भगतसिंह – विश्वप्रेम

विश्वप्रेम

बलवन्त सिह के छद्म नाम से लिखा गया भगतसिह का यह लेख कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक ‘मतवाला’ (वर्ष: 2, अंक सं. 13-14) के दो अंकों में छपा था। इन अंकों की तारीखें क्रमशः 15 नवम्बर, 1924 एवं 22 नवम्बर, 1924 थीं। – स.

“वसुधैव कुटुम्बकम्!” जिस कवि सम्राट की यह अमूल्य कल्पना है, जिस विश्वप्रेम के अनुभवी का यह हृदयोद्गार है, उसकी महत्ता का वर्णन करना मनुष्य-शक्ति से सर्वथा बाहर है।

‘विश्वबन्धुता!’ इसका अर्थ मैं तो समस्त संसार में समानता (साम्यवाद, World wide Equality in the true sense) के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझता।

कैसा उच्च है यह विचार! सभी अपने हों। कोई भी पराया न हो। कैसा सुखमय होगा वह समय, जब संसार से परायापन सर्वथा नष्ट हो जायेगा; जिस दिन यह सिद्धान्त समस्त संसार में व्यावहारिक रूप में परिणत होगा, उस दिन संसार को उन्नति के शिखर पर कह सकेंगे। जिस दिन प्रत्येक मनुष्य इस भाव को हृदयंगम कर लेगा, उस दिन – उस दिन संसार कैसा होगा? ज़रा कल्पना करो तो!

उस दिन इतनी शक्ति होगी कि ‘शान्ति शान्ति’ की पुकार भी शान्ति भंग न कर सकेगी। उस दिन भूख लगने पर रोटी के लिए किसी को भी चिल्ल-पों मचाने की आवश्यकता नहीं हुआ करेगी। व्यापार उस दिन उन्नति के शिखर पर होगा, परन्तु फ्रांस और जर्मनी में व्यापार के नाम पर घोर युद्ध न हुआ करेंगे। उस दिन अमेरिका और जापान दोनों होंगे, परन्तु उनमें पूर्वी और पश्चिमीपन न होगा। काले-गोरे उस दिन भी होंगे परन्तु अमेरिकावासी वहाँ के काले निवासी (Red Indians) को जीते-जी जला न सकेंगे। शान्ति होगी परन्तु पीनलकोड की आवश्यकता न होगी। अंग्रेज़ भी होंगे और भारतवासी भी, परन्तु उस समय उनमें ग़ुलाम और शासक का भाव न होगा। उस दिन महात्मा टालस्टाय के Resist not the evil (बुराइयों का प्रतिकार मत करो) वाले सिद्धान्त की उच्च ध्वनि न लगाने पर भी संसार में बुराइयाँ नज़र न आयेंगी। उस समय होगी पूर्ण स्वतन्त्रता। कैसा होगा वह समय? ज़रा कल्पना करो!

वर्तमान दशा को देखकर कौन कह सकता है कि ऐसा समय भी आ सकता है, जिस समय किसी के भय से नहीं, परन्तु अपने हृदय की प्रेरणा से ही मनुष्य पाप-कर्म नहीं करेंगे। यदि उस दिन भी हमें किसी कल्पित स्वर्ग की लिप्सा होगी तो हम कह देंगे कि स्वर्ग कोई वस्तु है ही नहीं! क्या वह समय आ सकता है! यह है एक समस्या – एक बड़ी समस्या है। इसका उत्तर देना कोई सुगम कार्य नहीं है। परन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या लोग उस समय को लाना चाहते हैं? वे लोग जो ‘विश्वबन्धुता’ (Universal brotherhood या Cosmopolitanism) का घोर नाद किया करते हैं; क्या वास्तव में उसे लाने के इच्छुक हैं? ‘हाँ’ कह देने से ही काम नहीं चलेगा। कांग्रेस का प्रस्ताव नहीं है। प्रश्न गम्भीरतापूर्वक विचार करने योग्य है। क्या लोग उसके लिए बलिदान देने को तैयार हैं? उस कल्पित भविष्य के लिए हमें घोर वर्तमान देना होगा। उस कल्पित शान्ति के लिए हमें अशान्ति फैलानी होगी। उस हवाई क़िले के लिए हमें सर्वस्व देना होगा। उस शान्तिपूर्ण राज्य की स्थापना के लिए हमें घोर अराजकता फैलानी होगी। उस अत्याचार रहित संसार को अपनी ओर खींचने के लिए अत्याचार करने होंगे। उस सुखमय जीवन के लिए – नहीं, नहीं, उसकी आशा-मात्र के लिए मर मिटना होगा। क्या लोग उसके लिए तैयार हैं?

हमें प्रचार करना होगा समता-समानता का। अत्याचार करना होगा उन पर जो उससे इन्कारी हों। अराजकता फैलानी होगी उन राज्य-साम्राज्यों के स्थान पर जो शक्तिमद से अन्धे होकर करोड़ों की पीड़ा का कारण हो रहे हैं। क्या लोग उसके लिए तैयार हैं?

हमें समस्त संसार को उस सिद्धान्त के स्वागत के लिए तैयार करना होगा। उस आशामयी खेती के लिए हमें खेतों में से सबकुछ उखाड़ फेंकना होगा। काँटेदार झाड़ियों को उखाड़कर ज्वाला की शान्ति के लिए मटियामेट कर देना होगा। रोड़ा, कंकड़ पीस डालना होगा? हमें घोर परिश्रम करना होगा। गिरे हुओं का उत्थान करना होगा। ‘पस्ती’ वालों को उन्नति का मार्ग दिखाना होगा। मिथ्या शक्तिवादियों को घसीटकर अपने साथ खड़े होने को विवश करना होगा। अहंकारियों का अहंकार तोड़ उन्हें नम्रता प्रदान करनी होगी। निर्बलों को बल, पराधीनों को स्वाधीनता, अशिक्षितों को शिक्षा, निराशावादियों को आशा की आभा, भूखों को रोटी, बेघरों को घर, नास्तिकों को विश्वास, अन्धविश्वासियों को विचार-स्वतन्त्रता देनी होगी। क्या लोग इतना काम करेंगे। ऐ विश्वबन्धुता विश्वबन्धुता चिल्लाने वाले! क्या तुम उसके लिए तैयार हो? यदि नहीं तो आज से इस ढोंग को छोड़ दो। हमें उस विश्वप्रेम की देवी के चरणों पर तुम्हारा भी बलिदान देना होगा, क्योंकि तुम मिथ्यावादी हो। अगर तैयार हो तो आ जाओ कर्मक्षेत्र में अभी परीक्षा हो जायेगी। घर में बैठे हुए, कोनों में दुबके हुए कर्मक्षेत्र के भयंकर दृश्य की कल्पना-मात्र से काँपते हुए, सत्यप्रकाश से ‘बाज’ रहने के लिए इस महान सिद्धान्त की आड़ मत लो। यदि सचमुच उस कल्पित समय को लाने की चेष्टा है तो आओ। पहला काम पतित भारत का उत्थान करना होगा। ग़ुलामियों की ज़ंजीरों को काटना होगा। अत्याचार का सर्वनाश करना होगा। पराधीनता को मिट्टी में मिला देना होगा क्योंकि यह अपनी कमज़ोरी के कारण उस मनुष्य-जाति को, जिसकी सृष्टि परमपिता ने अपने ही अनुरूप की थी, न्यायपथ से भ्रष्ट करने का प्रलोभन हो रहा है।

यदि उपरोक्त कथन की सत्यता को मानते हुए भी तुम जेल के डर से या फाँसी के डर से इस मार्ग में आने से झिझकते हो तो आज से इस ढोंग को छोड़ दो।

अगर इस भय से कि क्रान्ति के पीछे घोर अराजकता फैल जायेगी या घोर रक्तपात होगा, एकदम अशान्ति होगी – तुम इस मार्ग में नहीं आते तो भी तुम भीरु हो, कायर हो, बुज़दिल हो, इस आडम्बर को छोड़ दो।

अशान्ति फैलती है तो फैलने दो, परतन्त्रता भी तो न होगी। अराजकता फैलती है तो फैलने दो, पराधीनता का भी तो सर्वनाश हो जायेगा। आहा! उस कशमकश में कमज़ोर पिस जायेंगे। रोज़-रोज़ का रोना बन्द हो जायेगा। निर्बल न रहेंगे, बलवानों में मैत्री होगी। बलिष्ठ लोगों में घनिष्टता होगी। उनमें प्रेम होगा, संसार में विश्वप्रेम का प्रचार हो सकेगा।

हाँ! हाँ!! निर्बलों को एकबारगी पिस जाना होगा। वे समस्त संसार के अपराधी हैं। उन्होंने ही घोर अशान्ति फैला रखी है। सब बलवान बनें, नहीं तो उस चक्की में पिसकर मलीदा हो जायेंगे।

आये! कौन माता का लाल सच्चे हृदय से विश्वबन्धुता का इच्छुक है। कौन है समस्त संसार के लिए अपना सुख बलिदान करने वाला?

कोई ग़ुलाम जाति इस उच्चतम सिद्धान्त का नाम तक लेने की अधिकारिणी नहीं है। एक ग़ुलाम मनुष्य के मुख से निकलकर इसका महत्त्व ही जाता रहता है। एक अपमानित मनुष्य, पद-दलित मनुष्य, पैरों तले रौंदे जाने वाला मनुष्य यदि कहे – मैं विश्वबन्धुता का अनुगामी हूँ, Universal brotherhood का पक्षपाती हूँ, इसलिए इन अत्याचारों का प्रतिकार नहीं करता – तो उसका कथन क्या मूल्य रख सकता है? कौन सुनेगा उसके इस कायरतापूर्ण वाक्य को? हाँ – तुममें शक्ति हो, तुममें बल हो, चाहो तो बड़े-बड़ों को पैरों तले रौंद सको, एक इशारे से बड़े-बड़े अभिमानियों को मिट्टी में मिला सको, तख़्तो-ताज वालों को ख़ाक में सुला सको, उनको धूलि में मिला सको, और फिर तुम यह वाक्य कहते हुए कि ‘हम विश्वप्रेमी हैं’ ऐसा न करो, तो तुम्हारी बात वज़नदार होगी – फिर तुम्हारा एक-एक वाक्य प्रभावशाली होगा। फिर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भी महत्त्वपूर्ण हो जायेगा।

आज तुम ग़ुलाम हो, पराधीन हो, परतन्त्र हो, बन्दी हो, तुम्हारी यही बात आज ढोंग प्रतीत होती है, एक आडम्बर दीख पड़ता है। बकवास मालूम देती है। क्या तुम उसका प्रचार करना चाहते हो? अगर हाँ, तो उसका अनुसरण करना होगा, जो कहता था, “He who loveth Humanity loveth God – ” “God is love and love is God” – जो राजद्रोह के अपराध में फाँसी चढ़ा, उसकी तरह वीरतापूर्वक विश्वप्रेम का प्रचार करने को तैयार हो? जिस दिन तुम सच्चे प्रचारक बनोगे इस अद्वितीय सिद्धान्त के, उस दिन तुम्हें माँ के सच्चे सुपुत्र गुरु गोविन्द सिह की तरह कर्मक्षेत्र में उतरना पड़ेगा। उस विश्वप्रेम के सच्चे अनुगामी – सच्चे पक्षपाती की तरह – सब सपूत हैं एक पिता के, कहने वाले उस महापुरुष की तरह, अपने चारों – आँखों के तारों, लख़्ते-ज़िगरों को जाति के भेंट कर माता के पूछने पर सरलता से उत्तर देने वाले की तरह तुम्हें धैर्य दिखाना होगा। क्या तुम अपने प्रिय से प्रिय को – जिसकी स्मृति-मात्र से हृदय धड़कने लगता हो, जिसे तुम हर समय अपने हृदय में छिपाये रखने के इच्छुक हो – को अपनी आँखों के सामने बलिवेदी पर चढ़ता देख, अकथनीय कष्ट सहता देख धैर्य रख सकोगे? क्या उसके सामने ही तुम जीते-जी अग्नि-चिता पर प्रसन्नतापूर्वक चढ़ सकोगे; और हँसते हुए संसार की ओर करुणाभरी दृष्टि से देखते हुए विदा हो सकोगे? यदि हाँ, तो आओ परीक्षा हो जायेगी, समय आ गया है। यदि हृदय में कुछ भी झिझक है तो ख़ुदा के वास्ते इस आडम्बर को छोड़ दो।

जब तक ‘काला-गोरा’, ‘सभ्य-असभ्य’, ‘शासक-शासित’, ‘धनी-निर्धन’, ‘छूत-अछूत’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है तब तक कहाँ विश्वबन्धुता और विश्वप्रेम? यह उपदेश स्वतन्त्र जातियाँ कर सकती हैं। भारत जैसी ग़ुलाम जाति इसका नाम नहीं ले सकती।

फिर उसका प्रचार कैसे होगा? तुम्हें शक्ति एकत्र करनी होगी। शक्ति एकत्र करने के लिए अपनी एकत्रित शक्ति ख़र्च कर देनी पड़ेगी। राणाप्रताप की तरह आयुपर्यन्त ठोकरें खानी होंगी, तब कहीं उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकोगे। देखते नहीं विश्वबन्धुता का सच्चा प्रचारक था मेजिनी जो बीस वर्ष स्वयं ही एक जगह बन्द रहता है। लेनिन था उसका पक्षपाती – कितना रुधिर उन्होंने बहा दिया था। आदर्शवादी ब्रूटस था विश्वप्रेमी – जिसने अपनी जन्मभूमि के लिए अपने परमप्रिय ‘सीज़र’ को अपने हाथों क़तल कर डाला था और पीछे स्वयं भी आत्महत्या कर ली थी। सानन्द युद्धों में प्रवीण रहने वाला गैरीबाल्डी था, जिसे विश्वप्रेमी होने का श्रेय प्राप्त हो सकता है।

विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते – वही वीर सावरकर। विश्वप्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी।

75 दिन अनशन करके स्वर्गधाम को सिधारने वाला वीर मैकस्वेनी इस मार्ग का पथिक होने का श्रेय प्राप्त कर सकता है जो कहता था – “It is the love of the country that inspires us and not the hate of the enemy and the desire for full satisfaction for the past.”

विश्वप्रेम की देवी का उपासक था ‘गीता रहस्य’ का लेखक पूज्य लोकमान्य तिलक। और देखोगे? वह सूखा सुकड़ा-सा ‘लँगोटबन्द’ जो सज़ा का हुक्म सुनाये जाने पर स्वर्गीय हँसी के साथ कह सकता था – मुझे जो दण्ड दिया गया वह अत्यन्त हलका है और मेरे साथ जैसा विनम्र व्यवहार किया गया है उससे अधिक की आशा मैं नहीं कर सकता था, जिसके मर्मस्पर्शी कथन का तुम्हारे पत्थर के हृदयों पर कुछ प्रभाव नहीं होना – महात्मा है इस सिद्धान्त का पक्षपाती।

अरे! रावण और बाली को मार गिराने वाले रामचन्द्र ने अपने विश्वप्रेम का परिचय दिया था भीलनी के जूठे-कूठे बेरों को खाकर। चचेरे भाइयों में घोर युद्ध करवा देने वाले, संसार से अन्याय को सर्वथा उठा देने वाले कृष्ण ने परिचय दिया अपने विश्वप्रेम का – सुदामा के कच्चे चावलों को फाँक जाने में।

तुम भी विश्वप्रेम का दम भरते हो! पहिले पैरों पर खड़ा होना सीखो। स्वतन्त्र जातियों में अभिमान के साथ सिर ऊँचा करके खड़े होने के योग्य बनो। जब तक तुम्हारे साथ कामागाटामारू जहाज़ जैसे दुर्व्यवहार होते रहेंगे, जब तक डैम काला मैन कहलाओगे, जब तक तुम्हारे देश में जलियाँवाले बाग़ जैसे भीषण हत्याकाण्ड होते रहेंगे, जब तक वीराँगनाओं का अपमान होगा और तुम्हारी ओर से कोई प्रतिकार न होगा; तब तक तुम्हारा यह ढोंग कुछ मानी नहीं रखता। कैसी शान्ति, कैसा सुख और कैसा विश्वप्रेम?

यदि वास्तव में चाहते हो कि संसारव्यापी सुख-शान्ति और विश्वप्रेम का प्रचार करो तो पहिले अपमानों का प्रतिकार करना सीखो। माँ के बन्धन काटने के लिए कट मरो। बन्दी माँ को स्वतन्त्र करने के लिए आजन्म कालेपानी में ठोकरें खाने को तैयार हो जाओ। सिसकती माँ को जीवित रखने के लिए मरने को तत्पर हो जाओ। तब हमारा देश स्वतन्त्र होगा। हम बलवान होंगे। हम छाती ठोंककर विश्वप्रेम का प्रचार कर सकेंगे। संसार को शान्ति-पथ पर चलने को बाध्य कर सकेंगे।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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