महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिवस (9 अप्रैल) व पुण्यतिथि (14 अप्रैल) पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में क्रान्तिकारी एकजुटता अभियान के तहत निकाला गया परचा
महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिवस (9 अप्रैल) व पुण्यतिथि (14 अप्रैल) पर
आज जब सर्वग्रासी संकट से ग्रस्त हमारा समाज गहरी निराशा, गतिरोध और जड़ता के अँधेरे गर्त में पड़ा हुआ है, जहाँ पुरातनपंथी मूल्यों-मान्यताओं और रूढ़ियों के कीड़े बिलबिला रहे हैं, तो राहुल सांकृत्यायन का उग्र रूढ़िभंजक, साहसिक और आवेगमय प्रयोगधर्मा व्यक्तित्व प्रेरणा का स्रोत बनकर सामने आता है। आज जिस नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है, उसकी तैयारी करते हुए राहुल जैसे इतिहास-पुरुष का व्यक्तित्व हमारे मानस को सर्वाधिक आन्दोलित करता है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के पन्दहा गाँव में 9 अप्रैल 1893 को जन्मे राहुल का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डेय था। बचपन में ही उन्होंने उस ठहरे, रूढ़ियों में जकड़े समाज से विद्रोह किया और घर छोड़ दिया। सनातनी हिन्दू, आर्यसमाजी और बौद्ध भिक्षु के रूप में निरन्तर सत्य और मुक्तिमार्ग की खोज में जारी उनकी यात्रा उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा तक ले गयी। गेरुआ चोला उतारकर उन्होंने मज़दूरों, किसानों के लिए लड़ने और उनके दिमागों पर कसी बेड़ियों को तोड़ डालने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। राहुल अनेक भाषायें जानते थे, इतिहास, दर्शन और भाषा पर अपनी पकड़ से शोहरत हासिल कर सकते थे। लेकिन आरामदेह कमरों और बड़े-बड़े पुस्तकालयों में बैठकर भारी-भारी पोथियाँ लिखने के बजाय उन्होंने ऐसा रास्ता चुना जो गाँवों की धूल और धूप भरी पगडण्डियों की ओर जाता था। जिस समय ज़रा-से इशारे-भर से कोई भी पद-ओहदा-पुरस्कार मिल सकता था, उस समय वे बिहार और उत्तर प्रदेश के गाँवों में घूम-घूमकर किसान सभा खड़ी करने में जुटे थे। जब दुनिया की कई मुल्कों की सरकारें उन्हें अपने यहाँ ऊँचे पद देकर बुला रही थी तब वह अमवारी में किसानों की अगुवाई करते हुए पुलिस की लाठी खा रहे थे। जेलों में भी वे लेखन के जरिये सक्रिय रहे।
साथियो आज देश की जनता की स्थिति बहुत भयावह है। ‘‘विकास’’ की सच्चाई यह है कि देश की ऊपर की 1 फीसदी आबादी के पास देश की कुल सम्पदा का 58.4 फीसदी हिस्सा इकट्ठा हो चुका है और अगर ऊपर की 10 फीसदी आबादी को लें तो यह आंकड़ा 80.7 फीसदी तक पहुँच जाता है। दूसरी ओर नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास कुल सम्पदा का महज 1 फीसदी है। देश के गोदामों में अनाज सड़ने के बावजूद प्रतिदिन लगभग 9000 बच्चे कुपोषण व स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से मर जाते हैं। यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषण का शिकार दुनिया का हर तीसरा बच्चा भारत का है। 50 प्रतिशत औरतें खून की कमी की शिकार हैं। सरकारी नीतियों के कारण होने वाली मौतें आतंकी घटनाओं से होने वाली मौतों की तुलना में कई हजार गुना हैं। लेकिन इन मौतों पर नेताओं व मीडिया द्वारा साजिशाना चुप्पी बनी रहती है। 1 फरवरी को बजट पेश होने से पहले आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि हर साल औसतन 90 लाख लोग रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर छोड़कर प्रवासी बन जाते हैं। जिनमें से ज़्यादातर मुम्बई, तिरूपुर, दिल्ली, बंगलूरू, लुधियाना आदि की गन्दी और बीमारी से भरी झोपड़पट्टियों में समा जाते हैं। आँकड़ों के मुताबिक देश की लगभग 36 करोड़ आबादी झुग्गी-झोपड़ियों और फुटपाथ पर रहने के लिए मजबूर है। मोदी सरकार ने जून 2015 में 2022 तक 2 करोड़ मकान बनवाने की बात की थी यानि हर साल लगभग 30 लाख मकान। लेकिन जुलाई 2016 में पता चला कि 1 साल में केवल 19,255 मकान बने। इसी तरह हर वर्ष 2 करोड़ नये रोजगार पैदा करने के दावे की सच्चाई इसी से सामने आ जाती है कि बेरोजगारी की दर पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ते हुए 2015-16 में 7.3 प्रतिशत तक पहुँच गई। देश के लगभग 30 करोड़ लोग बेरोजगारी में धक्के खा रहे हैं। जनता की सुविधाओं में लगातार कटौती की जा रही है और अमीरज़ादों के अरबों रूपये के कर्ज राइट आफ (वास्तव में माफ़) किये जा रहे हैं। स्टेशन पर चाय बेचने का ढोंग रचते हुए अब स्टेशन को ही निजी हाथों में बेचा जा रहा है। इसकी शुरुआत हबीबगंज रेलवे स्टेशन (मध्यप्रदेश) से कर दिया गया है। आगे करीब 400 रेलवे स्टेशनों को p.p.p. (प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप) के हवाले करने की योजना है। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों की फीसें बढायी जा रही हैं, सीटें घटायी जा रही हैं। शिक्षा में सरकारी खर्च घटाया जा रहा है ताकि उसकी स्थिति लचर हो और शिक्षा को पूरी तरह बाज़ार के हवाले किया जा सके। इनके ख़िलाफ़ खड़े होने वाले छात्रों-संगठनों के आन्दोलनों को कुचला जा रहा है। अब पंजाब विश्वविद्यालय में 11 गुना फीस बढ़ाने के खिलाफ जब छात्रों ने आन्दोलन चलाया तो न केवल उन पर बर्बर लाठी चार्ज किया गया अपितु 58 छात्र-छात्राओं पर राष्ट्रदोह का मुकदमा लाद दिया। बाद में छात्रों की एकजुटता देख राष्ट्रदोह का मुकदमा हटा दिया लेकिन अन्य धारायें बरकरार है।
निश्चित तौर पर अन्याय के खिलाफ युवा सड़को पर उतर रहे हैं लेकिन सवाल ये उठता है कि युवाओं की बड़ी तादाद अभी भी इन संघर्षों में शामिल क्यों नही है? जनता की बड़ी आबादी की निष्क्रियता क्यों है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि बहुत बड़ी आबादी अपनी ज़िदगी की तबाही-बर्बादी के कारणों से परिचित नहीं है। लोगों के इस पिछड़ेपन का फायदा शासक वर्ग उठाते हैं। वो लोगों की समस्याओं का कारण किसी अन्य धर्म के लोगों या जाति, देश आदि से जोड़ देते हैं। दंगे-फसाद करवाते हैं। लोगों की एकता टूट जाती है और वो आपस में ही लड़ने पर आमादा हो जाते हैं। आर्थिक संकट के आज के दौर में धर्म-जाति के नाम पर झगड़े केवल चुनावी राजनीति का मसला नहीं है। उससे आगे बढ़कर संघ परिवार की फासीवादी राजनीति पूरे देश में बड़े पैमाने पर पांव पसारती जा रही है। फासीवादी जहां एक ओर मंहगाई बढ़ाकर, जनता को मिलने वाली छूटों में कटौती करके बड़े-2 उद्योगपतियों के मुनाफे की दर को स्थिर रखते हैं या बढ़ाते हैं वहीं दूसरी ओर इससे असंतुष्ट होकर जनता सड़कों पर न उतर पड़े, इसके लिए लोगों में नकली राष्ट्रवाद, मन्दिर-मस्जिद, धार्मिक झगड़े, संस्कृति के नाम पर झगड़े आदि भड़काते हैं। उनके गुण्डा गिरोह जनता के लिए लड़ने वाले लोगों की क्रूर हत्यायें करते रहते हैं और वे शासन-प्रशासन को भी अपने हाथ में ले लेते हैं। इन फासीवादी ताकतों का विरोध करने वाले लोगों को देशद्रोही ठहरा दिया जाता हैं। यानि कि एक निरंकुश तानाशाही जनता पर थोप दी जाती है। अतीत में हिटलर और मुसोलिनी की सत्ता इसकी मिसाल हैं और वर्तमान समय में भारत में संघ परिवार।
वर्तमान समय में देखा जाय तो साम्प्रदायिक दंगों की राजनीति यहाँ तक आ पहुँची है कि गाय के लिए आदमी मारे जा रहे हैं। गोरक्षक के नाम पर बने गुण्डा गिरोह पुलिस प्रशासन की जगह फैसला कर रहे हैं। जनता को आपस में लड़ाने में टी.वी. चैनलों व समाचार पत्रों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। वास्तव में तमाम टी.वी चैनल, समाचार पत्र धन्नासेठों-उद्योगपतियों के कब्जे में हैं। इनका मुख्य काम फर्जी विज्ञापनों के जरिये कमाई, फूहड़ता-अश्लीलता फैलाकर युवाओं के दिमाग को भ्रष्ट करना, भ्रष्ट नेताओं की छवि चमकाना, नाजुक मुद्दों को नमक-मिर्च लगाकर ऐसे पेश करना कि लोगों में आपसी विद्वेष बढे़ आदि है। देश के युवाओं की एक बड़ी संख्या मीडिया के प्रंभाव में आकर गलत कामों में लग रही है।
साथियो, ऐसे दौर में राहुल सांकृत्यायन जैसे महाविद्रोहियों के विचारों को जनता में पहुँचाना बहुत ज़रूरी है। धार्मिक झगड़ों के कारणों की चीर-फाड़ करते हुए राहुल ने लिखा कि-इस समस्या की जड़ है किसान-मज़दूरों का अपने आर्थिक हितों का ज्ञान न होना। बहिश्त और स्वर्ग के लोभ में, जो इन्हीं धनी पिट्ठुओं ने उन्हें दिया है, अपने उस जीवन को दुःखमय और नरक का जीवन बना रहे हैं। यदि उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात हो जाय कि सभी गरीबों का सवाल एक है-चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम; अगर इजाफा होता है तो, सभी गरीबों पर; यदि बेगार और नाजायज कर वसूल किये जाते हैं, तो वे भी गरीबों से ही।..यदि देश में नया समाज और नया आर्थिक संगठन किया जाता है तो, उससे सबसे बड़ा फायदा गरीबों को ही होगा। अगर इन बातों को वे अच्छी तरह गौर करना सीख लें, तो उन्हंे मालूूम होगा कि एक हजार में से नौ सौ निन्नानबे आदमियों को इन हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों से नुकसान ही होगा। वे लिखते हैं कि-गोकशी और ताजिया-ये सारे झगड़े धनियों के बडे़ काम के है। वह उन्हीं को लेकर गरीबों में झगड़े पैदा करते हैं। उनको एक-दूसरे का जानी दुश्मन बनाते हैं और फिर अपना उल्लू सीधा करते हैं।
साथियो, हमें भी इन झगड़ों के कारणों को समझना होगा। इन झगड़ों का परिणाम केवल आम जनता की तबाही होती है। जबकि दोनों धर्मों के धनिको को कोई नुकसान नहीं होता। युवाओं को टी.वी चैनलों, धर्म के ठेकेदारों, नेताओं-मन्त्रियों के भ्रमजाल से बाहर आना होगा। शिक्षा, रोजगार, जैसे वास्तविक मुद्दों पर संघर्ष संगठित करना होगा। नेताओं को घेरना होगा कि जो वायदे वो चुनाव में करते हैं उसे पूरा करें। जातिवाद-भेदभाव की दीवारें गिरानी होंगी। धार्मिक कट्टरपंथियों के चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लिम, के खिलाफ हल्ला बोलना होगा। अन्धविश्वास, रूढ़ियों के विरुद्व वैचानिक चेतना का प्रचार-प्रसार करना होगा। जगह-जगह पुस्तकालय खड़े करने होंगे, नाटक-संगीत की टीम बनानी होगी। अध्ययन-बहस चक्रों का आयोजन करना होगा। हमें मेहनतकशों की लड़ाई संगठित करनी होगी। समता मूलक समाज के निर्माण के लम्बे संघर्ष में उतर जाना होगा। राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में कहें तो-आँख मूँदकर हमें समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। हमें मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज़्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें दाहिने-बांये, आगे-पीछे दोनों हाथ नंगी तलवार नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना चाहिए।
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