भगतसिंह – आतंक के असली अर्थ

आतंक के असली अर्थ

अपने समय की विचारधारात्मक बहस में हिस्सा लेते हुए भगतसिंह और उनके साथियों ने ‘आतंक’ शब्द के अर्थ समझने की कोशिश की। मई, 1928 के ‘किरती’ में यह लेख इसी विषय पर छपा जो बम्बई के अख़बार ‘श्रद्धानन्द’ से अनूदित था तथा भगतसिंह और उनके साथियों के उस समय के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। – स.

पिछले सात-आठ सालों में जिन कुछ शब्दों ने हमारे राजनीतिक जीवन में तूफ़ान खड़ा किया है और जिनके बारे में बहुत लोगों को ग़लतफ़हमी रही है उनमें सबसे ज़रूरी शब्द ‘आतंक’ है। अब तक किसी ने भी गहन विचार कर इस शब्द के अर्थ समझने के यत्न नहीं किये। इसीलिए आज तक इस शब्द का ग़लत इस्तेमाल होता रहा है। पूरी क़ौम अपने लक्ष्य को ठीक न समझ पाने के कारण दिन को रात और रात को दिन समझती हुई ठोकरें खा रही है।

आतंक पर बोलते ही अनुभव होने लगता है कि वह त्याज्य और बुरा शब्द है। सुनते ही यह विचार पैदा होता है कि वह दुख देने वाला, अत्याचारी, ज़ोर-ज़बरदस्ती और अन्यायपूर्ण है। जिस काम के साथ ‘आतंक’ शब्द लग जाये वही काम पलीत, हानिकर और त्याज्य लगने लगता है। इस हालत में कोई शरीफ़ और नेकदिल इन्सान इससे हमेशा के लिए परे रहने का यत्न करे तो यह एक स्वाभाविक बात है। आतंक और ज़ुल्म से आशय ताक़त का अयोग्य ढंग से प्रयोग है। इन दोनों शब्दों से ताक़त के इस्तेमाल की बू तो आती है, लेकिन ताक़त के इस्तेमाल की एक सीमा है। उसी सीमा का ख़याल न रखते हुए कुछ हंगामाबाज़ लोगों ने ‘आतंक’ नाम दे दिया है और हिन्दी भाषा में इसकी तुलना में ‘अहिंसा’ शब्द ठोंक दिया गया है। इसी कारण आज एक बड़ी ख़तरनाक ग़लतफ़हमी फैली हुई है।

आतंक में ताक़त का इस्तेमाल भी होता है। इसलिए कुछ घटिया दिमाग़ वालों ने ताक़त के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम दे डाला। किसी आदमी को बुरे काम से रोकने के लिए यही कह देना काफ़ी होता है कि वह काम बहुत बुरा और घृणित है। ऐसे ही शब्दों में आतंक भी एक है। कांग्रेस के आदेशानुसार हज़ारों इन्सान बिना किसी न-नकार के शान्ति की क़समें उठाते चले गये। बात तो ठीक थी। आतंक का अर्थ ज़ुल्म और ज़बरदस्ती करना है। ऐसा बुरा काम न करने की क़सम खाने में किसी को क्या उज्र हो सकता है, लेकिन असली बात यह है कि ज़ुल्म को नहीं, बल्कि ताक़त के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम देकर लोगों में ग़लतफ़हमी फैला दी गयी है। बहुत-से लोग जोकि ताक़त के इस्तेमाल के हक़ में थे, वे आतंक का पक्ष लेने की हिम्मत न दिखा सके और उन्होंने भी चुपचाप शान्तिपूर्ण (आन्दोलन) के पक्ष में होने की क़सम उठा ली। इसीलिए अहिंसा (Non-violence) जैसे शब्दों ने बहुत गड़बड़ी मचा दी। हज़ारों ही काम जो आज तक न सिर्फ़ जायज़, बल्कि अच्छे माने जाते थे, वह पलक झपकने में ही घृणित माने जाने लगे। वीरता, हिम्मत, शहादत, बलिदान, सैनिक-कर्त्तव्य, शस्त्र चलाने की योग्यता, दिलेरी और अत्याचारियों का सर कुचलने वाली बहादुरी आदि गुण बल-प्रयोग पर निर्भर थे। अब ये गुण अयोग्यता और नीचता समझे जाने लगे! आतंक शब्द के इन भ्रामक अर्थों ने क़ौम की समझ पर पानी फेर दिया। नौबत यहाँ तक पहुँची कि हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में मान लिया गया और लाठी पकड़ने तक को आतंक माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाये?

किसी भी शब्द के सुनते ही हर इन्सान के दिल में एक विचित्र ढंग की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं और उसके बाद झटपट एक प्रकार के अर्थ समझ चुकने के कारण इन्सान उसकी तह तक जाने के लिए अधिक दिमाग़ नहीं लड़ाता। किसी अजनबी इन्सान के आते ही यदि यह कह दिया जाये कि वह बड़ा पापी है, लुच्चा है, तो सुनने वाले के दिल में उसके ख़िलाफ़ स्वभावतः ही एक तरह के घृणित ख़याल उत्पन्न हो जाते हैं। उस आदमी के सम्बन्ध में अधिक जाँच किये बग़ैर ही राय बना ली जाती है। इसी तरह शब्दों के प्रयोग सम्बन्धी मामले में कहा जा सकता है। वेदों और पुराणों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि जो भी शब्द बोले जायें, उनका सही प्रयोग होना चाहिए, क्योंकि शाब्दिक भ्रम से देवताओं तक में बडे़-बड़े दंगे हो गये थे और बड़ा भारी नुक़सान हो गया था। ठीक वही दशा पिछले सात साल से हमारी हो रही है। ताक़त के योग्य और अयोग्य इस्तेमाल को बिना किसी जाँच-विचार के फ़ौरन आतंक का फतवा देकर घृणित होने की घोषणा कर दी गयी है।

यदि कोई डाकू कुल्हाड़ी लेकर किसी के घर में आ घुसे तो उसे आतंक (की कार्यवाही) कहा गया, लेकिन यदि घरवालों ने छुरी का इस्तेमाल कर डाकू को मार डाला तो उसे भी आतंक (का काम) माना गया। अर्थात जब अपने और अपने परिवार की रक्षा के लिए ताक़त का योग्य और नेक इरादों से इस्तेमाल किया गया तब भी उसे आतंक ही कहा गया। रावण ज़ोर-ज़बरदस्ती सीता को उठा ले गया तो वह आतंक। और सीता को छुड़ाने गये राम ने रावण का सिर काट दिया तो वह भी आतंक! इटली, अमेरिका, आयरलैण्ड आदि देशों पर कई प्रकार के ज़ुल्म करने वाले अत्याचारी भी आतंक फैलाने वाले समझे गये और नंगी तलवार पकड़े इन विदेशी डकैतों का छिपी हुई शमशीर से इलाज करने वालों को भी आतंक (फैलाने वाले) की उपाधि दी जाती है। गैरीबाल्डी, वाशिंगटन, एमट और डी वलेरा आदि सभी इसी सूची में डाल दिये गये। क्या इसे इन्साफ़ कहा जा सकता है? आभूषण चुराने के लिए मासूम बच्चे की गरदन काट देने वाला चोर भी घृणित और उस पत्थर-दिल चोर को फाँसी पर लटका देने वाला न्यायकारी सम्राट भी आतंककारी और घृणित! कृष्ण भी उतना ही पापी, जितना कंस! शूरवीर भीम भी उतना ही गुनहगार, जितना कि उसकी धर्मात्मा पत्नी का अपमान करने वाला दुःशासन! आह! कितनी ग़लतफ़हमी है। कितना बड़ा अन्याय है। इसीलिए कुछ सीधे-सादे लोगों ने अच्छे कामों को भी केवल बल-प्रयोग के कारण अयोग्य और आतंकवादी कह दिया। साँप डसता है, आदमी उसे मार डालता है। पर दोनों बराबर-बराबर नहीं। डसना तो साँप की आदत थी और वह इस आदत से मजबूर था, लेकिन इन्सान ने यह काम जानबूझकर किया, इसलिए उसे अधिक नीच समझा जाना चाहिए! नौबत यहाँ तक पहुँची कि देश और क़ौम के लिए सशस्त्र हो मैदाने-जंग में शहीद हो जाने वाले बहादुर भी पापी समझे जाने लगे। शिवाजी, राणा प्रताप और रणजीत सिंह जी को आतंक फैलाने वाले कहा गया और वे पूजनीय व्यक्तित्व भी घृणा का शिकार हो गये।

उधर दुनिया के सारे देश शस्त्रधारी हैं। प्रत्येक अपने हथियारों की ताक़त को बढ़ाता चला जा रहा है। इधर हमारा यह भारतवर्ष है, जिसमें रहने वालों का शस्त्र पकड़ना पाप समझा जाता है। ‘लाठी मत पकड़ो’ – यह शिक्षा देने वाले लाठी देखते ही डरपोक और कायर लोगों की पीठ ठोंकने लगे। देश को गिरी हुई अवस्था से उठाकर उन्नति के रास्ते पर खड़ा करने वाली शूर-वीरता मटियामेट होने लगी और ताक़त से डरने वाले दुश्मन राजी-ख़ुशी दिखायी देने लगे। कुछ बिरले ही लोग थे जो यह दुखद स्थिति न देख सके और उन्होंने इसका खण्डन करना शुरू कर दिया। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वे स्वयं भी इस गड़बड़ी का शिकार हो गये और ठोस तर्कों से विरोध प्रकट करना उनके लिए कठिन हो गया। बस इसी से युग पलटने वाले लोगों ने चिढ़कर यह कहना शुरू कर दिया – हाँ, हाँ, हम आतंक फैलायेंगे, हम Violence ही करेंगे! जैसे कोई शरीफ़ आदमी अपने अच्छे काम को गुनाह ठहराये जाते देखकर और फिर तर्कसम्मत उत्तर न दे पाने के कारण हड़बड़ाकर यही कहना शुरू कर दे – हाँ, हाँ, मैं गुनाह ही करूँगा। ठीक यही स्थिति इन बेचारे युग पलटने वालों की हो रही है। मद्रास कांग्रेस के अध्यक्ष तक ने यह कह दिया कि आज यदि हम शान्तिपूर्ण (तरीक़े) के पक्षधर हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि हम हमेशा ऐसे ही रहेंगे। हो सकता है कि हमें कल ही आतंक (Violence) के लिए तैयार होना पड़े। दुख तो इस बात का है कि यह ‘आतंक’ शब्द घृणित है। यह अपने गुणों व ठीक अर्थों में व्याख्यायित न होने के कारण दूसरों को अपने पक्ष में नहीं कर सका – अर्थात वे लोग जोकि बल-प्रयोग के पक्ष में भी हैं, वे भी ज़ालिम या आतंकवादी कहलवाना पसन्द नहीं कर सकते। इस एक शब्द ‘आतंक’ के अर्थों के अनर्थ होने के कारण ही कितना भारी नुक़सान हो रहा है।

पूरी ग़लतफ़हमी की जड़ तो इस एक शब्द ‘आतंक’ की ग़लत व्याख्या है; क्योंकि आतंक व ज़ुल्म भी बल-प्रयोग से ही होते हैं, इसलिए बल-प्रयोग से बहुत सारे अच्छे व बुरे काम होते हैं। ज़ुल्म इनमें से एक है। एक पुरुष चोरी से किसी के घर में आग लगाता है, वह भी आग लगाने वाला है और दूसरी ओर रसोइया भी आग जलाता है, लेकिन रसोइया अपराधी नहीं कहला सकता और न ही आग लगाने का काम बुरा कहा जा सकता है। इसी तरह अपने देश की रक्षा के लिए या देश की आज़ादी की प्राप्ति के लिए शस्त्र लेकर मैदान में उतरने वाला देशभक्त जब ज़ालिम और बलशाली की गरदन तलवार से उतार देता है या ज़ालिम से किसी मज़लूम का बदला लेता हुआ फाँसी पर चढ़ जाता है, वह या कोई और शूरवीर, जोकि अपने सगे-सम्बन्धियों, अपनी पत्नी या घर-बार की रक्षा के लिए हथियार लेकर लुच्चे ज़ालिमों का मुक़ाबला करने के लिए निकलता है, वह बल-प्रयोग तो ज़रूर करता है, लेकिन आतंक नहीं फैलाता, अर्थात इनके किये काम, आतंक के कामों में नहीं गिने जा सकते, बल्कि वे अच्छे और नेक कहे जाते हैं।

वह बल-प्रयोग जिससे निर्दोषों को बिना किसी कारण से सताया जाये या दूसरों को किसी नीच इच्छा से नुक़सान पहुँचाया जाये, केवल ऐसे ही बेहूदा कामों के लिए (किये गये) बल-प्रयोग को आतंक कहा जा सकता है, लेकिन जब इसी ताक़त को किसी ग़रीब अनाथ की मदद के लिए या ऐसे ही किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जाये तो वह आतंक नहीं, बल्कि पुण्य और परोपकार कहलाता है। या फिर इससे सिद्ध हुआ कि बल-प्रयोग करना कोई ज़ुल्म, अत्याचार या आतंक नहीं, बल्कि यह बल-प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भर रहता है। यदि उसने किसी भले व नेक काम के लिए बल-प्रयोग किया है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दुख देने की ख़ातिर अपने बल का ग़लत प्रयोग किया है तो उसे निःसन्देह, निर्भय होकर ‘आतंकवादी’ कहा जा सकता है। आतंक हमेशा ही घृणा योग्य है। आतंक ताक़त का ऐसा इस्तेमाल है, जिससे बिना अपराध के किसी को दुख दिया जाये। लेकिन जहाँ ज़ालिमों और गुण्डों की गुण्डई रोकने के लिए बल-प्रयोग किया जाये, वह आतंक नहीं बल्कि अच्छा व भला काम होता है, क्योंकि दुनिया के अच्छे कामों की परख की एक ही कसौटी है – यह कि वे काम दुनिया को सुख व आराम देने वाले हों। किसी को दुख देना आतंक है, लेकिन दुख देने वाले ज़ालिम का खुरा-खोज मिटाना पुण्य है। ज़ालिम कंस जब ज़ुल्म की तलवार पकड़ देवकी के घर में जा घुसता है, उसका उस समय का काम घृणित आतंक है, लेकिन जब इसी ज़ालिम के पंजे से जनता को छुटकारा दिलाने के लिए श्रीकृष्ण तलवार लेकर उसके दरबार में घुस जाते हैं और तलवार से उसका सिर गरदन से अलग कर देते हैं, उस समय की उनकी यह कार्रवाई अभिनन्दनीय है। दोनों तलवारें हैं, दोनों हथियार हैं, दोनों कामों में बल-प्रयोग किया गया है, लेकिन एक काम ज़ुल्मों से भरा है, इसलिए उसे आतंक कहा जायेगा और दूसरा काम नेक है, वह एक ज़ालिम और अत्याचारी की हस्ती को, ग़लत अक्षर की तरह, मिटाकर लोगों पर परोपकार करना है, इसलिए वह नेक काम सम्माननीय है। पर यदि हमारी मौजूदा फ़िलासफ़ी के हिसाब से देखा जाये तो दोनों ही काम आतंककारी और घृणित हैं। लोगों को दुख देने वाला ज़ालिम भी आतंककारी, और लोगों को ज़ालिम के पंजे से छुटकारा दिलाने वाला भी आतंककारी! यदि हमारे देश में यही स्थिति रही तो अच्छे-बुरे की पहचान कैसे होगी और सम्माननीय कामों और घृणित कामों के फ़र्क़ का कैसे पता चलेगा?

यदि इतना जान लिया जाये कि ताक़त का ग़लत इस्तेमाल अर्थात ग़रीबों, अनाथों को सताना आतंक कहलाता है और इन सबको रोकना अच्छे काम समझा जाता है तो सारे भ्रम दूर हो सकते हैं। चोर, डाकू और हत्यारे जब हथियारों का इस्तेमाल करते हैं तो वे आतंक करते हैं (That force being aggressively used become violence), लेकिन जब घर का मालिक समय पाकर उस डाकू या हत्यारे की छाती में छुरी घोंप देता है या उस डाकू को कोई न्यायप्रिय शासक फाँसी की सज़ा देता है तो वह अच्छा काम होता है। इसीलिए हिन्दू धर्मशास्त्र के कर्ता मनु जी लिखते हैं –

ज़ालिम, हत्यारे, अपराधी को ख़ुफ़िया ढंग से या खुले मैदान चुनौती देकर या किसी और ढंग से छापा मारकर जान से मार डालने वाले दिलेर इन्सान पापी या गुनाहगार नहीं, बल्कि सम्माननीय इन्सान कहलाता है। पुराने से पुराने और नये से नये क़ानून के अनुसार आत्मरक्षा में किये बल-प्रयोग को कभी भी आतंक के नाम से नहीं पुकारा गया। यहाँ तक कि हिन्दू दण्ड-विधान में भी उसे आतंक (Violence) नहीं कहा गया। आतंक फैलाना दण्डनीय है, लेकिन आत्मरक्षा में बल-प्रयोग क़ानूनी ताक़त समझी जाती है।

ठीक वही बात राजनीति की है। इटली पर इस देश की इच्छा के विरुद्ध आस्ट्रिया सिर्फ़ तलवार के ज़ोर से राज करता था, इसलिए इटली को ज़बरदस्ती अधीन रखने का उसका काम आतंक था, घृणित था और ख़त्म करने योग्य था। लेकिन जब गैरीबाल्डी और मैजिनी ने इसके ख़िलाफ़ तलवार उठायी और उस ज़ालिम बादशाहत को उलटा दिया तब उनका यह काम घृणा लायक नहीं, बल्कि पूजनीय माना गया। ठीक यही बात हम 1857 में हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए लड़ी लड़ाई के सम्बन्ध में कह सकते हैं, क्योंकि वह हमारे पहले बताये अनुसार ज़ुल्म या आतंक नहीं था। इस लेख से यह अर्थ निकालना कि हम एक हथियारबन्द बग़ावत करने की प्रेरणा दे रहे हैं, बिल्कुल झूठ और बेकार होगा। आज हम हथियारबन्द बग़ावत करने या न करने सम्बन्धी कुछ नहीं लिखते। हथियारबन्द बग़ावत की प्रौढ़ता या विरोध अलग-अलग देशों के अलग-अलग समाचारों के कारण होते हैं। जो लोग इस समय हथियारबन्द बग़ावत को कठिन या समयपूर्व मानते हों, वे ‘आतंक’ शब्द की ओट लेकर उस विचार को ही त्याज्य न बनायें। इस विचार से ही आतंक शब्द की उक्त व्याख्या की गयी है, ताकि लोग फिर वैसी ही ख़तरनाक और ठीक न हो सकने वाली भूल न करें।

(‘श्रद्धानन्द’, बम्बई से) किरती/मई, 1928


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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