भगतसिह – काकोरी के शहीदों की फाँसी के हालात

काकोरी के शहीदों की फाँसी के हालात

जनवरी, 1928 के ‘किरती’ में भगतसिंह ने एक और लेख काकोरी के शहीदों के बारे में ‘विद्रोही’ के नाम से लिखा। – स.

‘किरती’ के पाठकों को पहले किसी अंक में हम काकोरी के मुक़दमे के हालात बता चुके हैं। अब इन चार वीरों को फाँसी दिये जाने का हाल बताते हैं।

17 दिसम्बर, 1927 को श्री राजिन्द्रनाथ लाहिड़ी को गोण्डा जेल में फाँसी दी गयी और 19 दिसम्बर, 1927 को श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ को गोरखपुर जेल में, श्री अशफ़ाक़उल्ला को फ़ैज़ाबाद जेल में और श्री रोशन सिंह जी को इलाहाबाद जेल में फाँसी चढ़ा दिया गया।

इस मुक़दमे के सेशन जज मि. हेमिल्टन ने फ़ैसला देते हुए कहा था कि ये नौजवान देशभक्त हैं और इन्होंने अपने किसी लाभ के लिए कुछ भी नहीं किया और यदि ये नौजवान अपने किये पर पश्चाताप करें तो उनकी सज़ाओं में रियायत की जा सकती है। उन चारों वीरों द्वारा इस आशय की घोषणा भी हुई, लेकिन उन्हें फाँसी दिये बग़ैर डायन नौकरशाही को चैन कैसे पड़ता। अपील में बहुत-से लोगों की सज़ाएँ बढ़ा दी गयीं। फिर न तो गवर्नर और न ही वायसराय ने उनकी जवानी की ओर ध्यान दिया और प्रिवी कौंसिल ने उनकी अपील सुनने से पहले ही ख़ारिज कर दी। यू.पी. कौंसिल के बहुत-से सदस्यों, असेम्बली और कौंसिल और स्टेट के बहुत-से सदस्यों ने वायसराय को उनकी जवानी पर दया करने की दरख़्वास्त दी, लेकिन होना क्या था? उनके इतने हाथ-पाँव मारने का कोई परिणाम न निकला। यू.पी. कौंसिल के स्वराज पार्टी के नेता श्री गोविन्द वल्लभ पन्त उनके मामले पर बहस के लिए अपना मत वायसराय और लाट साहिब को भेजने के लिए शोर मचा रहे थे। पहले तो प्रेजिडेण्ट साहिब ही अनुमति नहीं दे रहे थे, लेकिन बहुत-से सदस्यों ने मिलकर कहा तो सोमवार को बहस के लिए इजाज़त मिली, लेकिन फिर छोटे अंग्रेज़ अध्यक्ष ने, जो उस समय अध्यक्ष का काम कर रहा था, सोमवार को कौंसिल की छुट्टी ही कर दी। होम मेम्बर नवाब छत्तारी के दर पर जा चिल्लाये, लेकिन उनके कानों पर जूँ तक न सरकी। और कौंसिल में उनके सम्बन्ध में एक शब्द भी न कहा जा सका और उन्हें फाँसी पर लटका ही दिया गया। इसी क्रोध में नीचता के साथ रूसी ज़ार और फ्रांसीसी लुइस बादशाह होनहार युवकों को फाँसी पर लटका.लटकाकर दिलों की भड़ास निकालते रहे लेकिन उनके राज्यों की नींवें खोखली हो गयी थीं और उनके तख़्ते पलट गये। इसी ग़लत तरीक़े का आज फिर इस्तेमाल हो रहा है। देखें यदि इस बार इनकी मुरादें पूरी हों। नीचे हम उन चारों वीरों के हालात संक्षेप में लिखते हैं, जिससे यह पता चले कि ये अमूल्य रत्न मौत के सामने खड़े होते हुए भी किस बहादुरी से हँस रहे थे।

श्री राजिन्द्रनाथ लाहिड़ी

आप हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस के एम.ए. के छात्र थे। 1925 में कलकत्ते के पास दक्षिणेश्वर बम फ़ैक्टरी पकड़ी गयी थी, उसमें आप भी पकड़े गये थे और आपको सात बरस की क़ैद हो गयी थी। वहीं से आपको लखनऊ लाया गया और काकोरी केस में आपको फाँसी की सज़ा दे दी गयी। आपको बाराबंकी और गोण्डा जेलों में रखा गया। आप मौत को सामने देख घबराते नहीं थे, बल्कि हमेशा हँसते रहते थे। आपका स्वभाव बड़ा हँसमुख और निर्भय था। आप मौत का मज़ाक़ उड़ाते रहते थे। आपके दो पत्र हमारे सामने हैं। एक छह अक्टूबर को तब लिखा था जब वायसराय ने रहम की दरख़्वास्त नामंज़ूर कर दी थी। आप लिखते हैं –

छह महीने बाराबंकी और गोण्डा की काल-कोठरियों में रहने के बाद आज मुझे बताया गया है कि एक हफ्ते के भीतर फाँसी दे दी जायेगी, क्योंकि वायसराय ने दरख़्वास्त नामंजूर कर दी है। अब मैं फ़र्ज़ समझता हूँ कि अपने इन मित्रों का (यहाँ उनके नाम हैं) धन्यवाद कर जाऊँ जिन्होंने मेरे लिए बहुत-सी कोशिशें कीं। आप मेरा अन्तिम नमस्कार स्वीकार करें। हमारे लिए मरना-जीना पुराने कपड़े बदलने से अधिक कुछ भी नहीं (यहाँ जेलवालों ने कुछ काट-छाँट की है, जो बिल्कुल पढ़ा नहीं जाता) मौत आ रही है, हँसते-हँसते बड़े चाव और ख़ुशी से उसे ज़ोर से गले लगा लूँगा। जेल के क़ानून अनुसार और कुछ नहीं लिख सकता। आपको नमस्कार, देश के दर्दमन्दों को नमस्कार, वन्देमातरम!

आपका,

राजिन्द्रनाथ लाहिड़ी

फिर इस पत्र के बाद फाँसी नहीं हो सकी, क्योंकि प्रिवी कौंसिल में अपील की गयी थी। दूसरा पत्र आपने 14 दिसम्बर को एक मित्र के नाम लिखा था –

कल मुझे पता चला है कि प्रिवी कौंसिल ने मेरी अपील ख़ारिज कर दी है। आप लोगों ने हमें बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन लगता है कि देश की बलि-वेदी पर हमारे प्राणों के बलिदान की ही ज़रूरत है। मौत क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के सिवाय कुछ नहीं। जीवन क्या है? मौत की ही दूसरी दिशा का नाम है। फिर डरने की क्या ज़रूरत है? यह तो प्राकृतिक बात है, उतनी ही प्राकृतिक जितना कि प्रातः में सूर्योदय। यदि हमारी यह बात सच है कि इतिहास पलटा खाता है तो मैं समझता हूँ कि हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा।

मेरा नमस्कार सबको – अन्तिम नमस्कार!

आपका

राजिन्द्रनाथ लाहिड़ी

कितना भोला, कितना सुन्दर और निर्भीकतापूर्ण पत्र है। इनका लेखन कितना भोला है! फिर इन्हें ही अन्यों से दो दिन पहले ही फाँसी दे दी गयी। फाँसी के समय आपको हथकड़ी पहनाने का इन्तज़ाम किया जाने लगा तो आपने कहा कि क्या ज़रूरत है। आप मुझे रास्ता बताते जाओ, मैं स्वयं ही उधर चल पड़ता हूँ। अर्थी का जुलूस निकाला गया और बड़े जोश से अन्तिम संस्कार किया गया। वहीं यादगार बनाने की सलाह की जा रही है।

श्री रोशन सिंह जी

आपको 19 दिसम्बर को इलाहाबाद में फाँसी दी गयी। उनका एक आख़िरी पत्र 13 दिसम्बर का लिखा हुआ है। आप लिखते हैं –

इस हफ्ते फाँसी हो जायेगी। ईश्वर के आगे विनती है कि आपके प्रेम का आपको फल दे। आप मेरे लिए कोई ग़म न करना। मेरी मौत तो ख़ुशी वाली है। चाहिए तो यह कि कोई बदफैली करके बदनाम होकर न मरे और अन्त समय ईश्वर याद रहे। सो यही दो बातें हैं। इसलिए कोई ग़म नहीं करना चाहिए। दो साल बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ। ईश्वर-भजन का ख़ूब अवसर मिला। इसलिए मोह-माया सब टूट गयी। अब कोई चाह बाक़ी न रही। मुझे विश्वास है कि जीवन की दुख भरी यात्रा ख़त्म करके सुख के स्थान पर जा रहा हूँ। शास्त्रों में लिखा है, युद्ध में मरने वालों की ऋषियों जैसी रहत (श्रेणी) होती है। (आगे अस्पष्ट है)

‘ज़िन्दगी ज़िन्दादिली को जानिये रोशन!’ वरना कितने मरे और पैदा होते जाते हैं। आख़िरी नमस्कार!

श्री रोशन सिंह रायबरेली के काम करने वालों में थे। किसान आन्दोलन में जेल जा चुके थे। सबको विश्वास था कि हाईकोर्ट से आपकी मौत की सज़ा टूट जायेगी क्योंकि आपके ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं था। लेकिन फिर भी वे अंग्रेज़शाही का शिकार हो ही गये और फाँसी पर लटका दिये गये। तख़्ते पर खड़े होने के बाद आपके मुँह से जो आवाज़ निकली, वह यह थी –

‘वन्देमातरम!’

आपकी अर्थी के जुलूस की इजाज़त नहीं दी गयी। लाश की फ़ोटो लेकर दोपहर में आपका दाह-संस्कार कर दिया गया।

श्री अशफ़ाक़उल्ला

यह मस्ताना शायर भी हैरान करने वाली ख़ुशी से फाँसी चढ़ा। बड़ा सुन्दर और लम्बा-चौड़ा जवान था, तगड़ा बहुत था। जेल में कुछ कमज़ोर हो गया था। आपने मुलाक़ात के समय बताया कि कमज़ोर होने का कारण ग़म नहीं, बल्कि ख़ुदा की याद में मस्त रहने की ख़ातिर रोटी बहुत कम खाना है। फाँसी से एक दिन पहले आपकी मुलाक़ात हुई। आप ख़ूब सजे.सँवरे थे। बड़े-बड़े कढ़े हुए केश ख़ूब सजते थे। बड़ा हँस.हँसकर बातें करते रहे। आपने कहा, कल मेरी शादी होने वाली है। दूसरे दिन सुबह छह बजे आपको फाँसी दी गयी। क़ुरान शरीफ़ का बस्ता लटकाकर हाजियों की तरह वज़ीफ़ा पढ़ते हुए बड़े हौसले से चल पड़े। आगे जाकर तख़्ते पर रस्सी को चूम लिया। वहीं आपने कहा –

“मैंने कभी किसी आदमी के ख़ून से अपने हाथ नहीं रँगे और मेरा इन्साफ़ ख़ुदा के सामने होगा। मेरे ऊपर लगाये सभी इल्ज़ाम ग़लत हैं।” ख़ुदा का नाम लेते ही रस्सी खींची गयी और वे कूच कर गये। उनके रिश्तेदारों ने बड़ी मिन्नतों-ख़ुशामदों से उनकी लाश ली और उन्हें शाहजहाँपुर ले आये। लखनऊ स्टेशन पर मालगाड़ी के एक डिब्बे में उनकी लाश देखने का अवसर कुछ लोगों को मिला। फाँसी के दस घण्टे बाद भी चेहरे पर वैसी ही रौनक थी। ऐसा लगता था कि अभी ही सोये हों। लेकिन अशफ़ाक़ तो ऐसी नींद सो गये थे कि जहाँ से वे कभी नहीं जागेंगे। अशफ़ाक़ शायर थे और उनका शायर उपनाम हसरत था। मरने से पहले आपने ये दो शेर कहे थे –

फ़नाह हैं हम सबके लिए, हम पै कुछ नहीं मौक़ूफ़!

वक़ा है एक फ़कत जाने की ब्रिया के लिए।’

(नाश तो सभी होंगे, कोई हम अकेले थोड़े होंगे। न मरने वाला तो सिर्फ़ एक परमात्मा है।)

और –

तंग आकर हम उनके ज़ुल्म से बेदाद से,

चल दिये सूए अदम ज़िन्दाने फ़ैज़ाबाद से।’

श्री अशफ़ाक़ की ओर से एक माफ़ीनामा छपा था, उसके सम्बन्ध में श्री रामप्रसाद जी ने अपने आख़िरी एलान में पोज़ीशन साफ़ कर दी है। आपने कहा है कि अशफ़ाक़ माफ़ीनामा तो क्या, अपील के लिए भी राजी नहीं थे। आपने कहा था, मैं ख़ुदा के सिवाय किसी के आगे झुकना नहीं चाहता। परन्तु रामप्रसाद के कहने-सुनने से आपने वही सबकुछ लिखा था। वरना मौत का उन्हें कोई डर या भय नहीं था। उपरोक्त हाल पढ़कर पाठक भी यह बात समझ सकते हैं। आप शाहजहाँपुर के रहने वाले थे और आप श्री रामप्रसाद के दायें हाथ थे, मुसलमान होने के बावजूद आपका कट्टर आर्यसमाजी धर्म से हद दर्जे का प्रेम था। दोनों प्रेमी एक बड़े काम के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर अमर हो गये।

श्री रामप्रसाद बिस्मिल

श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ बड़े होनहार नौजवान थे। गज़ब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुन्दर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षड्यन्त्र का नेता माना गया है। चाहे बहुत ज़्यादा पढ़े हुए नहीं थे, लेकिन फिर भी पण्डित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ़ कोर्ट में अपनी अपील ख़ुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में ज़रूर ही किसी बहुत बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है।

19 तारीख़ की शाम को आपको फाँसी दी गयी। 12 की शाम को जब आपको दूध दिया गया तो आपने यह कहकर इन्कार कर दिया कि अब मैं माँ का दूध ही पिऊँगा। 18 को आपकी मुलाक़ात हुई। माँ को मिलते समय आपकी आँखों से अश्रु बह चले। माँ बहुत हिम्मत वाली देवी थी। आपसे कहने लगी – हरीशचन्द्र, दधीचि आदि बुज़ुर्गों की तरह वीरता, धर्म व देश के लिए जान दे, चिन्ता करने और पछताने की ज़रूरत नहीं। आप हँस पड़े। कहा, ‘माँ! मुझे क्या चिन्ता और क्या पछतावा, मैंने कोई पाप नहीं किया। मैं मौत से नहीं डरता। लेकिन माँ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है। तेरा-मेरा सम्बन्ध ही कुछ ऐसा है कि पास होते ही आँखों से अश्रु उमड़ पड़े। नहीं तो मैं बहुत ख़ुश हूँ। फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े ज़ोर से कहा, ‘वन्देमातरम’, ‘भारतमाता की जय’ और शान्ति से चलते हुए कहा –

मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे

बाक़ी न मैं रहूँ, न मेरी आरज़ू रहे।

जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,

तेरा ही ज़िक्रेयार, तेरी जुस्तजू रहे।’

फाँसी के तख़्ते पर खड़े होकर आपने कहा –

I wish the downfall of the British Empire.

(मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ।)

फिर यह शेर पढ़ा –

अब न अहले वलवले हैं

और न अरमानों की भीड़!

एक मिट जाने की हसरत,

अब दिले-बिस्मिल में है!

फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और फिर एक मन्त्र पढ़ना शुरू किया। रस्सी खींची गयी। रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये। आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेज़ी सरकार ने अपना ख़ौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख़याल यह है कि उसका क़सूर यही था कि वह इस ग़ुलाम देश में जन्म लेकर भी एक बड़ा भारी बोझ बन गया था और लड़ाई की विद्या से ख़ूब परिचित था। आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता श्री गेंदालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। मैनपुरी के मुक़दमे के समय आप भागकर नेपाल चले गये थे। अब वही शिक्षा आपकी मृत्यु का एक बड़ा कारण हो गया। 7 बजे आपकी लाश मिली और बड़ा भारी जुलूस निकला। स्वदेशप्रेम में आपकी माता ने कहा –

“मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दुखी नहीं। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। बोलो श्री रामचन्द्र की जय!”

इत्र-फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके ऊपर से पैसे फेंके। 11 बजे आपकी लाश श्मशान भूमि में पहुँची और अन्तिम-क्रिया समाप्त हुई।

आपके पत्र का आख़िरी हिस्सा आपकी सेवा में प्रस्तुत है –

“मैं ख़ूब सुखी हूँ। 19 तारीख़़ को प्रातः जो होना है उसके लिए तैयार हूँ। परमात्मा काफ़ी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिए फिर जल्द ही जन्म लूँगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया कर इतना काम और भी करना कि मेरी ओर से पण्डित जगतनारायण (सरकारी वकील जिसने इन्हें फाँसी लगवाने के लिए बहुत ज़ोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे ख़ून से लथपथ रुपयों से चैन की नींद आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।”

रामप्रसाद जी की सारी हसरतें दिल ही दिल में रह गयीं। आपने एक लम्बा-चौड़ा एलान किया है, जिसे संक्षेप में हम दूसरी जगह दे रहे हैं। फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के मि. हैमिल्टन आप लोगों की मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो, आपको पाँच हज़ार रुपया नक़द दे दिया जायेगा और सरकारी ख़र्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवायी जायेगी। लेकिन आप कब इन बातों की परवाह करते थे। आप हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी-कभार जन्म लेने वाले वीरों में से थे। मुक़दमे के दिनों आपसे जज ने पूछा था, “आपके पास क्या डिग्री है?” तो आपने हँसकर जवाब दिया था, “सम्राट बनाने वालों को डिग्री की कोई ज़रूरत नहीं होती, क्लाइव के पास भी कोई डिग्री नहीं थी।” आज वह वीर हमारे बीच नहीं है। आह!!


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
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