भगतसिंह द्वारा किया गया ‘माई फ़ाइट फ़ॉर आयरिश फ्रीडम’ का हिन्दी अनुवाद

आयरिश स्वतन्त्रता-संग्राम
(आयरलैण्ड के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी डॉन ब्रीन की आत्मकथा माई फ़ाइट फ़ॉर आयरिश फ्रीडम’ का हिन्दी अनुवाद)

अनुवादक – भगतसिंह

प्रथम परिच्छेद

पूर्वेतिहास

उस समय ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में ‘आयरिश-होम रूल-बिल’ पास हो चुका था। उसे क्रियात्मक रूप देने में अंग्रेज़ तो आनाकानी करते ही थे, उत्तर-आयरिश निवासी औरेंज वालों ने भी घोषणा कर दी कि उस बिल का व्यवहार किया गया और डबलिन में आयरिश पार्लियामेण्ट खड़ी कर दी गयी तो वे उसका हर तरह से विरोध करेंगे, यहाँ तक कि शस्त्रों के प्रयोग से भी न झेंपेंगे। अंग्रेज़ टोरी दल की सहायता से उन लोगों ने, इसी उद्देश्य से, अपने स्वेच्छा-सेवकों को पूर्णरूप से संगठित तथा शस्त्रों से सुसज्जित करना भी शुरू कर दिया। उनको देखते ही आयरिश देशभक्तों के हृदय में भी अपना स्वेच्छा-सेवक संघ बनाने की प्रबल इच्छा जागृत हो उठी। उन्होंने इसके लिए देशवासियों से अपील की और आयरिश लोगों ने भी पूरी तत्परता दिखायी।

गत महायुद्ध के छिड़ते समय आयरलैण्ड में तीन सैनिक-संघ विद्यमान थे। एक तो पूर्वोक्त उत्तर निवासी औरेंज वालों का, दूसरा आयरिश देशभक्तों का आयरिश रिपब्लिकन (प्रजातन्त्र) स्वेच्छा-सेवक-संघ और तीसरा ब्रिटिश सेना (British Party of Occupation); आयरिश लोगों का नेतृत्व तथा प्रतिनिधित्व पार्लियामेण्ट के सदस्य जॉन रैडमाण्ड तथा उनके अनुयायियों के हाथ में था। यह कट्टर देशभक्त तो थे परन्तु महायुद्ध के छिड़ते ही उन्होंने अंग्रेज़ों का पक्ष ले लिया। औरेंज वालों ने भी अंग्रेज़ों की पूर्ण रूप से सहायता की और उधर आयरिश स्वेच्छा-सेवक-संघ में मतभेद हो गया। बहुत से लोग जाकर ब्रिटिश सेना में भरती हो गये। उस समय बहुत थोड़े ऐसे बचे जिन्हें कि अंग्रेज़ों के ‘छोटी जातियों के स्वत्वों तथा सन्धिपत्रों की पवित्रता की रक्षा के लिए युद्ध में सम्मिलित होना’ आदि मधुर वाक्य पथभ्रष्ट न कर सके। वे ऐसे वीर थे जिनका एकमात्र आदर्श, अविचल विश्वास और अटल आशा केवल स्वतन्त्रता-प्राप्ति थी।

मैं 1914 में टिप्रेरी नगर से चार मील की दूरी पर स्थित डोनोहिल गाँव के स्वेच्छा-सेवकों में सम्मिलित हुआ था। उन थोड़े लोगों में, जिन्होंने उस समय भी आयरलैण्ड माता का अंचल छोड़ना स्वीकार न किया था, हमारा छोटा-सा दल भी था। सैनिक-फ़ण्ड में सहायता देने तथा भरती के विरोध करने के कारण पुलिस की दया-दृष्टि मुझ पर पड़ी और मुझे भी वह उस समय कहीं-कहीं पाये जाने वाले भयंकर जन्तु, सिनफिनर, समझने लगी। बाद में उन्होंने अपार कृपा कर मुझे ‘हत्यारों के राजा’ की बहुत ऊँची पदवी प्रदान कर दी थी। हम लोग सप्ताह में एक-दो बार जंगल में एकत्रित होकर कवायद तथा रिवाल्वर चलाने आदि का अभ्यास करते और अवसर पाते ही जहाँ कहीं से बन पड़ता रिवाल्वर उड़ाने में भी न चूकते थे।

1916 के ईस्टर विद्रोह की निष्फलता का हमारे कार्यक्रम पर बहुत प्रभाव पड़ा। देशभर का संगठन छिन्न-भिन्न हो गया और सरकार ने उसे ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया। परन्तु जो लोग उस समय पुलिस की क्रूर दृष्टि से बच निकले, उन्होंने शीघ्र ही डबलिन में दो गुप्त समितियाँ स्थापित कर लीं और संगठन कार्य प्रारम्भ कर दिया। हमें भी अपना कार्य गुप्त रूप से ही करना पड़ा। हमारी संख्या भी बहुत कम हो गयी। एक बार तो यहाँ तक नौबत आयी कि केवल हम तीन ही व्यक्ति शेष रह गये। तो भी मैं और मेरे सहकारी श्री सीनट्रीसी (Sean Treasy) बड़ी तत्परता से कार्य करते रहे। धीरे-धीरे हमारी संख्या तेरह तक पहुँच गयी। वे सभी बड़े दृढ़-प्रतिज्ञ, अदम्य साहसी तथा निर्भीक देशभक्त थे। हम चुपचाप उनका शिक्षण करते रहे। उनको ड्रिल तथा रिवाल्वर आदि का अभ्यास कराया जाता। साधारणतया हम अंग्रेज़ सैनिकों की पुस्तकों के आधार पर ही सब अभ्यास किया करते, कभी-कभी एकदम भोले दर्शक बनकर अंग्रेज़ सैनिकों का ड्रिल और परेड आदि देखा करते और बड़ी भूलें कर जाते। परन्तु हमारी तत्परता उन सब असुविधाओं पर विजय पाती। 1917 तक इसी तरह कार्य चलता गया। सन् 1917 के अगस्त में फिर हमने खुल्लमखुल्ला परेड कर दी। श्री एमन डी. वैलरा (Emon de Valera) का जोकि अभी-अभी लुईस जेल से छूट कर आये थे, टिप्रेरी नगर की एक सार्वजनिक सभा में भाषण हुआ। उस समय हम यूनीफार्म (वर्दी) पहनकर, रायफ़लों के स्थान पर लाठियाँ उठाकर उनके शरीर-रक्षक बने थे। हमारे साहस को देखकर शत्रु शायद इतने चकित न होंगे जितने कि हमारे मित्र। जनसाधारण की दृष्टि में उस दिन हमने तीन प्रकार से सरकारी आज्ञाओं का उल्लंघन किया। पहले तो वर्दी पहनना मना था। दूसरे मार्चिंग करते हुए चलना भी बन्द किया जा चुका था और अभी कुछ दिन पहले लोगों का लाठी उठाना भी निषेध कर दिया गया था। इसलिए उस दिन नियमानुसार समिति की सभा न बुलाकर, एक लम्बा-चौड़ा प्रस्ताव पास किये बिना ही, जो हमने ऐसा कर दिया था, यह मित्र-मण्डली के लिए असह्य हो उठा। सिनफिन लोगों के सार्वजनिक विभाग ने हमें जी भरकर कोसा, परन्तु चुपचाप सब सहन करते रहे और अपने कार्य में जुटे रहे।

उधर शत्रुओं ने भी कोई कसर उठा न रखी। मेरे तथा श्री ट्रीसी के वारण्ट निकाले गये। पर हमें सम्राट का आतिथ्य एकदम अस्वीकार था, अतः हम इधर-उधर मित्रों के घरों में दिन बिताने लगे। यदि उस समय के जेलों को विद्रोह-विश्वविद्यालय (University of the Rebels) कहें तो अनुचित न होगा। बहुत-से लोग वहीं से ड्रिल तथा बम बनाने की शिक्षा पाकर आते थे। श्री ट्रीसी को उस समय दो वर्ष कारागार मिला, जिसमें से बाद में सोलह महीने घटा दिये गये थे। उन दिनों कोर्ट में भी ख़ूब दिल्लगी रहती। अभियुक्त गवाहियों के समय या तो समाचारपत्र पढ़ने में इस तरह जुट जाते मानो किसी क्लब में बैठे हैं, अथवा मधुर संगीत अलापते हुए उसे संगीत विद्यालय बना देते। जेल में क़ैदियों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार के कारण श्री ट्रीसी तथा अन्य राजनीतिक क़ैदियों ने अनशन शुरू कर दिया। परन्तु सरकार के दिल पर तब तक कोई प्रभाव न हुआ, जब तक कि एक क़ैदी कमाण्डेण्ट टाम आशि, बलपूर्वक भोजन खिलाने के प्रयत्न में परलोक न सिधार गये, और समस्त देश में क्रोध की आग न भड़क उठी। इस तरह के बलिदानों से जब लोगों में बहुत उत्तेजना फैली तब कहीं सरकार समझौते पर राजी हुई और तभी हमारे राजनीतिक क़ैदियों को सांग्रामिक बन्दी (War Prisoners) माना गया। आदत से मजबूर ब्रिटिश सरकार ने सन्धि की शर्तें फिर तोड़ डालीं और श्री ट्रीसी को फिर अनशन शुरू करना पड़ा। परन्तु बाद में वे शीघ्र ही छोड़ दिये गये।

इधर परिस्थिति अनुकूल होने के कारण हमारा सैनिक संगठन 1916 से भी अधिक सुदृढ़ तथा सुविस्तृत हो गया। श्री सीन ट्रीसी ने आते ही इस बात पर ज़ोर देना शुरू किया कि अब हमें सब कार्य खुल्लम-खुल्ला करना चाहिए। यह ध्यान में रखना चाहिए कि शस्त्रों आदि के रखने का बहुत प्रबल निषेध किया गया था, अतः हमें गुप्त उपायों से ही शस्त्र-संग्रह करना पड़ता था। बल्कि ड्रिल तथा संगठन-कार्य भी गुप्त ही रूप से करना पड़ता था, परन्तु ट्रीसी महोदय के आग्रह से जब हमारा काम खुल्लम-खुल्ला शुरू हुआ, तो वे बेचारे फिर पकड़े गये। यह 1918 की बात है। महायुद्ध में अंग्रेज़ मुँह की खा रहे थे। जर्मनों का सबसे बड़ा आक्रमण तथा अंग्रेज़ों की सबसे बड़ी पराजय उसी समय हुई थी। उस समय अंग्रेज़ों ने आयरलैण्ड में ज़बरदस्ती सेना भरती करने की बात पर ज़ोर दिया। उनकी चिल्ल-पौं सुनकर और तैयारियाँ देखकर समस्त देश में हो-हल्ला मच गया। स्वेच्छा-सेवक-संघ के सदस्यों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। हमारे पास कमी केवल शस्त्रों की थी। उसके लिए हमारे कार्यकर्ताओं ने उन लोगों की सूची तैयार कर ली जिनके पास शस्त्र रहते थे। हम रात्रि में उन लोगों के घरों में चले जाते, और वे चुपचाप अपने शस्त्र हमारे सुपुर्द कर देते। कुछ एक ने तो हमें निमन्त्रण देकर बुला भेजा। हमें इस कार्य में किसी भी विशेष रुकावट व बाधा का सामना नहीं करना पड़ा। पीछे अंग्रेज़ों ने सभी लोगों से शस्त्र लौटाने शुरू कर दिये, परन्तु हमने बड़ी तत्परता से अपना कार्य जारी रखा।

ज़बरदस्ती की जाने वाली भरती के विरोध में हम युद्ध की तैयारियाँ करने लगे। उधर स्त्रियों तथा बालकों के भी संघ स्थापित हो गये, जो हर समय हमें सहायता देने को तैयार रहते थे। हमने नक़ली लड़ाइयाँ लड़नी भी शुरू कर दीं। हमने कई बार टिप्रेरी नगर पर आक्रमण करने तथा उसकी रक्षा करने का अभिनय किया और फिर कई सड़कों तथा बाज़ारों को फ़ौजी क्षेत्र (Military Area) घोषित कर दिया, जहाँ पर कि अंग्रेज़ों के जाने का भी निषेध कर दिया जाता था। ऐसे अवसरों पर हम रायफ़लें आदि नहीं ले जाते थे क्योंकि उनके छिन जाने की आशंका थी। परन्तु मेरे जैसे कई व्यक्ति विशेष कारणों से अपना रिवाल्वर हर समय अपने पास रखते थे। सरकार को अपनी बात पर व्यवहार करने का साहस ही न हुआ और धीरे-धीरे उसका यह विचार ढीला होने लगा। उसके इस विचार के ढीला होते ही हमारा संगठन भी ढीला होने लगा। वे लोग, जो युद्ध क्षेत्र की भीषणता तथा मोर्चों की भयंकरता से त्रस्त हो उठे थे, और वहाँ से बचने मात्र के विचार से ही हमारे संघ में आ मिले थे, अब हमें छोड़कर चलते बने। पीछे थोड़े ही व्यक्ति बच रहे परन्तु वे बड़े दृढ़ थे।

उधर बेचारे सीन ट्रीसी डण्डल्क जेल में अनशन का मज़ा लूट रहे थे। पर हमारी दयालु सरकार को उनकी किंचित मात्र भी चिन्ता न हुई। हम समझ गये कि सरकार उन्हें भूखों मरने देना चाहती है। हमें शीघ्र ही कुछ न कुछ करने की आवश्यकता महसूस हुई। मुझे बड़ी दूर की सूझी। क्यों न एक सिपाही को धर पकड़ें और उसे अनशन व्रत का मज़ा उठाने को विवश करें? सभी साथियों ने मेरे दिमाग़ की ख़ूब दाद दी और इसे क्रियात्मक रूप देने की चिन्ता करने लगे परन्तु आयरिश प्रजातन्त्र भ्रातृमण्डल (Irish Republican Brotherhood) के लोगों ने हमारी योजना को सफल न होने दिया। हमने भी उनसे अपना सम्बन्ध तोड़ लिया। जुलाई 1918 में ट्रीसी छूट आये। प्रजा तथा संगठन के सम्बन्ध में इस बार वे बड़ी-बड़ी योजनाएँ सोचकर आये। परन्तु मुझे प्रचार तथा संगठन का पूरा अनुभव हो चुका था। मैं इन शुष्क कार्यों में सिर फोड़ने की बजाय युद्ध छेड़ने की चिन्ता में था। मैंने अपना यह मन्तव्य उसके सामने रखा। पर उन्होंने ज़िद की और इस कारण हम अपने ही मतानुसार अलग कार्य करने लगे।

दूसरा परिच्छेद

विद्रोह-भवन (कुटी)

श्री सीन ट्रीसी अपने संगठन कार्य में जुट गये और मैंने श्री पैट्रिकक्योह के साथ बम फ़ैक्टरी बना ली। हम दोनों में आवश्यक तथा अनावश्यक बातों पर खींचातानी हो जाती और श्री ट्रीसी आकर हमारी सुलह करवाया करते थे। फ़ैक्टरी शब्द बहुत बड़ा है। ‘बम फ़ैक्टरी’ सुनते ही पाठक क्रुप (Krupp) आदि किसी भारी कारख़ाने की कल्पना न करने लगें। वह एक साधारण ग्रामीण कुटिया थी। हमारा सामान भी मामूली ही था। साधारण गन पाउडर (बारूद) बनाना तो आसान काम है ही, हम बम भी ऐसे सादा-से ही बना लेते थे, जिन्हें फेंकने से पहले पलीता लगाने की आवश्यकता हुआ करती। हमें जहाँ से भी जिस किसी तरह के कारतूस मिल जाते; ले लेते और फिर उन्हें स्वेच्छानुसार भर लेते। मेरा और पैट्रिक का झगड़ा इस बात पर भी हो जाता कि उसमें सिक्के की चार अथवा आठ गोलियाँ डाली जायें। शस्त्र-संग्रह का हमारा कार्य भी उसी तरह जारी रहा। शत्रु से मेरी पहले मुठभेड़ तभी हुई, जब एक रात को हम अपने शस्त्र-संग्रह सम्बन्धी एक छापे से लौट रहे थे। हम लोग टिप्रेरी से घर जा रहे थे कि मेरी साइकिल की हवा निकल गयी। मैं अपने साथियों को आगे चलने को कह स्वयं उसे पम्प से भरने लगा। सामने ही पुलिस की बैरक थी। जब मैं उठा तो मैंने अनुभव किया कि कोई व्यक्ति मुझे पकड़कर खींच रहा है। मुड़ा तो एक पुलिसमैन को खड़ा पाया। मेरे हाथ में ताला तोड़ने की एक सलाख थी। उसकी शक्ति की आज़माइश उस दिन उसी के सिर पर की। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा और फिर मैंने अपना रिवाल्वर सँभालकर शेष सिपाहियों के सामने तान दिया और बोल उठा – “हाथ उठा लो, वरना अभी ठिकाने लगाता हूँ।” (हाथ उठा दो के मायने अधीनता स्वीकार करना होता था) स्वाभाविक निर्भीकता के कारण वे लोग वहीं खड़े रह गये और मैं लौटकर दूसरे रास्ते से फ़ैक्टरी में जा पहुँचा।

एक दिन मैं कुएँ पर पानी खींच रहा था, कि एकाएक धमाके का शब्द सुनायी दिया। देखा तो हमारी फ़ैक्टरी (कारख़ाना) की छत आकाश में उड़ी जा रही थी और कुटिया में आग लग रही थी। मैं घबराया कि बेचारे क्योह का क्या हुआ होगा,और उन्हें बेसुध पड़ा पाया। उन्हें उठाकर निकटवर्ती नदी के तट पर ले गया और डोल से उनके मुँह पर पानी डालने लगा। थोड़ी ही देर बाद उन्हें सामने खड़ा पाया, “बेवकूफ़, गधे, नालायक, क्या तुम मुझे इस तरह डुबो डालोगे?” आदि-आदि न जाने क्या-क्या मधुर वाक्य उच्चारण करते हुए वे मुझ पर घूँसा तानने लगे। तब फ़ैक्टरी की चिन्ता न कर हम ख़ूब हँसे। पर यह हम पर एक वज्रपात ही हुआ था। कई दिन बाद तक बड़ी चिन्ता रही। हम दोनों एकदम दरिद्र हो गये थे। हमारे पास एक भी पैसा न था। घर वाले का घर तैयार करा देने की अलग चिन्ता थी। सभी साथियों ने मिलकर उसकी छत बना डाली और फिर तो वह कुटिया बड़ी अच्छी दिखने लगी। कुछ देर बाद पुलिस ने भी इस बेचारी कुटिया पर मनमाना अत्याचार कर हमारा बदला निकालने की चेष्टा की थी। कुछ दिनों बाद हमने घर बदल लिया। दूसरे घर में हमारी दशा पहले से भी बड़ी शोचनीय रही। हमें दो कम्बल भी माँगकर उधार लेने पड़े और नीचे के लिए घास ही काफ़ी समझी गयी। कई कई दिन तक अल्पाहार का अभ्यास भी करना पड़ा। साधारणतया उबले हुए चावलों पर ही गुज़ारा करना पड़ता। सबसे बड़ी मुश्किल तो चूहों के कारण थी। वे कम्बख़्त आफ़त के परकाले थे। कभी-कभी रात को आँख खुलती तो क्या देखते कि सिर के बालों में चूहा फँसा हुआ है। जब कभी मैं उन्हें भगाने पर उतारू होता, तो झट ‘विश्व प्रेमी’ ट्रीसी महोदय अत्यन्त गम्भीरता से उपदेश झाड़ने लगते, “देखो भाई, तुम्हें तो सुख मिलेगा नहीं, इन्हें तो मन की मौज़ करने दो। ज़रा कष्ट भी हो तो शान्ति से सहन करो।” हमें भी कहना पड़ता, “अरे भाई! सिपाहियों ने ही नाकों दम कर रखा है। यदि ये भले हों जो हमें अपने हाल पर छोड़ दें।” इसी तरह दिन कट रहे थे।

बाद में क्योह महाशय भी चले गये। उनके स्थान पर एक तरुण श्री सीन हागन आ गये। फिर उनका और मेरा बहुत घनिष्ट सम्बन्ध रहा। उपरोक्त दोनों सीन और मैं, एक दूसरे को इतना प्यार करते थे कि विभिन्न शरीरों के रहने पर भी हम में एक ही आत्मा का अस्तित्व मान लिया जाता जो अनुचित न होता। बाद में श्री राबिन्सन भी आ मिले। वे भी हम तीनों के साथ घुल-मिलकर एक हो गये। हमारी आशाएँ, हमारा आदर्श, हमारे जीवनों का उद्देश्य वही एकमात्र आयरिश स्वतन्त्रता की प्राप्ति थी। हम केवल आयरलैण्ड के लिए जीते थे। हम बैठे-बैठे घण्टों भावी स्वातन्त्र्य युद्ध की कल्पनाएँ किया करते थे। भावी महान स्वतन्त्र आयरलैण्ड की बातें सोच-सोचकर हमें कितना आनन्द होता, हम उसकी कल्पना मात्र से पुलकित हो उठते थे।

कुछ दिनों बाद हमें उपरोक्त घर ख़ाली कर देने का नोटिस दे दिया गया। क्या करते; साधारण किरायेदारों के अधिकार भी तो हमें प्राप्त न थे। चुपचाप घर छोड़ देना पड़ा। हम लोग श्री हागन के एक बन्धु के फार्म में जा टिके पुलिस की नज़र से हम यहाँ भी न बच पाये। उन्होंने उसे कलई खाना का नाम दे दिया था। हमारी आर्थिक दशा बड़ी शोचनीय थी। वैयक्तिक आवश्यकताएँ तो हम जैसे बन पड़ती, पूरी कर ही लेते परन्तु बाहर आने-जाने में बड़ी असुविधा होती। एक बार मुझे और श्री ट्रीसी को डबलिन तक (110 मील) बाइसिकलों पर ही जाना पड़ा। हमारे पास भाड़ा नहीं था। रविवार सायंकाल के 6 बजे अपनी एक सभा में बुलाये गये थे और सोमवार को प्रातः 8 बजे हमें डबलिन पहुँचना ज़रूरी था। तो भी हम डबलिन ठीक समय पर पहुँच गये। आगामी शनिवार तक हमें वहीं ठहरना पड़ा। उधर शनिवार को सायंकाल अध्यक्ष समिति की एक बैठक उसी दिन होने वाली थी, वहाँ पर भी हमारा पहुँचना बहुत ज़रूरी था। अतः 6 रिवाल्वर, 500 कारतूस और एक दर्जन बम लेकर हम दोनों वहाँ से चल दिये और ठीक समय पर टिप्रेरी आ पहुँचे।

महायुद्ध का अन्त हो गया था। शस्त्र छोड़ दिये जा चुके थे। एक सप्ताह बाद घोषणा कर दी गयी कि आयरलैण्ड का चिर-स्थगित चुनाव दिसम्बर में होगा। वहाँ युद्ध के दिनों में यह चुनाव न हुआ था। इस अन्तर में लोगों के भाव बहुत बदल गये थे। उनका इंग्लैण्ड तथा पार्लियामेण्ट पर कोई विश्वास न रहा था। वे जानते थे कि आयरलैण्ड के अल्पसंख्यक सदस्यों की वहाँ के नक़्क़ारख़ाने में कोई नहीं सुनता। वे अपने सदस्यों को वहाँ भेजना व्यर्थ समझते थे। ख़ैर! अब के चुनाव के लिए सिनफिनर उम्मीदवार खड़े किये गये ताकि वे पार्लियामेण्ट का बहिष्कार कर दें। कुछ महीने ख़ूब ज़ोर रहा। हम लोग भी अपना कार्य छोड़कर सिनफिनर उम्मीदवारों की सफलता के लिए प्रयत्न करने लगे। बड़े-बड़े वक्ताओं ने देशभर में जीवन संचारित कर दिया। देश में ख़ूब जागृति थी, बड़ा जोश था। 105 में से 73 सिनफिनर उम्मीदवार सफल हुए, जिन्होंने ब्रिटिश पार्लियामेण्ट तक न जाकर डबलिन में प्रजातान्त्रिक देश पार्लियामेण्ट स्थापित कर ली। उस पार्लियामेण्ट की पहली बैठक 21 जनवरी, 1919 को हुई। उस दिन उन्होंने स्वतन्त्रता की घोषणा की तथा अन्य स्वतन्त्र जातियों के नाम मैत्री के सन्देश भेजे। ठीक उसी दिन हमारे छोटे से दल ने एक बड़ा भारी कार्य कर दिया। वह ‘सोलोहैडबेग घटना’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसका ब्यौरा अगले परिच्छेद में दिया जायेगा। बात यह थी कि उपरोक्त चुनाव के कारण हमारा कार्य बहुत ढीला पड़ गया था। बहुत-से कार्यकर्ता अब योद्धा अथवा सैनिक न रहकर राजनीतिज्ञ बन गये। दिनोंदिन अपने सैनिकों को ढीला होता देखकर, हमने उन्हें ज़ोर-शोर से कार्य में जुटा देने का निश्चय किया। कई बार मैंने इस बारे में श्री ट्रीसी से परामर्श भी किया। आख़िर वह अवसर भी मिल ही गया, जिस दिन कि हमने अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ कर दिया।

तीसरा परिच्छेद

विस्फोटक की लूटआज़ादी की जंग का श्रीगणेश

जनवरी, 1919 के आरम्भ में हमें पता चला कि सोलोहैडबेग की ख़ान की तरफ़ सरकारी विस्फोटक पदार्थ भेजे जायेंगे। मैंने तुरन्त ट्रीसी से जाकर कहा कि अब चिर-प्रतीक्षित स्वातन्त्र्य-युद्ध को प्रगतिशील करने का समय आ पहुँचा है, और यह बड़ा सुन्दर अवसर है जिसका सदुपयोग करने में हमें चूकना न चाहिए। मैं तब यह भूला न था कि हमारे सैनिकों की संख्या बहुत ही कम थी और हमें महान शक्तिशाली शत्रु से सामना करना था। परन्तु यह भी विश्वास था कि युद्ध छिड़ते ही हमारी संख्या बढ़ने लगेगी और कार्य होते देख युवक हमारे आसपास आ एकत्र होंगे। गनीमी युद्ध (Guerilla Warfare) में संख्या के बजाय दृढ़ता तथा गुणों का आधिक्य आवश्यक तथा लाभकारी होता है। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। सबने मिलकर यही निश्चय किया कि उस दिन पहरेदार सिपाहियों को निशस्त्र कर विस्फोटक पदार्थ छीन लिए जायें। घात का स्थान भी निश्चित कर लिया गया। सोलोहैडबेग, टिप्रेरी नगर से लगभग 2) मील की दूरी पर है। लिम्मर्क जंक्शन वहाँ से एक मील के लगभग होगा। उसे चारों ओर से कुटिया, बाड़े आदि घेरे हुए थे, परन्तु डोबोहिल के अतिरिक्त और कोई गाँव निकट नहीं था, और वह भी 1) मील की दूरी पर था। ख़ान की ओर जाने वाली सड़क के दोनों ओर खाइयाँ थीं और उनमें झाड़ियाँ उग रही थीं। दुर्भाग्यवश हमें निश्चित तिथि का पता न लग सका। हम समझते थे कि विस्फोटक की गाड़ी 16 जनवरी को आयेगी परन्तु वह 21 जनवरी तक न आ पाई। हम पाँचों दिन बिल्कुल तैयार घात के स्थान पर बैठे रहते और दो-दो बजे तक प्रतीक्षा करके उठ जाते। तीन दिनों के बाद आठ के अतिरिक्त सभी साथियों को घर लौटा दिया। बाक़ी हम 9 व्यक्ति बड़ी सतर्कता से प्रातः ही अपने स्थानों पर जा बैठते। उन दिनों पुलिस बहुत सशंक रहती थी। अतः हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता कि हमारी कार्यवाही से किसी को किंचित मात्र भी सन्देह न होने पाये, वरना सब खेल बिगड़ जायेगा। सभी मित्र मेरे घर में ठहरते और प्रातः 4 बजे मेरी माँ सबके लिए भोजन पकाती। 5 बजे उन्होंने एकाएक घोषणा कर दी कि “अगर आज तुम काम पर नहीं जाओगे तो कल के भोजन का भी स्वयं ही कहीं प्रबन्ध कर लेना।”

आख़िर 21 जनवरी 1919 का सुदिन आ पहुँचा। उसी दिन हमारे देश ने प्रजातन्त्र शासन की स्थापना कर स्वतन्त्रता की घोषणा की थी। उसी दिन स्वतन्त्र जातियों के नाम मैत्री का सन्देश भेजा था। इसी दिन आयरिश प्रजातन्त्र पार्लियामेण्ट का प्रथम सम्मेलन हुआ था। हम आज भी नित्य की तरह अपनी जगह पर जाकर बैठ गये। प्रतीक्षा के शान्तिदायक कितने ही घण्टे न जाने क्या-क्या सोचते हुए बिता चुके थे। उस दिन डबलिन में होने वाली उपरोक्त महान घटना पर बातचीत करते हुए कितना आनन्द अनुभव कर रहे थे। यह सोचकर कि आज की घटना से समस्त संसार के सामने आयरलैण्ड भी उन्नत-शिर होकर खड़ा हो पायेगा, हम पुलकित हो उठे। ठीक उसी समय निरन्तर टिप्रेरी की ओर ताक़ता रहने वाला हमारा जासूस आ धमका। उसके नेत्रों से सांग्रामिक तत्परता तथा असीम आनन्द की ज्योति निकल रही थी। उसने शीघ्रता से परन्तु दृढ़ता के साथ कह दिया, “वे आ रहे हैं! वे आ रहे हैं!!” एकाएक हम सभी चौंक पड़े। हम सभी अपना-अपना स्थान तथा कर्त्तव्य जानते थे। हर एक अपनी-अपनी जगह पर जा डटा। गुप्तचर ने लौटकर उनकी संख्या तथा अन्तर भी बता दिया। अब उस नीरव स्थान में घोड़े की टाप तथा गाड़ी की गड़गड़ाहट भी सुनायी देने लगी! उस दिन मैं किसी तरह धैर्य न रख सका। उस समय मेरी नसें तनी जा रही थीं। सफलता और असफलता दोनों का भीषण परिणाम उस समय मेरी आँखों के सामने दीख रहा था। हमें उन चिर अभ्यस्त सिपाहियों का सामना करना था जोकि युद्ध विद्या में पूर्ण रूप से निपुण थे। और हम? हमारे छोटे से दल में से कितनों ने गोली चलाने का अभ्यास किया था? अभ्यास मात्र के लिए गोली चलाने की फ़िज़ूलख़र्ची करने का तो हम कभी साहस भी नहीं कर पाये थे। गोलियाँ मिलती ही कहाँ थीं? हम कितनी बार अभ्यास की इस आवश्यकता पर वादविवाद करते हुए ऐसे अवसर पर अवश्यम्भावी अधीरता की ओर संकेत कर हँस देते थे! परन्तु अब तो समय आ ही पहुँचा। अभी-अभी कुछेक क्षण बाद हमारी परीक्षा हो जायेगी। वे सामने आ पहुँचे। ड्राइवर तथा इंचार्ज घोड़े के ज़रा पीछे-पीछे चल रहे थे और केवल दो सिपाही रायफ़लें लिए गाड़ी के पीछे-पीछे चले जा रहे थे। यह लो, वे हमारे रिवाल्वरों की ज़द (पहुँच या मार) में आ गये। अब तो हमें उठना ही चाहिए! Hands up! Hands up!! (हाथ उठा दो! हाथ उठा दो!!) कहते हुए हमारे साथी अपने-अपने स्थान पर से कूद पड़े। परन्तु हमारे आदेश का सिपाहियों पर कुछ भी प्रभाव न हुआ। वे लिहाज़ करने वाले नहीं हैं। बस! एक ही क्षण में ‘बैक! बैक!!’ का स्वर करती हुई हमारी गोलियाँ अपने ठिकाने पर जा रहीं। दोनों सिपाही ज़मीन पर लोट गये! परन्तु अब?

घबराहट का समय तो अब आया। यदि बिना गोली चलाये ही सब कार्य हो गया होता, तो इतनी ख़तरनाक बात न होती। परन्तु अब तो प्रत्येक घर और बाड़े से स्त्री और पुरुष सड़क पर निकल आयेंगे और ड्राइवर तथा इंचार्ज महाशय भी सामने ही त्रस्त हुए खड़े थे। अभी एक घण्टे के अन्दर यहाँ सैकड़ों सिपाही आ इकट्ठा होंगे और हमें कुछ ही दिनों में लुटेरा डाकू घोषित कर हमारे सिर बड़ा भारी ईनाम रख दिया जायेगा। ख़ैर! पुलिस वालों की रायफ़लें उठाकर गाड़ी पर चढ़ बैठे! हागन महोदय कोचवान बने। मैं और ट्रीसी पीछे बैठ गये। कोड़े पर कोड़ा बरसाते हुए घोड़े को दौड़ाते जा रहे थे। लोग बड़े आश्चर्य से हमारी ओर देखते थे। हम डनसकेह की ओर जा रहे थे। बहुत देर तक हम चुपचाप बैठे रहे। फिर ट्रीसी महोदय बोले, “डेन, याद है। उस दिन विस्फोटक सम्बन्धी पुस्तक पढ़ रहे थे न, कि विस्फोटकों को झटका नहीं लगना चिाहए, नहीं तो बहुत बड़ी हानि हो सकती है?” वे बड़ी शान्ति के साथ बोले थे। परन्तु बोले गिरा दिया। और किसी के विस्फोटकों को क्या, मानो एक विपत्ति का पहाड़ और जा भी रहे थे बड़ी तेज़ी के साथ। इसलिए विस्फोटकों के झटके की तो बात ही क्या कहते? हमने स्थान पर लूट का माल छिपा दिया और घोड़े को दूसरी ओर ले जाकर एलीने ब्रिज पर छोड़ दिया और थोड़ा-सा विस्फोटक पदार्थ वहाँ पर रख दिया। यह सब तो हो गया, परन्तु अब प्रश्न यह था कि हम कहाँ जायें?

टिप्रेरी में अब हमारे लिए जगह न थी। ऋतु अनुकूल न थी। कई दिन की प्रतीक्षा तथा आज के परिश्रम से हम थक भी चुके थे। परन्तु अब तो बहुत दिनों के लिए सुख आराम बदा ही न था। आख़िर दक्षिण की ओर चल दिये। आगे गालूटी पहाड़ सीधा दीवार की तरह खड़ा था। हमारे जैसे सभी अभागे इन पर्वतों में आश्रय पाते थे। उन्हीं लोगों की सहायता को पाने की ही हमें पूर्ण आशा थी। इसी आशा में हम इन पर्वतों की घाटियों में बहुत दूर तक निकल गये।

घोड़ा छोड़ने की जगह से चार मील की दूरी पर श्रीमती फिज़ जर्ल्ड (Fizgerld) के घर हमने भोजन किया और आगे चल दिये शीत को तो मानो हमसे प्रेम हो गया था। ऐसा जान पड़ता था कि ठण्डी हवा हमारे शरीर के अन्दर घुस जाने के लिए लालायित हो उठी है। हमें उस समय दो जीव और मिले, जो बिल्कुल सिकुड़े खड़े थे। फिर हम न जाने किधर चलते चले गये। किसी घर अथवा बाड़े में जाकर मार्ग पूछने का तो हमें साहस ही न होता था। उस समय लोग बड़े मुँहफट थे। वे अभी गम्भीरता और मौन का महत्त्व समझ न पाये थे। चलते-चलते श्री ट्रीसी 20 फुट गहरी खाई में गिर गये। हमें बहुत चिन्ता हुई। पर निकाला तो देखा कि भले-चंगे सामने खड़े मुस्कुरा रहे हैं। आप बड़े हँसमुख व्यक्ति थे। हमें भी सदा हँसाते ही रहते थे। हम पहाड़ी पर चढ़ते ही चले गये। परन्तु यकायक क्या देखते हैं कि मार्ग ख़त्म हो गया। आगे किसी ओर भी जाने का रास्ता नहीं। उस समय क्लान्ति और शीत के मारे हम बिल्कुल संज्ञाहीन हो गये थे। निराश होकर लौटना पड़ा। उस समय हागन महाशय बोल उठे, “ठीक है, घरों में अंगीठी के पास आराम से बैठे हुए कम्बख़्त कवि लोग पर्वतों के सौन्दर्य की प्रशंसा में इतनी बड़ी कविताएँ लिख डालते हैं। वे कभी हमारी तरह हमारी अवस्था में इस शीत में इस तरह पत्थरों में ठोकर खायें। फिर देखें कि कैसे पर्वतों तथा प्रकृति के सौन्दर्य की उपासना करते हैं।”

लौट आने पर काहिट जाने का निश्चय हुआ। रेलवे लाइन के साथ-साथ चले। पक्की सड़क पर बड़ी रोशनी वाली मोटरगाड़ियों में सिपाही हमारी तलाश में फिर रहे थे। घोर अन्धकार था। हमने एक मूर्ति देखी। मैंने तुरन्त पिस्तौल तानकर वही सैनिक आज्ञा (Hands up) (हाथ उठा दो) दे डाली। मूर्ति वहीं खड़ी हो गयी। मैं अपना रिवाल्वर ताने उसके पास गया, तो अपने को रेल के एक बोर्ड के सामने खड़ा पाया, जिस पर लिखा था, कि गुज़रने वाला गिरफ्तार किया जायेगा। हमारी दशा इतनी चिन्ताजनक, विपत्तिपूर्ण तथा शोचनीय थी, पर फिर भी हम तीनों खिलखिलाकर हँस पड़े। श्री ट्रीसी से बार-बार काहिट का अन्तर पूछते और ‘बस सड़क के अगले मोड़ पर ही’ (जोकि क़रीब दो तीन मील पर आता) हर बार यही उत्तर सुनते। आख़िर हम काहिट आ ही पहुँचे। श्रीमती टोकि के घर गये। वहाँ बिस्तर मिल गया। उत्तेजना, क्लान्ति, अवसाद और ठण्ड ने हमारे लिए सोना असम्भव कर दिया। परन्तु लेटे रहने से श्रान्त अंगों को कुछ विश्राम मिल गया। अब समाचारपत्र पढ़ने की प्रबल इच्छा हो उठी। हमारी भविष्यवाणी के अनुसार बड़े-बड़े भयंकर शीर्षकों से संवाद प्रकाशित किया गया। उदाहरणार्थ ‘टिप्रेरी उपद्रव’, ‘भीषण हत्याकाण्ड’, ‘भयंकर अपराध’ आदि आदि। हागन के छोटे भाई और एक बालक जिसकी आयु बारह वर्ष की थी, पकड़े गये, परन्तु शीघ्र ही छोड़ दिये गये। इस देश में और भी अशान्ति मच गयी। दक्षिण टिप्रेरी में मार्शल ला (फ़ौजी क़ानून) जारी कर दिया गया। ताजीदी पुलिस की चौकियाँ गाँव-गाँव में बिठा दी गईं। हमारे लिए ईनाम रख दिया गया जो पहले एक हज़ार पौण्ड था और बाद में दस हज़ार कर दिया गया। हमारे छोटे से दल की उद्दण्डता के कारण अंग्रेज़ों को नग्न मुख होकर संसार को दिखा देना पड़ा कि आयरलैण्ड का उनका अधिकार केवल सैनिक बल पर निर्भर था। इस ज़बरदस्ती और बल प्रयोग के अतिरिक्त उनके पास और कोई युक्ति न थी। 1916 के ईस्टर विद्रोह के बाद पहली गोली चलने की घटना का यही अत्युक्तिरहित सच्चा विवरण है। इसी से आयरलैण्ड का स्वातन्त्र्य-संग्राम प्रारम्भ हुआ।

चौथा परिच्छेद

अंग्रेज़ों के देश निकाले का हुक्म

श्रीमती टरविन के घर दो दिन ठहरने के बाद हम आगे चल दिये और विभिन्न मित्रों के घरों में विश्राम करते रहे। एक बार कलिड निवासी श्री रीयन (Ryan) के घर जाने का निश्चय किया। उन्हें कहला भी भेजा, परन्तु जा नहीं सके। यह अच्छा ही हुआ क्योंकि ठीक उसी समय जबकि हमें वहाँ पहुँचना था, पुलिस ने उनका घर घेर लिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। बालघ के श्री ओब्रीन के घर एक दिन ठहरे। हम छत पर सो रहे थे। घर में अपरिचित लोगों का शब्द सुनकर उठ बैठे। देखा, पुलिस वाले घर में घुस आये हैं। युद्ध के लिए तैयार होकर बैठ गये और उनकी प्रतीक्षा करने लगे। परन्तु वे यों ही लौट गये। पता चला कि कुत्तों का टैक्स लेने आये थे। अन्त में हम गल्टी के दूसरी ओर मिकेल्स टाउन में जा पहुँचे। हमें घर छोड़े बहुत दिन हो गये थे। परन्तु अभी तक सोलोहैडबेग से दस मील से अधिक दूर नहीं जा पाये थे। पुलिस वालों ने हमारी तलाश में रात दिन एक कर रखा था। सार्वजनिक नेताओं, पादरियों तथा संवाद पत्रों ने हमारी निन्दा करने में कोई कसर उठा न रखी। प्रार्थनाओं के समय गिरजों में हमें अभिशाप दिये जाते। परन्तु हम जानते थे कि 98 के विद्रोही वीरों, 67 के वीर फिनीयन्स तथा 1916 के ईस्टर के विद्रोह के सैनिकों के साथ भी उस समय ऐसा ही बर्ताव हुआ था और बाद में लोगों ने उनके पक्ष का ही समर्थन किया था। इसलिए बाद में लोग हमारी भी प्रशंसा करेंगे।

हमारे साथ बीत ख़ूब रही थी। एक दिन एक ज़मींदार के बाड़े में उसके साथ बैठे आग सेंक रहे थे। रात्रि का समय था। एकाएक किसी ने ज़ोर से द्वार खटखटाना शुरू कर दिया। ज़मींदार ने बैठे-बैठे ही पूछा, ‘कौन है?’ उत्तर मिला, ‘पुलिस!’ बस! एकदम अपने रिवाल्वर निकालकर हम तैयार होकर बैठ गये। परन्तु द्वार खुलने पर पड़ोस का एक कृषक अपनी दिल्लगी पर हँसता हुआ प्रविष्ट हुआ। हमने अपने रिवाल्वर छिपाने का प्रयत्न तो बहुत किया परन्तु वे उस ज़मींदार की नज़र से न बच पाये। उस कमबख़्त ने एकदम कह ही तो दिया, ‘महाशय, सशस्त्र लोगों को अपने घर में आश्रय देने को मैं तो हरगिज़ तैयार नहीं।’ बाहर गज़ब की ठण्ड थी, घोर अन्धकार था, परन्तु विवश हो अग्नि तथा गरम कमरे की ओर सतृष्ण नेत्रों से देखते हुए बाहर निकलना पड़ा। पशुओं के कमरे में घुसकर रात वहीं बितायी। कपड़े आदि भी फट गये। मित्र लोग मिलने तक से झेंपते थे। आख़िर हम दोनों नगर में पहुँचे। यह स्थान सोलोहैडबेग से 7 मील की दूरी पर था। यहीं पर हमारे साथी श्री राबिन्सन भी हमसे आ मिले। इस पुनर्मिलन से हमें अत्यन्त आनन्द हुआ। हमें जुदा हुए अभी कुछ सप्ताह ही हुए थे, तथापि ऐसा मालूम होता था मानो हम सहोदर चिर-आयोग के बाद फिर मिले हों। इसके बाद घूमते-घामते एक वृद्ध व्यापारी के घर पहुँचे, वहाँ कुछ आराम मिला। पेटभर भोजन किया, और फिर युद्ध की सूझने लगी। “नहीं, इस तरह निरुद्देश्य यात्रा में समय नष्ट हो रहा है, अतः हमें किसी न किसी क्रियात्मक कार्य में जुट जाना चाहिए।” युद्ध घोषणा तैयार की गयी। उसमें अंग्रेज़ों को देश ख़ाली कर देने की आज्ञा दे दी गयी थी और आज्ञोल्लंघन के अपराध में मृत्यु दण्ड निश्चित किया गया था। हमने वह युद्ध-घोषणा अपने केन्द्र डबलिन में मंज़ूरी के लिए भेजी, परन्तु उसकी मंज़ूरी के स्थान पर हमें आज्ञा मिली कि तुम्हें अमेरिका जाना होगा, सब तैयारी हो चुकी है। यह हमारे लिए वज्रपात से कम न था। हम तो आयरलैण्ड में रहकर युद्ध करना चाहते थे। पर उधर जिनसे सहायता पाने की आशा थी, वे ही हमें निर्वासित करने की गुप्त मन्त्रणा कर रहे थे। हमने दृढ़ता के साथ स्पष्ट कह दिया, “हम मृत्यु से नहीं डरते अैर आयरलैण्ड में रहते हुए उसके लिए लड़ते हुए मर जाने में ही गौरव अनुभव करेंगे।” वे नाराज़ हो गये, परन्तु हमने उन्हें विश्वास दिलाया कि, “हमारे विचार से हमारे लिए पृथ्वी पर यदि कहीं स्थान है तो आयरलैण्ड में! हम इसी देश में रहते हुए, इसी की स्वतन्त्रता के लिए इसी के चौराहों, सड़कों, नगरों तथा खेतों में शत्रु से युद्ध करते हुए प्राण दे देंगे।” हमें बाहर जाकर लेख लिखकर हृदय को शान्त कर लेना पर्याप्त न जँचता था। ख़ैर, वे मान गये, परन्तु इस शर्त पर कि हम चुपचाप किसी कोने में बैठे रहें। हमने सोचा हम इस असुविधा को भी जल्दी ही दूर कर लेंगे।

कुछ दिन बाद हम नोर्दस टाऊन निवासी डोनल्ली के घर पहुँचे। वहीं पर ब्रिगेड काउंसिल की बैठक हुई और हमने पूर्वोक्त घोषणा-पत्र प्रकाशित करने का निश्चय कर ही लिया। फ़रवरी, 1919 के अन्तिम दिनों में वह सभी बड़े-बड़े नगरों तथा कस्बों में लगा दिया गया। इस समय संवाद-पत्रों ने बड़े व्यंग्यपूर्ण शीर्षकों से उसे प्रकाशित किया। सचमुच हमारी दशा को देखकर कोई भी यह कह सकता है कि छोटा मुँह बड़ी बात की कहावत हम पर चरितार्थ होती थी। जो भी बाद में उसका प्रभाव पड़ा, इसका सभी ने लोहा माना। एक दिन हम भूख से पीड़ित हुए। बहुत दूर तक चलकर क्रीनीवासी श्री मर्फी के घर पहुँचे। भूख के मारे अधपका मांस खाकर बेचारे हागन बीमार हो गये। हम डबलिन पहुँचना चाहते थे परन्तु उनकी बीमारी से बड़ी विपत्ति पड़ी। ख़ैर, श्री ट्रीसी और श्री राबिन्सन को हमने पहले भेज दिया। वे वहाँ बिल्कुल सुरक्षित तौर से पहुँच गये। नित्य गजट में हम सभी का हुलिया और पुरस्कार की बड़ी भारी रकम प्रकाशित होती रहती थी। ऐसी दशा में नगर में जाना और वहाँ पर कार्य करना कितना ख़तरनाक है, इसका अनुमान आसानी से किया जा सकता है। इधर मैं और हागन भी यहाँ अधिक न ठहर सकते थे। आख़िर टामीमिक अनरनी मोटर लेकर आ पहुँचे। यह वहाँ से 1916 के विद्रोह में मोटर की टक्कर लगाकर दो अभागों को नदी में डुबो चुके थे और स्वयं किसी न किसी तरह बच आये थे। ख़ैर हम चल दिये।

लिम्बर्क लिम्मर्क तक तो कोई विशेष घटना नहीं हुई परन्तु वहाँ हमें सैनिक लारियों की एक बड़ी श्रृंखला का सामना हुआ। सभी लारियों पर सैनिक लदे हुए थे और प्रत्येक लारी के साथ एक-एक मशीनगन थी। हम समझे थे कि यह किसी बड़े भारी कार्य पर जा रहे थे। पर बाद में शीघ्र ही पता चला कि वे हमारी ही ख़ातिर आ रहे थे। उनमें कितने सैनिक घण्टों हमारा हुलिया याद करने का परिश्रम करते रहे होंगे। किसी का किंचित मात्र भी सन्देह हमारी मृत्यु का कारण हो सकता था। हम भी बड़े राजभक्तों की तरह मुग्ध-दृष्टि से उनकी ओर देख रहे थे। लारियाँ धड़ाधड़ गुज़र रही थीं। कोई बीस एक के गुज़र जाने के बाद हमने देखा कि एक सैनिक महाशय बन्दूक़ उठाये हमारी ओर आ रहे हैं उन्होंने आज्ञा दे ही दी, ‘ठहरो!’ अब समझे पहली लारियाँ चुपचाप आगे क्यों बढ़ा दी गईं। ड्राइवर महोदय ने तुरन्त ब्रेक कस दिये। मैं अपना अन्तिम समय निकट समझ पिस्तौल तानकर सोच ही रहा था कि कौन-से सिपाही को सबसे पहले सुलाऊँ कि एक अफ़सर आगे बढ़ा और कहने लगा, “महाशय आपको देरी हो रही होगी, क्षमा कीजियेगा, दो लारियाँ टूट गयी हैं, और सड़क रुक गयी है।” मैंने तुरन्त पिस्तौल छिपा लिया। उन्होंने फिर कहा, “यदि आप पैदल उतरकर चले जायें जो बहुत अच्छा हो।” इस समय तक मेरी उद्विग्नता दूर हो चुकी थी। मैंने दृढ़ता से कहा, “महाशय, हम बड़ी दूर से चले आ रहे हैं और थके हुए हैं। हमें बहुत ज़रूरी कार्य है और शीघ्र पहुँचना है। हम पैदल नहीं जा सकते।” उसने तुरन्त सैनिकों को हमारी मोटर ढकेलने की आज्ञा दे दी, जो 200 गज तक उसे ढकेलते चले गये। उस समय निश्चय ही वे समझे थे, कि मोटर में बैठने वाला आयरिश व्यक्ति पार्लियामेण्ट तक में प्रश्न छेड़ सकता है। ख़ैर! मैं और हागन बड़ी मुश्किल से हँसी रोक पाये और सैनिकों के कष्ट के लिए उन्हें बार-बार धन्यवाद देते हुए विदा हुए। कोई आधा घण्टा बाद तक मोटर को पूरी रफ्तार पर चलाते रहे। इसी प्रकार उन सैनिकों ने जो हमारी ही तलाशी में जा रहे थे, हमारी ही सहायता की! बहुत स्थानों पर होते हुए, विभिन्न मित्रों के घरों में ठहरते हुए, हम लोग डबलिन की ओर चले जा रहे थे। हमारे परिचित हमारी ओर देखकर बड़े चकित होते और हमें नमस्कार आदि कहने से पहले चारों ओर बड़ी सावधानी से ताक लेते तथा बाद में भी बड़े धीमे स्वर से बात करते। उनका यह व्यवहार देख हमें बड़ी हँसी आती। डबलिन में हम चारों फिर मिल गये। हम जब भी मिलते तब हमें बिल्कुल ख़याल न रहता कि हमारे पीछे पुलिस मारी-मारी फिरती है। हम ठीक छुट्टी पर आये हुए विद्यार्थियों की तरह हँसते-खेलते रहते थे। हमने उन दोनों को चिढ़ाने के विचार से उपरोक्त सिपाहियों की सहायता पाने की बात कही तो उन्होंने भी झट अपनी मोटर ठीक जेल के द्वार के सामने रुक जाने तथा सिपाहियों के उसे धकेलने की बात सुनायी।

हमने मिलकर परामर्श किया तो बहुत पछताये कि विगत तीन मास हमने व्यर्थ खो दिये। सोलोहैडबेग की घटना से तो माना देशभर में जीवन संचारित हो उठा था, परन्तु अब तो वह स्मृति मात्र रह गयी थी। देशभर में सुविस्तृत सैनिक संगठन विद्यमान था। शस्त्र भी पर्याप्त थे। लोग भी अब वैसे भीरू और कायर नहीं थे। वे ड्रिल करने तथा शस्त्र रखने के अपराध में प्रसन्नतापूर्वक जेलों में जा रहे थे। परन्तु आवश्यकता थी उन्हें शस्त्रों का प्रयोग करने का परामर्श देने की। इस तरह बहुत देर तक सोच विचार करते रहने के बाद हमने चार साइकिलों का प्रबन्ध कर लिया और डोनोहिल को वापिस चले गये। हम अपने मित्र होरेन परिवार के पास गये तो उन्हें यह विश्वास दिलाने के लिए कि हम वास्तव में मनुष्य ही हैं – प्रेतात्मा नहीं, बड़ी चेष्टा करनी पड़ी। मैं अपनी माँ से भी जा मिला। बेचारी मुझे देख बहुत विस्मित तथा प्रसन्न हुई। उन्होंने मेरे कारण बहुत कष्ट सहन किये। मेरे बाद तो दिन में दो-दो तीन-तीन बार उनकी तलाशी हो जाती। घर का सब सामान पुलिस ले गयी थी। मुर्गी और उसके बच्चे मारकर वे बदला निकालते थे। तो भी वे हतोत्साह नहीं हुईं। जब कभी पुलिसमैन पूछता, “क्यों जी, तुम्हारा पुत्र डेनब्रीन कहाँ है?” तो तुरन्त व्यंग्यपूर्ण उत्तर देतीं, “क्यों? क्या उसके साथ एक छत के नीचे बैठने का साहस है?” इसी तरह एक बार पूछने पर उन्होंने कह दिया, “हाँ। डेनब्रीन ऊपर बैठा है, और तुम्हें ऊपर चले आने का निमन्त्रण देता है। क्यों, साहस है?” बस पुलिसमैन भाग गया और बड़ी भारी सेना ने घर घेरकर तलाशी लेनी शुरू कर दी। जो भी हो, माँ ने एक भीषण अपराध किया था। उसी के फलस्वरूप वह सब कष्ट उसे सहन करने पड़े। उसका वह भयंकर अपराध था अपने पुत्र को कर्त्तव्य-पालन की शिक्षा देना तथा उसके हृदय में स्वदेश प्रेम जागृत करना! इसी अपराध का दण्ड वह धैर्य से सहन करती रहीं! वह वीर माता थीं।

पाँचवाँ परिच्छेद

ट्रेन में से बन्दी मित्र को छुड़ाया

हम टिप्रेरी में अपने सभी सैनिकों को युद्ध के लिए तैयार करने लगे। उसके लिए हमने समुचित प्रयत्न किया। एक दिन प्रातःकाल दो बजे अपनी साइकिल लिए जा रहा था कि एक दूसरी ओर से आने वाली साइकिल के साथ टक्कर हो गयी। उसकी साइकिल का हैण्डिल मेरी छाती में धँस गया और मैं वहाँ अचेत होकर गिर गया। मेरे मुँह से बहुत रक्त बहा। उस समय बहुत घबराया। क्या जीवन का इसी तरह अन्त होना था? युद्धक्षेत्र में शत्रु के विरुद्ध लड़ते हुए मुझे गोली लग गयी होती, अहा! मैं कितना प्रसन्न होता। परन्तु आज इस तरह अनजान में व्यर्थ ही जीवन समाप्त हो जायेगा, यह विचार ही मेरे लिए एक विपत्ति बन बैठा। अर्धचेतनावस्था में मैंने देखा कि अंग्रेज़ सैनिकों ने मुझे पहचान लिया है। बस यमदूत के साक्षात दर्शन होने लगे। चेतना हुई, उठा। ज्यों-त्यों घर पहुँचकर चिकित्सा की। स्वस्थ होकर फिर अपने कार्य में जुट गया। दिन रात एक-सा परिश्रम करता। कभी रात अच्छे बिस्तर में कट गयी, तो कहीं पृथ्वी पर लेटना पड़ा। कहीं अँगीठी मिल गयी तो कहीं पशुओं के साथ रात बितायी। अब इस प्रकार की छोटी-छोटी असुविधाएँ सहन करने का अभ्यास हो गया था।

इधर चार दिन से हम सोये नहीं थे। परिश्रम करते चले आ रहे थे। पता लगा, कि बालघ (Bailagh) में ईमन ओ’ डुभिर (Eamon O’ Dubhir) के यहाँ नृत्य होने वाला है। बस! सब रुकावट दूर हो गयी। हम युवक थे। विपत्तियाँ सहन करते चले आ रहे थे। चिरकाल से किसी उत्सव में सम्मिलित होने का अवसर न मिला था। हम सीधे उसी घर की ओर हो लिये। वहाँ पर बहुत से परिचित बालक तथा बालिकाएँ आनन्द विहार में निमग्न थे। हमारे भी हृदयों का भार हलका हो गया। कितना सुन्दर संगीत था! रातभर वहाँ नाच किया। ठीक उसी समय पुलिस के कई दस्ते विभिन्न घरों में हमारी ही खोज में तलाशी ले रहे थे। उन बालक-बालिकाओं में से कोई भी चुपचाप खिसक जाकर, पुलिस वालों को लेकर हमें पकड़वा सकता था, परन्तु इसका किसी को स्वप्न में भी विचार न आया होगा। आयरलैण्ड वासियों में सहस्रों दोष होंगे, परन्तु उनमें देशद्रोही बहुत कम होते हैं। प्रातः समय मैं वहाँ से चला आया। ओकीफ के घर जाकर विश्राम करने का तय हुआ था। थोड़ी देर बाद राबिन्सन और ट्रीसी भी आ गये। परन्तु हागन नहीं आये। हमें चिन्ता भी नहीं हुई। यह हम जानते थे कि अभी उनके अठारह वर्ष पूरे होने में भी दो दिन शेष हैं, तो भी हमें विश्वास था कि वे किसी सुदृढ़ सैनिक से किसी प्रकार भी कम नहीं हैं। हमारी आँखों में नींद भरी थी। श्री ट्रीसी के शब्दों में हम उस समय किसी भी कण्टकाकीर्ण शैय्या तक पर सो सकते थे। अभी शायद श्री ट्रीसी अपनी माला भी समाप्त न कर पाये थे कि श्री पैट्रिक किन्नेन (Kinnane) हमें जगाने लगे। आँखें खुलने से साफ़ इन्कार कर रही थीं। कान सुनते तो थे, परन्तु कुछ समझ नहीं पाते थे। एकाएक आलस्य और निद्रा भाग गये। मैं सिंहर उठा, ‘बेचारे हागन पकड़े गये?’ विश्वास नहीं हुआ। हागन गोली से मर गये, यह हम मान सकते थे परन्तु वे बिना शस्त्र चलाये ही पकड़े गये, यह बात कुछ जँचती नहीं थी। ख़ैर उठे। हम तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा। बोलने की आवश्यकता न थी। सभी एक दूसरे का मतलब समझ गये। निश्चय हो गया, “हागन को छुड़ायेंगे।” पता लिया, तो मालूम हुआ कि उन्हें अभी थर्ल्स की कोतवाली में रखा गया है, परन्तु शीघ्र ही कार्क जेल को भेज दिये जायेंगे। फ़ैसला हुआ, ‘इमली’ स्टेशन पर ट्रेन में से या तो हागन को लिया जाये, अथवा इसी प्रयत्न में प्राण दे दिये जायें। हमारा सबसे छोटा, सबसे प्यारा साथी शत्रु के हाथ में हो, यह हमारे लिए असह्य था। हममें से कोई भी स्वयं जेल में जा उसे छुड़ाने को तैयार हो सकता था। आज तक हमने कभी उसके गुणों की प्रशंसा नहीं की थी, परन्तु अब तो उसके गुण ही गुण हमारी आँखों के सामने घूमने लगे।

उधर पुलिस वाले भी समझते थे कि वे भी सोलोहैडबेग के मुख्य पात्रों में से हैं। हम सभी लोगों की अनुपस्थिति तथा अज्ञातवास के कारण ही पुलिस को यह विश्वास हो गया था। एक स्वेच्छा सेवक के हाथ हमने टिप्रेरी रेजिमेण्ट के अध्यक्ष के पास कुछ स्वेच्छा सेवक भेजने का सन्देश भेज दिया। हम स्वयं साइकिलों पर इमली को चल दिये। सीधे रास्ते पुलिस के हाथ पड़ जाने के भय से, लम्बा चक्कर काटकर दूसरे मार्ग से गये। साइकिलों पर नींद आ गयी, परन्तु फिर आँख खुल गयी। धड़ाम का शब्द सुन, मुड़कर क्या देखा कि श्री राबिन्सन साइकिल से गिर पड़े हैं। उठकर फिर चले। हमारे पास एक बम आ गिरा समझे शत्रु ने आक्रमण किया है, परन्तु वह राबिन्सन की जेब से ही गिरा था। 12 मई, 1919 के दिन सारा प्रबन्ध कर 11 बजे थर्ल्स से चले थे। अगले दिन जिस गाड़ी में हागन के आने की आशा थी। वह दोपहर से पहले न आ सकती थी। निरन्तर प्रतीक्षा करते रहे, परन्तु टिप्रेरी से कोई स्वेच्छा सेवक न पहुँचा। साढ़े ग्यारह बज चुके थे, बारह बजे गाड़ी आने को थी। गाड़ी को हम बिना प्रयत्न किये भी न जाने देना चाहते थे। यह भी जानते थे कि बन्दी के साथ कम से कम चार सशस्त्र सैनिक होंगे। परन्तु करते ही क्या? ट्रेन आ गयी। हम प्लेटफार्म पर घुस ही तो गये। भागते समय एक मोटी-सी वृद्ध स्त्री से टक्कर लग गयी। मैंने उसके गिर्द बाँहें डाल दीं और दोनों घूमते-घूमते पृथ्वी पर गिर पड़े। क्षमायाचना का तो अवसर था ही नहीं, उठकर फिर भागे। परन्तु बन्दी इस गाड़ी में नहीं आया था। दूसरी गाड़ी सायंकाल सात बजे आने वाली थी। हमने गाल्टी बटालियन के कुछ स्वेच्छा सेवक बुला भेजे। पाँच स्वेच्छा सेवक पाँच बजे आ पहुँचे। वे बड़े वीर तथा निर्भीक सैनिक थे। हम एक साथी को इमली स्टेशन पर छोड़कर स्वयं सभी साथी नाकलांग (Knocklong) स्टेशन पर चले गये। इमली स्टेशन स्थित स्वेच्छा सेवक का कर्त्तव्य बन्दी वाली गाड़ी के साथ सतर्कता से चढ़कर हमें उस गाड़ी की ओर संकेत करना था।

मदमत्त इंजन धक-धक करता हुआ प्लेटफार्म पर आ पहुँचा। स्वेच्छा सेवक के संकेत से हम सीधे बन्दी की गाड़ी में जा पहुँचे। ट्रेन केवल दो मिनट ही ठहरेगी, यह हमें ख़ूब मालूम था। बन्दी को एक लम्बी गाड़ी के छोटे से ख़ाने में चार सशस्त्र सिपाही घेरे बैठे थे। सभी डिब्बे एक छोटे संकुचित मार्ग द्वारा एक दूसरे से मिले हुए थे। आक्रमण का नेतृत्व श्री ट्रीसी को सौंपा गया था। गाड़ी में घुसते ही ‘हाथ उठा दो’ की सैनिक आज्ञा दे दी गयी…अभी कुछ ही क्षण पहले सिपाहियों के अध्यक्ष सार्जेण्ट वालीस ने बेचारे हागन को बन्दूक़ से ठेलते हुए बड़े व्यंग्यपूर्ण स्वर में पूछा था, “क्यों जी, तुम्हारे डेनब्रीन और ट्रीसी किधर ठोकरें खा रहे हैं?” इसका उत्तर, क्रियात्मक उत्तर, जिसकी कि उन्होंने कभी भी आशा न की होगी, उन्हें मिल गया। दोनों रिवाल्वर ताने उसके सामने खड़े थे। कांस्टेबल स्नराईट तत्क्षण रिवाल्वर तानकर बन्दी पर गोली चलाने ही वाला था कि हमारी गोली ने उसे ठण्डा कर दिया। उन्हें यह आज्ञा दी गयी थी कि यदि बन्दी को छुड़ाने का कोई प्रयत्न किया जाये तो उसे तुरन्त गोली से मार दिया जाये। गोलियाँ चलीं। ठीक उसी समय प्लेटफार्म पर खाकी वर्दी पहने एक अंग्रेज़ सैनिक ने – जिसके हृदय में आयरिश ख़ून दौड़ रहा था – बहुत आनन्द और चाव से चिल्लाकर, ‘प्रजातन्त्र की जय’ कहा!

स्नराईट मर गया था। दूसरा घायल होकर गाड़ी से कूद गया। शेष सार्जेण्ट वालीस और कांस्टेबल रेली बचे। दोनों के साथ ख़ूब लड़ाई हुई। वालीस एक वीर सैनिक थे, शत्रु दल में हमें वैसे साहसी बहुत कम दीख पड़े। हमारे सभी साथियों के रिवाल्वर भी कहीं गुम हो गये। ख़ैर, लड़ते-झगड़ते बन्दी हागन को, जो बेड़ियों और हथकड़ियों से जकड़ा हुआ था, लेकर हम बाहर निकल पड़े। मैं बुरी तरह घायल हो चुका था। कब और कैसे घायल हुआ, इसका कुछ पता नहीं। ट्रीसी, राबिन्सन और ओब्रीन भी घायल हो चुके थे। रेली अब भी रायफ़ल से गोली चला रहा था। एक गोली मेरे दाहिने हाथ में आ लगी। मेरा रिवाल्वर गिर गया। यदि रेली में सार्जेण्ट वालीस की तरह तत्परता होती तो हममें कोई भी न बच पाता। परन्तु उसकी सुस्ती से मुझे अपना रिवाल्वर उठाकर बायें हाथ से उसे चलाने का अवसर मिल ही गया। वह भाग गया। वालीस भी लगभग मर चुका था। रेली ही एक ऐसा था जोकि घटना का पूरा-पूरा वर्णन कर सकता था। परन्तु जूरी के जजों ने तो उसे साफ़ कह दिया, “जरा सच सच कह सुनाओ, लीपा पोती मत करो।” उन्होंने यह भी फ़ैसला दिया कि इस घटना का उत्तरदायित्व पुलिस पर है, क्योंकि माननीय लोगों को धर पकड़ने का ही यही परिणाम है।

मैं वहाँ से बाहर निकला तो ख़ून बह जाने के कारण अपने को दुर्बल पाया। बाहर एक मोटर खड़ी थी, शायद किसी की प्रतीक्षा कर रही थी। मैंने झट रिवाल्वर तानकर ड्राइवर से मोटर छीन ली। परन्तु उसका उपयोग करने की सुधि न रही। बाहर हागन की बेड़ियाँ काट दी गईं और स्वेच्छा सेवकों ने उसकी रक्षा का भार ले लिया। हम चारों घायल व्यक्ति अँधेरे में भूलते भटकते, गिरते पड़ते शानहन की ओर चल दिये। वहाँ पहुँचने पर मुझे बिस्तर पर लिटा दिया गया। डॉक्टर और पादरी बुला लिए गये। बाहर क्लेमेंसी नामक एक नवयुवक की अध्यक्षता में पहरा खड़ा कर दिया गया। डॉक्टर ने कह दिया, “बस। सब खेल 24 घण्टे में समाप्त हो जायेगा।” मैं एकदम अधीर हो उठा। यह मेरे लिए असह्य था। परन्तु हमारे लिए अन्तिम 24 घण्टों में भी तो शान्ति न बदी थी। चारों ओर पुलिस ही पुलिस दीखने लगी। क़ब्रिस्तान तक में नई क़ब्रें ढूँढ़ी गईं, क्योंकि पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार दो आक्रमणकारी लगभग मर गये थे।

आगे चलने से पहले यदि दो बातें और कह दूँ तो अनुचित न होगा। जिस समय स्टेशन पर हम लोग लड़ रहे थे, उसी समय दूसरे प्लेटफार्म पर एक और गाड़ी खड़ी हुई थी जिसमें बहुत से सैनिक आ रहे थे। उन लोगों ने हस्तक्षेप क्यों न किया, यह हमारी समझ में न आया। उसी समय दो मील की दूरी पर एल्टेन के सिपाहियों ने गोली की आवाज़ सुनी। वे भागकर बैरकों में घुस गये तथा अन्दर से साँकल लगाकर बैठ गये। काउण्टी इंस्पेक्टर मिस्टर ईगन ने तो भी द्वार न खोला। मोटर से दरवाज़ा तोड़कर वे भीतर घुस गये और “बुज़दिलो! कायरो! तुम यहाँ छिपे पड़े हो, तुम्हारे चार साथी मारे गये हैं, हत्यारे भाग गये हैं और तुम अभी तक यहीं पड़े हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती,” आदि आदि कहकर उनसे साँकल खुला पाये।

यहाँ श्री हागन की कथा लिख दें तो अनुचित न होगा। नृत्य के बाद वे आना फ़ील्ड निवासी मोघर परिवार के मकान पर चले गये। भोजन करते करते मेज़ पर ही सो गये। फिर बिस्तर पर सुलाये गये। अभी लेटे ही थे कि ‘पुलिस आ गयी, पुलिस आ गयी’ के शब्दों से उन्हें जगा दिया गया। वे यह समझे कि सैनिक इधर से आ रहे होंगे, दक्षिण की ओर भागे। कुछ दूर जाकर उन्होंने अपना रिवाल्वर बन्द कर दिया – परन्तु एकदम क्या देखा कि सैनिकों ने आ पकड़ा। रिवाल्वर छिन गया। मोटर में बिठाकर थर्ल्स की चौकी में ले जाये गये। पहले लोभ दिया गया, फिर बुरी तरह पीटा गया। परन्तु उस वीर ने एक शब्द भी मुँह से न निकाला। अपना नाम तक नहीं बताया। फिर एक सिपाही ने सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कह दिया, “तुम्हें डेनब्रीन और ट्रीसी ने तो धोखा दिया। वे लन्दन ले जाये जा रहे हैं, जहाँ पर कि वे पुरस्कार पायेंगे। तुम भी गुप्त बातें बताकर मौत से बच जाओ।” परन्तु वहाँ तो मौत के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। गाड़ी में बैठाये जाने के बाद वालीस उसे बार-बार चिढ़ाते हुए कहता, “क्यों जी, तुम्हारे ट्रीसी और ब्रीन कहाँ गये?” ऐसा ही प्रश्न अभी यह पूछ ही रहा था कि हम जा धमके थे।

एक स्वेच्छा-सेवक ने पता दिया कि पुलिस हमारे पीछे आ रही है। झट सांग्रामिक सभा की गयी। आख़िर मोटर लाकर मुझे उसमें बैठा दिया गया। पुलिस बैरकों के बीच में से गुज़रकर हम लोग वेस्ट लिम्मर्क में श्री सीन फीन के घर जा पहुँचे। नाकलांग के साथियों में से जे.जे. ओब्रीन तथा लियमलिच, जोकि घण्टों में वापिस जाकर अपने कार्य में लग गये, के अतिरिक्त सभी को हमारी तरफ़ भागना पड़ा।

श्री सीन फीन दया की साक्षात प्रतिमा थे। आप लोगों ने हमें पूरे आराम से रखा। परन्तु पुलिस के आ पहुँचने के कारण फिर और पश्चिम की ओर जाना पड़ा। मैं स्वस्थ हो गया। फिर तो मुझे डॉक्टरों आदि की भविष्यवाणियों को तोड़ डालने का अभ्यास ही हो गया। मैं तब भी बच जाता, जबकि वैधिक नियमों के अनुसार मुझे ज़रूर ही मर जाना चाहिए था।

घोर विपत्ति के समय, निराशा के निविड़ अन्धकार में भी श्री ट्रीसी की रसिकता तथा हँसी का स्वभाव बड़ी सान्त्वना का कारण होता। नाकलांग युद्ध में मेरे पेट में गोली लगी थी और ट्रीसी के मुँह में। इसलिए हम दोनों कुछ भी खा नहीं सकते थे। एक दिन वे भूख से तंग आकर बोले, “अरे ब्रीन ज़रा अपना बड़ा-सा सिर कुछ मिनट के लिए उधार दे दो, एक बार भोजन तो कर लूँ। तुम तो खा सकने पर भी नहीं खाते।” एक बार रात्रि के समय कलन से टिप्रेरी जा रहे थे। पुलिस से भेंट होने का भय था। सोलोहैडबेग औरनाकलांग वहाँ से बहुत निकट थे। परिचित लोगों से मिलने का भी डर था, हम बड़ी तेज़ी के साथ जा रहे थे कि एकाएक, ‘ठहरो। ठहरो।।’ चिल्लाते हुए ट्रीसी ने सभी को रोक लिया, और एक-एक से पूछने लगे, “क्‍या जी आपके पास पिन होगा? वर्षा और शीत में कोट के बटन कौन खोले। हर एक ने इन्कार कर दिया। मैंने पूछा, “आख़िर, तुम्हें इस समय एकाएक पिन की क्या ज़रूरत आ पड़ी?” अत्यन्त सहज भाव से आपने कहा – “मुझे आशंका है कि शायद मेरी टाई सीधी नहीं लटक रही है।” हम लोग बहुत झुँझलाये और उन्हें कोसने लगे। परन्तु आलोचना शुरू होने से शेष यात्रा सुगमता से तय हो गयी। कैर्टी में कुछ दिन ठहरकर मैं पूर्णतया स्वस्थ ही हुआ था। हम नित्य संवाद-पत्रों में घोर निन्दा पढ़ा करते। हमारा अपने छोटे वीर साथी को छुड़ाने का सफल प्रयत्न सभी लोगों की दृष्टि में घृणित समझा गया।

ग्रीष्म ऋतु में जासूस विभाग का पुनर्संगठन किया गया। अब का संगठन बड़े ज़ोरों से किया गया था। हमें भी जासूस बहुत सताने लगे। हमने भी जहाँ कहीं देखा, जासूसों को ठीक ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। लोग प्रातःकाल जब गलियों में कई मृत शव देखते जिन पर ये शब्द लिखे रहते, ‘अंग्रेज़ी जासूसो ख़बरदार। आयरिश प्रजातन्त्र सेना।।’ तो बहुत विस्मित होते। एक दिन नदी किनारे हम धूप-सेवन कर रहे थे। नदी में पुलिस से भरी हुई नावें गुज़रीं। पता चला कि वे हमारी ही तलाश कर रहे थे। उस समय उन्होंने शायद समझा होगा, कि हम लोग कहीं पर्वतों की कन्दराओं में छिपे हुए पड़े होंगे। ठीक इसी तरह और भी कई अवसरों पर हम सामने बैठे तमाशा देखा किये। खिड़की में बैठे, अपनी तलाश में जाने वाली सिपाहियों से भरी मोटर भागती फिरती देखी। कभी पुलिस स्टेशन के साथ वाले घरों में बैठे, केवल एक ईंट के अन्तर से अपनी तलाश सम्बन्धी उनकी स्कीमें सुनते रहे।

श्री हागन और राबिन्सन को टिप्रेरी छोड़कर मैं और ट्रीसी डबलिन को चल दिये। वहाँ स्वेच्छा-सेवकों के अध्यक्षों से मिले और बहुत वादविवाद के बाद उन्हें युद्ध के पक्ष में कर पाये। उन्होंने हमारे रहने का प्रबन्ध कर देने का वचन दिया। तब मैं साइकिल ले श्री हागन और राबिन्सन को लाने टिप्रेरी की ओर चल दिया। जाते जाते पिछले ट्यूब में बड़ा पंचर हो गया। उस समय मैं पादरी के वेष में था। एक साइकिल वाले की दुकान पर गया। उसे तुरन्त मरम्मत के लिए कहा, परन्तु उसने साफ़ इन्कार कर दिया। मैंने क्रोध से उसे बहुत भला बुरा कहा। वह बड़े आश्चर्य से पादरी के मुख से वे शब्द सुनता रहा। मुझे तो भूल ही गया था कि मैं इस तरह शान्ति का अवतार पादरी बना बैठा था। ख़ैर, वहाँ से सीधा पुलिस चौकी में घुस गया। प्रहरी ने ‘पितावन्दे!’ कहकर अभिवादन किया। यथोचित उत्तर दे अन्दर घुसा। मेरी असुविधा जान सभी बेचारे झट मेरी सहायता के लिए तैयार हो गये। कुछ ही मिनटों में मेरी साइकिल तैयार हो गयी। उधर मैं नोटिस बोर्ड पर अपने हुलिए तथा पुरस्कार का विज्ञापन पढ़ता रहा। साइकिल ले उन लोगों को धन्यवाद दे विदा हुआ। कुछ दूर जाकर ख़याल आया, ‘पुलिस वालों को अपना विजिटिग कार्ड न देने में मैंने निश्चय ही कुछ कृतघ्नता का परिचय दिया। ख़ैर!’

डबलिन में जाकर हमने देखा कि गनीमी (गुरीला) युद्ध के लिए क्षेत्र तैयार हो रहा है। परिस्थितियाँ ही देश को स्वातन्त्र्य संग्राम की ओर हाँके ले जा रही थीं। हमने भी परिस्थितियों की सहायता करने में कोई कसर उठा न रखी। स्काटलैण्ड यार्ड[1] के जासूस आयरलैण्ड में बहुत संख्या में आ पहुँचे थे। उन लोगों का हौसला बहुत बढ़ गया था। वे तो सिनफिन लोगों (क्रान्तिकारी) की सभाओं तक में पहुँचते और तलाशी में अंग्रेजी सेना की सहायता करते। बहुत से निर्दोष व्यक्ति, जिन्होंने कि शायद शस्त्र कभी छुए भी न होंगे, उनकी कोप-दृष्टि से न बच सके। वे ‘जी’ कहलाते थे। उस वक़्त बहुत से ‘जी’ मारे भी गये और मारने वाले सदा बचते ही रहे। आख़िर तंग आकर उन लोगों ने घरों से बाहर निकलना ही बन्द कर दिया। एक-एक दिन जासूसों की हत्या पर ख़ूब वाद-विवाद हुआ। मेरी अनोखी सूझ! मैंने कहा कि जासूसों की हत्या की बजाय, ब्रिटिश सरकार के प्रमुख प्रतिनिधि वायसराय महोदय पर हाथ साफ़ करने से बहुत प्रभाव होगा। बात अच्छी थी। सभी ने इसे स्वीकार कर लिया।

छठा परिच्छेद


लाट साहब पर हमला

निश्चय होते ही हमने सभी मित्रों से परामर्श लिया। सभी सुदृढ़ तथा निर्भीक साथी हमारा साथ देने के लिए तैयार हो गये। तीन मास तो तैयारी में ही लग गये। वायसराय महोदय की प्रतीक्षा में कितनी ही बार बड़ी निराशा भी हुई। उनका प्रोग्राम विशेष तौर से गुप्त रखा जाता। कई स्थानों पर जहाँ कि उनका जाना आवश्यक होता, वे न जाते। कितनी ही बार कुछेक क्षण के हेर-फेर से बच गये थे। आते आते एकदम एक मोड़ पर मुड़ जाने से ही, कई बार उनके प्राण बच गये। इन तीन मास में हम 12 दफे आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर वायसराय महोदय की प्रतीक्षा ही करते रह गये। परन्तु हर बार उनका न आना, या आते-आते मुड़ जाना ही कारण हुआ। 11 नवम्बर के दिन महायुद्ध की सन्धि होने के उपलक्ष्य में होने वाले उत्सव में सम्मिलित होने के लिए उन्हें जाना था। ग्रेटीन ब्रिज पर से गुज़रते समय उन पर बम गिरा दिये जायें, यही हमने सोचा। ठीक समय पर हमारे सभी साथियों ने बम तैयार कर लिए। पिन खोले, कितनी ही देर तक वे प्रतीक्षा करते रहे। परन्तु वायसराय महोदय न पधारे। उस दिन बर्फ़ गिर रही थी: तो भी हम पुल पर डटे रहे। इतने में हमारे एक परिचित मित्र उधर से गुज़रे: उन्होंने समझ लिया, और व्यंग्य मिश्रित स्वर में इतना ही कहा, ‘क्या ख़ूब। बर्फ़ से बचने के लिए यह स्थान तो ख़ूब ढूँढ़ा।’ हम चौंक पड़े। हमारी ओर देखकर कोई भी व्यक्ति सन्देह कर सकता था। हम एकाएक वहाँ से चल दिये। कुछ ही क्षण बाद सैनिक लारियों ने पुल को घेर लिया और आने जाने वाले की तलाशी ली जाने लगी। हम बाल-बाल बच गये। बात यह हुई थी कि हमें पहचान कर अथवा सन्देहवश किसी जासूस ने तुरन्त गवर्नमेण्ट हाउस को टेलीफ़ोन कर दिया था। इसी कारण वायसराय महोदय नहीं आये।

इससे हम बहुत निराश हो गये। कुछ आत्मग्लानि-सी भी मालूम होने लगी। सोचने लगे – क्या हम उतना भी नहीं कर पायेंगे? परन्तु यह अवस्था कुछ अधिक देर नहीं रही। शीघ्र ही हमें पता चल गया कि वायसराय महोदय उत्तर की ओर से डबलिन आ रहे हैं। संवाद-पत्रों में तो प्रकाशित हो चुका था कि वे विदेश गये हैं। सम्पादकों को शायद यह विश्वास भी था, परन्तु हमें तो ख़ूब मालूम था कि वे ‘फ्रेंच पार्क को रास्कामन’ में अपने मित्रों के साथ आनन्द विहार में निमग्न थे। वहाँ पर वे बिल्कुल आरक्षित थे। बहुत थोड़ी-सी सेना वहाँ रहती थी। ‘लौज’ भी कोई बड़ी मज़बूत न थी। हम वहाँ पर बड़ी सुगमता से उन पर आक्रमण कर सफल हो सकते थे, परन्तु हमने जान-बूझकर वैसा नहीं किया। हम उस जगत प्रसिद्ध व्यक्ति पर, जगत प्रसिद्ध फोनिक्स पार्क आयलैण्ड में अंग्रेज़ी शक्ति का मुख्य केन्द्र के ठीक द्वार पर आक्रमण करके समस्त संसार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते थे। ज़रा सोचिये तो जिस दिन संवाद-पत्रों में यह समाचार निकलेगा, “आयरलैण्ड-स्थित अंग्रेज़ों के सर्वोपरि प्रतिनिधि, ब्रिटिश सेना के फ़ील्ड मार्शल, फोनिक्स पार्क के ठीक सामने, जहाँ पर कि कुछ ही मिनट में बीस हज़ार से अधिक सब प्रकार के आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित सैनिक आ एकत्र हो सकते हैं, क्रान्तिकारियों के द्वारा मार दिये गये।” – उस दिन कैसा लुत्फ़ आयेगा? क्या यह समाचार पढ़कर संसारभर के लोग यह न कहने लगेंगे कि वे वीर क्रान्तिकारी सच्चे देशभक्त हैं। वे भीरु नहीं, कायर नहीं, बोदे नहीं, स्वार्थी नहीं हैं! उन्हें कुछ न कुछ शिकायत ज़रूर है। परन्तु वह है क्या? उसे जानने के लिए लोग अधीर न हो उठेंगे?…हाँ वही तो!

हमें विश्वस्त सूत्र से पता चल गया कि वायसराय महोदय 19 दिसम्बर 1919 के दिन वायसरीगल लौज फोनिक्स पार्क में पहुँचेंगे। बड़े-बड़े अफ़सर – यहाँ तक कि लौज के प्रबन्धक इस समाचार से अनभिज्ञ रखे गये थे। परन्तु हमें तो तिथि के साथ समय भी मालूम था। हम तो यह भी जान गये थे कि 11 बजकर 40 मिनट पर उनकी गाड़ी टर्मीनस न जाकर ऐशटाउन स्टेशन पर ही खड़ी हो जायेगी। कैसे पता चला, यह बताने का अभी समय नहीं आया। ऐशटाउन डबलिन नगर के केन्द्र से 4 मील की दूरी पर मीथ की ओर जाने वाली सुन्दर रमणीक सड़क के निकट है। उसे बड़ी सड़क से सम्बन्धित करने के लिए एक छोटी-सी सड़क जाती है जोकि 200 गज लम्बी है। दोनों सड़कों के संगम पर एक सराय भी है। आयरिश भाषा में ऐसे ही सार्वजनिक स्थान को ऐशटाउन कहते हैं। स्टेशन की सड़क बड़ी सड़क से गुज़रकर सीधी फोनिक्स पार्क को चली जाती है। फोनिक्स पार्क बड़ी सड़क से 100 गज की दूरी पर है, उसके निकट और कोई बस्ती नहीं है, परन्तु घुड़दौड़ के घोड़ों को उतारने और चढ़ाने के लिए ही यह स्टेशन बनाया गया था।

हम आध घण्टा पहले दो-दो की गिनती में साइकिल लेकर वहाँ पहुँचे और अपरिचित लोगों की भाँति वहाँ जाकर बैठ गये, और कृषि या पशु-पालन सम्बन्धी विषयों की बातचीत करने लगे, परन्तु हमें उसमें भी बहुत असुविधा हुई। हमारे कई व्यक्ति तो इन दोनों विषयों से एकदम अनभिज्ञ थे। ज्यों-ज्यों समय निकट आने लगा, त्यों-त्यों हमारी उत्सुकता भी बढ़ने लगी। हम ग्यारह व्यक्ति थे। चार तो वे ही, तथा मिक मैक्डानल्ड (Mick Macdonald), टाम क्योह (Tom Keogh), मार्टिन सैबेज आदि सात व्यक्ति और थे। हममें से केवल सात के पास रिवाल्वर थे। मार्टिन तो उसी दिन वीरगति को प्राप्त हुए। समय पूरा होते न होते डबलिन मेट्रोपोलिटन पुलिस के सिपाही आ धमके। वे सड़क पर खड़े हो गये। अन्दर बैठे हुए एक सिपाही पहरे पर खड़ा नज़र आया। उसकी बाँकी टोपी, अभी-अभी पालिश किये हुए बूट, चमकती हुई बेल और भड़कीले बदन देखकर मालूम होता था कि वे महाशय सजधज में कोई कसर छोड़कर नहीं आये थे। उसके पास रिवाल्वर भी था। बाद में सैनिकों की मोटर लारियाँ भी आ गईं। स्टेशन के पास सड़क में पुलिस ही पुलिस भर गयी। यह हमें पहले भी मालूम था। हमने सभी लोगों के स्थान भी पहले से ही निश्चित कर रखे थे।

सीटी सुनायी दी, सभी चौंक पड़े। एक ने दूसरे की ओर देखा परन्तु हिले नहीं। एक क्षणभर की तेज़ी से बना-बनाया खेल बिगड़ सकता था। फिर हमने स्टेशन से मोटरों के चलने का स्वर भी सुना। बाहर निकलकर खड़े हुए। कार्य की स्कीम यह थी कि वायसराय महोदय दूसरी मोटर में आयेंगे। अतः जिस समय पहली मोटर गुज़र जाये, उस समय मैं, श्री क्योह तथा श्री मार्टिन सैबेज वहाँ खड़े छकड़े को ढकेलकर दूसरी मोटर के सामने खड़ा कर दें, ताकि वह मोटर वहीं रुक जाये। हमने छकड़े को खींचना शुरू किया, परन्तु – ओह। यह तो बहुत भारी था। उस अभिनय का पहले रिहर्सल भी तो न किया था, ख़ैर उस समय उसे ज्यों-त्यों खींचा। परन्तु क्या देखता हूँ कि वही डबलिन मेट्रोपोलिटन पुलिस का सिपाही मेरे सामने खड़ा, मुझे आगे जाने से मना कर रहा है। उसने मुझे बड़े यत्न से यह समझाने की चेष्टा की कि अभी यहाँ से वायसराय गुज़रने वाले हैं, परन्तु मैं भला उसे किन शब्दों में समझाता कि उन्हीं से तो अभी हमारी विशेष मुलाक़ात होने को है। मैंने पहले तो चाहा कि उसकी कुछ परवाह ही न करूँ; परन्तु वह मूर्ख तो अपनी ही हाँके जा रहा था। रिवाल्वर का प्रयोग करना भी अनुचित था। गोली के शब्द से यदि सारी सैनिक शक्ति चौकन्नी हो गयी, तो भी सारा काम बिगड़ जायेगा। करें तो क्या? इधर समय व्यर्थ नष्ट हो रहा था। आख़िर लोहे का सींखचा उसके सिर पर दे मारा। वह वहीं लोट-पोट हो गया।

उधर हमारी असुविधा को देख हमारे एक साथी ने बम भी फेंक दिया था। परन्तु उसने पिन निकाल दिया था। बम फटा। हमारे घाव तो नहीं आये, परन्तु धमक से एक बार तो सभी धराशायी हो गये। उठे तो पहली मोटर आ पहुँची थी। उसके गुज़रते ही हमने छकड़ा ज़रा और आगे धकेलकर उस पर गोली छोड़ दी। पहली मोटर तो हवा हो गयी और दूसरी वहीं रुक गयी। मोटर पर हमारे साथी बमों की वर्षा करने लगे। शत्रु की गोली के निशाने के साथ-साथ उनके बिल्कुल पास रहने के कारण अपने साथियों द्वारा फेंके गये बमों की जद में भी हम थे। और दूसरी ओर से एक और सैनिक लारी गोलियाँ बरसाती हुई आ धमकी। मेरी बाईं टाँग में गोली लगी। देखभाल करने का तो अवसर नहीं था, परन्तु इतना ज़रूर अनुभव हुआ कि गोली उस पार निकल गयी है। उस समय सिपाही लोग बहुत घबरा गये थे। वरना हम लोगों के लिए वहाँ अधिक देर तक ज़िन्दा बचे रहना एकदम असम्भव था।…परन्तु आह! एक निर्दयी गोली बेचारे मार्टिन सैबेज के आ ही लगी। आह! बेचारा मेरी गोद में आ रहा। भोला-सा यह सुन्दर बालक, कितने चाव और उत्साह से अभी एक घण्टा पहले आयरिश स्वतन्त्रता तथा आत्मोत्सर्ग के वीरतापूर्ण गीत गाता आ रहा था और अब…अब वह उन्हीं को क्रियात्मक रूप दे रहा था। मैंने उसे पृथ्वी पर लिटा दिया। होंठ हिलते देख, झुका तो उसके मन्द क्षीण स्वर में यह सुन पाया। ‘डेन। मैं जाता हूँ, परन्तु संग्राम जारी रखो।’ वह करुणाजनक दृश्य मुझे कभी नहीं भूलेगा। मानो तरुण आयरलैण्ड अपने रक्त से स्वतन्त्रता की पुस्तक की भूमिका लिखने की तैयारी में था। आह! वह दृश्य कभी नहीं भूल सकूँगा। मैं उस ग़रीब का सिर गोद में लिए बैठा उसका अन्तिम सन्देश सुन रहा था, और चारों ओर से गोलियों की वर्षा हो रही थी। अपने वीर साथी की वीरगति पर, उनकी शोकजनक मृत्यु पर आँसू बहाने का अवसर कहाँ था? जिस वीर ने 1916 में पहली बार अपने देश के लिए शस्त्र उठाया था, वही आज, अपने देश के लिए ही लड़ते हुए स्वर्ग-धाम सिधार गया। वह आयरिश माता की सेवा के लिए जीता रहा और अन्त में उसी के चरणों में अपना प्राणोत्सर्ग कर गया। बम ख़त्म हो गये, पिस्तौल ख़ाली हो गयी, एक साथी मारा गया, कुछ देर बाद गोली चलनी भी बन्द हो गयी। हम उस सराय में जा पहुँचे। वहाँ से गोली चलाने की सोचने लगा तो खाकी वर्दी वाला कोई भी न दीख पड़ा। सब रफू-चक्कर हो चुके थे। वहाँ पर मोटर का ज़ख़्मी ड्राइवर, जिससे बाद में एक बार और मेरा वास्ता, बिल्कुल विपरीत अवस्था में पड़ा, तथा ज़ख़्मी श्री मार्टिन का शव पड़ा था। श्री मार्टिन का शव सराय में छोड़कर हम लोग साइकिलों पर नगर की ओर चल दिये।

सातवाँ परिच्छेद

वायसराय बाल-बाल बच गया

जिस दुकान या सराय पर पहले आकर बैठे थे, वहीं पर श्री सैबेज का सिर रखकर हम लोगों ने सांग्रामिक मन्त्रणा की। हम बड़े हर्ष और चाव से अपनी सफलता की आलोचना कर रहे थे, यह सोचकर कि सैनिक लारी वायसराय महोदय का शव मात्र ही ले जा पायी है, हम फूल उठते। ख़ैर! शेष नौ साथियों को किंचित मात्र खरोंच तक नहीं आयी। केवल मैं ही बुरी तरह घायल हो गया था। मेरे घाव से रक्त की धारा बह रही थी। अपने वीर साथी के शव पर अन्तिम प्रार्थना पढ़कर, हम लोग अपनी-अपनी साइकिलों पर डबलिन नगर की ओर चल दिये। अभी कुछ अधिक दूर नहीं गये थे कि सीमस राबिन्सन की साइकिल ख़राब हो गयी। वे झट कूदकर श्री ट्रीसी के पीछे जा खड़े हुए, परन्तु दो को लेकर चलना कितना कठिन है, और इस स्थिति में कितना हानिकारक, यह कोई भी अनुमान कर सकता है। परन्तु यह असुविधा अधिक देर तक नहीं रही। सामने से एक महाशय अपनी साइकिल लिए पैदल चले आ रहे थे। सांग्रामिक नियमों और कर्त्तव्यों तथा शान्ति परिस्थितियों के नियमों के कर्त्तव्यों में बहुत अन्तर होता है। इसी विश्वास के कारण झट राबिन्सन महोदय ने अपनी पिस्तौल के बल पर साइकिल माँग ली, जो तुरन्त मिल गयी। परन्तु उन महाशय से यह भी कह दिया गया कि वे संध्या समय ग्रैशम होटल के द्वार पर पड़ी हुई अपनी इस साइकिल को ले आवें।

नगर में हम शान्तिपूर्वक पहुँच गये। फिब्स बीरी सड़क पर स्थित श्रीमती टूमी (Tomei) के घर पर ठहराया गया। मेरे रक्त के छींटों के चिह्न से पुलिस नगर तक तो आ गयी, परन्तु फिर उसे आगे कुछ पता न चल पाया, यहाँ पर अच्छे-अच्छे डॉक्टर लोग मेरा इलाज करने लगे। श्रीमती टूमी का व्यवहार बहुत ही प्रशंसनीय था।

उसी दिन सायंकाल नगरभर में हो-हल्ला मच गया। अख़बार बेचने वालों ने इतना कोलाहल मचाया कि बस तौबा भली। मैंने सुना, वे चिल्ला रहे थे, ‘लॉर्ड लेफ्टीनेण्ट पर भीषण आक्रमण! एक्स टाऊन पर भयंकर युद्ध!! एक आक्रमणकारी की मृत्यु!!!’ परन्तु यह क्या? वह तो यह भी कह रहा है – ‘लॉर्ड महोदय साफ़ बच निकले?’ निश्चय ही हमारा सब प्रयत्न निष्फल हो गया। आज ही पहली बार लॉर्ड महोदय दूसरी मोटर पर न बैठकर, पहली मोटर में चढ़ बैठे थे। आह। तभी तो…। जिस गाड़ी को भयभीत कर भगा देने में ही हम सन्तुष्ट हो गये थे, वही हमारे उद्देश्य की अपूर्णता-उद्योग की निष्फलता का कारण हो गयी। यह समाचार हमारे लिए वज्रपात से कुछ कम न था। मेरे घावों की पीड़ा बहुत बढ़ गयी। मुझे बहुत दुख हुआ। परन्तु हर समय प्रसन्न रहने वाले श्री ट्रीसी ने इस बार हँसी में कह ही तो दिया, “डेन। हर बार तो तुम्हें नाकलांग नहीं मिल सकते। सफलता का आनन्द उठाया है, तो ज़रा असफलता का भी मज़ा चखो।” लॉर्ड महोदय पर फिर कभी आक्रमण करने का अवसर हमें नहीं मिला। अब तो प्रसन्न हैं कि लॉर्ड महोदय उस दिन बच गये थे। वैयक्तिक रूप से तो उनके प्रति हमें कोई द्वेष नहीं था। हम तो अपने एकमात्र शत्रु – इंग्लैण्ड के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे।

जो भी हो, पादरी लोगों तथा संवाद-पत्रों ने हमें जी भरके कोसा। परन्तु जनसाधारण की सहानुभूति हमारे ही प्रति थी। वे जानते थे कि हमारा यह युद्ध स्वतन्त्रता के लिए लड़ा जा रहा है, और यह तब तक जारी रहेगा जब तक कि या तो इंग्लैण्ड घुटनों के बल न झुक जाये, या फिर हम ही क़ब्ज़ों में न जा रहें। परन्तु लोगों के धन से चलने वाले ‘आयरिश इण्डिपेण्डेण्ट’ (Irish Independent) ने एक अग्र-लेख द्वारा हमें जी भरकर कोसा। नीचतापूर्ण मूर्खता, घृणित हत्या आदि-आदि शब्दों से वह लेख भरा पड़ा था। जिस पत्र ने आयरिश प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए चिल्ल-पौं मचाया था, वही आज चैन से न बैठ सका। वही, सरकारी कमीशन द्वारा की जाने वाली खोज अथवा अनुसन्धान की परीक्षा न कर हमारे मृत वीर पर घृणित और नीच आक्षेप करने पर तुल पड़ा। यह हम लोगों के लिए एकदम असह्य हो उठा। मैं तो घायल हो चुका था परन्तु श्री पोडर क्लेंसी अपने साथ 20-25 युवकों को लेकर उक्त समाचारपत्र के कार्यालय में जा धमके। सम्पादक महोदय को यह जताकर कि आज आपका कार्यालय व प्रेस स्वर्गारोहण कर जायेगा, अपने इन शब्दों की सार्थकता का प्रमाण देने लगे। मशीनें आदि तोड़-फोड़कर सभी कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर, वे लोग यह समझकर कि अब कुछ दिन सम्पादकगण विश्राम कर पायेंगे, लौट आये। परन्तु अगले ही दिन अन्य मुद्रणालयों की सहायता से पत्र नियमित रूप से प्रकाशित होने लगा। यह भी अच्छा ही हुआ, क्योंकि हमारे कई आयरिश प्रजातन्त्रवादी सैनिक वहाँ पर काम करते थे, उन्हें बेकार नहीं होना पड़ा। इस घटना से समाचारपत्रों की लेखन शैली में महान अन्तर आ गया। सरकार ने क्षतिपूर्ति के लिए उक्त संवाद-पत्र को 16,000 पाउण्ड प्रदान किये थे, परन्तु अब वह संवाद-पत्र अंग्रेज़ों के विरुद्ध बहुत ज़ोर से लिखने लगा।

श्री मार्टिन सैबेज का शव पुलिस ले गयी और जाँच के बाद शव उनके सम्बन्धियों को दे दिया गया। डबलिन के पादरियों ने तो उन्हें क़ब्रिस्तान में स्थान देने से भी साफ़ इन्कार कर दिया। श्री मार्टिन के शव का जुलूस निकला और वह जुलूस इतना विस्तृत हो गया था कि शायद ही कभी पश्चिम आयरलैण्ड में ऐसा जुलूस देखने में आया होगा। मीलों तक शोकग्रस्त लोग अश्रुपात करते हुए पीछे-पीछे चले आ रहे थे। बिशप ने प्रार्थना आदि की परन्तु सैनिक अन्त तक सबको रायफ़लों से घेरे खड़े रहे। वह वीर, धीर और निर्भीक सैनिक सर्वथा इस सब सम्मान का पात्र था।

संवाद-पत्रों में अपने आक्रमण सम्बन्धी विवरण पढ़कर हमें बहुत हँसी आती। लिखा था, सैनिकों ने लारियों में सवार होकर आक्रमणकारियों का पीछा किया। परन्तु उसी समय मेरे सामने फोनिक्स पार्क की ओर भाग जाने वाले सैनिकों का चित्र खिच गया। अगर सशस्त्र सैनिकों ने मोटरों में बैठकर हमारा पीछा किया होता, तो हम बच कैसे जाते?

बाद में मुझे डबलिन के दक्षिण भाग में श्रीमती मैलोन के घर भेज दिया गया, इनसे पहले से भी हमारा परिचय था। उनका एक पुत्र 1916 के विद्रोह में मारा गया था। वहाँ पर मेरी चिकित्सा ख़ूब अच्छी तरह हुई। इसके कुछ ही दिन पहले उनकी बड़ी लड़की ब्रिघिड मैलोन से मैंने हँसी में कहा था, कि अगर मैं घायल हो गया, तो सुश्रुषा का भार आप ही पर पड़ेगा, सो सच ही निकला। उनका सहवास मेरे लिए अत्यन्त सुखकर था और इससे मेरे घाव भी शीघ्र ही ठीक हो गये। इस सहवास से ही श्रीमती ब्रिघिड मैलोन से मेरा प्रेम हो गया था और डेढ़ वर्ष बाद हमारा विवाह भी उनसे ही हुआ। वह घटना किसी प्रकार की औपन्यासिक रोमांचकारी घटनाओं से कम नहीं। उसका विवरण हम फिर लिखेंगे।

1920 के प्रारम्भ में 1919 की घटनाओं का सिंहावलोकन करने का मुझे ख़ूब अवसर मिल गया। सोलोहैडबेग की घटना के बाद अपराधों, हत्याओं आदि की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। कई स्थानों पर उनके शस्त्र छीन लिए गये थे। सरकारी रिपोर्ट में यह घटनाएँ ख़ास ज़ोरदार शब्दों में लिखी गयी थीं। परन्तु हमारा तो जी चाहता था कि आगामी वर्ष में इन ‘अपराधों’ की संख्या बहुत बढ़ चढ़ जाये। सरकार से इनका वर्णन करते हुए अपने अत्याचारों की ओर निर्देश मात्र भी न करने में बहुत बुद्धिमता का परिचय दिया था। आयरिश प्रजातन्त्र को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर देना, स्त्रियों तथा बालकों के संघों को ख़िलाफ़-क़ानून क़रार देना, स्वेच्छा-सेवक संघ को तहस-नहस करने का पूर्ण प्रयत्न करना, उसके लिए मामूली बातें थीं। श्री आर्थर ग्रिफिथ ने तो लिखा है कि ‘समस्त आयरिश जाति’ ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दी गयी थी। अभी (उस समय) तो सरकार ने रात्रि के घण्टे’[2] (Curfew) नहीं लटकाये थे, अभी तो उसने बिस्तरों में सोये हुए निर्दोष व्यक्तियों को मार डालने का उद्योग भी शुरू नहीं किया था। गाँव के गाँव जला देना, भागने का प्रयत्न करने के अपराध मैं क़ैदियों को गोली से मार देना, पादरियों तथा बालकों की हत्याएँ, आयरिश महिलाओं की लांच्छना – यह सब बातें तो अभी तक नहीं हुई थीं। मैं यह सब क्यों कहता हूँ, केवल इसलिए कि सरकार ने जब अपने इन आरम्भ के ही अत्याचारों का उल्लेख तक न किया था, तो बाद को ये सब अत्याचार प्रदोष का घण्टा बजने पर पुलिस की गोलियों की बौछार से नित्य बीसों स्त्री-पुरुषों को सदा सर्वदा के लिए अनन्त निद्रा में सुला देना आदि…लोगों के सामने कैसे आ सकता है?

1920 की वसन्त ऋतु में, मैं उस अति सुन्दर तथा रमणीक ग्रेन्थम स्ट्रीट के घर को छोड़ तारा पर्वत के पास ‘रायलमीथ’ में जा रहा। यह ऐतिहासिक स्थान है, वहाँ पर रहते हुए आयरलैण्ड के उज्ज्वल भूत तथा भविष्य के न जाने क्या क्या विचार मेरे दिल में आ-आकर मुझे रोमांचित कर गये। 1099 के विद्रोही वीर भी इसी स्थान पर धराशायी होकर वीरगति को प्राप्त हुए थे। वहीं पर झुककर न जाने कितनी बार हमने यह प्रार्थना की “उनकी इच्छा, उत्कटेच्छा – जिसके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था आज हमारे ही युग में पूर्ण हो जाये।” यहाँ पर हमारा बहुत से मित्रों से परिचय हुआ।

कुछ दिन बाद अकर्मण्यता चुभने लगी, उधर कार्क लॉर्डमेयर श्री टायरमैक कर्टन घर से सोये हुए परिवार के सामने पुलिस द्वारा मार दिये गये। और भी बहुत-सी ऐसी ही अत्याचारपूर्ण हत्याएँ हुईं। तुरन्त डबलिन पहुँचा। सभी मित्रों से मन्त्रणा की ओर फिर मैं तथा श्री ट्रीसी साइकिल ले टिप्रेरी को चल दिये। उस दिन वहाँ 12 मास के पश्चात प्रवेश किया था। 1920 के ईस्टर सप्ताह में श्री राबिन्सन तथा मैंने, डबलिन में ईस्टर के उत्सव में सम्मिलित होने का दृढ़ निश्चय कर लिया। श्री विनसैण्ट के साथ हम भी मोटरों में बैठकर उधर चल दिये। 1916 के विद्रोह के बाद से अंग्रेज़ी सेना इन दिनों में विशेष तैयारी करती, नगर से कई-कई मील बाहर तक मोर्चेबन्दी की जाती तथा प्रत्येक आने जाने वाली मोटर की तलाशी ली जाती। परन्तु हमें इस बात का ध्यान ही न था। ह्वाइट हॉल ट्राम्बे टरमिनस के पास पहुँचने पर एक मोड़ पर मुड़ते ही हमारी एक सैनिक लारी से भेंट हो गयी। वे हमारी तलाशी लेने के लिए रुक गये। परन्तु हमारी भोली आकृति से प्रभावित होकर सैनिकों के अध्यक्षों ने हमारी तलाशी लिए बिना ही, सैनिकों को चलने की आज्ञा दे दी। हम बहुत प्रसन्न हुए। ख़ूब जी खोलकर हँस ही रहे थे कि ‘ठहरो’ का शब्द सुनकर चौंक पड़े। क्या देखा, मोर्चा-सा बना हुआ है और क़रीब 20 सैनिक रायफ़लें लिये वहाँ खड़े हैं। हँसी तो गयी ही, साथ ही अब विपत्ति की आशंका से कुछ घबराये भी। ख़ैर! सामने से एक अफ़सर हाथ में रिवाल्वर लिए आगे बढ़ा और उसने कहा कि मुझे आपकी मोटर की तलाशी लेनी है। मैंने अत्यन्त सहज भाव से कहा, आप निःसंकोच ही तलाशी ले लीजिये परन्तु हमें ज़रा जल्दी है। कार्य बहुत ज़रूरी है किंचित मात्र की देरी होने से हमारी भारी हानि हो सकती है। क्षणभर सोचकर उन्होंने हमें चले जाने की आज्ञा दे दी।

हम मोटर की तलाशी लेने की आज्ञा न दे सकते थे, क्योंकि उसमें तो बहुत कुछ रायफ़लें, रिवाल्वर आदि भरे पड़े थे। पर यदि उनमें से किसी ने तलाशी लेने का प्रयत्न भी किया होता जो यही प्रयत्न उनका अन्तिम प्रयत्न होता। जो भी हो उन दिनों में सिवाय हमारी मोटर के कोई भी मोटर ऐसी न जा पायी जिनकी उन लोगों ने तलाशी न ली हो! सौभाग्य!

आठवाँ परिच्छेद

जनरल लूकसा को क़ैद,

पुलिस बैरकों पर आक्रमण

पुलिस वालों ने बैरकों से निकलना बन्द कर दिया। छोटे-छोटे बैरकों के नित्य प्रति जलाये जाने के समाचार आ रहे थे। सरकार ने भी अब बड़ी चौकियाँ बनवानी शुरू कर दीं। उनके मकान बड़े सुदृढ़ तथा सुरक्षित होते और पुलिस वाले अधिकतर उन्हीं में छिपे पड़े रहते। हमने सोचा, यदि पर्वत हजरत मुहम्मद के पास नहीं जाते, जो हजरत मुहम्मद को ही उनके पास जाना होगा। अगर पुलिस वाले बाहर नहीं आते तो हमें ही वहाँ जाना होगा। उस समय उनके अत्याचारों के कारण जनसाधारण में भी उनके विरुद्ध बहुत घृणा बढ़ चुकी थी। दूसरी ओर सरकार बदमाशों को उत्साहित कर, अपराधों के लिए उत्तेजित करने लगी। यहाँ तक कि हत्या के अपराधी भी निर्दोष कहकर मुक्त कर दिये जाते। इसी अवसर पर आयरिश स्वेच्छा सेवक लोगों की रक्षा का कार्य करने लगे, जिससे प्रजा की उनके प्रति सहानुभूति और भी बढ़ गयी।

इन्हीं दिनों में निश्चय किया गया कि अब पुलिस चौकियों पर आक्रमण करना चाहिए। सबसे पहला आक्रमण आईराग्लैन में हुआ। इस आक्रमण का नेतृत्व श्री लियमलिच के हाथ में था। आप आयरिश रिपब्लिकन (प्रजातन्त्र) सेना के प्रमुख कार्यकर्ता थे। उनसे मेरा परिचय 1919 की शरद ऋतु में हुआ था। उस समय वे भी मेरी तरह दौरे पर ही थे। उन्होंने फर्माये के गिरजे में जाते हुए 12 सिपाहियों की रायफ़लें छीन ली थीं। लड़ाई में एक सिपाही मारा गया था और लियम महाशय घायल हो गये थे। उसके प्रतिकार में उस समय पुलिस वालों ने बहुत-सी दुकानें लूट ली थीं। उन्हीं लियमलिच के नेतृत्व में आईराग्लैन का यह सफल आक्रमण हुआ था। इसके बाद ऐसी ही दूसरी घटना क्लेयर में श्री माईकेल ब्रेनन के नेतृत्व में हुई। उन्होंने वहाँ के सारे शस्त्र तथा बारूद आदि छीन लिए। तीसरा आक्रमण लैण्डर्स की चौकी पर हुआ। यहाँ पर तीन सिपाही घायल हो गये और चौकी जला दी गयी। एक बार सीनमैलोन नायक थे।

इधर हमने टिप्रेरी पहुँचकर यही कार्य शुरू कर दिया। एक बार तो रातभर लड़ाई होती रही। हम सड़कों पर बड़े-बड़े वृक्ष काट कर डाल देते, ताकि सैनिक लारियाँ धड़ाधड़ न चल पायें। टेलीफ़ोन आदि के तार काट डालते, मकान के आमने-सामने जहाँ कहीं स्थान मिलता, बैठकर छोटी मोटी ख़ान में बारूद भर कर उसे एकाएक उड़ा देते और फिर उन लोगों को आत्मसमर्पण करने का आदेश देते। उपरोक्त घटना के समय पुलिस वाले भी डट गये। उन्होंने आज्ञा का पालन नहीं किया। ख़ूब लड़ाई हुई। आख़िर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। उन्हें ‘मार्च’ की आज्ञा दे बाहर निकाला। उनके शस्त्रादि छीन लिए और उन्हें छोड़ दिया। उस समय प्रातःकाल हो चुका था।

यह 4 जून 1920 की घटना है। ठीक उसी दिन कैपह्वाईट पर भी आक्रमण हुआ था। इन सब आक्रमणों में हमारे 30-40 व्यक्ति हुआ करते थे। हमारे तीनों आक्रमणों में किसी भी व्यक्ति को कोई घाव नहीं लगा था। इन्हीं दिनों, 27 जून 1920 के दिन सीन मैलोन महाशय ने किलमैलोक पुलिस स्टेशन पर जोकि नगर के ठीक मध्य में स्थापित था, आक्रमण कर दिया, ख़ूब लड़ाई हुई, मकान में आग लगा दी गयी। परन्तु आक्रमणकारियों में से श्री स्कल्ली मारे गये। अतः युद्ध रोक देना पड़ा। विपक्षी दल के 2 मरे, 6 घायल हुए और जो 2 आत्मसमर्पण की मन्त्रणा देने के अपराध में एक कमरे में बन्द किये गये थे, वे वहीं जल मरे।

आयरिश-स्वेच्छा-सेवक संघ के एक प्रमुख कार्यकर्ता बॉब बार्टन राजद्रोह के अपराध में दस वर्ष के लिए कारागार में बन्द कर दिये गये। सरकार का एकदम ऐसा अनुचित व्यवहार देखकर निश्चय किया गया कि ब्रिगेड जनरल लूकस को पकड़ लिया जाये। वे उन दिनों फर्माय में मछलियों का शिकार खेलने गये हुए थे। उन्हें तथा उनके दो साथियों को लिच महोदय क़ैद कर लाये। वे लोग मोटर में बैठे-बैठे अरबी भाषा में बातचीत करने लगे। इसका सारांश तो कुछ मिनट बाद स्वतः ही स्पष्ट हो गया, जब उन्होंने एकदम आक्रमण कर दिया। उनमें से एक व्यक्ति घायल हो गया। लूकस को तो लिच महोदय साथ ले आये, परन्तु शेष दोनों को उन्होंने फर्माय की पुलिस चौकी में पहुँचा दिया। परिणामस्वरूप सरकार ने फर्माय नगर को जला डाला। जो भी हो, लूकस महाशय को क़ैद रखा गया। वे एक वीर सैनिक थे। उनके साथ बहुत सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा। इस बात को बाद में उन्होंने भी स्वीकार किया। उन्हें पूर्व लिम्मर्क के एक मकान में क़ैद किया गया। वहीं से वे 29 जुलाई को भाग निकले।

उधर नित्य प्रति डाक लुट जाने के कारण सरकार ने लिम्मर्क नगर से लिम्मर्क जंक्शन तक सैनिक लारियाँ भेजने का प्रबन्ध कर दिया था। हमने इस पार्टी पर आक्रमण करने के लिए 30 जुलाई का दिन निश्चित किया। उधर लूकस महाशय कहीं दौड़ते-भागते इन मोटरवालों से जा मिले। उन्होंने आपको मोटर में बिठा लिया। इसी लारी पर हमने आक्रमण किया। लड़ाई में सिपाहियों के दो साथी मारे गये। दूसरे दिन संवाद-पत्रों में ‘जनरल लूकस को पुनः गिरफ्तार करने का निष्फल उद्योग’ शीर्षक देखकर ही हमें मालूम हुआ कि लूकस महाशय भाग निकले थे।

जो भी हो, इस प्रकार की घटनाओं की संख्या नित्य प्रति अधिक होती जा रही थी और उधर पुलिस के अत्याचार भी बढ़ते चले जा रहे थे।

नवाँ परिच्छेद

उड़ाऊ जत्था

मैंने अपने दल के सामने एक नया प्रस्ताव रखा। यदि प्रत्येक काउण्टी में एक-एक उड़ाऊ जत्था स्थापित किया जाये तो बहुत सुविधा हो। अर्थात अब तक तो हमारे सारे आक्रमण उन लोगों पर निर्भर रहे, जो रातभर हमारे साथ रहते और प्रातः होते ही अपने घरों को लौट जाते। उनकी पारिवारिक परिस्थितियाँ कई बार उनके कार्य में विघ्नकारी सिद्ध होती थीं। अतः मेरा तो यही अनुभव था कि युद्ध में भरोसा उन्हीं लोगों पर किया जा सकता है जोकि हर समय साथ रहें। ट्रिप्रेरी के स्वेच्छा-सेवकों की सहायता पाने की आशा से नाकलांग वाली घटना के समय हमें बड़ी असुविधा हुई थी! फिर वे लोग रातभर तो लड़ते, दिन को उन्हें घर लौट आना आवश्यक हो जाता। और यदि 20-30 मील की दूरी पर युद्ध करने की ठनती तो और भी कठिनाई का सामना होता। अब सहस्रों युवक हमारे इर्द-गिर्द एकत्र होने लगे। उन्हें भी संगठित तथा शिक्षित करने के लिए बहुत से कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। उन जत्थों को सुप्तप्रायः देशों में भेजकर वहाँ भी उथल-पुथल मचायी जा सकती थी। अन्त में मेरा प्रस्ताव स्वीकार हो गया।

अंग्रेज़ लोग भी बड़ा उग्र रूप धारण कर रहे थे। उन्होंने पुलिस वालों को असीम अधिकार दे डाले! वे लोग कभी भी किसी भी व्यक्ति को बाज़ार में घेर कर उसकी तलाशी ले डालते। जब, जहाँ जी में आता, जिसे बन पड़ता, क़िले में ले जाते, तथा उन्हें हमारे सम्बन्ध में सूचनाएँ देने के लिए उत्पीड़ित किया करते। वे लोग इच्छानुसार किसी नगर में किसी भी भाग को घेर लेते और कई कई दिनों तक छोटे छोटे कमरों से लेकर अट्टालिकाओं तक हमारी तलाश किया करते। सबसे मुख्य बात तो थी ‘हत्यारे दल’ की स्थापना। उसमें भूतपूर्व सैनिक तथा साधारण अपराधों के क़ैदी आदि ही थे। उन लोगों को भारी वेतन दिये जाते और यह विश्वास दिलाया जाता कि उनके किसी भी कार्य का उत्तरदायित्व उन पर न डाला जायेगा। उनका कर्त्तव्य था कि वे क्रान्तिकारियों को जहाँ कहीं पावें, निस्संकोच मार डालें। उसके लिए भी उन्हें विशेष प्रमाणों की आवश्यकता न होती। जिस किसी पर उन्हें किंचित मात्र भी सन्देह हो उसे ही वे मार डालते थे। ऐसी दशा में हमें अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ा। ऐसी भयंकर दशा में भी उक्त जत्थे का अस्तित्व साधारण सिपाहियों तथा सैनिकों से गुप्त रखा गया था। परन्तु हम लोगों को तो उन लोगों के बारे में बहुत कुछ ज्ञात हो चुका था। किस व्यक्ति ने किस हत्या में भाग लिया है, यह भी हमसे छिपा न था। कौन किस ड्यूटी पर लगाया गया है, हम ख़ूब जान गये थे। उनके प्रमुख कार्यकर्ताओं के चित्र भी हमारे पास विद्यमान थे, जोकि हमने अपने सभी मित्रों में बाँट दिये थे।

एक दिन मैं भी इन लोगों के फन्दे में फँस गया। रात के ग्यारह बज चुके थे। 12 बजे के बाद घरों से बाहर रह, निर्दयी अंग्रेज़ सैनिकों की गोलियों की निरन्तर बौछार से मरना सभी को नापसन्द था और हमें तो वह विशेष तौर से! शीघ्र ही ‘केरोलेन’ के घर पहुँचने के विचार से एक कार पर चढ़ गया। मैं उस समय नैलसन पिल्लर के पास था। मेरे साथ ही पाँच व्यक्ति और चढ़े। मैंने उन्हें पहचान लिया। वे सभी उसी ‘हत्यारा दल’ के सदस्य थे। उनमें दो तो मेरे साथ ही एक बैंच पर मेरे दायें बायें बैठ गये। करूँ तो क्या? शान्ति के अतिरिक्त कोई उपाय न था। सिगरेट निकालकर सुलगा लिया। कुछ देर तक वे भी बिल्कुल शान्त होकर बैठे रहे। सोचा, शायद किसी अन्य कार्य के लिए किसी ओर जा रहे होंगे। मेरा तो उन्हें ध्यान भी नहीं होगा। ऐसी बात सोचकर हृदय की उद्विग्नता को शान्त करने की चेष्टा कर ही रहा था कि एकाएक उन दोनों व्यक्तियों को जोकि मेरे दाहिने बायें बैठे थे, हाथ एकाएक जेबों में घुसे, और वे कुछ निकालने लगे। मुझे यह सब समझ जाने में कुछ देरी नहीं लगी। मैंने तुरन्त अपना रिवाल्वर निकाल लिया। मेरी इस तेज़ी से वे घबरा उठे। मैंने अपना रिवाल्वर उनके सामने तान दिया। वे तीनों नीचे उतर गये और मैं भी। परन्तु अब क्या होगा? गोली चलेगी तो अभी बहुत से सैनिक आ एकत्र होंगे। थोड़ी देर बाद रात्रि का घण्टा बज उठेगा। सभी लोग घरों में घुस जायेंगे और शिकारी सैनिक गोलियों की वर्षा शुरू कर देंगे। वहाँ पर क्षणभर ठहर कर मैं सेण्ट जोसेफ टेरिस की ओर भाग निकला। तीन ही चार क़दम जाकर वहीं खड़ा थपथप करता रहा। वे समझे बहुत तेज़ी से भाग रहा हूँ। वे गिरजे के पास वाली सड़क से मुझे मेरे रास्ते में आगे से रोकने के विचार से दौड़े, पर मैं आगे न बढ़ लौट आया। इतने में अन्तिम ट्राम-कार आयी और मैं झट से कूदकर उसी में चढ़ बैठा। मैं यह न समझ पाया कि उनके शेष दो साथी क्यों शान्त भाव से वहीं बैठे रहे। विपत्ति के समय अपने सहकारियों का साथ देना शायद उनके कर्त्तव्यों में से न था। अस्तु, उस दिन मैं ड्रम कोण्ड्रा के फ़्लेमिंग के परिवार में जा ठहरा। परन्तु उस दिन से दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब कभी भी अकेले बाहर नहीं जाऊँगा।

दसवाँ परिच्छेद

स्थान-स्थान पर युद्ध

इस बार हमें बहुत दिनों तक डबलिन में ही ठहरे रहना पड़ा। कारण यह था अब तक तो हमारे मुख्य केन्द्र वाले सदैव हमारा विरोध ही करते रहे थे। किन्तु अब हमारी सफलता से प्रभावित होकर वे लोग हमारी ओर झुकने लगे। उन्होंने कुछ उत्साह बढ़ाया और कुछ कार्यक्रम भी निश्चित करने की बात सोचने लगे। इन दिनों निकम्मे रहना पड़ता। समय बिताने के विचार से अधिकतर गैलिक मल्लशाला में चले जाया करते। पर वहाँ भी उस दिन एक भारी विपत्ति आ पड़ी! कैसे? यह सोच लेना कल्पना शक्ति से बाहर है। हम ग़रीब तो थे ही। कहीं कुछ धनादि देख पाते तो मुँह में पानी भर आता। उस दिन ताश के साथ कुछ जुआ भी हुआ और सौभाग्यवश कुछ जीत भी लिया। परन्तु अब एक बड़ी भारी चिन्ता ने आ घेरा। जितनी जल्दी हो सके, उसे ख़र्च कर देना चाहिए। क्योंकि क्या जाने कब लड़ाई में मारे जायें और फिर किसी साहसी सिपाही को हमारी जेब में से निकालने का मौक़ा मिल जाये और वह हमारा जामे-सेहत ही पीता फिरे। वहाँ से हम घुड़दौड़ में अपने भाग्य की आज़माइश करने गये, वहाँ भी बहुत कुछ जीत लिया। जो भी जीता उस सभी पर केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सभी लोगों का समान अधिकार था। हमारे छोटे से दल से अधिक व्यावहारिक साम्यवादी और कहाँ मिलते?

हम सिनेमा देखने गये। दशा यह थी कि पुलिस आदि भी पूरी शक्ति के साथ हम लोगों को शीघ्रातिशीघ्र अनन्त निद्रा में सुला देने की चेष्टा कर रही थी। एक दिन टालवेट स्ट्रीट में हत्यारे दल से भेंट हो गयी। दोनों ओर से रिवाल्वर निकाल लिए गये। किसी ने भी उन्हें दाग क्यों नहीं दिया, यह नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार एक दिन श्री सीमसकर्मान के घर विश्राम करने के विचार से गये थे कि वहाँ घुसने पर एक अपरिचित व्यक्ति अन्दर प्रविष्ट हुआ। और सीमस महोदय को सूचित कर गया कि इन नवागन्तुकों के पीछे एक ख़ुफ़िया भी था। सुनते ही हम बाहर निकल पड़े। हमें लौटते देख वह ख़ुफ़िया भी सिर पर पैर रखकर नौ दो ग्यारह हो गया। इस प्रकार जासूस बराबर हमारे पीछे बहुत ही बुरी तरह से लगे रहते थे। उस दिन सिनेमा देखने गया, तो वहाँ फ़्लेमिंग परिवार की दो लड़कियों तथा श्रीमती ओब्रीन से भेंट हुई। श्रीयुत ओब्रीन नाकलांग के युद्ध में हमारे साथ थे। इस समय स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण अमेरिका गये हुए थे। वे सभी मुझे सिनेमा में देखकर एकदम स्तम्भित रह गईं। एक व्यक्ति जिसको देखते ही गोली से मार देने की आज्ञा पुलिस वालों को दी जा चुकी हो, वही सिनेमा आदि सार्वजनिक स्थानों में निस्संकोच भाव से आनन्द विहार में निमग्न फिर रहा हो। अब तक मैं भी नित्य विपत्ति सहन करने में अभ्यस्त हो गया था। इसी से इतना लापरवाह रहता था। सिनेमा देखकर मैं बाहर निकला, तो देखता क्या हूँ कि उसी रात्रि की घटना वाले उन्हीं तीन हत्यारों में से एक खड़ा है। परन्तु मेरे लिए उसका मनोभाव ताड़ लेना कुछ भी कठिन न था। जी में तो आया, ज़रा रिवाल्वर की भूख को शान्त करने के लिए, इसे भी एक गोली का ग्रास बनाऊँ, परन्तु अपने दायें-बायें चली जाने वाली कोमलाँगी बालिकाओं को एकाएक चकित कर देना मुझे वांछनीय न जँचा इसलिए चुपचाप चला गया। हमारे थोड़ी दूर जाने पर एक लड़की ने कहा, ‘एक मित्र पीछे चले आ रहे हैं।’ सभी को ट्राम कार पर चढ़ा, मैं स्वयं भी चढ़ा। ट्राम चल दी। वह जासूस भी ट्राम पर चढ़ने के विचार से आगे बढ़ा, परन्तु मैंने द्वार में बाज़ू फैला, खड़ा होकर उसकी तरफ़ ज़रा घूरकर देखा। मेरा मनोभाव ताड़कर वह चुपचाप वहीं रह गया।

फ़्लेमिंग के परिवार के घर में इस सब बात पर वादविवाद हुआ और अन्त में यही निश्चय हुआ कि हमें उस दिन वहाँ नहीं ठहरना चाहिए, ग्यारह बजे घर के पिछले द्वार से मैं और श्री ट्रीसी निकल पड़े। कहाँ जायें – इस बात पर कुछ क्षण तक विचार हुआ। अन्त में यह निश्चय कर कि बेल्टफास्ट रोड स्थित प्रोफ़ेसर केरोलेन के ‘फर्न साइड’ नामक घर में – जिसकी कि एक चाबी हमें इन्हीं अवसरों के लिए दी गयी थी – ही जाना चाहिए। हम चल दिये। वहाँ के सभी व्यक्ति सो रहे थे: चुपचाप अपने निर्दिष्ट चले गये और वहाँ जाकर लेट गये। नींद नहीं आयी। हृदय में जाने कैसी अव्यक्त वेदना, उत्सुकता और भयमिश्रित भाव उठने लगे। ऐसी ही कुछ दशा श्री ट्रीसी की भी थी, मैं उन पर यही भाव व्यक्त करने के लिए वाक्य बनाने की चिन्ता ही में था, कि वे बोल उठे, “भैया, डेन! क्या तुम सो रहे हो? मुझे नींद नहीं आती, हृदय में न जाने क्या हो रहा है? क्यों?”

मैंने भी अपनी वही दशा बताई। फिर हँसी में कहा, “कोई आश्चर्य नहीं कोई जासूस हमारे पीछे यहाँ तक आ पहुँचा हो, और अभी पुलिस वालों के साथ यहाँ आ धमके।” सीनट्रीसी महोदय ने सहज भाव से इतना ही कहा, “अब तो कोई चिन्ता की बात नहीं। अगर हमारी मृत्यु भी हो जाये, तो भी यह युद्ध जारी रहेगा ही। परन्तु अब क्या हम दोनों को इकट्ठा ही मरना होगा।”

एक ऊँघ आ गयी फिर एकाएक उठकर बैठ गये। सीढ़ियों पर से किसी के आने की पद्ध्वनि सुनायी दी। कुछ फुसफसाहट का शब्द सुनायी दिया। फिर सीढ़ियों पर जल्दी जल्दी चढ़ने वालों की आवाज़ सुनायी दी। हम दोनों एकाएक आकर अपने रिवाल्वर सँभालने लगे। द्वार खुल गया। सीनट्रीसी महोदय ने मुझे इतना ही कहा, “डेन भैया, विदा! अब आकाश में ही पुनर्मिलन होगा।”

बेंग-बेंग करती हुई गोलियाँ अन्दर आने लगीं। क्रेक-क्रेक करते हुए, मेरे जर्मन माउज़र पिस्तौल ने प्रत्युत्तर में गोलियों की वर्षा कर दी। एक अंग्रेज़ अध्यक्ष उस समय पुकार पुकार कर कह रहा था, “रीयन कहाँ है? रीयन कहाँ है?” मेरे दाहिने हाथ पर एक गोली आ लगी। परन्तु मैं इसकी कोई परवाह न कर निरन्तर गोलियों की वर्षा करता रहा। इस बीच धड़ाम का शब्द हुआ और सभी सिपाही लौट पड़े। परन्तु उन्हें कार्यक्षेत्र में डटे रहने को बाध्य करने के लिए पीछे से रायफ़लें चलने लगीं, मैंने सीढ़ियों की ओर लपककर देखा कि एक दर्जन सैनिक फिर अनिच्छुक भाव से ऊपर चढ़े आ रहे हैं। परन्तु मेरी पिस्तौल की कृपा से वे फिर लौटने को बाध्य हो गये। मैं उनका पीछा करने लगा। वे भाग खड़े हुए। परन्तु फिर भी पीछे से कोई न कोई रायफ़ल की गोली चलती और किसी का आर्तनाद तथा धड़ाम से गिरने का स्वर सुनायी देता। मैं निचली छत पर आ गया था। उस छत में छेद कर गार्डर से लटककर नीचे खड़े हुए सिपाहियों पर गोलियाँ चलाने की बात सोच ही रहा था कि वे लोग वहाँ से भी भाग गये। अब मुझे बेचारे ट्रीसी की चिन्ता होने लगी। मैंने वहीं लेटकर धीमे स्वर में पुकारना शुरू किया, “सीन कहाँ हो? सीन! सीन!” परन्तु कोई उत्तर न मिला। चिन्ता और भय से मैं कुछ व्याकुल-सा होने लगा। इधर मेरे घावों से रक्त की धारा बह रही थी और मैं प्रति क्षण दुर्बल हुआ जा रहा था। ख़ैर यह सोचकर कि श्री ट्रीसी येनकेन प्रकारेण बच ही निकले होंगे, मैं भी उठा। एकाएक नीचे से कई बम फटने के धमाके से सारा घर प्रतिध्वनित हो उठा। जब मैं पहले पहले इस घर में आया था तब मुझे इस घर की छोटी-सी दीवार ऐसे ही अवसरों के लिए ख़ास तौर से दिखायी गयी थी। मैं वाटिका में से लपककर उस दीवार की ओर बढ़ा। सामने दीवार पर से एक सिपाही ने सिर उठाकर गोली छोड़ते हुए मुझे ठहरने को कहा। उसे मौक़ा न दे, मैंने उस पर गोली छोड़ी तो वह कराहता हुआ धड़ाम से ज़मीन पर जा गिरा। इतने में सिपाहियों के एक गुट ने मुझ पर गोली चलानी शुरू कर दी। मैं भी गोली चलाता हुआ निर्दिष्ट स्थान की ओर चलता गया। फिर कैसे क्या हुआ, कब दीवार फाँदकर बाहर निकल आया, आदि मैं कुछ नहीं जानता। बाद में मैंने अपनेआप को ड्रमकोण्ड्रा पुल तथा उस गृह के बीच में सड़क पर खड़ा पाया। वहाँ पर अधिक देर तक ठहरना बड़ी मूर्खता होती। एक सशस्त्र लारी से मैं टकराया। और तो कुछ न सूझ पड़ा पर गोली चलाकर उनमें से एक व्यक्ति को मार डाला। उधर से भी गोलियों की वर्षा होने लगी। मैं नगर की ओर भाग खड़ा हुआ। दायें हाथ ट्रेनिग कॉलेज की 18 फुट ऊँची दीवार थी। यदि उस पर से कूद जाऊँ तो बस बिल्कुल सुरक्षित हो जाऊँ। घायल रहने की हालत में ऐसी 18 फुट दीवार पर चढ़ना कोई आसान कार्य नहीं। परन्तु प्राणों की बाज़ी लगाते ही मनुष्य में असीम शक्ति का संचार हो उठता है यही मेरा अनुभव है। इस बार भी निश्चय किया और दीवार पर चढ़ गया! कैसे? सो नहीं कह सकता। बाद में स्वयं भी बड़े आश्चर्य से उसकी ओर देखा करता!

अब के कुछ चेतना हुई तो अपने को नदी तट पर खड़ा पाया। किधर जाऊँ, कुछ समझ में न आया। नदी पार करनी होगी, परन्तु पुल पर से नहीं। फिर नदी ही में घुस गया। सौभाग्यवश पानी अधिक गहरा नहीं था। परन्तु मेरे शरीर के अनेक घावों में वह एकदम ठण्डा जल प्रवेश कर एक विचित्र झनझनाहट-सी पैदा करने लगा। तिस पर भी मुझे कोई विशेष तकलीफ़ तथा ठण्ड अनुभव नहीं हुई। मैं समझता हूँ, किन्हीं विशेष अवसरों पर परिस्थितियाँ मनुष्य में प्रकृति के विरुद्ध ऐसी-ऐसी कठिनाइयों को अनुभव तक न करने की शक्ति प्रस्फुटित कर देती हैं।

नदी के उस पार कुछ घर देखे। अधिक परिश्रम करना अब मेरे लिए असम्भव था, अतः उन्हीं घरों में विश्राम करने का निश्चय कर उधर बढ़ा। न जाने कौन-सी अज्ञात शक्ति मुझे उनमें एक घर विशेष की ओर धकेले जा रही थी। उसी घर का द्वार क्यों खटखटाऊँगा, वहीं आश्रय पाने की आशा से जाऊँगा, कुछ नहीं समझ सका। परन्तु वही द्वार खटखटाने पर एक वृद्ध को सामने खड़ा पाया। रक्तरंजित शरीर को देखकर सहज में ही मेरी स्थिति समझ गया। उसने बिना कोई प्रश्न पूछे इतना कहा, “आइये, यथाशक्ति आपकी सहायता तथा सेवा करेंगे।” भीतर ले जाकर एक चारपाई पर लिटा दिया और श्रीमती लांग नामक नर्स को बुलाकर मेरी मरहम-पट्टी की। बाद में पता चला कि मेरे मेहरबान श्री फ्रेड मोम्स थे जिनकी पूर्ण सहानुभूति विपक्ष में थी, तथापि उन्होंने मेरी सुश्रूषा तथा देखभाल ठीक उसी प्रकार से की जैसेकि कोई पुत्र अपने पिता से आशा कर सकता हो। प्रातः समय मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। प्रातः होते ही 20 अक्टूबर, 1920 श्रीमती मोम्स के द्वारा फिल्सानहन के घर पत्र भेजा कि मुझे शीघ्र कहीं सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रबन्ध किया जाये। यह पत्र भेजने के बाद मालूम हुआ कि इस घर के दोनों ओर के घरों में पुलिस रहती है। अनजाने में इसी द्वार विशेष को खटखटाने मात्र से ही मैं कितना बाल-बाल बच गया था!

मोटर आने पर हम मेटर अस्पताल की ओर चल दिये। रास्ते में एक पुलिस मैन द्वारा रोक दिये जाने पर कुछ अधीर हुए। परन्तु उसने केवल यही कहा “महाशय! मोटर ज़रा मन्द गति से चलाइए, उधर से सैनिक लारियाँ जा रही हैं।” अस्पताल के द्वार पर श्री डिकमैकली को खड़ा पाया। उन्हें गिरफ्तार करवाने वालों के लिए भी भारी पुरस्कार घोषित किया जा चुका था। उन्हें वहाँ देख बहुत आश्चर्य हुआ, परन्तु उन्होंने हमें अस्पताल से आगे गुज़र जाने का संकेत किया। हम माउण्ट जाम स्क्वायर में चले गये। वहाँ पर एक अस्तबल में घुसे। मेरी पीड़ा उस समय बहुत असह्य हो उठी थी। पर श्री ट्रीसी को सामने देख मेरी प्रसन्नता की हद न रही। उनको ज़रा भी चोट नहीं आयी थी। उस दिन उन्होंने भी भाग्य पर विश्वास करके कोई एक द्वार खटखटाया था जहाँ से कि उनके चचेरे भाई श्री फिलरिपन बाहर निकले। यह घर उन्हीं का था।

सबसे अधिक वेदनाजनक समाचार था हमारे मित्र प्रो. केरोलेन के घायल किये जाने का। हमारे वहाँ से बच निकलने पर उन्हें दीवार की ओर मुँह कर खड़ा होने को विवश किया गया और गोली मार दी गयी क्योंकि वे हमारे सम्बन्ध में कुछ भी सूचना देने को तैयार न थे। उनकी मेटर अस्पताल में ही कुछ रोज़ बाद मृत्यु हो गयी। उस वीर ने हमारी ख़ातिर प्राण तक न्योछावर कर दिये। निश्चय ही वे सच्चे वीर थे! आदर्श देशभक्त थे!!

अस्पताल में आये तीन दिन ही हुए थे: बाज़ार में गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनी। सोचने लगा, अब यह युद्ध बन्द न होगा। इसी विचार से मुझे असीम आनन्द भी अनुभव होता। कुछ देर बाद एक नर्स हड़बड़ाती हुई मेरे कमरे में दाख़िल हुई। कुछ अशुभ समाचार है, यह समझ लेने में मुझे देर न लगी। उसने कहा, ‘सैनिकों ने अस्पताल को घेर लिया है। तलाशी हो रही है कि हम वहीं हैं।’ उचककर खिड़की में से देखा, सैनिक अस्पताल को घेरे खड़े थे। यह सोचकर कि अब बचना असम्भव है, मैं मुस्कुराने लगा। परन्तु सौभाग्य देखिये। कुछ ही घण्टे पहले बम से घायल हुआ एक स्वेच्छा-सेवक जिसकी शक्ल मुझसे बिल्कुल मिलती-जुलती थी वहाँ लाया गया था। पुलिस वालों के तलाशी लेते न लेते उसके प्राण पखेरू उड़ गये। पुलिस वाले यह समझकर कि डेन ब्रीन मर गया, बहुत प्रसन्न हुए और वहाँ से लौट गये। प्रातःकाल जो गोलियाँ सुनी थीं, उनका ब्यौरा यह है कि कुछ स्वेच्छा-सेवकों ने एक सशस्त्र लारी छीनने के विचार से उस पर आक्रमण कर दिया था। परन्तु थोड़ी देर युद्ध करने के बाद उन्हें असफल लौटना पड़ा।

ग्यारहवाँ परिच्छेद

श्री ट्रीसी आदि को वीरगति

अस्पताल में लाने से पहले अस्तबल में जो कुछ क्षण ठहरना पड़ा था, वही मेरा और श्री ट्रीसी का अन्तिम मिलन था। जिस समय मुझे स्ट्रेचर पर डाल कर वे लोग ले जाने के लिए उठाने लगे थे, उस समय ही श्री ट्रीसी से मैंने अन्तिम बार हाथ मिलाया था। उस समय तो यह सोचने का शायद साहस भी न होता था कि यह हमारा अन्तिम मिलन है। उस दिन तो मेरे हृदय के भीतर यह भाव बिल्कुल नहीं उठा था कि वह मेरा सहोदर से भी अधिक प्रिय ट्रीसी मुझसे फिर कभी नहीं मिल पायेगा। ट्रीसी! प्यारे ट्रीसी!! जीवन का एक बड़ा भाग हमने एक साथ विपत्तियाँ सहन करने में बिता दिया था। घोर अन्धकार में भी हमने एक दूसरे को उत्साहित कर किसी की आशा डिगने न दी थी। आह! आज तुम मुझे छोड़-छाड़कर यों ही चले गये! तुम्हारी यह आमोद भरी मंजुल मूर्ति आँखों के सामने उसी तरह नाच रही है।

अस्पताल में जाने के तीसरे दिन – 14 अक्टूबर 1920 को जब पुलिस वहाँ आ पहुँची तब श्री ट्रीसी विह्वल हो उठे थे। उन्होंने तुरन्त हेडक्वार्टर में जाकर प्रस्ताव किया कि पकड़े जाने की दशा में मुझे पुलिस से छुड़ा ले जाने के लिए एक दल अश्वयमेव भेजा जाये उनकी बात मान ली गयी। वे अपने साथ कुछ स्वेच्छा-सेवकों को लेकर चल दिये। वे निर्भीक देशभक्त तथा साहसी सैनिक! तुम्हें एक साथी की विपत्ति ने इतना विह्वल कर दिया कि तुम अपनी स्थिति बिल्कुल भूल ही गये। जासूस ने उन्हें पहचान लिया और पीछा किया।

सारा प्रबन्ध कर चुकने के बाद ट्रीसी महोदय टालबोट स्ट्रीट के रिपब्लिकन आउट फिटर्ज नामक दुकान में अन्तिम स्कीम का निश्चय करने के लिए गये थे! प्रजातन्त्रवादी सैनिक अधिकतर हम वहीं पर मिला-जुला करते थे। कुछ ही क्षण बाद सैनिक लारियों ने दुकान घेर ली। श्री ट्रीसी सबसे आगे खड़े थे, पुलिस वालों का हाथ उन्हीं पर पड़ता परन्तु एक व्यक्ति एक तरफ़ भागा। सिपाही उधर लपके इसी क्षण में सुअवसर पाकर, साइकिल ले चुपचाप श्री ट्रीसी खिसकने ही लगे थे कि एक साधारण वेशधारी व्यक्ति मोटर में से उन पर झपट पड़ा और बोला, “जिसे हम गिरफ्तार करना चाहते हैं वह तो यह व्यक्ति है।” श्री ट्रीसी ने अन्तिम समय निकट देखकर रिवाल्वर निकाल लिया उधर से मशीनगन धाँय-धाँय कर चलने लगी। आख़िर में ट्रीसी वहाँ पर घायल और धराशाई होकर वीरगति को प्राप्त हुए। अन्तिम श्वास तक उनके बदन पर प्रसन्नता की झलक विद्यमान थी। उस वीर ने अपनी जननी जन्मभूमि के चरणों पर अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया।

राजनीतिक संसार ने यह निस्संकोच भाव से माना कि आयरिश गनीमी युद्ध का नेतृत्व बड़े-बड़े युद्ध विद्या-विशारदों तथा बुद्धिमान व्यक्तियों के हाथ में था। अतः उनकी सांग्रामिक चालें बड़ी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं। आज मैं दावे से कहता हूँ कि मेरे ट्रीसी उन युद्ध विद्या विशारदों के सर्वोपरि नेता थे। उस वीर के दिमाग़ ने जो बताया उस निर्भीक योद्धा की अलौकिक बुद्धि ने जो सुझाव दिया, वही स्वेच्छा-सेवकों ने निभाया और विजय लाभ किया। आज मैं दावे से कह सकता हूँ कि श्री ट्रीसी हमारे युग के कट्टर, निर्भीक तथा साहसी देशभक्त ही न थे, बल्कि वे चोटी के योग्य सेनापतियों में से भी थे। 28 वर्ष की आयु में ही स्वर्गलोक सिधारने वाले एक युवक के प्रति यह वाक्य कहना विस्मयजनक मालूम हुए बिना न रहे, पर एक बात दरअसल ऐसी ही थी। यदि उन्हें अन्य प्रसिद्ध योद्धाओं की तरह पूर्ण रूप से शिक्षण का अवसर मिला होता, यदि उन्हें भी अनुकूल स्थितियों में रखकर पूर्ण रूप से शिक्षा दी जाती तो निश्चय ही वे संसार के किसी भी योद्धा तथा सेनापति से कम न रहते।

मुझे बहुत दिनों तक उनकी मृत्यु का समाचार बताया न गया। मैं अन्धविश्वासी नहीं हूँ। मैं अलौकिक बातों में विश्वास नहीं रखता। परन्तु सच कहता हूँ, मुझे उसी दिन पता चल गया था कि मेरे प्यारे ट्रीसी अब इस संसार में नहीं रहे। वे मुझे अपने पैताने खड़े मुस्कुराते हुए दिखायी दिये थे। उसी दिन सायंकाल मिक कोलिन्स मेरी ख़बर लेने को आये। उत्सुकतावश मैंने पहला प्रश्न यही पूछा – ट्रीसी कहाँ हैं? सजल नेत्रों को दूसरी ओर फेरकर छिपाने का प्रयत्न करते हुए रुँधे गले से वे इतना ही कह पाये, कि ‘वे कहीं बहुत दूर गये हैं।’ दस दिन बाद मुझे ठीक समाचार मिला। शिपस्ट्रीट बेरेक से श्री ट्रीसी का शव ट्रिप्रेरी ले जाया गया। वहाँ उनका जो सत्कार हुआ, वह शायद किसी नरेश को भी नसीब न हुआ होगा। सोलोहैडबेग चर्च से – जहाँ कि वे बाल्यावस्था में प्रार्थनाएँ किया करते थे-चलकर उनका शव किल फीकल नगर से गुज़रा। शोकग्रस्त लोगों का यह जुलूस मीलों लम्बा था। टिप्रेरी का ऐसा कौन-सा व्यक्ति था जिसके हृदय में उस दिन देशभक्ति के भाव हिण्डौले न ले रहे हों और जो उस दिन उस जुलूस के साथ शुष्क नेत्रों से गया हो? वह समाचार उस समय प्रदेश के लिए बड़ा शोकजनक समाचार था। उनकी क़ब्र आज तीर्थ बन गयी है।

अगले शुक्र के दिन मैं मेटर अस्पताल में ले जाया गया। यहाँ पर ख़ूब ख़ातिरदारी होने से शीघ्र ही आरोग्य लाभ करने लगा। एक दिन एकाएक क्या देखता हूँ कि मकान घिर गया है। सैनिक लोग तलाशी लेने की तैयारी कर रहे हैं। एकदम ऊपर वाली छत पर जाने के विचार से उधर जो लपका, तो ख़ाकी वर्दी वालों को खड़ा पाया। मृत्यु निश्चय समझ लौटकर वहीं आ बैठा। दर्शकों के जमघट में जो दृष्टि गयी तो मिक कोलिज को खड़ा पाया। पता चला कि मेरे गिरफ्तार होने पर मुझे छुड़ाने के विचार से ही वे अपने दल सहित आये थे। पर सब स्थानों की तलाशी लेकर, केवल मेरा ही कमरा छोड़कर पुलिस वाले क्यों लौट गये, मैं कभी भी नहीं समझ पाया। वहाँ से डन लेघायर के घर पर ले जाया गया। वहाँ भी पुलिस ने तलाशी ली, परन्तु मेरे कमरे की नहीं। इस रहस्य का भी कुछ पता न चला। मैं हैरान रह गया।

21 नवम्बर 1920 का ख़ूनी रविवार मैं कभी न भूल सकूँगा। उस दिन प्रातः ही नगरभर में सनसनी फैल गयी। नगरभर में 14 जासूस अपने अपने घरों में ही मार डाले गये थे। हमारे और तो सभी व्यक्ति बच गये, परन्तु फ्रैकटीलिंग पकड़े गये। उन्हें फाँसी का दण्ड सुना दिया गया। परन्तु आप वहीं से रफूचक्कर हो गये। बाद में पेड़ीमोर को पकड़कर फाँसी पर लटका दिया गया। हालाँकि वे उस दिन वहाँ थे ही नहीं। वे एक बड़े वीर सैनिक थे।

उस दिन सरकार ने प्रतिहिंसा के भाव से प्रेरित होकर दो बड़े भीषण और क्रूर कार्य कर डाले। सायंकाल के समय पुलिस ने ‘कार्क पार्क’ को घेर लिया। उस समय वहाँ 10,000 व्यक्ति फुटबाल का मैच देख रहे थे। उन पर पुलिस ने गोलियों की वर्षा कर अपनी बर्बरता, क्षुद्रता तथा नृशंसता का परिचय देने में कुछ कसर उठा न रखी। 17 व्यक्ति परलोक सिधार गये, 50 बुरी तरह घायल हुए।

दूसरा अत्यन्त वेदनाजनक समाचार था श्री पीडरक्लैंसी तथा डिक मैक की हत्या का। उन्हें पकड़कर और यह दोष बताकर कि उन्होंने फ्रेंच पार्क के पहरेदारों पर आक्रमण किया था, तड़पा-तड़पाकर मार डाला गया। इस अभियोग के प्रत्युत्तर में केवल इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि उन स्वेच्छा-सेवकों के बारे में – जिन्होंने कि अपने रणचातुर्य से अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाये थे, बिना अन्य साथियों को लिए फ्रेंच पार्क के प्रहरियों पर आक्रमण करने की बात कहना सर्वदा हास्यास्पद है। जो भी हो, पुलिस उन वीरों से जली बैठी थी। अवसर पाते ही उसने अपनी प्रतिहिंसा की भभकती हुई आग को शान्त करने के लिए उन पर मनमाने अत्याचार कर उन्हें मार डाला।

बेचारे पीडर और डिक! दोनों कैसे साहसी वीर, कितने मृदुल, कितने कट्टर देशभक्त और कैसे सुचतुर सेनापति थे! उन्हें श्री ट्रीसी की तरह दो-दो हाथ दिखाने तक का सुअवसर न मिल सका! अफ़सोस!!

बारहवाँ परिच्छेद

ज़िला इंस्पेक्टर की हत्या और मेरा विवाह

मैं ख़ूब स्वस्थ होकर टिप्रेरी लौट आया। इस समय युद्ध ने ख़ूब ज़ोर पकड़ लिया था। रणचण्डी का ताण्डव नृत्य हो रहा था। देशभर में ख़ूब चहल-पहल थी। आयरिश लोग बड़े हर्ष और चाव से अपने आदर्श के लिए, अपने देश के लिए, अपनी मातृभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग कर रहे थे। मानो आयरिश जाति स्वतन्त्रता देवी के मन्दिर में निज रक्त मांस की भेंट से उस देवी को प्रसन्न करने का दृढ़ निश्चय कर वहीं डट गयी थी।

अंग्रेज़ी न्यायालय एकदम ख़ाली हो गये थे। ‘मृत्युदण्ड’ घोषित किये रहने पर भी प्रजातान्त्रिक न्यायालय खचाखच भरे रहते थे। देशवासियों का झुकाव प्रजातन्त्र की ओर था। अब परिस्थिति भी बहुत बदल चुकी थी। हमारे सैनिक रायफ़लें लेकर खुल्लम-खुल्ला घूमने लगे। जहाँ-तहाँ लोग उनका ख़ूब स्वागत करते।

मैं काहिर और रोज़ग्रीन प्रदेश में चला गया। फिर मैंने अधिकतर युद्ध उसी देश में किये। अप्रैल 1921 में समाचार मिला कि ब्रिटिश सेना का एक छोटा-सा दल कुछ रक्षित वस्तुएँ लेकर, प्रति बुधवार प्रातःकाल क्लोधिन और काहिर के बीच में से गुज़रता है, उन्हीं से युद्ध करने की ठानी। 22 अप्रैल का दिन नियत हुआ। प्रातः 5 बजे से एक बजे तक प्रतीक्षा की, पर वे नहीं आये। मैं और कौनमौलोनी वहाँ से लौट आये। परन्तु हमें लौटे कुछ अधिक देर नहीं हुई थी कि वे आ गये। हमारे सैनिकों ने धावा बोल दिया। आत्मसमर्पण करने को कहा गया, परन्तु प्रत्युत्तर में गोलियों की वर्षा की गयी। युद्ध हुआ। एक सिपाही मरा, दो घायल हुए और तब उन्होंने आत्मसमर्पण किया। उनके शस्त्र छीन लिए गये। ‘रक्षित वस्तु’ विनष्ट कर दी गयी और फिर उन्हें छोड़ दिया गया।

घटनास्थल से पुलिस की कई बड़ी भारी-भारी चौकियाँ इतनी निकट थीं कि उन्होंने गोलियों का शब्द ज़रूर सुना होगा। इसी कारण सभी सैनिकों ने वहाँ से तुरन्त लौट जाना ही उचित समझा। वे सैनिकों की तरह मार्चिंग करते हुए चले आ रहे थे। एक मोड़ पर मुड़ने के समय एक मोटर पीछे से आयी और अन्तिम लाइन के स्वेच्छा-सेवकों से टकरा गयी। मोटर वाले का नाम-धाम पूछने पर उत्तर मिला – ‘डिस्ट्रिक्ट इंस्पेक्टर पौटर! रायल आयरिश कान्स्टेबुलरी काहिर!!’ उसे क़ैद कर लिया गया। कुछ दूर जाने पर हमारे सैनिकों पर फिर पुलिस ने आक्रमण कर दिया। अब की शत्रुदल उनसे तिगुना था। तथापि यह वीर वीरतापूर्वक लड़ते हुए साफ़ बच निकले। साथ ही वे अपने बन्दी को भी साथ ही ले गये। इस युद्ध की सफलता का श्रेय श्री डिन्नी लेसी तथा श्री सिनेहाराम को ही दिया जा सकता है।

इन दिनों एक आयरिश स्वेच्छा-सेवक श्री ट्रेयनोर के. डबलिन जेल में बन्द थे, उन्हें मृत्युदण्ड सुनाया जा चुका था। अंग्रेज़ों का प्रतिहिंसा का भाव उत्तरोत्तर अत्यन्त निन्दनीय और भयंकर रूप पकड़ता जाता था। वे जिस किसी को पाते, मार डालते। दूसरी तरफ़ हम सदैव उनके सिपाहियों आदि को साफ़ छोड़ देते। हममें प्रतिहिंसा का भाव ज़रा भी नहीं था। परन्तु ट्रेयनोर के. निराश्रित, तरुण परिवार का उनके अतिरिक्त और कोई भरण-पोषण करने वाला न था। उधर उन्हें फाँसी पर लटकाने की तारीख़ 25 अप्रैल निश्चित हो चुकी थी।

हमने ट्रेयनोर को पौटर के बदले में माँगा और कहा कि ऐसा नहीं हुआ तो हम लोग पौटर को मार डालेंगे। पुलिस के हैडक्वाटर्स से सूचना भेज दी गयी। उन लोगों ने इस बात पर कुछ ध्यान न दिया और यथाशक्ति इसे छिपाने का ही प्रयत्न किया। अन्त में श्री ट्रेयनोर फाँसी पर लटका ही दिये गये। हमारे सामने एक बड़ी समस्या आ उपस्थित हुई। किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुए खड़े रहे। करें तो क्या? छोड़ दें तो अच्छा नहीं। न छोड़ें तो अकारण ही उस बेचारे के प्राण जायें। इस बात पर बहुत वादविवाद हुआ और अन्त में यही निश्चय हुआ कि हमें अपने कथन को पूरा करना ही होगा। फलस्वरूप उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया। पौटर एक वीर सैनिक थे। उन्होंने ख़ूब उच्च शिक्षा पायी थी। वे बड़े दयालु, मृदुल स्वभाव तथा चतुर अफ़सर थे। उन्हें अपने परिवार से पत्र व्यवहार करने का अवसर भी दिया गया था। अन्तिम समय उन्होंने अपनी डायरी, एक अँगूठी और एक सोने की घड़ी अपनी पत्नी को दे देने की प्रार्थना की। उनकी अन्तिम अभिलाषा पूरी की गयी। तदोपरान्त प्रतिहिंसा के भाव से उत्तेजित होकर सरकार ने भी यों ही बहुत से घर तथा बाड़े जला दिये।

अब ज़रा हमारे विवाह की बात सुन लीजिये। 12 जून, 1921 के दिन जबकि युद्ध ज़ोरों पर था, और जिससे एक मास बाद अंग्रेज़ सन्धि करने को बाध्य हुए थे, बड़ी विचित्र तथा आश्चर्यजनक औपन्यासिक स्थिति में मेरा विवाह हो गया। पाठक मेरे तथा ब्रिघिड मैलोन के प्रेम की बात भूले नहीं होंगे। सितम्बर, 1919 में ही हमारी पहली भेंट हुई थी। प्रथम मिलन में ही हम प्रेमपाश में बँध गये थे। मेरे घायल होने पर उन्होंने कितनी तत्परता से मेरी सुश्रूषा की थी, वह मैं भूल सकता हूँ? ड्रम-कोण्ड्रा युद्ध के बाद वे मेरी ख़बर लेने आईं। तभी एक बार मैंने उनसे स्वस्थ होने पर विवाह करने की बात कह दी। मेरे साथ विवाह करने से क्या-क्या विपत्तियाँ आ पड़ेंगी, कहाँ तक सुख और ऐश्वर्य से युक्त या रहित रहना पड़ेगा, यह सब वे समझती थीं। तथापि मेरे इस प्रस्ताव को उन्होंने बड़े हर्ष और चाव से स्वीकार कर लिया। सब तैयारी हो गयी, परन्तु गिरजा कहाँ मिले? श्री माइकेल पार्सल को ही घर के लिए उपयुक्त स्थान समझा गया। वे बड़े देशभक्त थे। वे तथा उनकी स्त्री दोनों जेल यात्रा भी कर चुके थे।

यह स्थान चारों ओर से छावनियों आदि से घिरा हुआ था। कहीं चार मील पर अंग्रेज़ी पुलिस की सुदृढ़ बैरकें थीं, तो कहीं छह मील की दूरी पर। साथ ही हर समय हमारी खोज में सैकड़ों सैनिक इधर-उधर ठोकरें खाते फिरते थे। तथापि हमारे टिप्रेरी के सभी सैनिक वहाँ आ एकत्रित हुए। उन्होंने चारों ओर ख़ूब अच्छी तरह से मोर्चाबन्दी कर ली। यदि अंग्रेज़ी सेना उन दिनों उधर आ भटकती, तो उसका वह स्वागत होता, जिसे वह कभी न भूल पाती। चारों ओर सड़कों पर वृक्ष काटकर डाल दिये गये। सशस्त्र स्वेच्छा-सेवक पहरे पर खड़े हो गये। उस दिन सभी सैनिकों में कितनी तत्परता तथा निर्भीकता, कितना हर्ष तथा चाव, कितना जोश और उत्तेजना थी, यह आज नहीं कहा जा सकता!

विवाह से पहली रात को बड़ी असुविधा का सामना करना पड़ा। एक कैम्प में श्री हागन तथा श्री डिन्नी लेसी आदि मुख्य-मुख्य सैनिक अध्यक्षों के साथ सोना पड़ा था। सोने तो उन्होंने दिया नहीं, अविवाहित होने पर भी मुझे विवाह सम्बन्धी शिक्षा देना उन्होंने अपना कर्त्तव्य मान लिया था। उपदेश देने में कोई भी किसी के पीछे नहीं रहना चाहता था। ख़ैर! विवाह हुआ, ख़ूब आनन्दोत्सव रहा, दावतें उड़ीं। लड़के-लड़कियों ने नाच किये। गाना हुआ और फिर ‘हनीमून’ (सुहागरात) के लिए मैं डोनोहिल चला गया। प्रत्येक मित्र के यहाँ ख़ूब स्वागत हुआ। वह विवाह-वह ‘हनीमून’ रह-रह कर याद आता है! ओह! कितना आनन्द था! क्या वह फिर कभी नहीं होगा। वह समय कितना सुन्दर, कितना आनन्दमय और कितना महिमामय जान पड़ता है।

तेरहवाँ परिच्छेद

सिविल वार और मेरा सीनियर

रिपब्लिकन डिप्टी का चुनाव

जून 1921 के आरम्भ में एकाएक यह समाचार सुनकर कि अंग्रेज़ों से सन्धि की जाने वाली है, हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। जुलाई से उसके अनुसार कार्य भी शुरू हो जायेगा, यह सुनकर तो हम एकदम चकित हो उठे। जो लोग हमें सदैव कोसते रहते थे, जिन्होंने कभी भी हमारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं लिया था; वे आज हमारे प्रतिनिधि बनकर सन्धि की बातचीत करेंगे – कितने आश्चर्य की बात है? हम ख़ुश भी हुए क्योंकि हमारा गोला बारूद ख़त्म हो चुका था और कुछ व्यक्ति विदेशों में इसका प्रबन्ध करने के लिए भेजे जा चुके थे।

सन्धि के अनुसार कार्य शुरू हो गया। युद्ध रुक गया। हम लोग नगरों में घुसे; परन्तु अब की ज़रा शान के साथ! ख़ूब स्वागत हुआ। बड़े हर्ष और चाव से हमारी अभ्यर्थना की गयी। दो वर्ष पहले जो हमारी निन्दा करते थे, हमें घृणित समझते थे, वे ही आज सबसे बढ़-चढ़कर हर्षोल्लास कर रहे थे। ख़ैर, इसके बाद कुछ दिन तक तो घुड़दौड़ादि में भाग्य निरीक्षण कर गुज़ारा करते रहे, क्योंकि अभी तक अवैतनिक रूप से ही कार्य करते थे। फिर उत्तर की ओर जाना पड़ा। विचार था कि युद्ध फिर शीघ्र ही शुरू होगा। परन्तु अब की ऐसा विचार हुआ कि दक्षिण का भार कुछ हलका करने के लिए उत्तर में युवकों को शिक्षित किया जाये। इसीलिए परेड, रिवाल्वर, बम आदि की शिक्षा देने की गरज से उधर जा निकला। सितम्बर में वापिस डबलिन पहुँचा। यहाँ ख़ूब स्वागत हुआ।

अभी सन्धि की अन्तिम बातचीत चल ही रही थी, अतः हमने ज़रूरी समझा कि हमारे सैनिकों को अपने कार्य के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। उनकी तत्परता, उत्सुकता तथा अधीरता देखकर आयरिश पार्लियामेण्ट के ये सदस्य स्वेच्छा सेवकों का साथ छोड़ने का साहस नहीं कर पायेंगे। 7 सितम्बर को सन्धि की शर्तें घोषित कर दी गईं। मैं उसी दिन लौटकर डबलिन पहुँचा था। श्री सीनहागन, श्री लियमलिच आदि मुख्य योद्धाओं से मिला और गृहयुद्ध से बचने का एकमात्र उपाय, शत्रु से फिर से भिड़ जाना ही उन्हें बताया। सभी ने सुना, परन्तु किसी ने इस पर ध्यान न दिया। सभी लोगों का यह उपेक्षापूर्ण व्यवहार देखकर तथा सन्धि की शर्तों को एकदम घृणित अैर असम्मानसूचक समझकर मैं आयरलैण्ड से कहीं दूर – बहुत दूर जाने के लिए लालायित हो उठा। निश्चय किया, भारतवर्ष में जाऊँ। वह देश भी हमारी तरह स्वतन्त्रता युद्ध में निमग्न है। शायद वहाँ दो हाथ दिखाने का मौक़ा मिल जाये। परन्तु लन्दन स्थित भारतीय नेताओं ने हमें एकदम निराश कर दिया। उन्होंने कहा, तुम लोगों ने अपने देश का सर्वनाश कर दिया। वे पराये लोग तुम पर क्यों विश्वास करेंगे? फिर तो हम अमेरिका जाने की तैयारी करने लगे।

दिसम्बर के मध्य में श्री सीमस रोबिन्सन का विवाह हुआ। उसी के बाद लन्दन की ओर चल दिया। चलते समय हृदय एकदम विदीर्ण हो उठा। आज हमारे ही लोगों ने हमें संसार की नज़रों में गिरा दिया! वह क्या कहते होंगे? यही न कि हमारी स्वतन्त्रता, हमारी आशा, जिसके लिए हमने इतना घोर रक्तपात किया था, केवल आयरिश देश को विभिन्न भागों में विभाजित करा देना और एक विदेशी सम्राट के प्रति भक्ति दिखाना था? छिः-छिः यह कैसी घृणित बात थी। इन्हीं विचारों से विक्षिप्त होकर हम वहाँ से भाग जाना चाहते थे – वहाँ, जहाँ कि कोई पहचान भी न पाये और हमारे मस्तिष्क की कालिमा लोगों के सामने प्रकट न हो उठे। डबलिन छोड़ने के पूर्व मैंने अनेक प्रजातन्त्रवादी सैनिकों से, शत्रु से युद्ध छोड़ने को कहा, उन्होंने मेरी यह बात न मानी। अगर उन्होंने मेरी सलाह मान ली होती तो मैंने आयरलैण्ड कदापि नहीं छोड़ा होता। अन्त में मैंने यह भी कह दिया था कि 12 महीनों के दरम्यान अपने को गृहयुद्ध में निरत पायेंगे।

19 दिसम्बर को मैंने सीनमैक क्योन को एक खुली चिट्ठी लिखी थी। उसके निम्नलिखित उद्धरण मेरे विचार को और भी स्पष्ट कर देंगे –

“महोदय! मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि आनडायल में तथा इससे पहले भी किसी स्थान पर आपने कहा था कि इस सन्धि के अनुसार आपकी ‘चिरवांछित’ स्वतन्त्रता आपको मिल गयी है तथा इसी के लिए आप आज तक लड़ते रहे थे।

“परन्तु – मैं भी युद्ध में आपसे पीछे नहीं रहा हूँ। इसलिए यह कह देना चाहता हूँ कि यदि हमें मालूम होता कि स्वतन्त्रता का यही आदर्श है तो सच कहता हूँ, मैंने तथा मेरे साथियों ने बन्दूक़ों को छुआ तक न होता, न मैंने कभी किसी मृत अथवा जीवित साथी को इसके लिए अग्रसर किया होता।

“आप स्मरण रखिये कि आज श्री मार्टिन सैबेज की बरसी का दिन है। क्या आप यह कल्पना करने का साहस करते हैं कि उस वीर ने एक ब्रिटिश गवर्नर जनरल को मारने का प्रयत्न करते हुए केवल इसीलिए प्राण दे दिये कि उस गवर्नर के स्थान पर कोई नया ब्रिटिश गवर्नर आ जाये।

“मैं अपने उन वीर सैनिकों की ओर संकेत करते हुए आपसे अनुरोध करूँगा कि आप हमारे उसी ‘अलेहदगी’ तथा पूर्ण स्वतन्त्रता को ही अपना आदर्श

बनाये रहें।”

मैं और श्री हागन जिस किसी तरह बन पड़ा, पासपोर्ट लेकर अमेरिका चले गये। वहाँ बहुत से परिचित अथवा अपरिचित मित्रों से भेंट हुई। शिकागो में अपने भाई-बहन से भी मिला। ख़ूब सैर की। सभी मित्रों ने ख़ूब स्वागत किया। पर सभी सुखी रहने पर भी आयरलैण्ड की चिन्ताजनक स्थिति से हर समय घबराये रहते। नित्य नये झगड़ों के समाचार आते। मेरी ‘गृहयुद्ध’ सम्बन्धी भविष्यवाणी ठीक होने लगी।

मार्च के शुरू में समाचार मिला, लिम्मर्क में मोर्चेबन्दी हो गयी। सन्धि के समर्थक तथा विरोधी दो विभिन्न दलों में विभाजित हो गये हैं। मैं समझ गया कि अब युद्ध किसी भी क्षण छिड़ सकता है। शीघ्र ही मुझे तार द्वारा बुलाया गया। मेरे और हागन के सामने फिर वही धनाभाव तथा पासपोर्ट की असुविधा आ उपस्थित हुई। कुछ मित्रों की सहायता से एक जहाज़ पर हम भरती हो गये। हमें कोयले झोंकने का काम दिया गया। कुछ घण्टे कठिन परिश्रम भी किया, पर जहाज़ के चलने में केवल एक घण्टा ही शेष था कि जहाज़ के किसी अधिकारी को सहसा हागन पर सन्देह हो गया और ग़रीब पर नाम धाम, जाति, देश तथा इस काम का पहले के अनुभव सम्बन्धी प्रश्नों की बौछार होने लगी। परिणामस्वरूप वह नीचे उतार दिये गये। अब मैं क्या करूँ? इतने घण्टे का परिश्रम भी व्यर्थ गया और इस समय उतरना भी असम्भव! श्री हागन को भी मैं ऐसी दशा में न छोड़ सकता था। न जेब में पैसा, न किसी मित्र की आशा। अन्त में यही निश्चय किया कि उन्हें छोड़कर मुझे नहीं जाना चाहिए। अब प्रश्न यह था कि जहाज़ से उतरूँ तो कैसे? द्वार की ओर भागा! वहाँ एक अधिकारी महोदय खड़े थे – मिन्नत की कि किनारे पर एक ज़रूरी कार्य है। अभी पाँच मिनट में आता हूँ। ग़रीब मज़दूर समझ वे दयार्द्र हो उठे, मुझे उतर जाने दिया। इस प्रकार जहाज़ से उतर तो गया पर हमारी सारी पूँजी वहीं रह गयी। हमने अपना सारा धन व्यय करके जो बन्दूकें ख़रीदी थीं, जहाज़ में ही रह गईं। पर मजबूरी थी। उसका तो कोई उपाय भी न था।

इसके बाद भी जहाज़ पाने के प्रयत्न में हमें कई बार निराश होना पड़ा। पर अन्त में एक जहाज़ मिला और अप्रैल के आरम्भ में हम आयरलैण्ड पहुँचे। बन्दरगाह में पहुँचते ही समाचार मिला कि मेरी श्रीमती अकेले ही नहीं बल्कि एक सुपुत्र सहित घर में मेरी बड़ी प्रतीक्षा कर रही हैं।

परिस्थिति बहुत ख़राब हो चुकी थी। प्रजातन्त्रवादी सेना दो विरोधी दलों में विभाजित हो गयी। एक दल था, आयरिश प्रजातन्त्रवादी सेना का जो पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष में न था और दूसरा आयरिश फ्री स्टेट दल था, जो सन्धि की स्वतन्त्रता से ही सन्तुष्ट था। मोर्चेबन्दी हो गयी थी। मैंने इस गृहयुद्ध को रोकने का भरसक प्रयत्न किया। सभी दलों के पास मारा-मारा फिरा। दोनों दलों में समझौता करने के लिए कोशिशें की गईं। पर सब व्यर्थ हुईं। अन्त में चुनाव के सम्बन्ध में यह तय हुआ कि यह दोनों दल एक-दूसरे का विरोध न कर, एक हों, सिनफिन दल के नाम से चुनाव में भाग लें और चुनाव के बाद फिर से मन्त्रिमण्डल क़ायम करें। यह समझौता दोनों दलों के प्रतिनिधि श्री एमन डी. वेलेरा तथा माईकेल कालिन्स में हुआ था। माईकेल फ्रीस्टेट के प्रतिनिधि थे। उनका व्यवहार बड़ा विचित्र था। वे शीघ्रातिशीघ्र गृहयुद्ध प्रारम्भ करना चाहते थे और इन्हीं कारणों से यह समझौता कुछ सफल न हुआ।

एक दिन एकाएक समाचार मिला कि फ्रीस्टेट वालों ने अंग्रेज़ों की सहायता से रिपब्लिकन (प्रजातन्त्रवादी) सेना कोर्ट से निकाल देने के लिए तोपें ला चढ़ायी हैं। गृहयुद्ध का श्रीगणेश हो गया। मुझे भी रिपब्लिकन सेना का साथ देना पड़ा। गृहयुद्ध का वेदनाजनक विवरण लिखने की इच्छा नहीं। इससे आयरलैण्ड को इतनी अधिक हानि हुई, जितनी शायद अंग्रेज़ों के विरुद्ध वर्षों लड़ते रहने पर भी न हुई थी। इस युद्ध में श्री लियमलिंच, श्री डिन्नी लेसी, श्री जैटी केली, श्री स्पर्की ब्रीन आदि कितने ही वीरों के प्राण गये। इसी गृहयुद्ध में श्री रीयन, श्री पेड्डी, श्री मेकडोनोह आदि कितने सुन्दर वीर रणचण्डी की सहचारियों डाकिनी पिशाचिनी आदि को निज रक्त मांस से तृप्त करते हुए उसी युद्ध में संसार मंच से उठ गये। वे आयरलैण्ड के वीर त्यागी, सच्चे और निस्स्वार्थ योद्धा थे। उन पर हमारा देश जितना गर्व कर सके, थोड़ा है।

1923 के बसन्त में श्री लियमलिंच की मृत्यु हो जाने पर शार्टरफ़ोर्ड काउण्टी में होने वाली सन्धि कॉन्‍फ्रेंस में सम्मिलित होने के विचार से हम अपने कई मित्रों के साथ चल दिये। हम मैलेरी पहुँचे। वहाँ पर जब हम खेतों से निकलकर एक सड़क पार कर रहे थे, तीनों ओर से गोलियों की वर्षा होने लगी। भागते-भागते पहाड़ी पर चढ़ जाना पड़ा। दो दिनों तक पहाड़ियों पर ही रहना पड़ा क्योंकि फ्रीस्टेट की सेना उस ज़िले को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए वहाँ एक बड़ी तादाद में पड़ी थी। बाद में किसी प्रकार अरहलो की घाटी में मेरे छिपने लायक एक स्थान मिल गया। यद्यपि भूख और नींद बहुत सता रही थी, फिर भी उसमें छिपकर सो गया। उठ कर सेनाओं के चलने का शब्द सुनकर खन्दक में से सिर निकालकर देखा तो फ्रीस्टेट के सैनिक बन्दूकें तानकर घेरे खड़े थे। कोई चारा न था। आत्मसमर्पण कर दिया।

मैं भीरू नहीं, कायर नहीं, निर्जीव नहीं, तथापि उस दिन न जाने क्यों रह-रहकर रो उठने को जी चाहने लगता था। जी में आता था बिलख-बिलखकर ख़ूब रो लूँ, सिसक-सिसक उठूँ, शायद हृदय का भार कुछ हलका हो जाये। कितनी बार बड़ी मुश्किल से ही झरते हुए आँसुओं को रोक पाया था। उस दिन मेरी विचित्र हालत थी। पाँच वर्ष तक मैं इंग्लैण्ड की सेनाओं को नष्ट-भ्रष्ट करता रहा। अपने देश तथा देशवासियों के लिए अपनी ख़ुशी से अनेक तकलीफ़ें सहीं, पर वही मैं, आज अपने ही देश में अपने ही देशवासियों के द्वारा क़ैदकर लिया गया था।

गैल वाली में मेरा अभियोग चला और सज़ा पाकर लिमरिक जेल में रखा गया। वहाँ से माउण्ड ज्वाय जेल में भेज दिया गया। वहाँ के दुर्व्यवहार के कारण मैंने अनशन कर दिया और 12 दिनों के अनशन के बाद छोड़ दिया गया।

मेरे इस जेल जीवन के दिनों में ही टिप्रेरी निवासी लोगों ने मुझे अपना सीनियर रिपब्लिकन डिप्टी चुन लिया था।

[1] स्कॉटलैंड यार्ड इंग्लैण्ड के जासूस विभाग का नाम है।

[2] इस घण्टेके बजने के बाद अपने घर से निकालने की सख्त़ मुमानियत रहती है और निकालने वाले अमूमन पुलिस की गोलियों के शिकार होते हैं.


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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