गृह मन्त्रालय, भारत सरकार को स्मरणपत्र

गृह मन्त्रालय, भारत सरकार को स्मरणपत्र

द्वारा,

स्पेशल मजिस्ट्रेट, लाहौर षड्यन्त्र केस, लाहौर

28 जनवरी, 1930

20 जनवरी, 1930 के हमारे तार के सन्दर्भ में, जो नीचे दिया जा रहा है, हमें कोई उत्तर नहीं दिया गया –

गृह सदस्य भारत सरकार, दिल्ली-लाहौर साज़िश केस के विचाराधीन (अण्डर ट्रायल) बन्दियों ने इस आश्वासन पर भूख हड़ताल स्थगित की थी कि सरकार जेल कमेटी की सिफ़ारिशों पर विचार कर रही है। अखिल भारतीय सरकारी कॉन्‍फ्रेंस समाप्त हो गयी लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गयी – राजनीतिक बन्दियों के साथ प्रतिशोधात्मक व्यवहार अभी भी किया जा रहा है। निवेदन है कि लाहौर साज़िश केस के बन्दियों के बारे में सरकार हमें अपने अन्तिम निर्णय से एक हफ्ते में अवगत करा दे।

जिस प्रकार उपरोक्त तार में संक्षेप में बताया है, आपके ध्यान में हम यह लाना चाहते हैं कि पंजाब की जेलों में बन्द लाहौर साज़िश के बन्दियों और प्रत्येक राजनीतिक बन्दी को पंजाब जेल जाँच कमेटी के सदस्यों के इस आश्वासन से कि बहुत जल्द ही राजनीतिक बन्दियों के व्यवहार का प्रश्न हमारी तसल्ली के अनुसार हल किया जा रहा है, भूख हड़ताल स्थगित कर दी। महान शहीद यतीन्द्रनाथ दास की शहादत के बाद यह मामला लेजिस्लेटिव असेम्बली में उठा और सर जेम्स कर्रीर ने सार्वजनिक रूप से यह आश्वासन दिया कि अब मन बदल गया है। और तभी यह कहा गया था कि राजनीतिक क़ैदियों के साथ व्यवहार के प्रश्न पर उन्हें बहुत सहानुभूति है। ऐसे राज-बन्दियों ने जो देश के भिन्न-भिन्न भागों की जेलों में भूख हड़ताल पर थे, उस समय – उपरोक्त आश्वासन और कुछ बन्दियों की बदतर हालत को सामने रखकर पास किये गये अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पारित प्रस्ताव और निवेदन पर – अपनी हड़ताल स्थगित कर दी थी। उस समय से सभी स्थानीय सरकारों ने अपनी सिफ़ारिशें पेश कर दी हैं। अलग-अलग राज्यों की जेलों के इंस्पेक्टर जनरलों की बैठक लखनऊ में अभी समाप्त हुई है। अखिल भारतीय सरकारी कॉन्‍फ्रेंस का विचार-विमर्श दिल्ली में हुआ है। अखिल भारतीय कॉन्‍फ्रेंस पिछले दिसम्बर महीने में हुई थी। एक माह से अधिक बीत चुका है, लेकिन सरकार ने अभी तक एक भी सिफ़ारिश लागू नहीं की। इस तरह के लटकाये रखने वाले व्यवहार में दूसरों की तरह हमें भी इस बात का भय है कि सम्भवतः इस सवाल को एक ओर कर दिया गया है। पिछले चार महीनों में जिस प्रकार भूख हड़तालियों और राजनीतिक बन्दियों के साथ प्रतिशोधात्मक व्यवहार हुआ है, उससे हमारी आशंका और पक्की हुई है। जो यातनाएँ राजनीतिक बन्दियों को दी जा रही हैं, उनके सम्बन्ध में पूरी जानकारी होना हमारे लिए बहुत कठिन है लेकिन फिर भी जेल की चारदीवारी में से जो थोड़ी-बहुत सूचनाएँ हमें मिल सकती हैं वे हमें वस्तुस्थिति से परिचित कराने के लिए पर्याप्त हैं। ऐसे ही कुछ उदाहरण हम नीचे दे रहे हैं, जिनमें हम विचलित हुए बिना नहीं रह सके और जो सरकारी आश्वासनों में मेल नहीं खाते –

  1. श्रीयुत ब.क. बनर्जी, जो दक्षिणेश्वर बम केस के सम्बन्ध में लाहौर सेण्ट्रल जेल में पाँच बरस की सज़ा भुगत रहे हैं, गत वर्ष आम भूख हड़ताल में शामिल हो गये। उनकी सज़ा के हिसाब से उनकी रिहाई पिछले दिसम्बर माह में हो जानी थी, लेकिन अब चार माह के लिए टाल दी गयी है। इस जेल में लाहौर साज़िश के सम्बन्ध में आजीवन बन्दी की सज़ा भुगत रहे सत्तर वर्षीय वृद्ध बाबा सोहन सिंह[1] को सज़ा दी गयी है। इसके अलावा अन्यों में से मियाँवाली जेल में बन्द सरदार काबल सिंह[2] और सरदार गोपाल सिंह[3] को आम भूख हड़ताल में शामिल होने के कारण सज़ाएँ दी गयी हैं। इनमें से अनेक मामलों में क़ैद बढ़ा दी गयी है, जबकि कुछ स्पेशल क्लास से हटा दिये गये हैं।
  2. इसी अपराध में अर्थात आम भूख हड़ताल में शामिल होने के कारण आगरा सेण्ट्रल जेल में बन्द सर्वश्री शचीन्द्रनाथ सान्याल, रामकृष्ण खत्री, सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य, रामकुमार सिन्हा, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त तथा काकोरी केस के अनेक बन्दियों को सख़्त सज़ाएँ दी गईं। विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि श्री सान्याल को बेड़ियाँ डालकर एकान्त कोठरी में रखा गया है, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया है। उनका वज़न 18 पौण्ड कम हो गया है। मालूम हुआ कि श्री भट्टाचार्य तपेदिक के मरीज हैं। बरेली जेल के तीन बन्दियों को भी सज़ाएँ दी गयी हैं। उनकी समस्त सुविधाएँ वापस ले ली गयीं। यहाँ तक कि अपने सम्बन्धियों से मुलाक़ात एवं पत्र-व्यवहार करने जैसे आम अधिकार भी छीन लिये गये हैं। उनके वज़न काफ़ी कम हो गये हैं। इस सम्बन्ध में पण्डित जवाहरलाल ने सितम्बर, 1929 और जनवरी, 1930 में दो प्रेस वक्तव्य दिये थे।
  3. भूख हड़ताल के सम्बन्ध में अखिल भारतीय कांग्रेस का प्रस्ताव, स्वीकृत होने के पश्चात, तार द्वारा अलग-अलग राजनीतिक बन्दियों को भेजा गया। इनकी कापियाँ जेल-अधिकारियों ने रोक लीं। फिर इस सम्बन्ध में सरकार ने बन्दियों से मुलाक़ात के लिए कांग्रेस प्रतिनिधि मण्डल को इजाज़त नहीं दी।
  4. पुलिस के उच्च अधिकारियों के आदेशानुसार 23 एवं 24 अक्टूबर, 1929 को लाहौर साज़िश केस के मुलिज़म बन्दियों पर वहशियाना हमला किया गया। विवरण समाचारपत्रों में प्रकाशित हुए हैं। स्पेशल मजिस्ट्रेट पण्डित श्रीकृष्ण ने हममें से एक व्यक्ति का बयान दर्ज़ किया था। इस बयान की कापी आपको 16 दिसम्बर, 1929 को भेजी जा चुकी है। पर न तो पंजाब सरकार और न ही भारत सरकार ने उत्तर देना या हमारी ओर से जाँच कराने की माँग को आवश्यक समझा, जबकि दूसरी ओर से इसी घटना के सम्बन्ध में ‘हिंसात्मक प्रतिशोध’ लेने के इरादे से स्थानीय सरकार ने हम पर मुक़दमा चलाने की बहुत आवश्यकता महसूस की है।
  5. दिसम्बर, 1929 के अन्तिम सप्ताह में लाहौर बोर्स्टल जेल में क़ैद बन्दी श्री किरणचन्द्र दास तथा अन्य आठ को जब मजिस्ट्रेट की अदालत में लाकर पेश किया गया तो उन्हें हथकड़ियों और ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ था। यह पंजाब जेल जाँच कमेटी और पंजाब की जेलों के इंस्पेक्टर जनरल के समझौते का सरासर उल्लंघन था। यह ध्यान देने योग्य है कि ये जमानत योग्य जुर्म के तहत बन्दी थे। इस सम्बन्ध में डॉक्टर मोहम्मद आलम, लाला दुनीचन्द लाहौर वाले और लाला दुनीचन्द अम्बाला वाले के लम्बे बयान ‘ट्रिब्यून’ में प्रकाशित हुए हैं।

जब हमें राजनीतिक बन्दियों की समस्त यातनाओं का पता चला तो हमने भूख हड़ताल पुनः प्रारम्भ करने से गुरेज किया। भले ही इस बात का हमें अत्यन्त दुख था, लेकिन हमने सोचा कि समस्या जल्द ही तय हो जायेगी। लेकिन अब उपरोक्त उदाहरणों की रोशनी में क्या हम यह मानें कि भूख हड़ताल की अनकही, भयंकर यातनाएँ और यतीन्द्रनाथ दास की महान शहादत ऐसे ही चली गयी? क्या हम यही मानें कि उभर रहे जन-आन्दोलन को रोकने और संकटमय दौर को टालने की नीयत से ही सरकार ने हमें आश्वासन दिये थे? हम आशा करते हैं कि आप हमसे असहमत नहीं होंगे कि हमने काफ़ी समय तक धैर्य से प्रतीक्षा की है। लेकिन हम अनन्त काल तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते। सरकार के अपने ढुलमुल व्यवहार एवं राजनीतिक बन्दियों के साथ दुर्व्यवहार के चलते हमारे पास पुनः संघर्ष शुरू करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है। हम जानते हैं कि भूख हड़ताल आरम्भ करना और उसे जारी रखना कोई सरल कार्य नहीं, लेकिन साथ ही हम बता देते हैं कि भारत अन्य बहुत-से यतीन्द्र और रामरक्खा और भान सिंह पैदा कर सकता है। (अन्तिम दोनों ने 1917 में अण्डमान द्वीपों में अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया था। पहले ने 92 दिनों की भूख हड़ताल के बाद आख़िरी साँस ली और दूसरा छह महीने तक चुपचाप अमानवीय अत्याचार सहते हुए महान नायक की मृत्यु को प्राप्त हुआ।)

राजनीतिक बन्दियों से अच्छे व्यवहार के समर्थन में जनता में से लोगों ने तथा हमने काफ़ी कुछ कहा है। इसे दोहराने की ज़रूरत नहीं है। वर्गीकरण के मामले में सबसे अहम पक्ष और मूल मन्तव्य की स्थापना के बारे में हम कुछ शब्द कहना चाहेंगे। वर्गीकरण के मापदण्ड के प्रश्न पर हंगामा हुआ है। अलग-अलग सरकारों को सुझाये हुए मापदण्ड में से मूल मन्तव्य को बिल्कुल निकाल दिया गया है। यह वास्तव में अजब व्यवहार है। मात्र मूल मन्तव्य से ही किसी भी कार्यवाही की सही क़द्र का निर्णय किया जा सकता है। क्या हम यह समझें कि सरकार – एक ऐसे हमलावर जो अपने शिकार का शोषण करते हुए उसे जान से मार डालता है और एक खड़गबहादुर, जो एक बदमाश की हत्या करके नौजवान लड़की की इज़्ज़त बचाता है और समाज को सबसे अधिक दुराचारी चापलूस से मुक्ति दिलाता है – दोनों के बीच अन्तर करने में असमर्थ है? क्या दोनों को एक ही वर्ग का व्यक्ति समझा जाये? क्या एक जैसा अपराध करने वाले दो व्यक्तियों में कोई अन्तर नहीं जिनमें एक स्वार्थी है और दूसरा निस्वार्थ? इसी तरह क्या एक सामान्य हत्यारे और एक राजनीतिक कार्यकर्ता में कोई अन्तर नहीं? भले ही राजनीतिक कार्यकर्ता हिंसा भी अपना ले, उसकी यह निस्वार्थता क्या उसे शेष अपराधियों से ऊँचा नहीं कर देती? ऐसी स्थितियों में हमारी मान्यता है कि वर्गीकरण के मापदण्ड में मन्तव्य को सबसे मुख्य पक्ष की तरह लिया जाना चाहिए।

गत वर्ष हमारी भूख हड़ताल आरम्भ होने पर जब इसी बात पर विचार के लिए अनेक जन-नेता – जिनमें डॉ. गोपीचन्द्र और लाला दुनीचन्द अम्बाला वाले भी थे, जिन्होंने पंजाब जेल में जाँच कमेटी की सिफ़ारिशों पर हस्ताक्षर किये हैं – हमारे पास आये और जब उन्होंने बताया कि आतंकवादी अपराध के बन्दियों में से सज़ा पाये राजनीतिक बन्दियों को सरकार विशेष वर्ग के बन्दी मानने पर विचार कर रही है, तब वास्तव में हत्या के अपराधियों को बाहर रखने वाली हद तक की सिफ़ारिश को समझौते के तौर पर मान लिया गया, लेकिन बाद में बहस के दौरान दूसरा ही रवैया अपना लिया गया और पंजाब जेल जाँच कमेटी के लिए हवाले की शर्तों वाला संयुक्त बयान इस तरह लिखा गया, जिससे प्रतीत होता था कि मूल मन्तव्य का प्रश्न बिल्कुल ही अलग कर दिया गया है और समूचा वर्गीकरण दो चीज़ों पर आधारित था –

  1. अपराध का ढंग, और
  2. अपराधी का सामाजिक स्तर।

इस मापदण्ड ने समस्या के निदान के बजाय उसे पेचीदा बना दिया।

अहिंसात्मक और हिंसात्मक अपराधों वाले राजनीतिक बन्दियों में दो वर्गों वाली बात हम समझ सकते थे। लेकिन पंजाब जेल जाँच कमेटी की सिफ़ारिशों में सामाजिक स्तर का प्रश्न आ जाता है। जिस प्रकार चौधरी अफ़ज़ल हक़ ने रिपोर्ट से असहमति की टिप्पणी में ठीक ही कहा है कि स्वतन्त्रता के कार्य में जुटे रहने के कारण कंगाल हो गये राजनीतिक कार्यकर्ताओं का क्या होगा? क्या उन्हें किसी न्यायाधीश की दया पर छोड़ दिया जाये, जो प्रत्येक को साधारण अपराधी कहकर अपनी वफ़ादारी सिद्ध करने की कोशिश करता रहेगा। या यह आशा की जाये कि एक असहयोगी जेल से अच्छे व्यवहार की प्रार्थना करते हुए उन लोगों के आगे हाथ फैलायेगा, जिनके विरुद्ध वह जूझ रहा है? क्या यह ढंग इस बेचैनी के कारण को दूर करने का है या बढ़ाने का? तर्क दिया जा सकता है कि जेलों के बाहर दरिद्रता में जीते लोगों को जेलों में ऐशो-आराम की आशा नहीं रखनी चाहिए जहाँ कि उन्हें सज़ा के उद्देश्य से बन्दी बनाकर रखा गया है। पर वे कौन-से सुधार हैं जिनकी ऐश के लिए आवश्यकता होती है? क्या वे मात्र साधारण जीवन-स्तर की आवश्यकताएँ नहीं हैं? माँगी जाने वाली समस्त सुविधाओं के बावजूद जेल सदा जेल ही रहेगी। बाहर के लोगों को आकर्षित करने के लिए (जेल) कोई चुम्बकीय शक्ति नहीं होती और न ही कभी हो सकती है। केवल जेल आने के लिए कोई भी अपराध नहीं करता। हम यह कहने का साहस रखते हैं कि किसी भी सरकार का यह बहुत घटिया तर्क होगा कि नागरिकों को इस दर्जे तक मोहताजगी हो गयी है, और उनके रहने का स्तर जेल के स्तर की अपेक्षा घटिया हो गया है। क्या ऐसे तर्क में सरकार के अस्तित्व की कोई सम्भावना शेष रह जाती है? ख़ैर, इस समय हमें इन बातों से कोई सरोकार नहीं है। हम कहना चाहते हैं कि बेचैनी को दूर करने का सबसे बेहतर ढंग यह है कि राजनीतिक बन्दियों को भिन्न वर्ग में रखा जाये। बाद में अगर आवश्यकता महसूस हो तो इसको पुनः दो वर्गों – एक, जो अहिंसक अपराधों में सज़ायाफ़्ता हैं और दूसरे, जो हिंसक अपराधों में सज़ायाफ़्ता हैं – में बाँटा जा सकता है। इस स्थिति में मन्तव्य निर्णयात्मक पहलू बन जायेगा। यह कहना कि राजनीतिक मामलों में मन्तव्य का फ़ैसला नहीं किया जा सकता, एक झूठा दावा है। वह कौन-सी चीज़ है जो आज जेल-अधिकारियों से जेलों में ‘राजनीतिकों’ को साधारण सुविधाओं से वंचित करने के लिए कहती है? वह कौन-सी चीज़ है जो उनकी नम्बरदारियाँ छीनती है? वह कौन-सी चीज़ है जो अधिकारियों से यह कहती है कि उन्हें शेष बन्दियों से अलग रखा जाये? यही चीज़ वर्गीकरण में भी मदद कर सकती है।

जहाँ तक विशेष माँगों का सम्बन्ध है, हम पहले ही पंजाब जेल जाँच कमेटी से अपने स्मरण-पत्र में पूरी तरह कह चुके हैं। फिर भी हम इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि किसी भी राजनीतिक बन्दी का चाहे जो अपराध हो, उसे सख़्त और सम्मान-विरोधी मशक्क़त नहीं मिलनी चाहिए। एक जेल में ऐसे सभी बन्दियों को एक ही वार्ड में साथ-साथ रखना चाहिए और स्थानीय भाषा या अंग्रेज़ी का कम से कम एक समाचारपत्र उन्हें दिया जाना चाहिए। अध्ययन के लिए सभी आवश्यक सुविधाएँ दी जानी चाहिए और व्यक्तिगत साधनों से भोजन और कपड़े पर ख़र्च बढ़ाने की इजाज़त दी जानी चाहिए।

हम अभी भी आशान्वित हैं कि सरकार हमें और जनता को दिये गये आश्वासन को अविलम्ब कार्यरूप में लायेगी, ताकि भूख हड़ताल का फिर अवसर न आये। आगामी सात दिनों में यदि सरकार ने अपना आश्वासन पूरा न किया तो हम पुनः भूख हड़ताल करने के लिए बाध्य होंगे।

आपके,

भगतसिंह, दत्त और अन्य क़ैदी

लाहौर षड्यन्त्र केस।

[1] बाबा सोहन सिंह भकना, (1867-1968), ग़दर पार्टी के पहले अध्यक्ष

[2] काबल सिंह गोविन्दपूरी

[3] गोपाल सिंह क़ौमी


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
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