सुभाष बाबू मज़दूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पण्डित जी एक क्रान्ति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं – दिल के लिए नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तकारी है जोकि दिल के साथ-साथ दिमाग़ को भी बहुत कुछ दे रहा है
Author: नौजवान भारत सभा
लाला लाजपत राय और नौजवान
लाला जी कहते हैं कि हमारे साम्यवादी विचारों के प्रचार से पूँजीपति सरकार के साथ मिल जायेंगे। बहुत ख़ूब! पहले वे किधर हैं? कितने पूँजीपति युगान्तरकारी बने हैं? क्रान्ति से जिन्हें अपनी सम्पत्ति में थोड़ी-बहुत हानि होने का डर होगा वे हमेशा ही विरोधी हो जाते हैं। ऐसी स्थितियों में उनकी जी-हजूरी के लिए आदर्श त्यागकर ख़ामख़ाह अपने कार्य को हानि पहुँचाना उचित नहीं। दूसरी बात यह कि पूँजीपति ज़रा सोचें कि किस स्थिति में उन्हें लाभ है? आज अंग्रेज़ उन्हें अपने स्वार्थ के लिए अपने साथ अवश्य मिला लेंगे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी पूँजी छीनकर उसे अपने पूँजीपतियों के हाथों में स्थानान्तरित कर देंगे। तब यह ग़रीब (हो गये सरमायेदार) आज जैसे करोड़ों मज़दूरों में शामिल होकर मरते-खपते रहेंगे। इन्हें सामाजिक व्यवस्था में अन्याय दिखायी देगा। अगर वे साम्यवादी क्रान्ति कर लें तो आज उनकी हरामख़ोरी पर तो ज़रूर रोक लगायी जायेगी लेकिन दुनिया की आम ख़ुशहाली में जोकि निश्चय ही आनी है, शामिल होकर वे बहुत सुखी रहेंगे। हिन्दुस्तानी पूँजीपति सोच लें कि उनको किस में लाभ है?
लाला लाजपत राय और एग्निस स्मेडली
असल बात तो यह है कि लाला जी एक-एक करके अपने पहले के सिद्धान्त छोड़ रहे हैं और पुनः आर्यसमाजी बन रहे हैं। इसीलिए आपने बहुत खीजते हुए मिस एग्निस स्मेडली के राष्ट्रवादी सिद्धान्त बताने वाले लेखों को प्रकाशित करना बन्द कर दिया है। इस तरह प्रकाशन बन्द करते हुए जो टिप्पणी आपने 13 अक्टूबर के पत्र में लिखी, उसने आपकी शान में चार चाँद नहीं लगाये। जहाँ तक हमें जानकारी है कि मिस एग्निस स्मेडली अपने लेख बिना कोई पारिश्रमिक लिये भेजती रही हैं। इस टिप्पणी पर अनेक विरोधात्मक पत्र आये हैं, जिन्हें आपने प्रकाशित करने का भी साहस नहीं दिखाया।
लाला लाजपत राय के नाम खुला ख़त
जिन सज्जनों को लाला लाजपत राय से राजनीतिक जीवन में अच्छी तरह वास्ता पड़ा है, वे लाला जी की नेतागिरी की कोरी इच्छा और देश के लिए सिवाय टर्र-टर्र करने तथा और कुछ न करने को अच्छी तरह जानते हैं। विदेशों में बसे भाइयों, विशेषतः अमेरिका व कनाडा निवासी सिखों का विश्वास 1914 में ही लाला जी से उठ गया था, जब आप कनाडा-अमेरिका गये थे और आपको उन हिन्दुस्तानी भाइयों ने अपने गाढ़े पसीने की कमाई का काफ़ी रुपया हिन्दुस्तान में आज़ादी के लक्ष्य के लिए दिया था और उन भाइयों के अनुसार लाला जी ने वह रुपया अपनी मर्जी से ख़र्च किया था और बहुत-सा रुपया स्वयं ही हड़प गये थे
नौजवान भारत सभा, लाहौर का घोषणापत्र
नौजवानों को चाहिए कि वे स्वतन्त्रतापूर्वक, गम्भीरता से, शान्ति और सब्र के साथ सोचें। उन्हें चाहिए कि वे भारतीय स्वतन्त्रता के आदर्श को अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप में अपनायें। उन्हें अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए। उन्हें अपनेआप को बाहरी प्रभावों से दूर रहकर संगठित करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि मक्कार तथा बेईमान लोगों के हाथों में न खेलें, जिनके साथ उनकी कोई समानता नहीं है और जो हर नाज़ुक मौक़े पर आदर्श का परित्याग कर देते हैं।
भगतसिंह – आर्म्स एक्ट ख़त्म कराओ
किसी देश पर कुछ लोग जब किसी प्रकार क़ब्ज़ा जमा लेते हैं तो उनकी यही कामना रहती है कि वह देश हमेशा ही उनके क़ब्ज़े में रहे और वे उसका लहू निचोड़-निचोड़कर मोटे होते रहें और मौज़ मारते रहें। इसके लिए वे लगातार प्रयासरत रहते हैं। वे चाहते हैं कि उस क़ौम का कोई साहित्य तथा भाषा न रहे। देश का कोई इतिहास न रहे। मर्दानगी और बहादुरी का निशान तक मिटा दिया जाये। इस प्रकार वहाँ की जनता को लगातार दबाया जाता है।
भगतसिंह – दिलचस्प और लाभदायक पुस्तकें
नवयुवकों को इस तरह की पुस्तकें पढ़ने का सुझाव दिया जाता था।
भगतसिंह – नेहरू समिति की रिपोर्ट
स्वतन्त्रता कभी दान में प्राप्त नहीं होगी। लेने से मिलेगी। शक्ति से हासिल की जाती है। जब ताक़त थी तब लॉर्ड रीडिग गोलमेज़ कॉन्फ्रेंस के लिए महात्मा गाँधी के पीछे-पीछे फिरता था और जब आन्दोलन दब गया, तो दास और नेहरू बार-बार ज़ोर लगा रहे हैं और किसी ने गोलमेज तो दूर, ‘स्टूल कॉन्फ्रेंस’ भी न मानी। इसलिए अपना और देश का समय बरबाद करने से अच्छा है कि मैदान में आकर देश को स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए तैयार करना चाहिए। नहीं तो मुँह धोकर सभी तैयार रहें कि आ रहा है – स्वराज्य का पार्सल!
भगतसिंह – बारदोली सत्याग्रह
यह सत्याग्रह सरकार के साथ संघर्ष के विचार से नहीं आरम्भ किया गया वरन केवल यह शिकायत दूर करने के लिए था। नेताओं ने यह स्वीकार भी किया है। लेकिन समझ में नहीं आता कि एक-एक शिकायत के लिए लड़ने-झगड़ने के बजाय मूल या जड़ का क्यों नहीं इलाज किया जाता? असल में ज़िम्मेदार नेता तो ज़िम्मेदारी से भागते हैं और तुरन्त समझौते पर उतर आते हैं। तो यह बात स्पष्ट है कि इस तरह लाभ हमेशा ताक़तवर को ही होता है। हम समझते हैं कि जब तक नेता युगान्तकारी भावना और उत्साह के साथ ऐसा क्रान्तिकारी संघर्ष नहीं छेड़ेंगे, तब तक आज़ादी-आज़ादी का शोर करना दूर की बात है।
भगतसिंह – एक और दमनकारी क़ानून
जिस तरह हिन्दुस्तान में कारख़ाने बढ़ रहे हैं, उसी तरह हमारे पूँजीपति और अंग्रेज़ों के लाभ-हानि भी साझे होते जा रहे हैं और ये देश में उभर रहे जन-आन्दोलन को सामान्यतया दबाने का संयुक्त रूप से प्रयत्न कर रहे हैं। अब एक समय दो क़ानून स्वीकृत हो रहे हैं: एक है जन-सुरक्षा बिल (पब्लिक सेफ्टी बिल) और दूसरा है औद्योगिक विवाद बिल (ट्रेड्स डिस्प्यूट बिल) अर्थात किसी पूँजीपति और मज़दूरों का किसी सवाल पर झगड़ा हो जाये तब तुरन्त एक पंचायत गठित कर दी जाये, जिसमें पूँजीपति मालिकों तथा मज़दूरों के प्रतिनिधि शामिल हों और इसका अध्येता एक निष्पक्ष व्यक्ति हो।