काकोरी के शहीदों के लिए प्रेम के आँसू

काकोरी के शहीदों के लिए प्रेम के आँसू

जनवरी, 1928 के ‘किरती’ ने काकोरी के शहीदों सम्बन्धी एक सम्पादकीय नोट भी प्रकाशित किया। यह भगतसिंह का लिखा हुआ तो नहीं है, लेकिन उनके साथी भगवतीचरण वोहरा का हो सकता है। निश्चय ही, यह भी ऐतिहासिक दस्तावेज़ है, जिसे नीचे दिया जा रहा है। – स.

काकोरी केस के चार वीरों को फाँसी पर लटका दिया गया। वे लाड़-प्यार से पले शूरवीर हँसते-हँसते शहादत प्राप्त कर गये। भारतमाता के चार सुपुत्र अपने शीश देश और राष्ट्र के नाम अर्पण कर गये। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा, अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया। वे इस पंच भौतिक शरीर की क़ैद से आज़ाद हो गये और हम ग़ुलामों को अपनी ग़ुलामी के दुखड़े रोने के लिए पीछे छोड़ गये!!!

जिस देश में देशभक्ति गुनाह समझा जाता हो, जिस देश में आज़ादी की ख़्वाहिश रखना बग़ावत समझा जाता हो, जहाँ लोककल्याण की सज़ा मौत हो, जहाँ देशभक्तों की गरदन में फाँसी का रस्सा डाला जाता हो, उस देश की हालत ख़याल में तो भले ही आ जाये, लेकिन बयान नहीं की जा सकती। किसी देश की अधोगति इससे ज़्यादा क्या हो सकती है। लेकिन जिस देश में यह अन्याय नित्य प्रति होते हों, जहाँ ऐसे अत्याचार दिन-प्रतिदिन ही होते रहें यदि वहाँ के निवासी ऐसे-ऐसे अन्यायों, ऐसे अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी तो दूर, आह तक न भर सकते हों तो उस देश के निवासियों की हालत कैसी होगी?

हिन्दुस्तान ग़ुलाम है। इसकी बागडोर विदेशियों के हाथ है। इससे प्रेम करना मौत को पुकारना है। इसकी आज़ादी के सपने देखना घर-बार, बाल-बच्चे छोड़कर जलावतनी की ज़िन्दगी गुज़ारना है। इस महीवाल के प्रेम ने कई सोहनियों को गहरे समुद्रों में डुबोया। इसके प्रेम ने कई प्रेमियों के दल के दल ख़त्म किये। इसका प्रेम अगाध है, अथाह है। इसके प्रेमी बेअन्त हैं, असंख्य हैं। न इस प्रेम का स्वर पता चलता है, न इसके प्रेमियों को ताव आती है। यहाँ तो ‘चुप भाई चुप’ वाली बात है।

यह ज़ुल्म कब तक रहेगा? इस अन्याय का भाण्डा कब फूटेगा? बेगुनाहों को कब तक शहीद किया जायेगा? देश-प्रेमियों को कब तक गोली का निशाना बनाया जायेगा? कब तक इस ग़ुलामी डायन का और मँुह देखना पड़ेगा? आज़ादी देवी के दर्शन कब तक होंगे? अभी कितनी शहीदियाँ प्राप्त करनी होंगी। अभी और कितनों को फाँसी पर चढ़ाया जायेगा?

रब्बा! वह दिन कब आयेगा, जब ये शहीदियाँ रंग लायेंगी। ईश्वर, वह दिन कब देखेंगे जब हमारा बग़ीचा हरा-भरा होगा? यहाँ से पतझड़ का कूच कब होगा? उल्लू कब तक इस बाग़ में डेरा जमाये बैठे रहेंगे? बुलबुलें किस दिन फिर यहाँ चहचहायेंगी? ये पिंंजरे कब टूटेंगे? आज़ादी कब लौटेगी, उजड़े कब फिर बसेंगे?

लोगो! भारतमाता के चार सुन्दर जवान फाँसी चढ़ा दिये गये। वे नौकरशाही के डसे, दुश्मनी का शिकार हो गये। कौन बता सकता है कि यदि वे जीवित रहते तो क्या-क्या नेकी के काम करते, कौन-कौन से परोपकार करते? कौन कह सकता है कि उनके रहने से संसार पहले से सुन्दर और रहने योग्य न दिखायी देता? वे वीर थे, आज़ादी के आशिक़ थे। उन्होंने देश और क़ौम की ख़ातिर अपनी जान लुटा दी। वे अपनी माँओं की कोख को सफल बना गये।

यदि भारतमाता आज़ाद होती तो इनके बलिदानों का मोल पड़ता। यदि आज हिन्दुस्तान में कुछ जान होती तो ये बलिदान बेकार न होते। हाय! आज़ादी के वीर चले गये। उन्हें किसी ने न पहचाना, उन्हें किसी ने न कहा, आप शूरवीर हो, आप बहादुर हो। वह जगह धन्य है, जहाँ आप जन्मे-पले! जहाँ आप खेले। वे राहें धन्य हैं, जहाँ आप चले, जहाँ आप कूदे-भागे। वीर, मातृभूमि के लाड़ले वीर चले गये! वे अपना जन्म सफल कर गये!

बातें करनी आसान हैं, बड़कें मारनी आसान हैं। चगल-चगल करना और बात है, क़ुर्बानी देना और बात है। परीक्षा अलूणी चट्टान है, इसे चाटना आसान नहीं है। परीक्षा से बड़े-बड़े तौबा कर उठे थे। परीक्षा के आगे कोई ज़िगर वाला ही टिक सकता है। इन वीरों ने किस हिम्मत, किस बहादुरी से परीक्षा दी है। इनकी बहादुरी कभी भूल सकती है? धन्य हैं इनके माँ-बाप, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया। धन्य हैं ये स्वयं, जो बलिदान के पुंज, आत्मत्याग की मिसाल हैं।

जब कभी आज़ादी का इतिहास लिखा जायेगा, जब कभी शहीदों का ज़िक्र होगा, जब कभी भारतमाता के लिए बलिदान करने वालों की चर्चा होगी तो वही 1. राजिन्द्रनाथ लाहिड़ी 2. रामप्रसाद बिस्मिल, 3. रोशन सिंह और 4. अशफ़ाक़उल्ला का नाम ज़रूर लिया जायेगा। उस समय आने वाली पीढ़ियाँ इन शहीदों के आगे शीश झुकायेंगी और इन वीरों के बहादुरी भरे क़िस्से सुन-सुन सिर हिलायेंगी। उस समय ये क़ौम का आदर्श माने जायेंगे, इन बुज़ुर्गों की पूजा होगी।

आज हम कमज़ोर हैं, निःशक्त हैं। आज हम गिरे हुए हैं, झूठे हैं। आज हम अपनी दिली भावनाएँ नहीं बता सकते – क्योंकि हम कायर हैं, डरपोक हैं, आज हमें सच कहने से डर लगता है, क्योंकि क़ानून की तलवार हमारे सिरों पर लटकती दिखायी देती है। इससे यह नहीं कह सकते, ‘काकोरी के शहीदो! आपने जो किया, भारतमाता के बन्धन तोड़ने के लिए किया। आपने जो कष्ट उठाये, वह हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाने के लिए उठाये।’ आज हम यह नहीं कह सकते कि ‘आपने अपने मतानुसार अच्छा किया।’

ग़ुलामों की अवस्था कितनी गिर जाती है। ग़ुलामों में कितनी गिरावट आ जाती है। दैवी गुण उनमें से किस तरह भाग जाते हैं। वे कितने ढोंगी और पाखण्डी बन जाते हैं। वे कितने बुज़दिल व कायर बन जाते हैं। वे सच्ची-खरी बातें मुँह पर नहीं कह सकते। वे दिल में कुछ और रखते हैं और बाहर कुछ और। उनकी हालत कितनी दयनीय हो जाती है!

इस हालत को सुधारने का एक ही साधन है, इस दुर्दशा को बदलने का एकमात्र इलाज है, इस दुर्दशा की एक ही दवा है, और वह है आज़ादी। आज़ादी क़ुर्बानियों के बग़ैर नहीं मिल सकती। शहीदों की इज़्ज़त करने से, शहीदों के कारनामे याद करने से क़ुर्बानी का चाव उमड़ता है। जो क़ौम शहीदों को शहीद नहीं कह सकती, उसे क्या ख़ाक आज़ाद होना है?

लोगो! देखे हैं आशिक़ सूली पर चढ़ते? वे मौत से मज़ाक़ करते थे। वे मौत पर हँसते थे, उन्हें मृत्यु का भय नहीं था। वे यार की गली में शीश तली पर रखकर आये थे। उन्हें डर क्या था, वे तो आये ही मरने थे। मृत्यु का तो वे पहले ही वरण कर चुके थे, जीवन की आशा तो वे पहले ही छोड़ चुके थे। वे तो गाते थे –

एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है।

कहाँ वे और कहाँ हम? वे तो किसी और ही देश के निवासी थे। वे तो ग़रीबों की आह सुनकर मैदान में उतरे थे। वे तो हिन्दुस्तान से भूख-नंग को दूर करने आये थे। वे तो मज़दूरों और किसानों का हाल पूछने आये थे। वे तो किसी ऊँचे आदर्श के पुजारी थे। वे तो किसी ऊँचे स्वप्न की उड़ान में मस्त थे। वे तो वे नज़ारे देखते थे, जहाँ न भूख है, न नग्नता। जहाँ न ग़रीबी है, न अमीरी। जहाँ न ज़ुल्म है, न अन्याय। बस जहाँ प्रेम है, एकता है, जहाँ इन्साफ़ है, आज़ादी है, जहाँ सुन्दरता है। पर हम? हम?…हाय रे!

किसी का आदर्श कमाना, आप खाना और बच्चों को पालना होता है। किसी का आदर्श स्वयं को ऊँचा उठाने का होता है। किसी का आदर्श ग़रीबों, दुखियों को लूटकर धन.दौलत इकट्ठा करना होता है, किसी का आदर्श अपने सुन्दर शरीर को तकलीफ़ से दूर करने का होता है।

किसी का आदर्श कुछ होता है, किसी का कुछ। लेकिन उनका आदर्श देश था। उनका आदर्श हिन्दुस्तान की आज़ादी था। उनका कोई स्वार्थ नहीं था। उनके खाने के लिए, उन्हें ओढ़ने के लिए किसी बात की कमी न थी। वे तो जो कुछ करते थे, लोक-कल्याण की ख़ातिर, लोक-सेवा के लिए करते थे। वे इतने बलिदान के पुंज निकले, कि स्वयं को हमारे ऊपर वार दिया। आइये, इन वीरों को प्रणाम करें।

मातृभूमि के लाड़लो! क्या हुआ यदि डर के मारे आज हम आपका नाम भी लिखने से घबराते हैं? क्या हुआ जो आज हम दिल की बातें कहने में झिझकते हैं? क्या हुआ यदि आज हिन्दुस्तान में मुर्दानोशी छायी है और आपका नाम लेने से ही षड्यन्त्रकारी बन जाते हैं? क्या हुआ यदि कोई हिन्दुस्तानी आपको भला-बुरा भी कहे, लेकिन समय आयेगा जब आपकी क़द्र होगी, जब आपको शहीद कहा जायेगा, जिस तरह 1857 के ग़दर को अब ‘आज़ादी की जंग’ कहा जाता है। समय सिद्ध कर देता है, समय सच्ची-सच्ची कहलवा देता है, समय किसी का लिहाज़ नहीं करता। उस समय आप अपनी असली शान से चमकेंगे और उस समय हिन्दुस्तान आप पर बलिहारी जायेगा।

शहीद वीरो! हम कृतघ्न हैं, हम तुम्हारे किये को नहीं जानते। हम कायर हैं, हम सच-सच नहीं कह सकते। हमें आप माफ़ करो, हमें आप क्षमादान दो। हमें मौत से भय लगता है, हमारा दिमाग़ सूली का नाम सुनते ही चक्कर खा जाता है। आप धन्य थे। आपके बड़े ज़िगर थे कि आपने फाँसी को टिच्च समझा। आपने मौत के समय मज़ाक़ किये! पर हम? हमें चमड़ी प्यारी है, हमें तो ज़रा-सी तकलीफ़ ही मौत बनकर दिखने लगती है। आज़ादी! आज़ादी का तो नाम सुनते ही हमें कँपकँपी छिड़ जाती है। हाँ! ग़ुलामी के साथ हमें प्यार है, ग़ुलामी की ठोकरों से हमें मज़ा आता है! आपकी नस.नस से, रग-रग से आज़ादी की पुकार गूँजती थी लेकिन हमारी रग-रग से, हमारी नस.नस से, ग़ुलामी की आवाज़ निकलती है। आपका और हमारा क्या मेल? हमें आप क्षमा करो, आप हमारे केवल यह प्रेम के अश्रु ही स्वीकार करो।

कहो, धन्य हैं, काकोरी के शहीद…!


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्‍पर्क करें।

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