शहीद मास्टर दा सूर्यसेन अमर रहें!

शहीद मास्टर दा सूर्यसेन अमर रहें!

12 जनवरी शहीद क्रान्तिकारी सूर्यसेन का शहादत दिवस है। चटगांव के नोआपाड़ा इलाके के निवासी सूर्यसेन नेशनल हाईस्कूल में सीनियर ग्रेजुएट शिक्षक के रूप में कार्यरत थे। इतिहास में इनको ‘मास्टर दा’ के नाम से जाना जाता था। इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान वे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में कूद पड़े।
हिन्दुस्तान पर क़ाबिज़ अंग्रेजी हुक़ूमत को उखाड़ फेंकने के लिए मास्टर दा सूर्यसेन एवं अन्य क्रान्तिकारियों ने अप्रैल 1930 में ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी'(आई आर ए) का गठन किया जिसमें बहुत सारे लोग अंग्रेजी फौज की नौकरी छोड़कर हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए शामिल हो गए। आईआरए के इस संग्राम में प्रीतिलता वाडेदार और कल्पना दत्त भी जुड़ी थीं।
इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के गठन के साथ ही बंगाल में क्रान्तिकारी गतिविधियों का सिलसिला जोर-शोर से चल पड़ा।
18 अप्रैल 1930 को मास्टर दा सूर्यसेन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने चटगांव के शस्त्रागार को लूटकर सशस्त्र विद्रोह का ऐलान कर दिया और इसके साथ ही अंग्रेजी हुकूमत के ख़ात्मे की घोषणा की। इस घटना के कारण न सिर्फ बंगाल में बल्कि बंगाल के बाहर भी देश के अलग-अलग हिस्सों में सशस्त्र विद्रोह की आवाज़ें उठने लगीं। इसी विद्रोह से प्रभावित होकर दिसम्बर 1930 में विनय बोस, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता ने कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग में घुसकर क्रान्तिकारियों का दमन करने वाले पुलिस अधीक्षक की हत्या कर दी।
चटगांव विद्रोह से बौखलायी अंग्रेजी हुक़ूमत ने बर्बरता की सारी हदें पार कर दी और महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों तक को गिरफ़्तार कर लिया गया। मास्टर सूर्यसेन लंबे समय तक भेष बदलकर अंग्रेजों को चकमा देते रहे । लेकिन फरवरी 1933 में नेत्रसेन की मुख़बिरी के कारण उन्हें अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार होना पड़ा।
सूर्यसेन को फांसी देने से पहले, अमानवीय ब्रिटिश शासकों ने उन पर क्रूरता से अत्याचार किया।
12 जनवरी 1934 को एक अन्य क्रांतिकारी तारकेश्वर दस्तीदार को भी मास्टर दा सूर्यसेन के साथ फांसी दी गई।
उन्होंने आख़िरी पत्र अपने दोस्तों को लिखा था जिसमें कहा था: “मौत मेरे दरवाजे पर दस्तक दे रही है। मेरा मन अनन्तकाल की ओर उड़ रहा है … ऐसे सुखद समय पर,ऐसे गंभीर क्षण में, मैं तुम सब के पास क्या छोड़ जाऊंगा ? केवल एक चीज़, यह मेरा सपना है, एक सुनहरा सपना- स्वतंत्र भारत का सपना …. कभी भी 18 अप्रैल, 1930, चटगांव के विद्रोह के दिन को मत भूलना …।”
शहीदों के जो ख़्वाब अधूरे,
इसी सदी में होंगे पूरे!

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