श्री इन्द्रचन्द्र नारंग का मुक़दमा
श्री इन्द्रचन्द्र नारंग का देवघर षड्यन्त्र केस से सम्बन्धित यह सम्पादकीय टिप्पणी – सितम्बर, 1928 ‘किरती’ में छपी थी। ब्रिटिश शासन में नागरिक स्वतन्त्रता और जनवादी अधिकारों की स्थिति पर यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है। – स.
पाठक पिछली बार देवघर साज़िश केस के बारे में पढ़ चुके हैं। उस मुक़दमे के निर्णय के बारे में हमने संक्षेप में लिखा था। उसमें ही एक पंजाबी नौजवान श्री इन्द्रचन्द्र नारंग को अकारण तीन साल की सज़ा दी गयी है। आज उनके मुक़दमे का निर्णय हमारे सामने है। इसे पढ़ते हुए आश्चर्य हो रहा है कि किस कारण उन्हें सज़ा दी गयी है। उनके विरुद्ध यही रहा कि देवघर की तलाशी में जो एक सूची मिली थी उसमें उनका नाम भी था। और तलाशी में ‘बन्दी जीवन’ की साठ प्रतियाँ मिली थीं और एक अन्य व्यक्ति के पास से तलाशी में डॉक्टर भूपेन्द्रनाथ दत्त, अध्यक्ष राजनीतिक पीड़ित कॉन्फ्रेंस (पोलिटिकल सफ़रर्स कॉन्फ्रेंस) का पता मिला था। उसने कहा था कि यह उसने श्री इन्द्रचन्द्र से लिया था, बस।
सूची में नाम मिलने से इन्द्रचन्द्र का कोई विशेष अपराध नहीं बन जाता। अन्य साठ-सत्तर व्यक्तियों के भी तो नाम थे, लेकिन उनसे तो पूछताछ भी नहीं की गयी।
सबसे अधिक ज़ोर इस बात पर दिया गया है कि वह ‘बन्दी जीवन’ बेचता था और इसलिए यह राजपरिवर्तनकारी साज़िश का सदस्य समझा जाता है। ख़ूब! हम पूछते हैं कि ‘बन्दी जीवन’ क्या ज़ब्त किताब है? क्या सरकार ने उसकी बिक्री पर रोक लगायी हुई है? यदि नहीं तो श्री इन्द्रचन्द्र को सज़ा किस बात की दी गयी है? मज़ा तो यह है कि किताब उसके भाई ने लाहौर-हिन्दी भवन से प्रकाशित की है। उसकी बिक्री के लिए सभी ने प्रयत्न किये हैं। लेकिन इसमें साज़िश का क्या सबूत है? क्या डॉक्टर भूपेन्द्रनाथ दत्त का अध्यक्षीय सम्बोधन सरकार ने ज़ब्त कर लिया है? यदि नहीं, तो वह किसी व्यक्ति को पढ़ने के लिए देना ही किस तरह अपराध हो गया? पहले श्री इन्द्रचन्द्र ने समाचारपत्र की एजेंसी लेने का प्रयास किया था। वह जैसे-तैसे पैसे कमाकर गुज़ारा कर रहा था और शिक्षा भी प्राप्त कर रहा था। अगर वह अपने भाई द्वारा प्रकाशित किताब की बिक्री करके कुछ धन कमा लेता है, तो क्या वह अपराध था? हम समझ नहीं पा रहे हैं कि यह अपराध कैसे हो गया? आज हज़ारों व्यक्तियों के घरों में ‘बन्दी जीवन’ होगा। सैकड़ों आदमी वह किताब बेचते होंगे। तो क्या वे सभी षड्यन्त्रकारी हैं? और जेल भेजने लायक हैं? अगर नहीं तो एक बेचारे इन्द्रचन्द्र के हाथों में जाते ही ‘बन्दी जीवन’ ज़हर हो गया है? हमें तो दाल में कुछ काला-वाला नज़र आता है। कहीं किसी और तैयारी के सिलसिले में ही उस ग़रीब को यूँ ही जेल में तो नहीं डाल दिया गया? हमें लगता है कि पंजाब के नौजवानों पर मुसीबत आने वाली है और यह इसी की तैयारी में पहला क़दम उठाया गया है। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार ज़रा ज़ार का इतिहास याद कर लिया करे। इस तरह के ज़ुल्म कर-करके अपने राज को मज़बूत पाँव पर खड़ा करता-करता ज़ार आज अपनी हस्ती मिटा बैठा है। याद रखना चाहिए कि ज़ुल्म के साथ कभी शान्ति क़ायम नहीं हो सकती, राज मज़बूत नहीं हो सकते, बल्कि यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ा मारना है। लेकिन हमारे बड़े शोर-शराबा करने वाले देशभक्तों और नेताओं को यह अन्धेरगर्दी बन्द करने के लिए आन्दोलन करना चाहिए।
शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं।
ये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।
व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्पर्क करें।
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