भगतसिंह – आर्म्स एक्ट ख़त्म कराओ

आर्म्स एक्ट ख़त्म कराओ

1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम के बाद भारत को पूरी तरह जकड़ने के लिए बनाये गये क़ानून के ख़िलाफ़ ‘किरती’ अक्टूबर, 1928 में प्रकाशित एक लेख। – .

किसी देश पर कुछ लोग जब किसी प्रकार क़ब्ज़ा जमा लेते हैं तो उनकी यही कामना रहती है कि वह देश हमेशा ही उनके क़ब्ज़े में रहे और वे उसका लहू निचोड़-निचोड़कर मोटे होते रहें और मौज़ मारते रहें। इसके लिए वे लगातार प्रयासरत रहते हैं। वे चाहते हैं कि उस क़ौम का कोई साहित्य तथा भाषा न रहे। देश का कोई इतिहास न रहे। मर्दानगी और बहादुरी का निशान तक मिटा दिया जाये। इस प्रकार वहाँ की जनता को लगातार दबाया जाता है।

आज हम ग़ुलाम हैं। हमारे ऊपर शासन करने वाली क़ौम दुनियाभर की क़ौमों में से ज़्यादा चालाक, बादशाहत के मामले में ज़्यादा योग्य और समझदार है। उन्होंने धीरे-धीरे हिन्दुस्तान को कमज़ोर करने की कोशिशें कीं। ग़लतियाँ भी उनसे हुईं। उनकी ऐसी ही ग़लतियों का नतीजा था 1857 में हिन्दुस्तान की स्वतन्त्रता की पहली जंग जो इतनी ज़ोरदार रही। लेकिन वह अपनी ग़लतियों से सीख लेते रहे। इसलिए हम देखते हैं कि उन्होंने फिर किसी जन-आन्दोलन को ज़ोर नहीं पकड़ने दिया।

उसी समय उन्होंने एक विशेष योजना के अन्तर्गत हिन्दुस्तान को लगातार कमज़ोर करने की कुछ नीतियाँ अपना लीं। उनमें से आज हम एक का ज़िक्र करना चाहते हैं और वह है हिन्दुस्तानियों से शस्त्र छीनने की नीति। 1857 के ग़दर, विद्रोह या स्वतन्त्रता-आन्दोलन में सामान्य-जन के पास शस्त्र थे, इसलिए बहुत ऊधम मचा। हिन्दुस्तानी बहादुरों ने एक बार हलचल मचा दी। लेकिन हिन्दुस्तान की क़िस्मत और पंजाब के बुरे भाग्य। पंजाबियों ने कलंक का टीका माथे पर लगा लिया। स्वतन्त्रता-आन्दोलन को कुचल डाला गया। अंग्रेज़ों ने सोचा, आख़िर यह विदेश है – फिर अवसर मिला तो हिन्दुस्तानी पुनः विद्रोह खड़ा कर देंगे, इसलिए एक बार में ही इनका पूरा इलाज कर देना चाहिए। उन्होंने एक साधारण-पत्र क़ानून बनाया। उसके अनुसार उन्होंने कुछ विशेष ज़िलों के क्षेत्रों को निःशस्त्र कर दिया। तब 17 जुलाई, 1860 को बाक़ायदा जो शस्त्र-क़ानून कौंसिल में स्वीकृत हुआ था, वायसराय ने उसे मंज़ूर कर लिया। अक्टूबर, 1860 से उसे अमल में लाया गया, लेकिन उसके अनुसार भी सिवाय उन क्षेत्रों के जहाँ वे विशेष अशान्ति की आशंका महसूस करते थे, बाक़ी देश में शस्त्रों की कोई मनाही नहीं थी। उस समय इस बात पर बहुत ज़ोर दिया जाता था कि सामान्य-जन बिना लाइसेंस तोपें न रखें। कुछ सामान्य शस्त्रों के लिए भी मनाही हो गयी। तब 1878 में वह कठोर क़ानून पास हुआ जो 1891, 1919, 1920 के थोड़े-थोड़े संशोधनों के बाद से अब तक चल रहा है।

सामान्य-जन को इस मामले में बड़ी बेचैनी हुई। (उधर) इस विचार के लोग घबराकर कोई और कार्यवाही न कर बैठें, उनको क़ानूनी आन्दोलन (Constitutional Agitation) सिखाने के लिए कांग्रेस की बुनियाद रखी गयी। यह बात तो मानी हुई है कि उस वक़्त के गवर्नर जनरल या वायसराय लॉर्ड रिपन और बाद में लॉर्ड डेफ़रिन के कथनानुसार, मिस्टर ह्यूम ने कांग्रेस की नींव रखी थी और सभी लोगों को उसके आसपास इकट्ठा किया था। उसमें शस्त्र-क़ानून पर सामान्यतया बहस की जाती रही।

इसी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चौथे अधिवेशन में, जोकि 1888 में इलाहाबाद में हुआ था, जो प्रस्ताव पेश और पास हुआ, उसमें इस बारे में कहा गया कि –

जनता की वफ़ादारी और आर्म्स एक्ट की परेशानियों को देखते हुए यह आवश्यक है कि सरकार को मनाया जाना चाहिए कि वह क़ानून को कुछ इस तरह बना दे जिससे कि सिवाय (ऐसे व्यक्तियों के) जिन्हें सरकार ने विशेष रूप से किसी कारणवश रोका हुआ है, प्रत्येक व्यक्ति को हथियार रखने की मंज़ूरी दे।

इस प्रस्ताव को स्वीकृत करते हुए उदारवादी नेता सर फ़िरोज़शाह मेहता ने एक बहुत महत्त्वपूर्ण भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि यूँ ही जोश में आकर मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए खड़ा नहीं हो गया। मैं तो यह कहता हूँ कि आप सारे देश को नपुंसक न बनायें। कहते हैं कि वह समय भी जल्द आयेगा जब शस्त्र-क़ानून हटा दिया जायेगा। लेकिन स्मरण रहे, एक बार यदि हिन्दुस्तानी जनता नपुंसक बना दी गयी तो फिर उससे सँभलना मुश्किल हो जायेगा। साथ ही उन्होंने उस व्यक्ति का उदाहरण दिया जिसके बेटे को बादशाह ने किसी बात पर फाँसी पर टँगवा दिया था। फिर एक बार जब बादशाह उससे सहायता माँगने गया तो उसने जवाब दिया कि मेरे एक बेटा था, जिसे मैं आपकी सहायता के लिए भेज सकता था, लेकिन इस वक़्त वह बेटा है ही नहीं, इसलिए मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। आख़िर वह समय जल्दी ही आने वाला है जब हम भी अंग्रेज़ी सरकार को यही उत्तर देंगे। लेकिन निःशस्त्र हम किस काम के हैं और हमारी क्या ताक़त, क्या क़ीमत होगी?

ख़ैर, हिन्दुस्तानी पहले से ही (यह क़ानून हटाने की) ज़रूरत महसूस करते रहे हैं, लेकिन दिनोदिन सख़्ती बढ़ती ही चली गयी। पहले कहा गया था कि यह क़ानून केवल चार या पाँच सालों के लिए ही है। बाद में वह ऐसा पक्का हुआ कि अब यह लानत दूर होने में ही नहीं आती। एक बार संशोधन पेश हुआ कि जिस तरह अंग्रेज़ों, एंग्लो-इण्डियनों और ऐसे दूसरे अन्य लोगों को लाइसेंस की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी प्रकार आम हिन्दुस्तानियों को भी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। इसमें हमारा अपमान होता है। मगर अपमान का इलाज अंग्रेज़ों ने यह किया कि चलो, लाइसेंस सभी के लिए आवश्यक कर देते हैं। अंग्रेज़ भी लाइसेंस लें। हिन्दुस्तानियों को छूट नहीं दे सकते। लोग जानते ही हैं कि अंग्रेज़ों को लाइसेंस लेने में कितना ‘कष्ट’ उठाना पड़ता है और हिन्दुस्तानियों की क्या गत बनती है। ख़ैर, मतलब तो यह है कि अंग्रेज़ी सरकार जोकि जानती है कि उसका क़ब्ज़ा हिन्दुस्तान पर सरासर नाजायज़ और अन्यायपूर्ण है, वह किसी भी सूरत में हिन्दुस्तानियों को हथियार रखने की इजाज़त नहीं दे सकती। मगर मुल्क़ के लिए ऐसे क़ानून हद दर्जे के नुक़सानदेह होते हैं। लोगों में नामर्दी, बुज़दिली, कमज़ोरी इतनी ज़्यादा आ गयी है कि सुनते ही शर्म आती है। आज हम देखते हैं कि जहाँ अन्य राष्ट्र युद्ध-विद्या की आम शिक्षा देकर पूरे के पूरे देश को एक तरह की बिल्कुल तैयार फ़ौज बनाकर (Nation in Arms) मुल्क़ को ज़्यादा महफ़ूज़ और फ़ौजी ख़र्च को हद दर्जे तक घटा देते हैं, वहाँ हमारी यह हालत है कि हिन्दुस्तान में 99 फ़ीसदी से अधिक लोग कभी पिस्तौल और बन्दूक़ की शक्ल भी नहीं देख सकते। फिर कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में से कोई प्रतिभाशाली जनरल (Military Genius) पैदा नहीं हो रहे।

कहा जाता है कि हिन्द में अमन क़ायम रखने और अपराध घटाने के लिए ही लोगों को निहत्थे रखा जाता है, लेकिन हम देखते हैं कि चोर और डाकू तो जैसे भी बन पड़ता है, हथियार हासिल कर ही लेते हैं, लेकिन भले लोग अपनी हिफ़ाज़त के लिए कहीं से भी हथियार हासिल नहीं कर सकते। कितनी सख़्त तकलीफ़ हमें इस बात से होती है, यह अन्दाज़ा आसानी से ही लग सकता है।

जब भी सैनिक-शिक्षा का सवाल उठता है, उसी समय सरकार आयें-बायें करके टालना शुरू कर देती है। क्या हमें साफ़ तौर पर नहीं समझ लेना चाहिए कि यह हमें ख़ासतौर पर कमज़ोर बनाकर ग़ुलाम बनाये रखने के लिए किया जाता है? हम देखते हैं कि बेचारी औरतें भी अकेली सफ़र नहीं कर सकतीं, क्योंकि उनके पास अपनी रक्षा का भी पूरा सामान मौजूद नहीं। अगर प्रत्येक स्त्री के पास कम से कम एक पिस्तौल हो तो वह भी बेफ़िक्री के साथ घूम सकें और आराम के साथ ज़िन्दगी गुज़ार सकें।

और यदि ज़रा ध्यान से देखें तो मालूम होगा कि इस विचार के साथ कि हमें अपनी रक्षा के लिए पुलिस का मुँह देखना चाहिए, हम लोग कितने कमज़ोर हो रहे हैं। इस तरह हमारे भीतर से इन्सानियत ख़त्म की जा रही है। यही तो वजह है कि हरि सिंहजी नलवा जैसे जरनैल पैदा कर सकने वाली क़ौम के आदमियों को महज आज़ादी से डराने के लिए सरहिन्द के पठानों का भूत दिखाकर थर-थर कँपा दिया जाता है।

सबसे बड़ी बात है कि यह इन्सानियत का अपमान है कि सारे मुल्क़ में से हथियार ग़ायब कर दिये जायें। जहाँ अपनी फ़ौजी ताक़त को अंग्रेज़ दिनोदिन बढ़ाये चले जा रहे हैं, वहाँ हमें किस तरह निहत्थे करके फेंका गया है। और आजकल ख़ासतौर पर पुलिस और ख़ुफ़िया पुलिस की सारी ताक़त लुके-छिपे हथियार खोजने में और भविष्य में उनका आना बन्द करने में ख़र्च हो रही है। बात क्या है? रोल्ट रिपोर्ट में साफ़तौर पर लिखा हुआ है कि यदि 1914-15 में पंजाब और बंगाल के राजपरिवर्तनकारियों के पास काफ़ी हथियार होते तो बड़ा अन्धेर हो जाना था। यही बात ‘बन्दी जीवन’ में लिखी गयी है। आजकल लड़ाई के आसार नज़र आ रहे हैं। लड़ाई भी वह सामने सरहद पर। इस बार पिछले अनुभवों से फ़ायदा उठाया जा रहा है और पहले से ही अनुमान लगाये जा रहे हैं।

लेकिन हम अपना क़ौमी हक़ और इन्सानी हक़ समझते हैं कि हम भी हथियार रख सकें। हम पहले श्री अवारी, नागपुर शस्त्र-सत्याग्रह का कुछ हाल दे चुके हैं। लोगों में इसके विरुद्ध विचार तो पैदा हो रहा है। नौजवान भारत सभा की प्रान्तीय कॉन्‍फ्रेंस, अमृतसर ने भी पास किया था कि जल्द ही यह सत्याग्रह किया जाना चाहिए। नौजवानों के आन्दोलनों को तो ख़ासतौर पर इस ओर ध्यान देना चाहिए। वजह यह है कि नौजवानों के दिल में क़ुदरती जज़्बा पैदा हो जाता है कि वह भी हथियार रखें। अगर कोई सिर पीटकर, कोशिश करके एक-आध पिस्तौल पा भी लेता है तो सरकार झट उस पर साज़िश का केस चला देती है, और उम्रक़ैद दे देती है। फिर ज़रा विचार तो करें कि क्या अन्धेर हो रहा है। कोई ग़रीब पिस्तौल रख ही ले तो 3 साल की क़ैद!! गज़ब है! हो क्या गया? कोई राजनीतिक विचारों वाला कोई हथियार रख ले तो सात साल की क़ैद! दफ़ा 20 के अनुसार बिना लाइसेंस हथियार रखने के साथ, उनको छुपाने की सज़ा 7 साल है। यही तो वजह है कि जहाँ आम लोगों को 3-3 महीने की क़ैद होती है, वहाँ के.सी. बनर्जी को राजपरिवर्तनकारी समझकर पाँच साल क़ैद दे दी गयी थी। हम समझते हैं कि प्रत्येक हिन्दुस्तानी को इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। पहले लोगों को इसकी ज़रूरत महसूस करवा देनी चाहिए। एक बार चारों तरफ़ से आवाज़ उठनी चाहिए –

आर्म्स एक्ट उड़ा दो! (Repeal the Arms Act)

और फिर साथ ही सत्याग्रह शुरू कर देना चाहिए। असेम्बली और कौंसिलों में ऐसे ही प्रस्ताव पास होने चाहिए। श्री अवारी ने जिस शुभ काम को शुरू किया था, उसको क़ामयाब बनाने की पूरी कोशिश होनी चाहिए, ताकि फिर हिन्दुस्तानी नौजवानों में से कमज़ोरी, बुज़दिली दूर हो। फिर हिन्दुस्तान के उठने के आसार हों।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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