एक महान क्रान्तिकारी की आख़िरी लड़ाई और उसकी याद के आईने में हमारा समय
कड़वी सच्चाई यही है कि जतिन दास, भगतसिंह और उनके तमाम साथी आज होते तो जेलों में होते, और जेल के भीतर वैसे ही लड़ रहे होते। फ़र्क़ बस इतना होता कि टीवी चैनलों और अख़बारों के दफ़्तरों में बैठे दल्ले उन्हें अपराधी, ख़ून के प्यासे और देशद्रोही साबित कर चुके होते। जैसे आज भी देश की जेलों में क़ैद हज़ारों नागरिकों के साथ किया जा रहा है, जिनका गुनाह सिर्फ़ यह है कि उन्होंने चन्द लुटेरों के हक़ में करोड़ों-करोड़ आम लोगों की लूट और बर्बादी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है, करोड़ों-करोड़ लोगों को धर्म और जाति के आधार पर दोयम दर्जे के नागरिक बना देने की साज़िशों का विरोध किया है, और हर ज़ोरो-ज़ुल्म के सामने डटकर खड़े होते रहे हैं। जतिन दास की शहादत को आज याद करने का तभी कोई मतलब है जब आप इस “निज़ामे कोहना” के ख़िलाफ़ बोलने का हौसला रखते हों, वरना हर क्रान्तिकारी के शहादत दिवस पर ट्वीट करने वाले पाखण्डी नेताओं और हममें कोई फ़र्क़ नहीं रह जायेगा।
शहीद उधम सिंह अमर रहें !
उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘मोहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था। वे इसी नाम से पत्रव्यवहार किया करते थे और यही नाम उन्होंने अपने हाथ पर भी गुदवा लिया था। उन्होंने वसीयत की थी कि फाँसी के बाद उनकी अस्थियों को तीनों धर्मों के लोगों को सोंपा जाये। अंग्रजों ने इस जांबाज को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर लटका दिया। सन् 1974 में उधम सिंह की अस्थियों को भारत लाया गया और उनकी जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार उन्हें हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदायों के प्रतिनिधियों को सौंप दिया गया। हिन्दुओं ने अस्थि विसर्जन हरिद्वार में किया, मुसलमानों ने फतेहगढ़ मस्ज़िद में अन्तिम क्रिया की और सिखों ने करन्त साहिब में अन्त्येष्टि क्रिया संपन्न की।
महान क्रान्तिकारी खुदीराम बाेस के जन्म दिवस 3 दिसम्बर के अवसर पर
आज ऐसे ही एक महान क्रान्तिकारी खुदीराम बोस का जन्म दिवस है। मात्र साढ़े 18 साल में खुदीराम बोस की शहादत ने ऐसी ही अमरता का सृजन किया। खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के मोहबनी गाँव में हुआ था। खुदीराम बोस का बचपन उस दौर में शुरु हुआ था जब अंग्रेज़ों की बेरहमी और फूट-डालो, राज करो’ की साज़िश ज़ोरों पर थी। वक़्त ने खुदीराम बोस को कम उम्र में ही बड़ा बना दिया था। खुदीराम बोस 1902 में ही यानि 13-14 वर्ष की छोटी सी उम्र में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सक्रिय हो गये थे। सत्येन्द्रनाथ बसु की प्रेरणा से वो गुप्त क्रान्तिकारी संगठन के सदस्य बने।
महान क्रान्तिकारी खुदीराम बाेस के शहादत दिवस 11 अगस्त पर…
आज ऐसे ही एक महान क्रान्तिकारी खुदीराम बोस का शहादत दिवस है। मात्र साढ़े 18 साल में खुदीराम बोस की शहादत ने ऐसी ही अमरता का सृजन किया। खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के मोहबनी गाँव में हुआ था। खुदीराम बोस का बचपन उस दौर में शुरु हुआ था जब अंग्रेज़ों की बेरहमी और फूट-डालो, राज करो’ की साज़िश ज़ोरों पर थी। वक़्त ने खुदीराम बोस को कम उम्र में ही बड़ा बना दिया था। खुदीराम बोस 1902 में ही यानि 13-14 वर्ष की छोटी सी उम्र में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सक्रिय हो गये थे। सत्येन्द्रनाथ बसु की प्रेरणा से वो गुप्त क्रान्तिकारी संगठन के सदस्य बने।
शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद स्मृति अभियान – हमें तुम्हारा नाम लेना है एक अंधेरे दौर में
चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों का मकसद एक शोषणमुक्त, समतामूलक – धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण करना था। जैसाकि चन्द्रशेखर आज़ाद के साथी भगवानदास माहौर ने लिखा था – “आज़ाद का जन्म हद दर्जे की ग़रीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास और धार्मिक कट्टरता में हुआ था, और फिर वे, पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्षमें अपने सक्रिय अनुभवों से सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता हुए जिसने अपना नाम रखा थाः ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ और जिसका लक्ष्य था भारत में धर्म निरपेक्ष, वर्ग-विहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना। इसी हिन्दुस्तानी प्रजातंत्र सेना के प्रधान सेनानी “बलराज” के रूप में वे पुलिस से युद्ध करते हुए शहीद हुए। इस प्रकार ये सर्वथा उचित ही है कि चन्द्रशेखर आज़ाद का जीवन और उनका नाम साम्राज्यवादी उत्पीड़न में अशिक्षा, अन्ध-विश्वास, धार्मिक कट्टरता में पड़ी भारतीय जनता की क्रान्ति की चेतना का प्रतीक हो गया है”(यश की धरोहर – राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित)।
सावित्रीबाई फुले जयंती के अवसर पर – नई शिक्षाबन्दी के विरोध में नि:शुल्क शिक्षा के लिए एकजुट हों!
सावित्रीबाई ने पहले खुद सिखा व सामाजिक सवालों पर एक क्रांतिकारी अवस्थिति ली। ज्योतिराव की मृत्यु के बाद भी वो अंतिम सांस तक जनता की सेवा करती रहीं। उनकी मृत्यु प्लेगग्रस्त लोगों की सेवा करते हुए हुई। अपना सम्पूर्ण जीवन मेहनतकशों, दलितों व स्त्रियों के लिए कुर्बान कर देने वाली ऐसी जुझारू महिला को हम क्रांतिकारी सलाम करते हैं व उनके सपनों को आगे ले जाने का संकल्प लेते हैं।
काकोरी एक्शन के शहीदों के शहादत दिवस के मौके पर – अमर शहीदों का पैगाम! जारी रखना है संग्राम!!
‘गदर’ आन्दोलन के क्रान्तिकारियों की तरह ही ‘एच.आर.ए.’ और ‘एच.एस.आर.ए.’ का भी यह स्पष्ट मानना था कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला होना चाहिए और उसका राज्य मशीनरी व राजनीति में इस्तेमाल बिलकुल भी नहीं होना चाहिए। फाँसी पर लटकाये जाने से सिर्फ़ तीन दिन पहले लिखे ख़त में अशफ़ाक़ उल्ला खान ने देशवासियों को आगाह किया था कि इस तरह के बँटवारे आज़ादी की लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। उन्होंने लिखा ‘सात करोड़ मुसलमानों को शुद्ध करना नामुमकिन है, और इसी तरह यह सोचना भी फिजूल है कि पच्चीस करोड़ हिन्दुओं से इस्लाम कबूल करवाया जा सकता है। मगर हाँ, यह आसान है कि हम सब गुलामी की जंजीरें अपनी गर्दन में डाले रहें।’ इसी प्रकार रामप्रसाद बिस्मिल का कहना था कि ‘यदि देशवासियों को हमारे मरने का जरा भी अफ़सोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें। यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।’
शहीद उधम सिंह अमर रहें !
उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘मोहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था। वे इसी नाम से पत्रव्यवहार किया करते थे और यही नाम उन्होंने अपने हाथ पर भी गुदवा लिया था। उन्होंने वसीयत की थी कि फाँसी के बाद उनकी अस्थियों को तीनों धर्मों के लोगों को सोंपा जाये। अंग्रजों ने इस जांबाज को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर लटका दिया। सन् 1974 में उधम सिंह की अस्थियों को भारत लाया गया और उनकी जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार उन्हें हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदायों के प्रतिनिधियों को सौंप दिया गया। हिन्दुओं ने अस्थि विसर्जन हरिद्वार में किया, मुसलमानों ने फतेहगढ़ मस्ज़िद में अन्तिम क्रिया की और सिखों ने करन्त साहिब में अन्त्येष्टि क्रिया संपन्न की।
भगतसिंह के साथी क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त के साथ आजाद भारत में हुआ सलूक
भगत सिंह को फांसी हुई लेकिन बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काले पानी भेजा गया। दत्त चाहते तो सावरकर की तरह माफी मांग कर वीर बन सकते थे। लेकिन नहीं। उन्होंने एक सच्चे क्रांतिकारी की तरह कभी माफी नहीं मांगी। वहां से जब वह छूट कर आये तो उनका संगठन खत्म हो चुका था। वह खुद टीबी के शिकार हो गए थे। लेकिन देश की आज़ादी की भावना उनके मन से खत्म नहीं हुई थी।