भगतसिह – दिल्ली-केस के शहीद!

दिल्ली-केस के शहीद!

सितम्बर, 1928 के ‘किरती’ में प्रकाशित। – स.

पिछली बार हमने दिल्ली-साज़िश का कुछ हाल भाई बालमुकुन्द जी के जीवन से दिया। भाई बालमुकुन्द जी, जैसाकि पिछली बार बताया गया था, गिरफ्तारी के समय महाराजा जोधपुर के लड़कों को पढ़ाते थे। एक दिन मोटर में राजकुमार के साथ बैठे सैर को जा रहे थे कि अंग्रेज़ अधिकारी उनके गिरफ्तारी के वारण्ट लेकर पहुँच गया। वहीं गिरफ्तार कर लिये गये। वहीं आपके घर की तलाशी ली गयी। सरकारी गवाह दीनानाथ ने पहले ही जो बयान दिया था, उसके मुताबिक़ भाई बालमुकुन्द जी पंजाब के नेता चुने गये थे और उन्हें दो बम दिये गये थे। दीनानाथ के कथनानुसार वे दो बम भाई बालमुकुन्द जी के पास ही थे। कहीं लौटाये नहीं गये। इसी ख़याल में घर की तलाशी हुई। सारा घर कमर तक खोद डाला गया। छतें उधेड़ दी गयीं, लेकिन बम नहीं मिले। ख़ैर! उनके पास से कोई काग़ज़-पत्र भी ऐसा-वैसा नहीं मिला, जिससे कोई ख़ास सबूत मिल सकता, लेकिन फिर भी उन्हें फाँसी की सज़ा मिली। भाई बालमुकुन्द जी पहले लाला लाजपतराय के अछूतों के कार्यक्रम में काम करते रहे थे और पहाड़ों में जहाँ कि छूत-छात बहुत मानी जाती है, वहीं वे प्रचार के लिए निकल गये थे। वहाँ के उनके साथी उनकी योग्यता की बड़ी प्रशंसा करते हैं।

मास्टर अमीरचन्द जी

इस केस में चार आदमियों को फाँसी की सज़ा हुई थी। उनमें से मास्टर अमीरचन्द जी कोई 50 साल की उम्र के थे। वे बड़े लायक और योग्य आदमी थे। आप दिल्ली के रहने वाले थे। उच्च शिक्षा प्राप्त थे। बड़े धर्मात्मा थे। मिशन स्कूल, दिल्ली में पढ़ाते थे। आपके दिल में हिन्दुस्तान की उन्नति का बहुत ख़याल था। आप उर्दू और अंग्रेज़ी के बड़े अच्छे लेखक थे। पहले जब स्वामी रामतीर्थ पंजाब में आये तब आपने उनके धार्मिक और देशभक्तिपूर्ण विचारों का प्रचार बड़े ज़ोरों से किया। आपने ‘ख़तूते राम’ आदि कई पुस्तकें छपवायीं। बाद में लाला हरदयाल जी एम.ए. अपनी छात्रवृत्ति छोड़ विलायत से अंग्रेज़ी शिक्षा का बहिष्कार कर भारत लौट आये। आपने यहाँ आकर एक तरह के संन्यासी वालण्टियर पैदा करने का विचार किया और उन्होंने बहुत-से विद्यार्थियों को शिक्षा से हटाया और उन्हें साथ लेकर संन्यासी जीवन व्यतीत करने लगे। 1908 के आख़िर में ही लाला हरदयाल को हिन्दुस्तान छोड़कर चले जाना पड़ा। सरकार कहती है कि जब वे जाने लगे तो उन्होंने अपनी सम्पत्ति मा. अमीरचन्द जी के हवाले कर दी, जिन्होंने कि उनकी शिक्षा जारी रखी। पहले-पहल दीनानाथ और जितेन्द्रनाथ चटर्जी उनके पास गये। बाद में अवधबिहारी आदि से उनका परिचय हुआ। लेकिन असल में तो अवधबिहारी पहले ही दिल्ली के रहने वाले थे और पहले से ही परिचित थे। ख़ैर!

मास्टर अमीरचन्द बड़े ज़िन्दादिल, बड़े नेकदिल और कट्टर आज़ादी-परस्त थे। आप कहा करते थे कि दिल्ली में ‘बन्दर मास्टर’ का घर पूछते ही मेरा घर मिल जायेगा।

दिल्ली में वायसराय पर बम चल गया, लेकिन सरकार हाथ मलती रह गयी। कुछ भी पता न चला। बाद में एक बम लाहौर लारेन्स गार्डन में चल गया, लेकिन उसका भी कुछ पता न चला। आख़िर राजा बाज़ार, कलकत्ता की तलाशी में श्री अवधबिहारी का नाम व पता निकल आया। मा. अमीरचन्द को पहले ही शक की निगाह से देखा जाता था। अवधबिहारी उन्हीं के पास रहते थे।

एक दिन अवधबिहारी की तलाशी हुई। बम की टोपी मिल गयी और लाहौर का एक पत्र मिल गया, जिस पर कि मेहर सिंह की ओर से एम.एस.आई. दस्तख़त किये गये थे। पूछने पर आपने बता दिया कि यह ख़त दीनानाथ की ओर से है। दीनानाथ की गिरफ्तारी की गयी। वह फूट पड़ा और उसने वह सारा भेद खोल दिया। उसने बताया कि लारेन्स गार्डन का बम श्री अवधबिहारी और वसन्तकुमार ने रखा था। ख़ैर, मुक़दमा चला।

मास्टर अमीरचन्द ने अपने भतीजे सुल्तानचन्द को उत्तराधिकारी बनाया था और उससे अपने पुत्रों जैसा प्यार करते थे। उसे अपनी इच्छानुसार शिक्षा देते थे। देशभक्त बनाना चाहते थे। आप पर मुक़दमा चला। वही पुत्र आपके ख़िलाफ़ गवाह बन गया। ज़रा सोचो बेचारे मास्टर अमीरचन्द जी के बारे में, जिसे अपना पुत्र बनाया था वही सरकारी गवाह बनकर आपके ख़िलाफ़ गवाही दे रहा है! कैसी दर्दनाक स्थिति है। आज जब मुसीबत का समय आया तो अपने दिल का टुकड़ा अपना पुत्र भी साथ न दे सका। उर्दू के एक शायर ने क्या ख़ूब कहा है –

बागबाँ ने आग दी जब आशियाने को मेरे,

जिनपे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे!

मुक़दमा चलता रहा। गवाह भुगतते रहे। सबूत मिला कि वह एक साज़िश के सदस्य भी हैं और चूँकि वह बड़े लायक और बुद्धिमान हैं, इसलिए हत्या आदि करने की साज़िश के लिए नौजवानों को बरगला सकते हैं और –

“One who spent his life furthering murderous schemes which he was too timid to carry out himself.”

यानी हत्या का प्रचार करने में जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा दी, उसके बारे में वह स्वयं साहसहीन था।

उन्हीं दिनों तख़्ता पलट पार्टी की ओर से Liberty (आज़ादी) नाम का एक परचा बाँटा जाता था। एक परचे का मसौदा मास्टर जी के हाथ का लिखा उनके घर में मिल गया। उसमें ऐसे वाक्य आपत्तिजनक माने गये –

We are so many that we can seize and from them their cannon.

Reforms will not do. Revolution and a general massacre of all the foreigners specially the English will and alone can serve our purpose.

यानी, हम संख्या में इतने हैं कि हम उनकी तोपें छीन सकते हैं। ये सड़े सुधार या योजनाएँ किसी काम नहीं आयेंगी। एक बार तख़्ता पलट दो और फिरंगी को मार ख़त्म करो। ख़ैर, इन्हीं वाक्यों के कारण ही उन्हें बड़ा ख़ूँख़ार क़ातिल समझा गया और कहा गया।

आपके चरित्र सम्बन्धी कैनन आलनट और मिस्टर एस.के. रुद्र आदि बतौर गवाह पेश हुए। उन्होंने आपकी बहुत तारीफ़ की, लेकिन जज लिखता है कि मास्टर अमीरचन्द्र लामिसाल देशभक्त, बड़े नेक, दर्दमन्द और ऊँचे चरित्र के थे।

मतलब यह है कि आपको उस केस में फाँसी की सज़ा दी गयी। आपने हँसते हुए सुनी और आख़िर में बड़ी हँसी-ख़ुशी से फाँसी पर लटककर जान दे दी।

मि. अवधबिहारी

आप बड़े होनहार नौजवान थे। बी.ए. पास कर सेण्ट्रल ट्रेनिग कॉलेज, लाहौर से बी.टी. पास की। आप पर कई लिबर्टी परचे लिखने का आरोप था। आपको यू.पी. और पंजाब की पार्टी का प्रमुख नियत किया गया था। ‘बन्दी जीवन’ के लेखक श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल ने आपकी बड़ी तारीफ़ की है। कहते हैं कि आप बड़े ज़िन्दादिल थे और आमतौर पर गुनगुनाते रहते थे –

एहसान नाख़ुदा का उठाये मेरी बला,

किश्ती ख़ुदा पे छोड़ दूँ लंगर को तोड़ दूँ।

इस शेर से ही पता चलता है कि वे कितने मस्ताने वीर थे। आप पर परचे लिखने और लारेन्स गार्डन में बम चलाने का आरोप था। आपको भी फाँसी की सज़ा हुई। आपने बड़ी ख़ुशी से सुनी। कहते हैं कि फाँसी लगने के दिन आपसे पूछा गया, “आख़िरी इच्छा क्या है?”

जवाब दिया, “यही कि अंग्रेज़ों का बेड़ा गर्क हो।”

कहा गया, “शान्त रहो। आज तो शान्ति से प्राण दो।” कहने वाला एक अंग्रेज़ था। उससे आपने कहा, “देखो जी! आज शान्ति कैसी? मैं तो चाहता हूँ कि आग भड़के। चारों ओर आग भड़के। तुम भी जलो, हम भी जलें। हमारी ग़ुलामी भी जले। आख़िर में हिन्दुस्तान कुन्दन बनकर रहे।” आपने झट उछलकर स्वयं गले में फाँसी का फन्दा डाल लिया। इस तरह वह वीर भी आज़ादी-देवी के चरणों में अपने प्राण बलिदान कर गया।

जज आपके बारे में लिखता है –

“Awadh Behari is a youngman of great intellectual ability. He stood second in the Ist division of the Punjab University B.T. Examination.”

कि अवधबिहारी (25 वर्ष का) नौजवान है और बहुत ही योग्य है। वह पंजाब विश्वविद्यालय की बी.टी. की परीक्षा में पंजाबभर में दूसरे स्थान पर रहा है। उनके ख़िलाफ़ यह सबूत भी पेश हुआ कि आपके साथ मास्टर अमीरचन्द का बहुत प्रेम भी इस बात का प्रमाण है कि वे साज़िश के सदस्य थे और प्रेम का सबूत यह है कि आपको मास्टर अमीरचन्द जी (ने) ‘Dear Awadhji’ (प्यारे अवध जी) लिखा था।

श्री बसन्तकुमार बिस्वास

आप नदिया ज़िला (बंगाल) के रहने वाले नौजवान थे। आपकी उम्र 23 वर्ष थी। अच्छे पढ़े-लिखे सज्जन थे। पहले आपको रासबिहारी अपने साथ ले आये व अपने घर में कर्मचारी बनाकर रखा। बाद में आपको लाहौर भेज दिया गया और वहाँ वह पापुलर डिस्पेंसरी में कम्पाउण्डर भरती हो गये। दिल्ली में बम के दिनों आप लाहौर से कई दिन ग़ायब रहे।

कहा जाता है कि लारेन्स गार्डन का बम आपने ही अवधबिहारी के साथ मिलकर रखा था। बाद में आप दो और बम लाये, जोकि दीनानाथ के कथनानुसार भाई बालमुकुन्द के पास थे। दिसम्बर, 1913 में आप बंगाल लौट गये और 1914 में वहीं से पकड़कर लाहौर लाये गये। ओडायर को दिल्ली में बम चलाने वालों का पता न चलने से बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था, इसीलिए जब आपको उम्रक़ैद की सज़ा हुई तो उन्होंने सज़ा बढ़ाने की अपील की। ओडायर ने ख़ुद माना है कि उसने भी सज़ा बढ़ाने की सिफ़ारिश की। चीफ़ कोर्ट के जज ने लिखा है कि कहा जाता है, वह कोई बहुत बुद्धिमान आदमी नहीं था। साधारण बुद्धि का आदमी था, इसलिए उसे टूल बनाकर उससे काम लिया जाता था और वह रासबिहारी के हाथों में खेलता था। वह ग़लत है। वह लिखता है –

“He is not a boy, for at 23 an Indian has long reached maturity… He looked to me a man of some force of character, without the familiar marks of weakness in his face.”

यानी वह लड़का नहीं, 23 वर्ष की उम्र में हिन्दुस्तानी पूरा आदमी हो जाता है। वह बड़ा दिलेर, समझदार और दिल का मज़बूत आदमी है। उसके चेहरे पर कोई कमज़ोरी के निशान नज़र नहीं आते।

और इस सवाल पर कि आपका केन्द्रीय कमेटी में कोई ज़िक्र नहीं है, इसलिए उन्हें बड़ा मामूली आदमी समझकर टूल बनाया गया था, जज कहता है –

“Basant Kumar Biswas had a long training and was quite ready for anything, though he was kept purposely outside of the inner circle, so that, if caught, he would not be able to give much information to his captors.”

यानी, बसन्तकुमार को चूँकि बहुत दिनों से सारा काम सिखाया गया था, इसलिए उसे सिर्फ़ किसी ख़तरनाक काम के लिए ही अलग रखा गया था, ताकि यदि कहीं पकड़ा भी जाये तो ज़्यादा ख़बरें न दे सके।

ख़ैर! चीफ़ कोर्ट के जज ने आपको फाँसी की सज़ा सुना दी, और आपने बड़ी ख़ुशी से सुनी। एक बात ख़ास क़ाबिले-ग़ौर है कि आपके मुक़दमे के लिए बंगाल से एक वकील मि. सेन आया था, जबकि हमारे लोगों का यह हाल था कि महात्मा हंसराज को एक और आदमी, जिसका पुत्र इनके लड़के बलराज के साथ इसी मामले में पकड़ा हुआ था, मिलने आया ताकि मुक़दमे सम्बन्धी सलाह कर सके। महात्मा जी के मकान से उसे धक्के मार बाहर निकाल दिया गया और आर्यसमाज के लाइफ़ मेम्बर या जिन्होंने अपनी पूरी उम्र आर्यसमाज को दे दी थी, ने भी उनकी कोई मदद न की। यह बात ज़रा ख़ास क़ाबिले-ग़ौर है।

सर माइकल ओडायर कहता है कि फाँसी लगने से एक दिन पहले बसन्तकुमार ने मान लिया था कि दिल्ली में वायसराय के ऊपर बम उसने ही फेंका था। क्या जाने सच है या नहीं। जो भी हो, आख़िर इनमें से ही किसी का काम था।

आपने भी बड़ी वीरता से फाँसी पर लटककर अपने प्राण देश और क़ौम की आज़ादी के लिए बलिदान कर दिये।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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