भगतसिंह – नये नेताओं के अलग-अलग विचार

नये नेताओं के अलग-अलग विचार

(जुलाई, 1928 के ‘किरती’ में छपे इस लेख में भगतसिंह ने सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की तुलना की है। बाद में इतिहास ने भगतसिंह के इन विचारों की पुष्टि की। – स.)

असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद जनता में बहुत निराशा और मायूसी फैली। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों ने बचा-खुचा साहस भी ख़त्म कर डाला। लेकिन देश में जब एक बार जागृति फैल जाये तब देश ज़्यादा दिन तक सोया नहीं रह सकता। कुछ ही दिनों बाद जनता बहुत जोश के साथ उठती तथा हमला बोलती है। आज हिन्दुस्तान में फिर जान आ गयी है। हिन्दुस्तान फिर जाग रहा है। देखने में तो कोई बड़ा जन-आन्दोलन नज़र नहीं आता लेकिन नींव ज़रूर मज़बूत की जा रही है। आधुनिक विचारों के अनेक नये नेता सामने आ रहे हैं। इस बार नौजवान नेता ही आगे बढ़े और देश में नौजवानों के ही आन्दोलन चल रहे हैं। नौजवान नेता ही देशभक्त लोगों की नज़रों में आ रहे हैं। बड़े-बड़े नेता बड़े होने के बावजूद एक तरह से पीछे छोड़े जा रहे हैं। इस समय जो नेता आगे आये हैं वे हैं – बंगाल के पूजनीय श्री सुभाषचन्द्र बोस और माननीय पण्डित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिन्दुस्तान में उभरते नज़र आ रहे हैं और युवाओं के आन्दोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिन्दुस्तान की आज़ादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगान्तकारी। हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अन्तर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके। लेकिन उन दोनों के विचारों का उल्लेख करने से पूर्व एक और व्यक्ति का उल्लेख करना भी ज़रूरी है जोकि इन्हीं की भाँति स्वतन्त्रता प्रेमी है और युवा-आन्दोलनों की एक विशेष शख़्सियत है। साधू वासवानी जो चाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं की भाँति जाने-माने तो नहीं, चाहे देश के राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष स्थान तो नहीं, तो भी युवाओं पर, जिन्हें कि कल देश की बागडोर सँभालनी है, उनका असर है और उनके ही द्वारा शुरू हुआ आन्दोलन ‘भारत-युवा संघ’ इस समय युवाओं में विशेष प्रभाव रखता है। उनके विचार बिल्कुल अलग ढंग के हैं। उनके विचार एक ही शब्द में बताये जा सकते हैं – “वापस वेदों की ओर लौट चलो।” (बैक टु वेद्स)। यह आवाज़ सबसे पहले आर्यसमाज ने उठायी थी। इस विचार का आधार इस आस्था में है कि वेदों में परमात्मा ने संसार का सारा ज्ञान उँड़ेल दिया है। इससे आगे और अधिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए हमारे हिन्दुस्तान ने चौतरफ़ा जो प्रगति कर ली थी उससे आगे न दुनिया बढ़ी है और न बढ़ सकती है! ख़ैर, वासवानी आदि इसी आस्था को मानते हैं। तभी एक जगह कहते हैं –

“हमारी राजनीति ने अब तक कभी तो मैजिनी और वाल्टेयर को अपना आदर्श मानकर उदाहरण स्थापित किये हैं और या कभी लेनिन और टालस्टाय से सबक सीखा। हालाँकि उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके पास उनसे कहीं बड़े आदर्श हमारे पुराने ऋषि हैं।” वे इस बात पर यक़ीन करते हैं कि हमारा देश एक बार तो विकास की अन्तिम सीमा तक जा चुका था और आज हमें आगे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पीछे लौटने की ज़रूरत है।

आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नज़र आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यह ‘शक्ति’ धर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं, “इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।” वह ‘शक्ति’ शब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं:

“For in solitude have communicated with her, our admired Bharat Mata, Anad my aching head had heard voices saying… ‘The day of freedom is not far off.’ …Sometimes indeed a strange feeling visits me and I say to myself-Holly, holy is Hinduism. For still is she under the protection of her mighty Rishish and their beaury is around us, but we behold it not.”

अर्थात एकान्त में भारत की आवाज़ मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज़ सुनी है कि ‘आज़ादी का दिन दूर नहीं’…कभी-कभी बहुत अजीब विचार मेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूँ, हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ऋषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी ख़ूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।

यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहते हैं: “हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।” इस तरह वे केवल मात्र भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं: “Our national movement must become a purifying mass movement. If it is to fulfil its destiny without falling into class was one of the dangers of Bolshevism.”

अर्थात हमें अपने राष्ट्रीय जन-आन्दोलन को देश-सुधार का आन्दोलन बना देना चाहिए। तभी हम वर्गयुद्ध के बोल्शेविज़्म के ख़तरों से बच सकेंगे। वह इतना कहकर ही कि ग़रीबों के पास जाओ, गाँवों की ओर जाओ, उनको दवा-दारू मुफ्त दो – समझते हैं कि हमारा कार्यक्रम पूरा हो गया। वे छायावादी कवि हैं। उनकी कविता का कोई विशेष अर्थ तो नहीं निकल सकता, मात्र दिल का उत्साह बढ़ाया जा सकता है। बस पुरातन सभ्यता के शोर के अलावा उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं। युवाओं के दिमाग़ों को वे कुछ नया नहीं देते। केवल दिल को भावुकता से ही भरना चाहते हैं। उनका युवाओं में बहुत असर है। और भी पैदा हो रहा है। उनके दकियानूसी और संक्षिप्त-से विचार यही हैं जोकि हमने ऊपर बताये हैं। उनके विचारों का राजनीतिक क्षेत्र में सीधा असर न होने के बावजूद बहुत असर पड़ता है। विशेषकर इस कारण कि नौजवानों, युवाओं को ही कल आगे बढ़ना है और उन्हीं के बीच इन विचारों का प्रचार किया जा रहा है।

अब हम श्री सुभाषचन्द्र बोस और श्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कॉन्‍फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाये गये और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख़्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसीलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अन्तर्गत क़ैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बनाये गये। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं, और महाराष्ट्र कॉन्‍फ्रेंस में अध्यक्षीय भाषण में आपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।

पण्डित जवाहरलाल नेहरू स्वराज पार्टी के नेता पण्डित मोतीलाल नेहरू जी के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आये हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कॉन्‍फ्रेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव स्वीकृत हो सका था। आपने अमृतसर कॉन्‍फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर ज़ोर दिया। लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कॉन्‍फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अन्तर स्पष्ट हुआ था। लेकिन बाद में बम्बई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गयी। पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षता कर रहे थे और सुभाषचन्द्र ने भाषण किया। वह एक बहुत भावुक बंगाली हैं। उन्होंने भाषण आरम्भ किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष सन्देश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा। ख़ैर, आगे वे दीवाने की तरह कहना आरम्भ कर देते हैं – चाँदनी रात में ताजमहल को देखो और जिस दिल की यह समझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा है कि हममें ‘यह हमारे आँसू ही जम-जमकर पत्थर बन गये हैं।’ वह भी वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण में ‘राष्ट्रवादिता’ के सम्बन्ध में कहा है कि अन्तरराष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है। हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है। न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो यह ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ है, अर्थात ‘सच, कल्याणकारी और सुन्दर।’

यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है। वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायतीराज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। ‘पंचायती राज और जनता का राज’ वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत पुराना है। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिन्दुस्तान के लिए नयी चीज़ नहीं। ख़ैर, उन्होंने सबसे ज़्यादा उस दिन के भाषण में ज़ोर जिस बात पर दिया था वह यह थी कि हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। पण्डित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे कहते हैं –

“जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। इंग्लैण्ड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यक़ीन है।” जवाहरलाल कहते हैं – “Everyl youth must rebel. Not only in political speher, but in social, economic and religious spheres also. I have not much use for any man who comes and tells me that such and such thing is said in Koran. Every thing unreasonable be discarded even if they find authority for it in the Vedas and Koran.” (यानी) “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलाँ बात क़ुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और क़ुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।”

यह एक युगान्तकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राजपरिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीज़ें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तकारी और विद्रोही! पण्डित जी एक स्थान पर कहते हैं –“To those who still fondly cherish old ideas and are striving to bring back the conditions which prevailed in Arabia 1300 years ago or in the vedic Age in India. I say, that it is inconcievable that you can bring back the hoary past. The world of reality will not retrac its steps, the world of imagiation may remain stationary.”

वे कहते हैं कि जो अब भी क़ुरान के ज़माने के, अर्थात 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियाँ पैदा करना चाहते हैं या जो पीछे वेदों के ज़माने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यही कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आयेगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं।

सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज़ पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पण्डित जी कहते हैं, हमें अपना राज क़ायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है।

सुभाष बाबू मज़दूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पण्डित जी एक क्रान्ति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं – दिल के लिए नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तकारी है जोकि दिल के साथ-साथ दिमाग़ को भी बहुत कुछ दे रहा है – “They should aim at Swaraj for the masses based on socialism. That was a revolutionary chang which they could not bring about without revolutionary methods… Mere reform or gradual reparing of the existing machinery could not achieve the real proper Swaraj for the General Masses.” (अर्थात) हमारा आदर्श समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार पूर्ण स्वराज्य होना चाहिए, जोकि युगान्तकारी तरीक़ों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की धीमी-धीमी की गयी मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज्य नहीं ला सकती।

यह उनके विचारों का ठीक-ठीक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है। परन्तु पण्डित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गये हैं।

अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों विचार आ गये हैं। हमें किस ओर झुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचारपत्र ने सुभाष की तारीफ़ के पुल बाँधकर पण्डित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मर जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रान्त है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।

सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक ख़ुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तकारी विचारों को ख़ूब सोच-विचारकर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख़्त ज़रूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए। लेकिन जहाँ तक विचारों का सम्बन्ध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्‍क़लाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान में इन्‍क़लाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्‍क़लाब का स्थान क्या है, आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुक़ाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इन्‍क़लाब के ध्येय को पूरा कर सकेगी।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।

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