। उनकी कोई सहायता नहीं करता। अपने-पराये सभी बुरा-भला कहते हैं और शासक तो जो करते हैं उसका पूछना ही क्या है। वे वीर फिर भी डटे रहते हैं और ज़रा भी घबराते नहीं। तो क्या वे किसी से कम देशभक्त होते हैं? मैं तो कहूँगा कि दुनिया में ‘End Justifies the means.’ अर्थात परिणाम से ही पता चल जाता है कि उनके द्वारा इस्तेमाल किये तरीक़े अच्छे थे या बुरे? यदि परिणाम अच्छा हो तो झूठ बोला हुआ, हत्या किया गया भी ठीक हो जाता है, और यदि असफलता हो तो शान्ति से होने वाला काम भी बुरा ही कहा जाता है।

क्या वाशिंगटन को उस समय बाग़ी कहकर दबाने की कोशिश नहीं की गयी थी? क्या यदि वह उस समय दुश्मनों के हाथ आ जाता तो उसे फाँसी न मिलती? क्या स्काटलैण्ड का वीर वालीस सच्चा देशभक्त नहीं था? क्या उसे फाँसी नहीं दी गयी? इस देश में काम ऐसे ही होता है। इटली की हालत देख लो, मैजिनी जैसों ने भी तो गुप्त सोसायटियाँ बनायीं, उनके परिश्रम का ही यह फल हुआ कि गैरीबाल्डी जैसे वीर ने दो-दो हाथ कर दिखाये। दूर क्या जाना है, अभी कल की बात है कि रूस उठा है। कितने आदमी फाँसी पर चढ़े और बाग़ी ठहराये गये। क्या ये सच्चे देशभक्त नहीं थे? इस बात का जवाब आज रूसवालों से पूछिये तो। इन बेचारों को ‘निहिलिस्ट’ और ‘अनार्किस्ट’ अर्थात दुनिया में ‘अराजकता फैलाने वाले’ और ‘ख़ून-ख़राबा करने वाले’ कहा जाता था। उनके परिश्रम के फलस्वरूप ही आज वहाँ पंचायती सरकार बनी हुई है।

हाँ, ये लोग जो निराश होने से ख़ून-ख़राबे पर उतारू हो जाते हैं वे पहले गुप्त सोसायटियाँ बना लेते हैं। उन्हें अंग्रेज़ी में Revolutionaries और हिन्दी में ‘विप्लववादी’ कहा जाता है।

यदि संसार में देखा जाये तो यह बात कि जोरावर की सात कौड़ी सौ हुआ करती हैं, ठीक लगती है, क्योंकि जितनी देर एक पक्ष का ज़ोर रहा उतनी देर तो कमज़ोर बाग़ी, अनार्किस्ट, निहिलिस्ट, विप्लववादी, इन्‍क़लाब-पसन्द कहलाते हैं, लेकिन जब दूसरा पक्ष ताक़तवर हो जाता है तो वे सच्चे देशभक्त, क़ौम के परवाने हो जाते हैं और दूसरे ज़ालिम, अत्याचारी, लालची आदि बन जाते हैं।

शिवाजी मराठा यदि राज क़ायम न कर पाता और ज़ालिम औरंगज़ेब के दाँत खट्टे न कर पाता तो वह डाकू ही कहलाता, लेकिन आज हम भी उसे महापुरुष कहते हैं। ख़ैर!

यह ख़याल कि कोई इन्‍क़लाब करे और ख़ून-ख़राबे से न डरे, झटपट नहीं आ जाता। धीरे-धीरे शासक लोग ज़ुल्म करते हैं और लोग दरख़्वास्तें देते हैं, लेकिन अहंकारी शासक उस तरफ़ ध्यान नहीं देते। फिर लोग कुछ हल्ला करते हैं, लेकिन कुछ नहीं बनता। उस समय फिर आगे बढ़े हुए नौजवान इस काम को सँभालते हैं। यदि किसी देश में शान्ति हो और लोग सुख-चैन से बैठे हों तो वहाँ उतनी देर इन विचारों का प्रचार नहीं हो सकता, जब तक कि उन्हें कोई ऐसा बड़ा भारी नया विचार न दिया जाये, जिस पर कि वे परवानों की तरह क़ुर्बान हो जायें। या ‘ज़ुल्म’ इस बात के लिए लोगों को तैयार करते हैं।

यदि हम अपने देश की ओर ध्यान दें तो इस बात का स्पष्ट पता चल जाता है।

सबसे पहले यह विचार महाराष्ट्र अर्थात मराठों में किसी महापुरुष को सूझा, लेकिन इसका प्रचार नहीं हो सका। फिर बंगाल में यह विचार आया। वीर वीरेद्यश सबसे पहले इस बात का प्रचार करने लगा। यह बात 1903 की है। लेकिन लोग पूरे आराम में रहते थे तो ख़ामख़ाह कोई दुख में पड़े, किसी ने भी उनकी बात न मानी। वे अपना ज़ोर लगाकर असफल होकर बैठ गये। यह पूरा विवरण रोल्ट कमेटी की रिपोर्ट में दिया है।

फिर 1905 में बंगभंग हो गया। लोगों ने दरख़्वास्तें दीं, लेकिन लॉर्ड कर्जन ने कहा, ‘सूरज पश्चिम से उग जाये लेकिन मैं बंगाल का विभाजन ऐसे ही रखूँगा।’ फिर स्वदेशी का प्रचार हुआ। कई बेचारे निर्दोष ही जेलों में ठूँस दिये गये। कर्जन ने अपनी ‘टें’ नहीं छोड़ी। बताओ उस समय जब लोग दुखी बैठे हों, तब उनमें इन बातों का प्रचार झटपट हो जाना ही हुआ कि नहीं? बस बम बनने लगे। ख़ैर, 1908 में अलीपुर षड्यन्त्र केस चला। फिर तो काम और भी ज़ोरों पर हो गया और 1916 तक होता रहा। फिर लोगों को डकैतियाँ डालनी पड़ीं। कुछ दिन पहले एक बंगाली सज्जन ने भाषण दिया था कि लोग उन्हें डाकू कहते हैं। लेकिन आप यह तो बताओ कि तुम उन्हें एक पैसा भी देते हो। वे बेचारे अपना तो सबकुछ छोड़ बैठे हैं और आप उनकी सहायता नहीं करते तो आप सोचो कि वे क्या करें, क्या अपना काम रोक दें? मैं बहुतों से मिला हूँ, वे सच्चे संन्यासी हैं, देशभक्त हैं। ख़ैर, अब हम अपने प्रदेश की ओर आते हैं। पहले-पहले यह हल्ला सरदार अजीत सिंह जी के समय हुआ था। सन् 1907 की बात है। दो क़ानूनों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी गयी। जोश बढ़ता देखकर सरकार ने उनकी बात झटपट मान ली और शोर-शराबा रुक गया। वह ज़माना चला गया। कहा जाता है कि 1909 में सरकार को चिन्ता हुई कि बंगाल की बीमारी कहीं पंजाब में भी न आ फैले। उन्होंने सरदार अजीत सिंह को पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वे बचकर निकल गये। उसके बाद पंजाब में सिवाय दिल्लीवाले बम केस के और कोई शिगूफ़ा नहीं दीखता। वहाँ वह विचार भी बंगाल ने ही दिया था। लेकिन उन्होंने कितने लोगों को अपने साथ मिलाया था? कुल दस-बारह आदमी होंगे। साधारण लोग जलती आग में क्यों जाने लगे। चार को फाँसी मिली, कुछ को क़ैद कर दिया और बात ख़त्म हुई।

लेकिन झटपट अगले ही बरस 1915 में फिर पंजाब में ग़दर की तैयारियाँ नज़र आती थीं। तब दो बातें थीं – एक तो लड़ाई छिड़ गयी (प्रथम महायुद्ध – अनु.); दूसरे, सरकार ने कामागाटामारुवालों पर अत्याचार किया। वे भी अमेरिका से, बेचारे विचार ही लेकर आये थे। लेकिन पंजाब में रहने वाले कितने लोगों ने उनका साथ दिया? सिवाय 1907 के कुछ आदमियों के कितने लोग थे उनके साथ? ख़ैर, मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार संक्षेप में क्रान्तिकारी विचारों के विकास व प्रचार का कुछ वर्णन करने का यत्न किया है और यदि मुझे समय मिला तो एक लम्बा लेख लिखकर अन्य देशों के विस्तृत हाल समेत इसका वर्णन करने का यत्न करूँगा।

(एक अख़बार से)


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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