वर्ग-रुचि का आन्दोलनों पर असर

वर्ग-रुचि का आन्दोलनों पर असर

सितम्बर, 1928 के ‘किरती’ में ‘एक निर्वासित’ एम.ए. के नाम से एक बहुत ही दिलचस्प लेख प्रकाशित हुआ था। यह लेख लाला हरदयाल की रचना है। भगतसिंह और उनके साथियों ने इस पर गहराई से विचार किया था। – स.

दुनियाभर में दर्शनशास्त्रों तथा भ्रातृत्व के उपदेश की सारी उलझनों और मुसीबतों के होते हुए भी एक बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने है। वह यह कि दुनिया इस समय अनेक वर्गों में बँटी हुई है। जो मनुष्य इस सच्चाई को नज़रअन्दाज़ करता है या जो ईश्वर के बन्दों की सच्ची सेवा करना चाहता है वह उस ज्योतिषी के समान है जोकि कोशिश के सिद्धान्त तथा सितारों की गर्दिश से अनजान है। ख़ाली, बेवकूफ़ और निकम्मा है। दुनिया के लोग, हालाँकि, अन्धे भी अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया में अमीर और ग़रीब दो वर्ग हैं। दुनियाभर की भाषा-बोलियों में अपने-अपने अलग-अलग शब्द इस वर्ग-विभाजन को जताने के लिए मौजूद हैं। मालिक और नौकर, ज़मींदार और मज़दूर, शासक और प्रजा, पूँजीपति और मेहनतकश आदि शब्द उस बुरे क़िस्से की याद दिलाते हैं, जिसने दुनिया से बन्धुत्व को नष्ट कर दिया है।

इस समय दुनिया में अलग-अलग पार्टियाँ मौजूद हैं, लेकिन सरसरी निगाह से देखने पर हम दो प्रकार के वर्गों को तो स्पष्ट तौर पर देखते हैं। एक तो वह वर्ग जो शारीरिक श्रम करके कुछ अर्जित करता है। दूसरे वह जो मेहनत नहीं करता। जो लोग खेतों, खदानों अथवा कारख़ानों आदि में काम करते हैं, वे मेहनतकश वर्ग में शामिल हैं। जो लोग इन जगहों पर या अन्यत्र भी मेहनत करने के लिए मजबूर नहीं किये जाते उनका वर्ग भिन्न है। दरअसल इस दुनिया में दो ही क़ौमें हैं – ये ही दोनों वर्ग। इससे अधिक अगर कोई दूसरा विभाजन किया गया है तो वह बेहूदा और हानिकारक है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक मेहनतकश व्यक्ति की यह इच्छा रहती है कि उसका पुत्र उन्नति करे और उस मेहनतकश वर्ग में से निकलकर ख़ुशहाल वर्ग में शामिल हो जाये। दुनिया में हर जगह और हर सूरत में बढ़ई, लोहार और किसान आदि मेहनतकश लोगों से राजा, वजीर, वकील, न्यायाधीश, प्रोफ़ेसर, ज़मींदार, साहूकार, बैंकर आदि कहीं ज़्यादा कमाते हैं। दुनिया की कोई शक्ति इन वर्गों को संयुक्त नहीं कर सकती। हिन्दुस्तानी ‘सफ़ेदपोश’ शब्द उस ग़ैर-मेहनतकश वर्ग के लिए ही इस्तेमाल में लाया जाता है। यह तमाम चीज़ें जिनके कारण कि ज़िन्दगी रहने योग्य बन सकती है, अथवा आराम, शिक्षा, हुनर, सफ़ाई, आरोग्य आदि दौलत के साथ ही प्राप्त किये जाते हैं। बेचारे ग़रीब हर समय, हर जगह गन्दी जगहों पर ही बुरी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए लाचार होते हैं। इन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए समय ही नहीं मिलता। ग़रीब मज़दूर सारा-सारा दिन सिर्फ़ गुज़ारे के लिए पसीना-पसीना होकर काम करता रहता है, जबकि विद्वान और अमीर लोग बढ़िया से बढ़िया भोजन पाते हैं। घोड़ागाड़ियों और मोटरों पर चढ़कर सैर के लिए जाते हैं। ख़ुशबूदार तेल और इत्र के साथ मालिश करते हैं। रेशमी कपड़े पहनते हैं। कहने का मतलब यह कि हर तरह ऐश की ज़िन्दगी गुज़ारते हैं।

प्रश्न उठता है कि यह अजीब हालत पैदा ही किस तरह हो गयी? क्या कारण है कि जो लोग खेती करते, कपड़े बुनते, कपड़े सिलते, नालियाँ साफ़ करते या आटा पीसते हैं, उनकी आमदनी उन लोगों से कई गुना कम है जो केवल लेक्चर देते हैं या मुक़दमों पर बहस करते हैं, जो न्याय करते या हक़ूमत करते हैं, जो केवल दुआ करते या कुछ भी नहीं करते। क्या कभी किसी ने सोचकर देखा है कि भगवान के हर बन्दे और समाज के लिए खेती-बाड़ी, कारीगरी, दस्तकारी आदि करने वाले ‘क़ानून’ या ‘सरकार’, मज़हब या साहूकार या केवल ज़मींदार (वे लोग जो ज़मीनों के मालिक तो बने बैठे हैं लेकिन काम कुछ नहीं करते) से ज़्यादा ज़रूरी हैं। फिर क्या कारण है कि उस आदमी को, जोकि कुछ घण्टे कुर्सी पर बैठकर कुछ आदमियों को जेल में भेज देता है, गेहूँ बोने वाले किसान और जूते गाँठने वाले मोची से कई गुना अधिक तनख्वाह दी जाती है? एक राजा या मजिस्ट्रेट या साहूकार ही मेहनतकश लोगों से कौन-सा अच्छा, लाभदायक और ज़रूरी काम करता है? अनेक लोग सारा दिन चोटी का ज़ोर लगाकर काम करते हुए भी अपनी ज़रूरी चीज़ें प्राप्त नहीं कर सकते। क्या वजह है कि एक आदमी बैठा पंखा खींचता है और एक अन्दर पड़ा – भले ही वह हिन्दू, मुसलमान या ईसाई हो – खर्राटे मारता है। इसे ही पंखा खींचने पर क्यों नहीं लगाया जाता? वह लोग जो अनाज, दूध, मेवे, सब्ज़ी पैदा नहीं करते, बल्कि इन चीज़ों को इस्तेमाल करते और खाते हैं, वास्तव में तो वही बेचारे किसान की मेहनत का लाभ उठाते हैं। इस बात को समझने के लिए किसी फ़िलासफ़ी की ज़रूरत नहीं है। वे लोग जो रोटी पैदा नहीं करते और न रुई कातकर, बुनकर कपड़ा तैयार करते हैं, और फिर भी रोटी खाते और कपड़ा पहनते हैं, तब इसका केवल यही अर्थ है कि वे अपना हिस्सा ग़रीब मेहनतकशों की मेहनत में से ले लेते हैं जोकि रोटी पैदा करते हैं, कपड़े तैयार करते हैं। लेकिन जब हम देखते हैं कि खेती करने वाले उस मेहनतकश किसान को इन मुफ्तख़ोर लोगों की तरह अच्छी ख़ुराक भी नहीं मिलती, तो दिल में ख़याल आता है कि इस व्यवस्था में ज़रूर कहीं न कहीं धोखा है, ग़लती है, ज़ुल्म है। लेकिन यह मसला ‘सर्व दर्शन संग्रह’ आदि शास्त्रों की सोलह प्रकार की फ़िलासफ़ी पढ़ने से हल नहीं हो सकता। सेहत और ज़िन्दगी के सवाल को छोड़कर आज हम एक बहुत बड़ा सवाल पूछना चाहते हैं कि दुनिया में यह जो दो पार्टियाँ हैं – एक ओर अमीर, विद्वान, सुस्त और हरामख़ोर; दूसरी तरफ़ ग़रीब, मेहनतकश, जाहिल अनपढ़ लोग जोकि दुनिया की दौलत पैदा करते हैं, तो यह दूसरा पक्ष किस तरह अस्तित्व में आया? दुनिया के तमाम आन्दोलन जो इस सच्चे सवाल को ओझल करते हैं, केवल बेहूदा, फ़िज़ूल और ख़तरनाक हैं – फिर वह भले ही मजलिसी हों, भले ही मज़हबी हों या भाईचारे वाले, आर्थिक हों या राजनीतिक, राष्ट्रीय हो या अन्तरराष्ट्रीय।

अगर इन पार्टियों को मिला दिया जाये तो दुनिया में कोई ऐसी चीज़, जिसको कि एक भगवान के बन्दे या क़ौम या मज़हब कहा जाता है, बाक़ी नहीं रह जाती, क्योंकि सदा ही कभी आँखों के सामने और कभी आँखों से ओझल, अमीर ग़रीबों के दुश्मन ही बने रहते हैं। क्योंकि वे अपनी दौलत इन ग़रीबों से ही छीनते हैं, उनको यह आसमानी तोहफ़े की तरह नहीं मिलती और न उनके पास (पारस) पत्थर है। राजा, वजीर और जज लोग सुख से जीवन गुज़ारते हैं, हालाँकि पैदावार में वह किसी प्रकार की मेहनत नहीं करते, क्योंकि बेचारा किसान सदा टैक्स देता रहता है। ज़मींदार ख़ाली बैठकर ऐशो-आराम और बदमाशियाँ करता है, क्योंकि बेचारा ग़रीब खेत-मज़दूर लगान अदा करता रहता है। साहूकार या महाजन आराम से बैठा हुआ अमीर होता चला जाता है, क्योंकि ऋण का देनदार हमेशा ब्याज देता रहता है और एक सरमायेदार कारख़ाने के हिस्से ख़रीदकर घर बैठे ही मुनाफ़ा प्राप्त करके मालामाल हो सकता है, क्योंकि मज़दूरों को मज़दूरी कम दी जाती है। वकील सैकड़ों रुपये महीना कमा सकता है, हालाँकि वह एक आराम कुर्सी पर बैठा रहता है और कभी-कभी किसी अदालत में जाकर भाषण झाड़ आता है, क्योंकि वह अमीरों को जायदाद प्राप्त करने और ग़रीबों से लूटने में सहायता करता है। बात यह है कि जहाँ कहीं भी यह दिखायी दे कि कोई आदमी बिना हाथ-पैर हिलाये आराम की ज़िन्दगी भोग रहा है तो फ़ौरन समझ लो कि यहाँ ज़रूर कोई न कोई धोखा है, फ़रेब है। उसके साफ़ अर्थ यह होते हैं कि अमीर तबका कभी भी यह नहीं चाहता कि ग़रीब लोग भी उन्नति कर लें, क्योंकि ग़रीबों की उन्नति और विद्या में बढ़ोतरी से तो, हरामख़ोरी फ़ौरन पंख लगाकर उड़ जायेगी। जो कोई टैक्स न दे तो यह राजे-महाराजे, जज-वकील आदि किस तरह जीवित रह सकते हैं? अगर मज़दूरों को लूटा न जाये तो कारख़ानों के मालिक और मैनेजर किस तरह करोड़पति बन सकते हैं? संस्कृत का कथन है कि ‘खानेवाले और खाये जानेवाले में कभी दोस्ती नहीं हो सकती।’ शेर-बकरी के इकट्ठा लौटने पर एक मसखरा शायर कहता है, ‘लौटेंगे तो दोनों बेशक इकट्ठा ही, लेकिन उस समय बकरी शेर के पेट में होगी!’

अमीर वर्ग की हरामख़ोरी में देशभक्ति और मज़हब आदि भी कोई ख़ास रोल अदा नहीं कर सकते। क्या कभी कोई मुसलमान ज़मींदार अपने खेत-मज़दूरों का लगान इसलिए माफ़ कर देता है कि वे मुसलमान हैं? क्यों जी, कभी कोई हिन्दू साहूकार अपने हिन्दू ऋणदाता से ब्याज लेना इसलिए छोड़ देता है कि वह हिन्दू है? क्या सिख राजे-महाराजे, वजीर, अमीर, अपनी सिख रियासतों के सिख किसानों और मज़दूरों से टैक्स और लगान कम वसूल करते हैं? क्या इस लगान व टैक्स की वसूली के लिए वह कम ज़ुल्म करते हैं? क्या अंग्रेज़ मालिक अपने अंग्रेज़ मज़दूरों की तनख्वाहें तब बढ़ा देते हैं जब तक कि वे उनकी नाक में दम नहीं कर देते? क्या स्काटलैण्ड के ज़मींदारों ने अपने जंगल और मैदान ग़रीबों में बाँटकर उनको अमेरिका जाने से रोकने की कोशिश की है?

पिछले इतिहास से यदि कोई शिक्षा मिलती है तो वह यह कि अमीर वर्ग को दौलत ही सबसे अधिक प्यारी चीज़ है। उनको मज़हब और देशभक्ति से ज़्यादा जायदाद और व्यक्तिगत स्वार्थों से प्रेम है। देशभक्ति और मज़हब अच्छी चीज़ें हैं लेकिन वह भी अमीर वर्ग को दौलत की चेटक से आज़ाद कराने में निष्फल साबित हुई हैं। दुनिया में आज तक ऐसा ही होता चला आया है और जब तक बड़े-छोटे अमीर तबके ही ख़त्म नहीं हो जाते तब तक ऐसा ही होता चला जायेगा।

महात्मा बुद्ध, महात्मा टालस्टाय और शहजादा क्रोपोटकिन जैसे महापुरुष अपनी जायदाद छोड़कर ग़रीबों जैसी ज़िन्दगी बसर करने लगे थे, लेकिन इन एक-दो दृष्टान्तों से उसूल नहीं बदला जा सकता। यह हस्तियाँ तो सम्माननीय हैं, लेकिन बाक़ी अमीर वर्ग तो बेईमानी और धोखेबाज़ी – हर प्रकार से अपनी जायदाद की सुरक्षा करता है।

दूसरों के सिर पर मौज़ करने वाली यह जमात जो भी काम करती है तो केवल अपने लाभ के लिए ही करती है। वह किसी भी तरह दूसरों का कुछ नहीं सँवार सकती, क्योंकि दुनिया में दोनों ही क़ौमें मौजूद हैं – अमीर और ग़रीब। इनमें कोई प्यार और हमदर्दी नहीं है। वह तो एक-दूसरे के पक्ष के विचार समझने में भी असमर्थ हैं। साधारण लोग तो कम समझी की वजह से दूसरों के ख़याल और काम के बारे में नहीं समझ सकते और समझदार लोगों को जमाती बँटवारा दूसरों को समझने से वंचित रखता है। इससे हम देखते हैं कि जमाती बँटवारे के अलावा हालात भी अमीरों को ग़रीबों की असली हालत से परिचित नहीं होने देते। मनुष्य के विचार आमतौर पर उसके तज़ुर्बे पर निर्भर हुआ करते हैं और अमीर लोगों को ग़रीबों की हालत का कुछ भी तज़ुर्बा नहीं। इनका दायरा अपने ही तक सीमित सरगर्मियों में बहुत तंग होता है। उनको अपनी जमात से बाहर कुछ भी नज़र नहीं आता। हर एक मनुष्य के उसूलों पर जमात का बहुत असर रहता है। अमीर लोग भले ही भगवान के हर बन्दे के लाभ के लिए क्यों न कोई आन्दोलन चलायें, आख़िर में वह उनके अपने लिए ही लाभदायक साबित होते हैं। हर एक मनुष्य की बेहतरी और आम लोगों की तरक्की के विचार की मौजूदगी के बावजूद अमीर लोग अपने वर्ग से बाहर नहीं देख सकते और तंग दायरे में ही चक्कर काटते रहते हैं। दुनिया में जितनी ताक़त इस जमातवाद की वजह से नष्ट होती है उतनी और कहीं नहीं होती। लोग ग़रीबों की सहायता का ऊँचा आदर्श सामने रखकर मैदान में कूदते हैं, लेकिन बाद में अक्सर यही देखा जाता है कि उनकी सारी कोशिशें केवल अमीर जमात के फ़ायदे के लिए ही इस्तेमाल हो रही हैं। इसी कारण ख़ुशी रंज में बदल जाती है। लेकिन बहुत सारे भोले-भाले लोग आख़िर तक यह समझ ही नहीं सकते और इस भ्रम में मरते हैं कि उन्होंने आम लोगों की तरक्की के लिए बहुत कुछ काम किया है।

आजकल हिन्दुस्तान के तमाम आन्दोलनों पर नज़रेसानी (पुनर्विचार) करके हर व्यक्ति इस हसरतनाक सच्चाई की एक बढ़िया मिसाल पा सकता है। चन्द सज्जनों की व्यक्तिगत कोशिशों को छोड़कर राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में जो लहरें उठीं वह अलग तरह के पढ़े-लिखे लोगों के आस-पास ही रहीं जोकि शहरों में रहते हैं और आज़ाद पेशावर लोग कहलाते हैं। मैं आज यह साबित करना चाहता हूँ कि पिछले तीस सालों से जो शैक्षणिक और राजनीतिक लहरें उठीं उनसे हिन्दुस्तान के आम लोगों ने बहुत कम लाभ उठाया, क्योंकि ऊँचे दर्जे के कहे जाने वाले लोग ही इन लहरों को उठाते थे। इसलिए इनके आदर्श भी इनके जमाती रंग में रँगे रहते हैं। हर एक लहर, इस लहर के उठाने वाले लोगों का असली निचोड़ ही हुआ करती है। निचले दर्जे के सुधारक लोग ग़रीब किसानों और मज़दूरों के अन्दर घुसकर (इसे) अच्छी तरह समझ सकते हैं। वे अपनी जमात के दुख और तकलीफ़ें ही समझ सकते हैं। उनका आदर्श ही उनके वर्गगत तंग दायरे में चला जाता है। वह इस काम को, जोकि इन दोनों जमातों को अलग-अलग करता है, लाँघ नहीं सकते। अगर किसानों ने कोई आन्दोलन न खड़ा किया हो तो उनका आदर्श अलग ही होता है। आम लोग अपनी वर्ग-रुचि के अनुसार ही हर एक चीज़ को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। वे लोग यह भी नहीं जान सकते कि वे इस राह पर किस तरह आ गये। फिर भले ही वे कितने ऊँचे आदर्श लेकर भगवान के बन्दों की सेवा और उनके भले के ख़याल से ही क्यों न आगे आयें, लेकिन वर्ग-रुचि उनका पीछा नहीं छोड़ती, क्योंकि वह बहुत ज़बरदस्त ताक़त है और उसने समाजी आन्दोलन में बड़ा भारी असर दिखाया है। इतिहास में अधिकतर चीज़ें जिस तरह नज़र आती हैं, असल में उस तरह की नहीं होतीं। मजलिसी वर्ग-रुचि को समझने वाला फिलासफर काम करने वाले की अपेक्षा उसकी वर्ग-रुचि को अच्छी तरह समझ और समझा सकता है।

मैं यह लेख केवल इसलिए लिख रहा हूँ कि किसान और मज़दूर ही हमारे प्यार के हक़दार हैं। अंग्रेज़ी अदब से परिचित लोग कार्लाइल के प्रसिद्ध उसूल को कई बार पढ़ चुके होंगे कि “मैं केवल दो ही आदमियों की इज़्ज़त और उनसे मुहब्बत करता हूँ, किसी तीसरे की नहीं।” मैं एक क़दम और आगे बढ़ता हूँ और कहता हूँ कि मैं केवल एक आदमी को ही प्यार और इज़्ज़त की निगाह से देखता हूँ, किसी दूसरे को नहीं और वह है ग़रीब मज़दूर (किरती), जो दुनिया की दौलत पैदा करता है।

पिछले तीस सालों से जो (आन्दोलनात्मक) लहरें हिन्दुस्तान में उठ रही हैं, उनको निम्नलिखित तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है –

  1. राजनीतिक, 2. शैक्षिक, 3. धार्मिक।

अब मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि इन आन्दोलनों का फ़ायदा उच्च वर्ग के लोगों को ही हुआ है। ग़रीबों को इससे कोई लाभ नहीं पहुँचा।

  1. राजनीतिक लहरों ने अलग-अलग सूरतें पकड़ीं। इनमें समाजवादी और अतिवादी दोनों तरह के आदमी हैं। शान्तिमय रहकर सत्याग्रह करने वाले लोग भी पैदा हो गये और भयानक समय लाने वाले ख़तरनाक इन्‍क़लाबी लोग भी हो गये। इस शोर-शराबे में एक बात साफ़ है और वह यह कि इनके परिणामों से जनता को कोई भी लाभ नहीं हुआ। इण्डियन नेशनल कांग्रेस (हिन्दुस्तानभर की कांग्रेस) मध्यम वर्ग के लोगों की एक ख़ासी और अच्छी पार्टी (जमात) है। उसकी माँगें भी दरमियाने दर्जे के लोगों के लिए ही हैं। कांग्रेस कभी भी अपना कार्यक्रम मज़दूरों और किसानों के साथ मिलकर तैयार नहीं कर सकी। क्योंकि इसमें ग्रेजुएट, वकील, प्रोफ़ेसर, व्यापारी लोग ही शामिल हुए, इसलिए कांग्रेस का कार्यक्रम भी उनकी मर्जी के अनुसार ही बना। एक आन्दोलन एक समय में अमीर-ग़रीब दोनों वर्गों के लाभ के लिए काम नहीं कर सकता, यह दुनिया की कुछ बड़ी अनहोनी बातों में से एक है। कांग्रेस की माँग है कि इसे हिन्दुस्तान में ख़ास हिस्सा मिलना चाहिए। यह हिस्सा किस तरह मिलेगा? जिन बातों की कांग्रेस की ओर से माँग की जा रही है वह किसके लिए पूरी होंगी? अगर सरकारे-हिन्द की नौकरियाँ हिन्दुस्तानियों को मिलनी हैं तो उन्हें कौन लोग प्राप्त करेंगे? यह तो पक्का है कि मज़दूर-किसान लोग उन नौकरियों को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। कुछेक हिन्दुस्तानियों को ‘इण्डियन सिविल सर्विस’ में ओहदे मिल जाने से ही किसानों और मज़दूरों को शिक्षा, ख़ुराक और रिहायश की तो बात ही क्या, ज़रूरी चीज़ें भी नसीब नहीं होंगी। ग़रीब किसानों को इस बात से क्या मतलब कि उनकी कमाई का ख़ासा बड़ा हिस्सा टैक्स आदि के रूप में लूट-पाटकर ले जाने वालों में से कितने हिन्दुस्तानी हैं और कितने दूसरे? माल-असबाब में से मुहम्मदुल्ला या स्वामी को भी हिस्सा मिलता है जोकि इसी देश के हैं। फिर कांग्रेस ने कभी यह भी माँग की है कि देशी सरकारी नौकरों की तनख्वाह घटा दी जाये और किसानों का टैक्स कम कर दिया जाये? कांग्रेस ने सरकारी अफ़सरों की तनख्वाह कम करवाकर ग़रीब किसानों का भार कम करने की कभी कोशिश की है? फिर आम जनता को इन आन्दोलनों और माँगों से क्या मतलब?

असल में ऐसी (आन्दोलनकारी) लहरें तो मध्यम दर्जे के लोगों के दिमाग़ में से ही निकल सकती थीं, क्योंकि वह लोग अपने बच्चों के लिए अच्छी से अच्छी आसामी चाहते हैं। वकीलों की आँखें सदा जज की पदवी को तरसती रहती हैं, ग्रेजुएट लोग सूबों की सरकारों में अच्छी-अच्छी आसामियों को देख-देखकर ललचाते रहते हैं। क्योंकि यह मध्यम वर्ग के लोगों की माँगें हैं, इसलिए उन्होंने मध्यम वर्ग के लोगों को ही मुल्क़ और क़ौम समझना आरम्भ कर दिया है।

कांग्रेस वाले अक्सर चीख़ा करते हैं कि पंजाब कौंसिल और असेम्बली में हिन्दुस्तानियों की गिनती बढ़नी चाहिए। इससे भी आम हिन्दुस्तानियों को क्या लाभ हो सकता है? कौंसिलों के लिए कौन चुने जाते हैं? क्या वे लोग अपनी सेवाओं का इनाम नहीं लेते? क्या वे लोग इसमें अपनी इज़्ज़त और फ़ख्र नहीं समझते? क्या आनरेबल कहने से लोग किसी को ‘शहीद’ कहने लगते हैं? क्या सदस्यता के लिए चुने जाना सख़्त मुसीबत की ज़िन्दगी गुज़ारना है या इससे बिल्कुल विपरीत? यह सवाल ज़रूर पूछे जाने चाहिए और जवाब भी मिलने चाहिए।

कौंसिल के असली फ़ायदों का सवाल एक तरफ़ छोड़कर भी अगर देखें तो नज़र आयेगा कि यह ख़याल केवल उस जमात के दिमाग़ में पैदा हो सकता है जिसे इससे कोई लाभ पहुँचने की आशा हो। कौंसिल के लिए कुछेक और वकील एवं साहूकार चुने जाने से करोड़ों मेहनतकश लोगों की जमात में क्या फ़र्क़ पड़ सकता है? क्या इन लोगों के टैक्स कम कर दिये जायेंगे? क्या उन लोगों के पुराने ख़तरे – बेगार, पुलिस या तहसीलदार, अकाल या प्लेग दूर हो जायेंगे? क्या उन लोगों के लिए गाँवों में साफ़ पानी पहुँचाने का बन्दोबस्त किया जायेगा? क्या गाँवों में स्कूल और लाइब्रेरी खोल दी जायेंगी। कुछ हिन्दुस्तानियों के कौंसिल में चले जाने के साथ तो हम उपरोक्त बातों में कोई जमा-घटा नहीं देखते। हाँ, कुछेक तालीम वाले लोग इससे रुपया ज़रूर कमा सकेंगे और कुछ उनकी इज़्ज़त भी बढ़ेगी और वह बड़े रोब के साथ इधर-उधर फिर सकेंगे और ये अँधेर ढाने वाले लोग क़ौम पर मुफ्त का रौब दाब डालकर गिरावट पैदा करेंगे। अभी सयाने सज्जन समझते हैं कि यह उन्नति की राह नहीं है, लेकिन वह बेचारे यह नहीं समझते कि यह लहरें कहाँ उठती हैं और किस तरह बढ़ती हैं? लेकिन सारा ताना-बाना समझ में आ सकता है, यदि वे इतना ही समझ लें कि यह सबकुछ मध्यम दर्जे के लोगों का ही निचोड़ है और किसानों और मज़दूरों को इससे कोई लाभ नहीं।

इस तरह हम देखते हैं कि इन लहरों की क़ामयाबी से मध्यम दर्जे के लोगों को ही लाभ पहुँचता है। उन्होंने कभी बेगार, प्लेग आदि मर्जों के विरुद्ध बन्दोबस्त करने की कोशिश नहीं की। न कभी लगान, नमक-टैक्स, आबियाना कम करवाने या लोगों की शिक्षा का ठीक प्रबन्ध किया है, हालाँकि यही ज़रूरी सवाल हैं जिनके हल हो जाने से जनता को लाभ हो सकता है। बेचारे मज़दूर या किसान को सिविल सर्विस या पंजाब कौंसिल से क्या लाभ है? वह इज़्ज़त नहीं चाहता, पदवी नहीं चाहता। हाँ, वह रोटी, आरोग्यता और आज़ादी ज़रूर चाहता है। लेकिन इस तरफ़ तो कांग्रेस ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। हाँ, कई सारे ज़रूरी प्रस्ताव पास कर दिये। लेकिन इनसे क्या हो सकता है? गवर्नमेण्ट अच्छी तरह समझती है कि इन मध्यम दर्जे के लोगों की वर्ग-रुचि क्या है? वह अच्छी तरह जानती है कि यह कुछ मामूली-सा सुधार चाहते हैं, जिसके साथ इनकी जमात को लाभ होने की आशा हो। इनको इससे कोई वास्ता नहीं कि गाँवों में रहने वालों पर किस तरह की गुज़रती है? इसी कारण गवर्नमेण्ट इन लोगों को कौंसिल और सिविल सर्विस आदि में कुछ पद देकर जनता के आन्दोलन रोकने के यत्न किया करती है। इस तरह बड़े-बड़े नेकदिल सच्चे सेवकों की मेहनतें भी मध्यम दर्जे के लोगों के लिए सोना साबित होती हैं, जबकि मज़दूरों और किसानों को थोड़ा भी लाभ नहीं पहुँचता।

इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए मैं कहूँगा कि खेत-मज़दूरों के हक़ों पर ध्यान दिया जाये। ऐसा करने पर मालूम पड़ जायेगा कि सारे राजनीतिक दल ज़मींदारों की ओर से ज़मींदारों के हक़ के लिए तो ज़रूर आन्दोलन करते हैं लेकिन खेत-मज़दूरों के हक़ों के लिए आवाज़ उठाने की कभी हिम्मत नहीं करते, हालाँकि हमारे देश में बहुसंख्यक खेत-मज़दूर ज़मींदारों के ज़ुल्मों, टैक्सों और लगान के नीचे पीसे जा रहे हैं।

वह आन्दोलन जो अपने कार्यक्रम में इस बात को सबसे पहले सामने नहीं रखते और इसके लिए आन्दोलन नहीं करते, वह आम जनता के आन्दोलन नहीं कहला सकते। इसलिए हम कांग्रेस को गुनहगार नहीं ठहरा सकते, क्योंकि वह अपने सदस्यों के अलावा दूसरे लोगों की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकती। जूती पहनने वाला ही अच्छी तरह समझ सकता है कि पैर में कील किस तरह चुभती है। यह बात किसान ही अच्छी तरह अनुभव कर सकता है कि लगान आदि से आये दिन दुखी होकर मेरी ज़िन्दगी किस तरह गुज़र रही है। तालीमयाफ्ता मध्यम वर्ग के लोग ख़ाक इसका अन्दाज़ा लगा सकेंगे।

हम तो साफ़ कहते हैं कि किसानों की कांग्रेस के प्रस्ताव इस कांग्रेस से बिल्कुल अलग और नये ढंग के हैं और उनकी माँगें भी दूसरे ही ढंग की होंगी।

शैक्षणिक लहरें

राजनीतिक लहरों में देश ने बहुत-सी क़ुर्बानियाँ दीं। दर्जनों बहुमूल्य जानें इसमें लग गयीं। लेकिन शैक्षणिक लहरों के लिए तो हमारी बहुत-सी ताक़त ख़र्च हुई और बहुत से नेक मर्द और औरतों की ज़िन्दगियाँ इनके लिए वक़्फ़ हो गयीं। लेकिन परिणाम यहाँ भी निराशा भरा हो गया है, क्योंकि इससे भी मध्यम वर्ग को ही कुछ लाभ पहुँच सका है। हमारे बहुत-से नेताओं ने शहरों में अलग-अलग क़ौमों, बिरादरियों और सभाओं की ओर से स्कूल-कॉलेज खोल दिये, लेकिन क्या हम पूछ सकते हैं कि उन देशभक्तों के दिलों में स्कूल-कॉलेज खोलने का ख़याल किस तरह पैदा हुआ? और क्यों उन्होंने अपने इस बड़े काम को गाँवों में नहीं किया, जिससे ख़र्च तो कम होता और लाभ अधिक पहुँचता। उन्होंने वकील और दफ़्तरों के लिए क्लर्क पैदा करना ही अपना मन्तव्य क्यों बना लिया है और फिर हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग अपनी-अपनी यूनिवर्सिटियाँ क्यों क़ायम कर रहे हैं? हम तो यह समझते हैं कि यह लोग भी वर्ग-रुचि के साये के नीचे ही अपना काम करते हैं। दृष्टान्त पंजाब के आर्य समाज का ही ले लें।

वे (स्वामी दयानन्द की यादगार) एक ऐसे कॉलेज से क्या चाहते हैं जोकि पंजाब की सरकारी यूनिवर्सिटी के साथ मिलने वाला हो? कितना अँधेर है। कहाँ स्वामी दयानन्द का आदर्श, कहाँ सरकारी यूनिवर्सिटी और इसके कॉलेज! लेकिन आख़िर यह हुआ क्यों? इसकी वजह साफ़ है। इसके उपासकों में अधिकतर वकील और ग्रेजुएट आदि मध्यम वर्ग के लोग ही थे। यदि कहीं संस्कृत पढ़े पण्डितों के सामने स्वामी दयानन्द की यादगार स्थापित करने का सवाल आता तो वह बिल्कुल अलग चीज़ क़ायम करते। यदि उनके (स्वामी दयानन्द के) पुरातन उपासकों में किसानों की बहुसंख्या होती तो उन लोगों में ही कॉलेज क़ायम किया होता। इनके ख़याल में किसी अन्य प्रकार की यादगार ही अच्छी और लाभदायक होती। समाज के शैक्षणिक अड्डे केवल इसीलिए क़ायम हुए कि मध्यम दर्जे के लोगों के बाल-बच्चे अच्छी तरह कमा सकें। यही वर्ग-रुचि काम कर रही है। दक्षिण के देशभक्तों ने शिक्षा के लिए बहुत क़ुर्बानियाँ कीं, लेकिन किनकी शिक्षा के लिए? फरगूसन कॉलेज ने मध्यम वर्ग के हज़ारों नौजवानों को शिक्षा दी। रोजी कमाने और उन्नति करने योग्य बनाया, लेकिन किसानों के लिए इसने क्या किया? इस कॉलेज में से जितने वकील और प्रोफ़ेसर निकलते हैं, वे बेचारे किसानों के सिरों पर यूँ ही ख़ाली बैठे मौज़ मारते हैं। वे भी किसानों का लहू पीने वाली जमात में शामिल हैं। आम लोग देशभक्तों की क़ुर्बानियों और योग्यता का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं उठा सकते। क्या यह सही न होता कि ये लोग पुराने समय के साधुओं की तरह ही सीधे आम लोगों के पास चले गये होते और अपनी बहुमूल्य ज़िन्दगी मध्यम वर्ग को ही अर्पित करके न गँवा दी होती। यह इतना ज़रूरी सवाल है जो कभी आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता। मैं हर एक बन्दे की ख़िदमत करने को अपना आदर्श समझने वाले नौजवानों से कहूँगा कि मध्यम वर्ग के लोगों के फ़ायदों को अपनी राह में न ठहरने दो। सीधे साधारण लोगों के पास जाओ। हम क्योंकि मध्यम वर्ग के लोगों में से हैं, इसलिए हो सकता है कुछ भूल करें और अपनी-अपनी जमात को कलंकित करें और दिल को तसल्ली देते रहें कि हम लोगों की सेवा कर रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि नौजवान इस ख़तरे से बचे रहें।

स्त्री-शिक्षा का शोर भी मध्यम वर्ग के लोगों का ही मसला है। हमारी कन्या-पाठशालाओं में किसानों की कितनी लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं? असल में गाँवों में तो यह सवाल ही नहीं है, क्योंकि वहाँ तो मर्द भी अनपढ़ हैं। यह सवाल तो तालीमयाफ्ता नौजवानों के लिए पढ़ी हुई लड़कियों की ज़रूरत से ही पैदा हुआ कि लड़कियों को भी शिक्षा दी जाय। इससे मध्यम वर्ग के लोगों के घर अधिक ख़ुशहाल और आराम वाले बन गये। लेकिन कुछ एक महलों की मौजूदगी से आम लोगों की हालत किस तरह सुधर सकती है? उन लोगों के आराम और तरक्की से किसानों और मज़दूरों को कोई लाभ नहीं पहुँच सकता। वह ग़रीब इन चीज़ों से कोई भी लाभ नहीं उठा सकते। यदि यह शैक्षणिक लहरें आम लोगों की बेहतरी के लिए जारी की गयी होतीं तो सबसे पहले गाँवों में स्कूल खोले जाते (क्योंकि) किसी भी मुल्क़ के आम लोगों में प्रारम्भिक शिक्षा के बिना जागृति नहीं आ सकती। हमें अपने देश की उन्नति के लिए सबसे पहले यही नींव डालनी पड़ेगी।

साम्प्रदायिक और भाईचारे की लहरें

इस समय हमारे देश में जो अलग-अलग साम्प्रदायिक और भाईचारे की लहरें शोर मचा रही थीं यह भी इन्हीं मध्यम वर्ग के लोगों के दिमाग़ की उपज है। उदाहरण के रूप में पर्दे के सवाल को ही ले लें। ग़रीब मज़दूर औरतें तो सारा-सारा दिन सिरों पर टोकरियाँ उठाती हैं या खेतों में मेहनत-मज़दूरी करके बड़ी मुश्किल से रोटी कमा सकती हैं। उनके आगे यह पर्दे का सवाल किस तरह पेश हो सकता है? मध्यम वर्ग के लोगों की आराम भरी ज़िन्दगी में ही यह सवाल उठ सकते हैं। मैं एक-एक कर ऐसी सभी साम्प्रदायिक और भाईचारे की लहरों में वर्ग-रुचि का असर देखता हूँ।

अन्त में इतना ही कहूँगा कि वह नौजवान जो दुनिया में कुछ काम करना चाहते हैं या जो लोग भगवान के हर बन्दे की सेवा करने के लिए अपनी क़ीमती ज़िन्दगियाँ वक़्फ़ करना चाहते हैं, वे हिन्दुस्तानी मज़दूरों और किसानों में मिलकर उनकी रुचि समझने की कोशिश करें और उनकी असली तकलीफ़ें दूर करते हुए उनकी सच्ची उन्नति के लिए आन्दोलन करें। मैंने सरसरी निगाह से वर्तमान समय की गतिविधियों के कुछेक प्रमाण देकर एक ख़ास रुचि की ओर इशारा किया है। इसमें कुछेक नेकदिल लोगों को जोकि इन लहरों में शामिल हैं, नाराज़ नहीं होना चाहिए। मैं उनकी हमदर्दी और सच्चाई को अनुभव करते हुए भी इस ग़लती की ओर उनका ध्यान दिलाना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि यूरोपियन मुदबर का यह कथन सोलह आने सही है कि एक कारकुन का अपने काम से ही अनजान होना ख़तरनाक और हलाल कर देने वाली बात है।

 


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

व्यापक जनता तक पहूँचाने के लिए राहुल फाउण्डेशन ने इस पुस्तक का मुल्य बेहद कम रखा है (250 रू.)। अगर आप ये पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक पर जायें या फिर नीचे दिये गये फोन/ईमेल पर सम्‍पर्क करें।

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