राजनीतिक मामलों की पैरवी पर
23 दिसम्बर, 1930 को पंजाब के गवर्नर सर ज़्याफ़्रेडी पर क्रान्तिकारी युवक हरिकृष्ण ने गोली चलायी और उसे घायल कर दिया। हरिकृष्ण पकड़ा गया और उस पर केस चला। लेकिन वकील की सलाह पर हरिकृष्ण जिस तरह केस की पैरवी कर रहा था, भगतसिंह उसके तरीक़े से असहमत थे। इसलिए उन्होंने अपने एक साथी को जेल से दो पत्र जोकि जून, 1931 में लाहौर से प्रकाशित ‘पीपुल्स’ नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक में छपा था, नीचे दिया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि हरिकृष्ण को 9 जून, 1931 को फाँसी दी गयी। – स.
मुझे यह जानकर बहुत अफ़सोस है कि इस सम्बन्ध में मेरा पहला पत्र समय पर अपने ठिकाने नहीं पहुँच सका और इसलिए उससे कोई फ़ायदा न हो सका, या यह कि वह उस उद्देश्य की पूर्ति में असफल रहा, जिसके लिए वह लिखा गया था। इसलिए मैं आमतौर पर यह पत्र राजनीतिक मुक़दमों में पैरवी के सवाल के बारे में और ख़ासतौर पर क्रान्तिकारी मुक़दमे के बारे में अपने विचारों को प्रकट करने के लिए लिख रहा हूँ। पहले पत्र में विचारे गये ख़ास-ख़ास नुक्तों के अलावा इसका एक और मक़सद भी होगा, और वह यह कि मैं घटनाओं से गुज़र जाने के बाद समझदार नहीं बन रहा हूँ।
ख़ैर, मैंने उस ख़त में यह लिखा था कि वकील पैरवी के लिए जो दलीलें दे रहा था, उन्हें माना न जाये, पर बावजूद आपके और मेरे विरोध के उन्हें मान लिया गया है।
बावजूद इसके हम अधिक रोशनी में इस बात पर विचार कर सकते हैं और पैरवी से सम्बन्धित आगामी नीति के बारे में ठोस विचार बना सकते हैं।
आप यह जानते ही हैं कि मैं कभी भी हमारे राजनीतिक बन्दियों की बचाव वाली पैरवी करने का समर्थक नहीं रहा, परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि उचित संघर्ष की ख़ूबसूरती बिल्कुल ही बिगाड़ दी जाये। इस पर विशेष ध्यान की आवश्यकता है कि ख़ूबसूरती शब्द यहाँ अवास्तविक शक्ल में प्रयोग नहीं किया गया है और इसका उस उद्देश्य से सम्बन्ध है, जिसने कि एक ख़ास कार्रवाई के लिए हरिकृष्ण को प्रेरित किया। जब मैं यह जानता हूँ कि सब राजनीतिक बन्दियों को अपनी पैरवी स्वयं करनी चाहिए, तो यह कुछ विशेष मान्यताओं के साथ कहता हूँ। मेरा मतलब सिर्फ़ एक ही बात से साफ़ हो सकता है।
एक मनुष्य एक ही विशेष मक़सद को सामने रखकर काम नहीं करता। उसकी गिरफ्तारी के बाद उसके काम का राजनीतिक महत्त्व समाप्त नहीं होना चाहिए और काम की अपेक्षा मरने की तैयारी ही ज़्यादा ज़रूरी नहीं बन जानी चाहिए। हम इसे उदाहरण की मदद से और साफ़ करें। हरिकृष्ण गवर्नर को गोली मारने के लिए आये। मैं इस कार्रवाई का नैतिक पक्ष नहीं लेना चाहता। मैं सिर्फ़ इस केस के राजनीतिक पहलू पर विचार करना चाहता हूँ। गोली मारने वाला व्यक्ति गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्भाग्य से पुलिस-कर्मचारी इस कार्रवाई में मर गया। अब पैरवी का सवाल सामने आता है। जब गवर्नर बच गया तो हरिकृष्ण के केस में बड़ा सुन्दर बयान आ सकता था; अर्थात असली तथ्यों का बयान, जैसाकि हमारे केस में नीचे की अदालत में दिया गया था। इस प्रकार यह क़ानूनी मक़सद को भी पूरा कर देता और कार्य के उद्देश्य को भी ऊपर उठाता, पर वकील की कोशिश और क़ाबिलियत सब-इंस्पेक्टर की मौत के बारे में दलीलें देने में उलझी रही। उसे यह कहकर क्या मिला कि हरिकृष्ण सिर्फ़ गवर्नर को ज़ख़्मी करना चाहता था, मारना नहीं चाहता था? इसी तरह की दूसरी बातें थीं। क्या कोई समझदार एक क्षण के लिए भी ऐसी बात की उम्मीद कर सकता है? क्या इस दलील की कोई क़ानूनी क़ीमत थी? बिल्कुल कोई क़ीमत नहीं, तो फिर गवर्नर पर गोली चलाने के विशेष कार्य की ही नहीं, बल्कि सारी क्रान्तिकारी लहर की ख़ूबसूरती ख़राब करने से क्या फ़ायदा था?
प्रतिवाद तथा भावनाएँ ज़्यादा देर तक नहीं चल सकतीं। क्रान्तिकारी दल के द्वारा सरकार को बहुत समय पहले चेतावनी दी जा चुकी। इसके लिए क्रान्तिकारी दल को भारत ने बेहद इज़्ज़त दी थी और क्रान्ति की लहर सही स्वरूप में आरम्भ हो गयी थी। वायसराय की गाड़ी पर बम फेंकने का कार्य एक चेतावनी नहीं था; भले ही वह असफल रहा। चिटगाँव की घटनाएँ न चेतावनी थीं और न केवल विरोध-प्रदर्शन। इसी तरह हरिकृष्ण का एक्शन अपनेआप में क्रान्तिकारी संघर्ष का एक हिस्सा था, चेतावनी बिल्कुल नहीं। कार्रवाई की असफलता के बाद अभियुक्त इस चीज़ को खिलाड़ी की तरह ले सकता है। मक़सद पूरा होने पर सम्भव है भाग्यवश गवर्नर के बच जाने से हरिकृष्ण प्रसन्न हुआ हो। व्यक्तिगत रूप में किसी को मारने से कोई लाभ भी नहीं। इन कार्यों का राजनीतिक महत्त्व होता है, ये वह वातावरण और सोचने का ढंग बनाने में मदद करते हैं जोकि आख़िरी संघर्ष के लिए बहुत ज़रूरी है। इतना ही पर्याप्त है। व्यक्तिगत कार्य लोगों की सहानुभूति जीतने के लिए होते हैं। हम कभी-कभी इनको अपने कार्यों के द्वारा प्रोपेगेण्डा का नाम दे देते हैं।
इस विचार की रोशनी में क्रान्तिकारी मुक़दमों की पैरवी होनी चाहिए। यह एक आम समझ वाला नियम है कि संघर्ष करने वाली सभी पार्टियाँ प्राप्त अधिक करना चाहती हैं और खोना कम। कोई भी जनरल ऐसी युद्धनीति नहीं अपना सकता जिसमें उसे सोचे हुए लाभ से अधिक बलिदान देना पड़े। मुझसे अधिक कोई भी हरिकृष्ण के अमूल्य जीवन को बचाने के लिए बेताब नहीं होगा, पर मैं आपको बताना चाहता हूँ कि जो चीज़ उसकी ज़िन्दगी को अनमोल बनाती है उसे आँख से ओझल नहीं करना चाहिए। किसी भी क़ीमत पर जीवन को बचाना ही हमारी नीति नहीं है। यह कांग्रेस की नीति हो सकती है, यह आरामकुर्सियों वाले राजनीतिज्ञों की नीति हो सकती है, परन्तु यह हमारी नीति नहीं है। बचाव-नीति (डिफ़ेंस पालिसी) अधिकतर अभियुक्त के अपने सोचने के ढंग पर आधारित होती है, पर यदि अभियुक्त न सिर्फ़ निडर हो, बल्कि हमेशा की तरह जोशीला भी रहे तो जिस कार्य के लिए उसने अपनी ज़िन्दगी का ख़तरा मोल लिया उसे बयान में पहले लिया जाना चाहिए और व्यक्तिगत मसलों को बाद में। इसके बाद भी एक तरह की उलझन भरी स्थिति हो सकती है क्योंकि कुछ ऐसे केस हो सकते हैं जिनमें स्थानीय महत्त्व के होने पर भी कार्रवाई (एक्शन) का आम महत्त्व न हो। वहाँ अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार करने में अभियुक्त को भावुक नहीं होना चाहिए। निर्मलकान्त राय का मशहूर मुक़दमा इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, परन्तु इस तरह के राजनीतिक महत्त्व के केस में व्यक्तिगत पहलू को राजनीतिक पहलू से अधिक महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए। अगर आप मेरा निष्पक्ष मत प्रस्तुत केस के बारे में पूछना चाहते हैं तो मैं साफ़-साफ़ बताना चाहता हूँ कि यह ऐतिहासिक महत्त्व की राजनीतिक हत्या बिल्कुल नहीं है।
यहाँ मैं एक बात अवश्य बताना चाहता हूँ कि इस केस का गला घोंटने वाले लोग – जिन्हें अपनी ग़लती का अहसास हो गया है और उसके बाद जो समझदार बन गये हैं, लेकिन अपने कन्धों पर उत्तरदायित्व लेने का हौसला नहीं कर पा रहे हैं – हमारे नौजवान साथी के चमत्कारी चरित्र के सौन्दर्य को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। मैंने उन्हें यह कहते सुना है कि हरिकृष्ण बहादुरी से सामना करने में काँप गया है यह एक हद दर्जे का शर्मनाक झूठ है। मुझे उस जैसा हौसले वाला नौजवान कभी कोई नहीं मिला। लोगों को हमारे ऊपर मेहरबानी करनी चाहिए। हौसला पस्त करने और नीचा दिखाने से तो अच्छा है कि वे हमारी तरफ़ ध्यान ही न दें।
वकीलों को उन नौजवानों की ज़िन्दगियाँ, यहाँ तक कि मौतों को ख़राब करने में इतने आत्महीन विशेषज्ञ (बेज़मीरे एक्सपर्ट) नहीं होना चाहिए, जो दुखी जनता की मुक्ति के पवित्र काम में अपना आपा न्योछावर करने के लिए आते हैं। मुझे यह जानकर सचमुच बहुत दुख होता है कि धीरे-धीरे हम राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक नयी अफ़सरशाही बना रहे हैं। यह बात ठीक नहीं है तो भला एक वकील किसी राजनीतिक मुक़दमे में यक़ीन न आने वाली फ़ीस क्यों माँगे, जैसाकि इस केस में फ़ीस दी गयी है।
राजद्रोह के केसों में मैं वह हद बता सकता हूँ जिस तक हम पैरवी की इजाज़त दे सकते हैं। गत वर्ष जब एक साथी पर समाजवादी भाषण देने का मुक़दमा चला और उसे ग़लत ढंग पर लड़ा गया तो हमें केवल हैरानगी ही हुई थी। ऐसे केसों में हमें अपने द्वारा प्रचारित विचारों और आदर्शों को स्वीकार कर लेना चाहिए और स्वतन्त्र भाषण का अधिकार माँगना चाहिए, परन्तु कहाँ यह बात और कहाँ यह कहना कि हमने कुछ कहा ही नहीं! हम इस तरह अपने ही आन्दोलन के हितों के विरुद्ध जाते हैं। कांग्रेस को मौजूदा आन्दोलन में बिना मुक़दमों की पैरवी किये जेल जाने से नुक़सान पहुँचा है। मेरे विचार में यह एक ग़लती थी।
ख़ैर, मेरा ख़याल है कि आप मेरा यह पत्र पिछले पत्र के साथ पढ़ेंगे और राजनीतिक मुक़दमों की पैरवी के बारे में मेरे विचारों से अच्छी तरह परिचित हो जायेंगे। हरिकृष्ण के केस में मेरे ख़याल में जल्दी से जल्दी हाईकोर्ट में अपील कर देनी चाहिए और उसको बचाने की पूरी कोशिश होनी चाहिए। मुझे आशा है कि मेरे ये दोनों पत्र प्रत्येक बात आपको बता देंगे, जो मैं आपको बताना चाहता हूँ।
आपका
भगतसिंह
शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं।
ये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।
व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्पर्क करें।
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