“क्रान्तिकारी लोगों में जो अगाध और गम्भीर प्रेम होता है, उसे साधारण दुनियादार आदमी अनुभव नहीं कर सकते,” श्री रासबिहारी के इस वाक्य का अर्थ भी हम लोग नहीं समझ सकते। जिन लोगों ने ‘सिर रख तली प्रेम की गली’ में पैर रख दिया हो, उनकी महिमा को हमारे जैसे निकृष्ट आदमी क्या समझ सकते हैं? उनका परस्पर प्रेम कितना गहन होता है, उसे हम सपने में भी नहीं जान सकते। डेढ़ साल से अपने जीवन के अन्धकारमय भविष्य के इन्तज़ार में मिलकर बैठे थे। वह पल आया, तीन को फाँसी, एक को उम्रक़ैद, एक को 14 बरस क़ैद, 4 को दस बरस क़ैद व बाक़ियों को 5 से 10 साल की सख़्त क़ैद सुनाकर जज उन्हें उपदेश देने लगा, “आप सच्चे सेवक और त्यागी हो। लेकिन ग़लत रास्ते पर चले हो।” ग़रीब भारत में ही सच्चे देशभक्तों का यह हाल होता है। जज उन्हें अपने कामों पर पुनर्विचार करने की बात कह चलता बना और फिर…फिर क्या हुआ? क्या पूछते हैं? जुदाई के पल बड़े बुरे होते हैं। जिन्हें फाँसी की सज़ा मिल गयी, जिन्हें उम्रभर के लिए जेल में बन्द कर दिया गया, उनके दिलों का हाल हम नहीं समझ सकते।
भगतसिंह – होली के दिन रक्त के छींटे
पंजाब में बब्बर अकाली आन्दोलन चल रहा था। उस आन्दोलन के छह कार्यकर्ताओं की फाँसी पर ‘एक पंजाबी युवक’ के नाम से 15 मार्च, 1926 के ‘प्रताप’ में यह लेख हिन्दी में छपा था। उस आन्दोलन की जानकारी तो लेख से मिलती ही है, साढ़े अठारह वर्षीय भगतसिंह की मानसिक परिपक्वता भी इस लेख से झलकती है।
भगतसिह – युवक!
अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो, तो तुम्हें युवक की ओर देखना पड़ेगा। प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही तो होते हैं। एक पाश्चात्य पण्डित ने ठीक कहा है – It is an established truism that youngmen of today are the Countrymen of tomorrow holding in their hands the high destinies of the Land. They are the seeds that spring and bear fruit. भावार्थ यह कि आज के युवक ही कल के देश के भाग्य-निर्माता हैं। वे ही भविष्य के सफलता के बीज हैं।
भगतसिंह – विश्वप्रेम
अशान्ति फैलती है तो फैलने दो, परतन्त्रता भी तो न होगी। अराजकता फैलती है तो फैलने दो, पराधीनता का भी तो सर्वनाश हो जायेगा। आहा! उस कशमकश में कमज़ोर पिस जायेंगे। रोज़-रोज़ का रोना बन्द हो जायेगा। निर्बल न रहेंगे, बलवानों में मैत्री होगी। बलिष्ठ लोगों में घनिष्टता होगी। उनमें प्रेम होगा, संसार में विश्वप्रेम का प्रचार हो सकेगा।
भगतसिंह – पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या
शायद गैरीबाल्डी को इतनी जल्दी सेनाएँ न मिल पातीं, यदि मेजिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जागृति पैदा करने में ही न लगा दिये होते। आयरलैण्ड के पुनरुत्थान के साथ गैलिक भाषा के पुनरुत्थान का प्रयत्न भी उसी वेग से किया गया। शासक लोग आयरिश लोगों को दबाये रखने के लिए उनकी भाषा का दमन करना इतना आवश्यक समझते थे कि गैलिक भाषा की एक-आध कविता रखने के कारण छोटे-छोटे बच्चों तक को दण्डित किया जाता था। रूसो, वाल्टेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्यक्रान्ति घटित न हो पाती। यदि टालस्टाय, कार्ल मार्क्स तथा मैक्सिम गोर्की इत्यादि ने नवीन साहित्य पैदा करने में वर्षों व्यतीत न कर दिये होते, तो रूस की क्रान्ति न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तथा व्यवहार तो दूर रहा।
यह जीवन देश को समर्पित: भगतसिह के छह शुरुआती पत्र
मेरी ज़िन्दगी मक़सदे-आला(1) यानी आज़ादी-ए-हिन्द के असूल(2) के लिए वक्फ़(3) हो चुकी है। इसलिए मेरी ज़िन्दगी में आराम और दुनियावी ख़ाहशात(4) बायसे कशिश(5) नहीं हैं। आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक़्त एलान किया था कि मुझे खि़दमते-वतन(6) के लिए वक्फ़ दिया गया है। लिहाज़ा मैं उस वक़्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ। उम्मीद है आप मुझे माफ़ फ़रमायेंगे।
भगतसिंह की वैचारिक विरासत और हमारा समय
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुनःस्मरण-मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर संगठित होकर साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की दिशा और मार्ग का सन्धान करना है, जब एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करने का कार्यभार हमारे सामने है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से हमें कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास (चापेकर बन्धुओं से भगतसिह तक) / शिव वर्मा
ग़ुलामी की अपमानजनक स्थिति के सामने समर्पण करने से बेहतर होता है चोट करना और नष्ट हो जाना। किसी न किसी को पहली चोट करनी ही पड़ती है। पहली चोट का कोई नतीजा नहीं निकलता और पहली चोट करने वाले ज़्यादातर नष्ट हो जाते हैं। लेकिन उनकी क़ुर्बानियाँ कभी बेकार नहीं जातीं। झरना बढ़कर गरजता हुआ दरिया बन जाता है, चिनगारी ज्वालामुखी बनती है, व्यक्ति समष्टि से एकाकार हो जाता है। पुरानी व्यवस्था की जगह एक नयी व्यवस्था आती है, और सपना एक हक़ीक़त का रूप ले लेता है। क्रान्तियाँ इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ती हैं। भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन भी ठीक इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ा।