भगतसिंह – तख़्तापलट गुप्त षड्यन्त्र

तख़्तापलट गुप्त षड्यन्त्र

जनवरी, 1928 में जब शहीद भगतसिंह के दो लेख ‘किरती’ में छपे तो उनके साथ एक लेख ‘तख़्तापलट गुप्त षड्यन्त्र’ नाम से भी छपा। इसके लेखक का नाम नहीं दिया गया, लेकिन अंग्रेज़ सरकार किस तरह के तरीक़े इस्तेमाल कर क्रान्तिकारी आन्दोलन के ख़िलाफ़ प्रचार करती थी, यह लेख इस सम्बन्ध में अच्छी जानकारी देता है। – स.

 

अख़बार पढ़ने-सुनने वाले लोग इस बात से परिचित हैं कि ऐसी ख़बरें अक्सर छपती ही रहती हैं कि हिन्द में आज फलाँ जगह अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ षड्यन्त्र का पता पुलिस ने लगाया है। और फलाँ स्थान पर षड्यन्त्र का मुक़दमा चलाया गया है। आज फलाँ जगह षड्यन्त्रकारियों को फाँसी दी गयी है। अभी ही एक ख़बर छपी है कि एक ऐसे षड्यन्त्र का मुक़दमा चलने वाला है जिसमें चारों उत्तरी प्रान्त लपेटे जायेंगे। ऐसी ख़बरें पढ़कर आम भोले-भाले लोग इन षड्यन्त्रों सम्बन्धी अपने दिल में बड़े बुरे विचार रखने लगते हैं। वास्तव में उन्हें इन षड्यन्त्रों से सम्बन्धी कोई जानकारी नहीं होती, जिससे इस विषय पर प्रकाश डालना ज़रूरी है। जिस तरह रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आने की वास्तविकता से कोई इन्कार नहीं कर सकता, उसी तरह की वास्तविकता इस कथन में है कि हिन्दुस्तान इस ग़ुलामी को उतारकर आज़ाद हो जायेगा। यह बात अलग है कि इस मनोरथ को पूरा करने में समय कम या ज़्यादा लगे, और मूल्य भी महँगा ही देना पड़े। यही वास्तविकता मज़दूर वर्ग सम्बन्धी है कि आज वह भी पूँजीपतियों की ग़ुलामी का जुआ उतारकर ही रहेगा।

आज़ादी के आन्दोलन दुनिया में न कभी रुके हैं और न रुक सकते हैं, लेकिन इन्हें रोकने के लिए क़ौमों और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के विरोधियों ने जो-जो हथियार इस्तेमाल किये हैं, वे साक्षात रूप में इतिहास में मौजूद हैं और इन्हें अच्छी तरह समझने के लिए हिन्दुस्तान का मौजूदा इतिहास ही काफ़ी है।

जब आज़ादी का कोई आन्दोलन सफल तरीक़ों पर चलता दिखायी दे तो इसे असफल करने के लिए इसके सेवकों पर सबसे बड़े आरोप जो लगाये जाते हैं, वे यह होते हैं – 1. कि ये षड्यन्त्र कर रहे हैं, और 2. ये धर्म-विरोधी हैं। इस लेख में इन दोनों विषयों पर विचार करने का यत्न करना है ताकि आम जनता को इनकी तह तक पहुँचने का अवसर मिले और यह पता चल सके कि सही मायनों में षड्यन्त्र करने वाला और धर्मों का विरोधी कौन होता है और किस तरह दुनिया का भला करने वालों को षड्यन्त्रकारी और अधर्मी कहा जाता है। वास्तव में षड्यन्त्रकारी और अधर्मी तो ये स्वयं होते हैं।

गुप्त तख़्तापलट आन्दोलन

वर्तमान सरकार यह हल्ला करती नहीं थकती कि हिन्दुस्तान में गुप्त तख़्तापलट आन्दोलन क़ायम है। इस आन्दोलन के अस्तित्व को प्रकट करने के लिए कहीं न कहीं से टूटे-फूटे पिस्तौल और बम आदि अपने ख़ुशामदियों के माध्यम से पकड़ने का ढोंग रच लेती है और कहीं किसी अधिकारी पर कोई ख़ाली जाने वाला हमला ही करवाया जाता है और कभी रेलपटरी के पेंच ढीले किये जाते हैं, जबकि लाट साहिब आदि को गुज़रना हो। यह सब ऐसी बातें हैं, जिन्हें गुप्त तख़्तापलट षड्यन्त्र या आन्दोलन आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इस समय यह सबकुछ पुलिस की ओर से हो रहा है, जिसका सबूत इस बात से मिलता है कि बताये गये तख़्ता पलटने वालों की इस कार्रवाई से नुक़सान कहाँ तक होता है? बंगाल को इस समय सरकार इस आन्दोलन का घर बता रही है। पिछले कुछ सालों में चाहे बंगाल पुलिस ने कितनी ही जगहों से टूटे-फूटे हथियार आदि पकड़े और कई बार सरकारी अधिकारियों पर हमलों की साज़िश का अस्तित्व भी बताया, लेकिन आज तक वहाँ किसी भी सरकारी अधिकारी की या कोई राजनीतिक मृत्यु नहीं हुई, जिससे यह सिद्ध होता है कि यह सबकुछ पुलिस के आदमी ही करते हैं। यदि तख़्ता पलटने वाले किसी सरकारी अधिकारी की जान लेने के लिए तैयार हो जायें तो क्या वे उसे सूखा जाने देंगे? यदि तख़्ता पलटने वाले हथियार आदि रखें तो क्या इस तरह के टूटे-फूटे ही रखें, जिनके बारे में बंगाल पुलिस भी अपनी गवाहियों में बता चुकी है कि ये हथियार चलाने वालों के लिए ही ज़्यादा ख़तरनाक हैं और जिस पर चलाये जाते हैं उसके लिए कम! यदि तख़्ता पलटने वाले गाड़ियाँ उलटने का यत्न करें तो क्या इसमें सफल न हों? ये सब ऐसी बातें हैं जो सिद्ध करती हैं कि यह सबकुछ आज़ादी के उपासकों को कुचलने के लिए पुलिस-कर्मचारियों की ओर से किया जाता है।

हमें इस बात से इन्कार नहीं कि हिन्दुस्तान में तख़्ता पलटने का आन्दोलन है, लेकिन हमारा कहना है कि इस समय जो हो रहा है वह पुलिस की ओर से है और इतिहास बताता है कि जब भी कोई तख़्ता पलटने का काम शुरू करते हैं, वे अपने वार कम ही ख़ाली जाने देते हैं। और सरकार को भी यह निश्चय रखना चाहिए कि ऐसे लोगों को (जिनका धर्म-ईमान ही देश की आज़ादी हो और जो बाक़ी सब तरीक़ों से निराश होकर आज़ादी के लिए इस तरीक़े पर भरोसा रखने लगें) दबाने में वह कभी भी सफल नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी ही सख़्तियाँ करे और कितनी ही चालें चले और न ही आज तक कोई सरकार इसमें सफल हुई है। इन आन्दोलनों को समाप्त करने का सही तरीक़ा तो यही है कि उन लोगों की माँग पूरी की जाये, ताकि वे शान्त हों।

ऊपर जो बताया गया है यह केवल हमारा अपना ही ख़याल नहीं, बल्कि इसकी पुष्टि बंगाल आर्डिनेंस सम्बन्धी कई ज़िम्मेदार सज्जनों के भाषणों और उनके बयानों से होती है। इन्हीं सज्जनों के सवालों का उत्तर सरकार की ओर से सिवाय चुप के कुछ नहीं मिला। नीचे हम अपने विचारों की पुष्टि के लिए कुछ उद्धरण दे रहे हैं जिनसे स्पष्ट सिद्ध हो जायेगा कि सरकार कैसे हिन्दुस्तान को ग़ुलाम रखने के लिए कमीनी चालें चल रही है।

श्रीयुत सुभाषचन्द्र बोस को, जोकि कलकत्ता नगर सभा के चीफ़ एग्ज़्यूक्टिव ऑफ़िसर थे और जिन्हें तख़्ता पलट करने का अपराधी कहकर बंगाल आर्डिनेंस के अनुसार जेल में बन्द किया गया था, अब ख़राब सेहत के कारण रिहा किया गया है। आपने बंगाल आर्डिनेंस के सम्बन्ध में अभी एक बयान प्रकाशित करवाया है, जिसमें आप लिखते हैं –

“बंगाली राजनीतिक नज़रबन्दों को और देर तक जेलों में बन्द रखने की कोई सन्तोषजनक वजह न होने के कारण पुलिस ने अब बम और टूटे हुए पिस्तौल पकड़ने शुरू कर दिये हैं, ताकि सिद्ध किया जा सके कि तख़्तापलट आन्दोलन अभी तक मौजूद है। वास्तव में पिछले कुछ सालों में जब भी कभी बंगाली राजबन्दियों की रिहाई की चर्चा चली है और जब भी कभी असेम्बली या बंगाल कौंसिल में नज़रबन्दों के सवाल पर विचार करने के लिए बैठक हुई है तो पुलिस के हाथों में खेलने वाले कुछ लोग अपने पास से हथियार लेकर झट गिरफ्तारी के लिए पुलिस के आगे पेश हो जाते रहे हैं और फ़ौरन ही कथित बम-कारख़ानों का पता पुलिस को लग जाता है। इन कारख़ानों में आमतौर पर कुछ मसाला होता है, जो हर जगह मिल सकता है। फिर टूटे हुए पिस्तौल, जोकि जिस पर निशाना साधा जाये उससे ज़्यादा ख़तरनाक उसे चलाने वालों के लिए हो सकते हैं, जैसाकि दक्षिणेश्वर बम केस में पुलिस के गवाहों ने अपने मुँह से माना कि ये दोनों चीज़ें चाहे इस्तेमाल में किसी काम की न हों, लेकिन किसी को अपराधी ठहराने के लिए काफ़ी होती हैं।

तख़्तापलट षड्यन्त्र साबित करने के लिए शस्त्र क़ानून के अन्तर्गत चलाये गये साधारण मुक़दमों को पुलिस और एंग्लो-इण्डियन अख़बारों की ओर से पोलिटिकल मुक़दमे सिद्ध किया जाता है। अभी एक ऐसे पोलिटिकल मुक़दमे में जो वायदा माफ़ गवाह बना, वह एक पुराना पुलिस एजेण्ट है।

पिछले कुछ सालों में निःसन्देह पुलिस की ओर से मनगढ़न्त तख़्तापलट आन्दोलन बनाने के लिए दलाल (Agent Provocation) रखे जाते हैं ताकि ख़ुफ़िया पुलिस के ख़ास हिस्से (Intelligence Branch) को क़ायम रखने की ज़रूरत सिद्ध की जा सके, जिन्हें कुछ साल पहले बंगाल की सरकारी ख़र्च कम करने वाली समिति (Bengal Retrenchment Committee) ने हटाने की सिफ़ारिश की थी। मैं यह बयान अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी तरह अनुभव कर लिख रहा हूँ और जो आरोप मैं पुलिस पर लगा रहा हूँ, इनकी जाँच के लिए यदि कोई निष्पक्ष समिति बनायी जाये और नज़रबन्दों और पब्लिक को यदि इसके सामने गवाहियाँ देने में कोई बाधा न दी जाये और पूरी छूट हो तो इसके प्रमाण देने को भी मैं प्रस्तुत हूँ…।

स्वर्गवासी श्रीयुत देशबन्धुदास जी ने भी बंगाल कौंसिल में भाषण देते हुए 23 जनवरी, 1924 को साफ़-साफ़ बताया कि कैसे ऊल-जलूल (सबूत) इकट्ठा कर बंगाली देशभक्तों को जेल में डाल दिया गया है और किस प्रकार के निराधार आरोप लगाये गये हैं। आपने यह भी ज़ाहिर किया कि इस तरह के आन्दोलन दमनकारी तरीक़ों से दबाये नहीं जा सकते। नीचे आपके द्वारा कौंसिल में दिया गया भाषण पूरे का पूरा दर्ज़ है –

“हमें यह शिकायत नहीं है कि सरकार ने इन व्यक्तियों को बग़ैर कोई सूचना एकत्र किये ही गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन हमारी शिकायत यह है कि इन सूचनाओं की अच्छी तरह जाँच नहीं की गयी और हमारी इस शिकायत के उत्तर में एक शब्द भी नहीं कहा। हमें यह बताया गया है कि इस सम्बन्ध में कई आदमियों ने बयान दिये हैं और यह भी बताया गया है कि जो रिपोर्टें मिली हैं, सरकार ने उन पर विचार किया है। लेकिन जो कुछ मैं पूछना चाहता हूँ वह यह है कि कोई सरकारी अधिकारी चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, किसी बयान के ठीक होने का अनुमान कैसे कर सकता है, जब तक कि बयान देने वाले को सामने बुलाकर उससे सवाल न किये जायें?

(जब भगतसिंह और उनके साथ भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की समीक्षा करते हुए लोगों से उसे साझा कर रहे थे तो भारत की स्वतन्त्रता-प्राप्ति के ढंग और स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दरपेश पैदा रुकावटों के बारे में चर्चा भी पूरे ज़ोर से चल रही थी। मई, 1928 से सितम्बर, 1928 तक जब भगतसिंह पूरी तरह ‘किरती’ अख़बार चलाने में व्यस्त थे, उस समय के ये लेख यहाँ दिये जा रहे हैं। चाहे इनके लेखकों के नामों का पता नहीं, लेकिन ये लेख शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के तत्कालीन विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए इन्हें यहाँ दिया जा रहा है। शहीद भगवतीचरण वोहरा ‘किरती’ अख़बार से गहरे रूप से जुड़े हुए थे। – स.)


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्‍पर्क करें।

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