लाला लाजपत राय और एग्निस स्मेडली
‘दि पीपल’ (The People) एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक समाचारपत्र है। इसके संस्थापक और सम्पादक पंजाब केसरी लाला लाजपत राय हैं। जिस समय वह पत्र आरम्भ किया गया था तब उसमें पहले पृष्ठ पर लाला जी की ओर से यह घोषणा की गयी थी कि इस समाचारपत्र में हर प्रकार के विचार दिये जायेंगे तथा हर विचार को, भले ही वह किसी भी तरह का हो, सुना जाया करेगा और उस पर धैर्य और गम्भीरता से विचार किया जायेगा। कुल मिलाकर यह कि यह पत्र एक खुला विचार-मंच (ओपन फ़ोरम) बनाया गया था, जहाँ प्रत्येक बात पर बहस और विचार होना था ताकि अंग्रेज़ी पढ़ी-लिखी जनता वास्तविक स्थितियों से परिचित हो सके तथा अपनी सही राय क़ायम कर सके।
इन पंक्तियों का लेखक इस पत्र को आरम्भ से पढ़ता रहा है। यह पत्र अच्छे समाचारपत्रों में एक है। इसमें अक्टूबर, 1927 तक घोषित उद्देश्यों का पूर्णतया पालन किया जाता रहा है। इसमें विद्वान लेखकों के अच्छे-अच्छे लेख प्रकाशित होते रहे हैं, लेकिन 10 अक्टूबर, 1927 से इसने अपने मुख्य उद्देश्य से मुँह फेर लिया है और मिस स्मेडली के लेख प्रकाशित करने बन्द कर दिये हैं।
मिस एग्निस स्मेडली यूरोप की एक प्रख्यात लेखिका हैं। वे बर्लिन के एक विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका हैं। लाला जी व्यक्तिगत तौर पर उन्हें जानते हैं। लाला जी ने उनके सन्दर्भ में लिखा था – “पिछले दस बरसों से मैं मिस स्मेडली को जानता हूँ। मैंने उनकी ईमानदारी पर कभी शक नहीं किया। यह ऐसी स्त्री नहीं जिन्हें कि रुपये-पैसे से ख़रीदा जा सके। वे जन्मजात युगान्तकारी हैं। इसलिए उनका स्वभाव, रुझान एवं आदतें सभी एक युगान्तकारी जैसी हैं। उनका जीवन सम्मान से जीने में बीता है। इन बातों ने युग-परिवर्तन की ओर उनका झुकाव बढ़ा दिया है। व्यक्तिगत तौर पर उनके विचार पूर्णतया पवित्र एवं सुस्पष्ट हैं। वह एक ऐसी स्त्री हैं जो अपने कार्य एवं मित्रों के लिए बड़े से बड़ा बलिदान कर सकती हैं। मैं व्यक्तिगत परिचय के आधार पर कह सकता हूँ कि उन्हें सोना-चाँदी जैसी चीज़ें बिल्कुल भी नहीं भरमा सकती हैं।”
मिस स्मेडली के लेख ‘द पीपल’ में प्रकाशित होते रहते हैं। जिसने उनके लेख पढ़े हैं वह उनकी लेखकीय विद्वता एवं ज्ञान की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। मिस स्मेडली बहुत अच्छी लेखिका हैं। वह जिस विषय को छूती हैं उसे जीवन्त कर देती हैं। राष्ट्रीय राजनीति, हिन्दुस्तान का युगान्तकारी इतिहास तथा हिन्दुस्तान के जलावतनों के बारे में जितना वह जानती हैं उतना शायद ही कोई हिन्दुस्तानी जानता हो। हिन्दुस्तान के ग़ुलाम होने की वजह से या किन्हीं दूसरे कारणों से वह इससे बहुत लगाव रखती हैं तथा यहाँ के पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने विचारों से अवगत कराती रहती हैं।
लेकिन लाला लाजपत राय को मिस स्मेडली के विचार अच्छे नहीं लगते। उनको मिस स्मेडली के लेखों में से बोल्शेविक वाली बू आती है। उनकी कोमल नाक इस बोल्शेविकी बू को सहन न कर सकी। तभी लाला जी पुराने क़िस्सों की तरह मानस-गन्ध, मानस-गन्ध चीख़ रहे हैं और मिस स्मेडली के लेखों से तौबा-तौबा कर चुके हैं। इस बोल्शेविकी भय के कारण ही वे अपने मुख्य उद्देश्य को भी छोड़ चुके हैं और अब अच्छे बच्चों के ‘बीबे राने’ लेख प्रकाशित करने लगे हैं।
लाला लाजपत राय मज़दूरों के कट्टर समर्थक हैं। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। आप जेनेवा की अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर कांग्रेस में मज़दूरों के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए थे। आप मिस्टर मैकाडॉल्ड एण्ड कम्पनी को पूँजीपति तथा तानाशाही समर्थक लिखते थे। लेकिन आप कौन हैं? मज़दूर हैं? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। आप तो असली पूँजीपति हैं तथा पूँजीपतियों से मित्रता रखते हैं। आप अपने स्वास्थ्य-लाभ के बहाने मिस्टर बिरला के साथ जेनेवा गये थे तथा वहाँ उसकी मदद करते रहे थे।
आपने लिखा है कि “मिस स्मेडली ने हमें कोई नयी बात नहीं बतायी। हम जानते हैं, और पिछले दो सौ बरसों से जानते रहे हैं कि इंग्लैण्ड विकासशील देशों में हिन्दुस्तान को अपनी जंग-जंगी तैयारियों के लिए उपयोग करता रहा है।” लेकिन लाला जी से कोई पूछे कि जब आप अंग्रेज़ों की दो सौ बरसों की चालबाज़ियों से परिचित हैं कि वह हिन्दुस्तान को युद्ध-कार्य के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं, तब आपने इस उपयोग के बारे में शोर क्यों न मचाया? आपने पिछले युद्ध में ही ये सलाह क्यों नहीं दी कि हिन्दुस्तानियो सशक्त हो जाओ, अब वक़्त है कि युद्ध के लिए इन्हें कोई मदद न दो और आज़ादी के लिए संघर्ष करो। लेकिन उस समय आप ऐसा क्यों कहते? उस समय तो आप आनन्दमग्न बैठे अमेरिका में तमाशा देख रहे थे और जर्मनी के विरुद्ध केवल लिखकर अंग्रेज़ों को यह भरोसा दिला रहे थे कि आप ख़तरनाक नहीं हैं और देश-निकाले के बाद आपके वापस हिन्दुस्तान आने में कोई डर नहीं है।
लाला जी, आप सर्वज्ञाता हैं। आपके समक्ष अनपढ़ सिख भाई अमेरिका में से जत्थे बना-बनाकर यहाँ आये और उन्होंने जनता का आह्वान किया कि जनता जंग में कोई सहायता न करे। अब वक़्त है, लोहा गर्म है, ज़बरदस्त चोट मारकर आज़ाद हो जाओ। उनकी किसी ने नहीं सुनी। लेकिन वे शहादत पाकर अपना कर्त्तव्य पूरा कर गये। उस समय आप सबकुछ जानते थे। आपके लिए तो कोई नयी बात नहीं हुई। क्या आपके भीतर का सच मर गया था? आपको हिन्दुस्तान लौटने की चाह ने तड़पाया? दरअसल आप अंग्रेज़ों की नज़र में भले बनकर हिन्दुस्तान आना चाहते थे, इसलिए आप शान्त रहे और मौन धारण कर लिया। अंग्रेज़ों के प्रति वफ़ादार बनने के लिए आप जर्मन के विरुद्ध क़लम उठाते रहे। क्यों लाला जी, ठीक है ना?
लाला जी, वैसे तो सबकुछ आप जानते ही हैं, लेकिन चेतावनी देनी बेहतर होगी। सुनिए, अब फिर युद्ध छिड़ने वाला है। अब फिर अंग्रेज़ हिन्दुस्तान को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करेंगे। देश की जनता को सचेत करने के लिए घोषणा करवा दो, ताकि जनता अंग्रेज़ों की चालबाज़ियों का शिकार न बने और अपने सहारे खड़े होने के लिए तैयार हो जाये। क्या आप मैदान में आयेंगे?
लेकिन लाला जी तो अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ के अनुसार काम करते हैं। वे किसी के कहने पर कोई काम नहीं करते। लेकिन ज़माना बुरी चीज़ है। यह किसी तरह भी नहीं जीने देता। क्यों, यह अन्तरात्मा का प्रकाश किसी भीतरी कमज़ोरी का ही तो दूसरा नाम नहीं? प्रकाश प्रकाश में फ़र्क़ होता है, इसलिए लाला जी ने भी अपने भीतर कई प्रकार के प्रकाश रखे हैं। एक आत्मप्रकाश तो वह था जो लाला लाजपत राय को विदेशों में दौड़ाये फिरता था, एक प्रकाश यह है जो उन्हें यहाँ ले आया है। एक प्रकार का प्रकाश लाहौर सेण्ट्रल जेल से छूटने के पश्चात हुआ था। तब लाला जी असहयोग आन्दोलनकारियों का नेतृत्व करते थे। समझ नहीं आता लाला जी, आप किस प्रकाश के पीछे फिरते हैं? कृपया बताइये!
क्या साम्यवाद स्वयं में, कम से कम आजकल की दुनिया में, फिरकेदारी नहीं है? क्या यह एक वर्ग का दूसरे वर्ग के विरुद्ध संगठित संघर्ष नहीं है? लाला जी तो यही कहते हैं। लेकिन लाला जी, आप स्वयं बतायें कि आप साम्यवाद को फिरकेदारी समझकर ही तो नहीं आये? दरअसल आपने सोचा होगा कि लो साम्यवादी क्या बनना, हिन्दू ही फिर बन जाते हैं।
लाला जी वर्ग-संघर्ष के भी विरुद्ध दिखायी देते हैं। क्योंकि मालूम होता है, जैसे लाला जी को दो सौ बरसों से हिन्दुस्तान का ज्ञान है, ऐसे ही जो कुछ महात्मा मार्क्स ने सिखाया है, उसका भी ज्ञान है। लाला जी ठहरे मज़दूर नेता, तो फिर क्यों न वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त के ख़िलाफ़ हों, मज़दूर-आन्दोलन की नींव रखने वाले महात्मा कार्ल मार्क्स के मोटे-मोटे तीन सिद्धान्तों में से एक वर्ग-संघर्ष है और इसी सिद्धान्त पर चलते हुए आज दुनिया के मज़दूर अपनी-अपनी सरकारों और अपने-अपने देश से टूटकर विश्व-मज़दूर-संगठन में शामिल हो रहे हैं। लेकिन लाला जी, आज तो आप वर्ग-संघर्ष के ख़िलाफ़ होकर पूँजीवाद तथा तानाशाही को भी रहने देना चाहते हैं। आप शायद यह समझते हैं कि सामाजिक विकास में, जिस तरह आप जैसे पूँजीवादी कहते हैं, दोनों की ही आवश्यकता है।
असल बात तो यह है कि लाला जी एक-एक करके अपने पहले के सिद्धान्त छोड़ रहे हैं और पुनः आर्यसमाजी बन रहे हैं। इसीलिए आपने बहुत खीजते हुए मिस एग्निस स्मेडली के राष्ट्रवादी सिद्धान्त बताने वाले लेखों को प्रकाशित करना बन्द कर दिया है। इस तरह प्रकाशन बन्द करते हुए जो टिप्पणी आपने 13 अक्टूबर के पत्र में लिखी, उसने आपकी शान में चार चाँद नहीं लगाये। जहाँ तक हमें जानकारी है कि मिस एग्निस स्मेडली अपने लेख बिना कोई पारिश्रमिक लिये भेजती रही हैं। इस टिप्पणी पर अनेक विरोधात्मक पत्र आये हैं, जिन्हें आपने प्रकाशित करने का भी साहस नहीं दिखाया। 15 दिसम्बर के पत्र में आपने इस तरह मिस स्मेडली से क्षमा-याचना की है – “हम अपनी इच्छानुसार कार्य करते हैं। मिस स्मेडली को यह जानना चाहिए कि ज़िन्दगी में मेरा तो अन्य कोई दूसरा (देशसेवा के अलावा) काम ही नहीं है। अगर मैंने उन्हें कष्ट पहुँचाया है तो मुझे इसका बहुत अफ़सोस है। मुझे यह सोचना चाहिए था कि मेरे ‘रिमार्क’ उन्हें दुख पहुँचाने के अलावा और कर भी क्या सकते थे।”
लाला जी नित्य सूर्योदय से नौजवानों को उपदेश करने आरम्भ कर देते हैं, कि शान्तिपूर्वक बुज़ुर्ग अनुभवी नेताओं के आदेशों को मानना चाहिए, तथा देश के लिए क़ुर्बानियाँ करनी चाहिए। लेकिन लाला जी जब स्वयं पग-पग पर ठोकरें खाते हैं, कई जगहों पर भूलें करते हैं, आत्मसंयम में नहीं रहते। क्षमा-याचनाएँ करते फिरते हैं तो आप कैसे नौजवानों को नेतृत्व दे सकते हैं?
यदि सच पूछें तो ‘पंजाब केसरी’ अब बूढ़ा हो गया है। इसके ख़तरनाक दाँत झड़ गये हैं। नौकरशाही को डराने वाले इसके भयानक नाख़ून तेज़ नहीं रहे। अब तो यह सर्कस के एक पालतू शेर की तरह बेअसर हो गया है। लाला पहले वाले लाला नहीं रहे। पहले वाला लाला नौजवान था। उसमें नौजवानों वाला जोश, नौजवान वाला साहस और जवाँमर्दों वाली क़ुर्बानी कूट-कूटकर भरी थी। वह लाला हिंसाबी नहीं था। वह क़ुर्बानी के समुद्र में कूदना जानता था और नौजवान भाइयो, देश का दुर्भाग्य! अब यह लाला हम नौजवानों को उपदेश करने के लिए रह गया है। लाला स्वयं स्वीकारता है और कहता है कि “मेरी तौबा, मैं कोई क़ुर्बानी नहीं कर सकता।” लेकिन वह “नौजवानों को सही मार्ग” पर चलाने को अपना अधिकार समझता है। किसी कवि ने ठीक कहा है, “बदलता है रंग आसमाँ कैसे-कैसे?”
जनवरी, 1928
शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं।
ये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।
व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्पर्क करें।
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