भगतसिह – सम्पादक ‘महारथी’ के नाम पत्र

चित्रों के बग़ैर इन लेखों की महानता कम हो जाती है। बाक़ी, लेख जो जल्दी ही आपकी सेवा में भेजूँगा, सचित्र ही छपने चाहिए। बहुतों के तो ब्लॉक बने हुए ही मिल सकेंगे। उनका डाक ख़र्च व कुछ माया ही देनी होगी। यदि आप उचित समझो तो लिखें, मैं प्रबन्ध करवा दूँगा।

भगतसिंह – कूका विद्रोह: दो

पंजाब में सबसे पहली पोलिटिकल हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है। वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक-सा नज़र आता है, लेकिन ज़रा ग़ौर से देखें तो वह बड़ा भारी पोलिटिकल आन्दोलन था, जिसमें धर्म भी मिला हुआ था, जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धर्म और राजनीति मिली-जुली थी। ख़ैर, हम देखते हैं कि हमारी आपस की साम्प्रदायिकता और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े-बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते हैं जैसेकि वे हुए ही न हों।

भगतसिंह – कूका विद्रोह: एक

कूका आन्दोलन का इतिहास, आज तक लोगों के सामने नहीं आया। किसी ने उन्हें महत्त्वपूर्ण नहीं समझा। कूकों को भटके हुए तथा मूर्ख कहकर हम अपने कर्त्तव्य से छुट्टी पा जाते हैं। स्वार्थ के लिए अथवा लोभ के लिए यदि उन लोगों ने प्राण दिये होते तो हम उपेक्षा दिखा सकते थे, परन्तु उनकी तो ‘मूर्खता’ में भी ‘देशप्रेम’ का भाव कूट-कूटकर भरा था।

भगतसिंह – शहीद कर्तार सिंह सराभा

आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने से क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे। मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।

भगतसिंह – शहीदों के जीवन-चरित्र (सूफ़ी अम्बा प्रसाद, श्री बलवन्त सिंह, डॉक्टर मथुरा सिंह)

काकोरी के शहीदों को दिसम्बर, 1927 में फाँसी होने के बाद भगतसिंह ने अपने साथियों – भगवतीचरण वोहरा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर आदि – से विचार-विमर्श करते हुए अपने देश के शहीदों व क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्बन्धी जानकारी देने के निरन्तर यत्न शुरू किये। वे स्वयं भी इन आन्दोलनों का गहराई से अध्ययन कर रहे थे और देशवासियों को जागृत भी कर रहे थे। फ़रवरी, 1928 में ‘चाँद’ का ‘फाँसी अंक’ प्रकाशित हुआ। भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन और शहीदों के जीवन-चरित्र सम्बन्धी इस अंक में ‘विद्रोही’ छद्म नाम से भगतसिंह ने कई देशभक्तों के जीवन-चरित्र लिखे। यहाँ प्रस्तुत तीन जीवन-चरित्र वहीं से लिये गये हैं।

काकोरी के शहीदों के लिए प्रेम के आँसू

किसी का आदर्श कुछ होता है, किसी का कुछ। लेकिन उनका आदर्श देश था। उनका आदर्श हिन्दुस्तान की आज़ादी था। उनका कोई स्वार्थ नहीं था। उनके खाने के लिए, उन्हें ओढ़ने के लिए किसी बात की कमी न थी। वे तो जो कुछ करते थे, लोक-कल्याण की ख़ातिर, लोक-सेवा के लिए करते थे। वे इतने बलिदान के पुंज निकले, कि स्वयं को हमारे ऊपर वार दिया। आइये, इन वीरों को प्रणाम करें।

भगतसिह – काकोरी के शहीदों की फाँसी के हालात

आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेज़ी सरकार ने अपना ख़ौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख़याल यह है कि उसका क़सूर यही था कि वह इस ग़ुलाम देश में जन्म लेकर भी एक बड़ा भारी बोझ बन गया था और लड़ाई की विद्या से ख़ूब परिचित था। आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता श्री गेंदालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। मैनपुरी के मुक़दमे के समय आप भागकर नेपाल चले गये थे। अब वही शिक्षा आपकी मृत्यु का एक बड़ा कारण हो गया। 7 बजे आपकी लाश मिली और बड़ा भारी जुलूस निकला।

भगतसिह – काकोरी के वीरों से परिचय

“क्रान्तिकारी लोगों में जो अगाध और गम्भीर प्रेम होता है, उसे साधारण दुनियादार आदमी अनुभव नहीं कर सकते,” श्री रासबिहारी के इस वाक्य का अर्थ भी हम लोग नहीं समझ सकते। जिन लोगों ने ‘सिर रख तली प्रेम की गली’ में पैर रख दिया हो, उनकी महिमा को हमारे जैसे निकृष्ट आदमी क्या समझ सकते हैं? उनका परस्पर प्रेम कितना गहन होता है, उसे हम सपने में भी नहीं जान सकते। डेढ़ साल से अपने जीवन के अन्धकारमय भविष्य के इन्तज़ार में मिलकर बैठे थे। वह पल आया, तीन को फाँसी, एक को उम्रक़ैद, एक को 14 बरस क़ैद, 4 को दस बरस क़ैद व बाक़ियों को 5 से 10 साल की सख़्त क़ैद सुनाकर जज उन्हें उपदेश देने लगा, “आप सच्चे सेवक और त्यागी हो। लेकिन ग़लत रास्ते पर चले हो।” ग़रीब भारत में ही सच्चे देशभक्तों का यह हाल होता है। जज उन्हें अपने कामों पर पुनर्विचार करने की बात कह चलता बना और फिर…फिर क्या हुआ? क्या पूछते हैं? जुदाई के पल बड़े बुरे होते हैं। जिन्हें फाँसी की सज़ा मिल गयी, जिन्हें उम्रभर के लिए जेल में बन्द कर दिया गया, उनके दिलों का हाल हम नहीं समझ सकते।

भगतसिंह – होली के दिन रक्त के छींटे

पंजाब में बब्बर अकाली आन्दोलन चल रहा था। उस आन्दोलन के छह कार्यकर्ताओं की फाँसी पर ‘एक पंजाबी युवक’ के नाम से 15 मार्च, 1926 के ‘प्रताप’ में यह लेख हिन्दी में छपा था। उस आन्दोलन की जानकारी तो लेख से मिलती ही है, साढ़े अठारह वर्षीय भगतसिंह की मानसिक परिपक्वता भी इस लेख से झलकती है।

भगतसिह – युवक!

अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो, तो तुम्हें युवक की ओर देखना पड़ेगा। प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही तो होते हैं। एक पाश्चात्य पण्डित ने ठीक कहा है – It is an established truism that youngmen of today are the Countrymen of tomorrow holding in their hands the high destinies of the Land. They are the seeds that spring and bear fruit. भावार्थ यह कि आज के युवक ही कल के देश के भाग्य-निर्माता हैं। वे ही भविष्य के सफलता के बीज हैं।