बहुत होते हैं सत्तर साल अपनी बरबादी को पहचानने के लिए!
किस चीज़ का इन्तज़ार है? और कब तक?
साथियो!
आज़ादी के 69 वर्ष बीत चुके हैं। हर स्वतन्त्रता दिवस की तरह इस बार भी हमने अपनी छतों-मुण्डेरों पर तिरंगे फहराकर खुद को यह याद दिलाने की कोशिश की कि हम आज़ाद हैं। देश का खाता-पीता उच्च मध्यवर्ग भी अपनी कार के शीशे उतार कर रेड लाइटों पर मेहनतकशों-ग़रीबों के बच्चों से 5-5 रुपये में तिरंगा ख़रीदकर अपनी ‘राष्ट्रभक्ति’ साबित कर देता है। लेकिन सवाल यह है कि सात दशकों के आज़ाद भारत में किसे क्या मिला? किसकी कोठियाँ और बंगले खड़े हो गये और कौन मुफ़लिसी की ज़िन्दगी बिता रहा है? यह किसकी आज़ादी है? कौन हर स्वतन्त्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस पर आज़ादी का जश्न मना रहा है और कौन झुग्गी-बस्तियों और झोपड़ियों में अपने हालात का मातम मना रहा है? इन सवालों का जवाब पाने के लिए आइये कुछ ठोस सच्चाइयों और आँकड़ों पर निगाह डालें।
सात दशकों की आज़ादी या आम जनता की बरबादी?
पहले मनमोहन सिंह की कांग्रेस-नीत सरकार और अब नरेन्द्र मोदी की भाजपा-नीत सरकार ये दावे करतीं रहीं हैं कि भारत तेज़ रफ्तार से तरक्की कर रहा है। वृद्धि दर 7-8 प्रतिशत तक पहुँच रही है! यह सच है कि देश के ऊपर के 15 फीसदी लोगों के लिए देश में तरक्की हो रही है। अम्बानी-अडानी और टाटा-बिड़ला जैसों के लिए देश ज़रूर तरक्की कर रहा है। खाते-पीते उच्च मध्यवर्ग को भी इस तरक्की की मलाई मिल रही है। उनके लिए शॉपिंग मॉल, आठ लेन के एक्सप्रेस वे से लेकर मल्टीप्लेक्सों की भीड़ लग गयी है। लेकिन इन सारी धन-दौलत और ऐशो-आराम के सामान पैदा करने वाले 80 प्रतिशत मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आम मेहनतकश अवाम को क्या इस विकास से कुछ हासिल हुआ है? हाँ, हुआ है! कमरतोड़ महँगाई, भुखमरी, ग़रीबी, कुपोषण, बेघरी और बेरोज़गारी! आइये कुछ आँकड़ों पर निगाह दौड़ाते हैं।
तरक्की के तमाम दावों के बावजूद हमारे देश में आज भी करीब 20 करोड़ लोग रोज़ भूखे सोते हैं। 2006 की एक सरकारी रपट के अनुसार 77 प्रतिशत भारतीय जनता 20 रुपये प्रतिदिन से कम की आय पर जीती है। 58 प्रतिशत बच्चे दो वर्ष के होते-होते बाधित विकास के शिकार हो जाते हैं। 3000 बच्चे रोज़ सिर्फ़ भूख से मरते हैं और अन्य भोजन व स्वास्थ्य-सम्बन्धी कारणों से होने वाली बच्चों की मौतों को जोड़ दें तो यह आँकड़ा करीब 9000 पहुँच जाता है। दुनिया भर में पाँच वर्ष से कम आयु में होने वाली मौतों का 24 प्रतिशत भारत में होता है। दुनिया में नवजात मृत्यु का 30 प्रतिशत अकेले हमारे देश में होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा कुपोषण-पीड़ित देश है। पाँच वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों में 42 प्रतिशत कम वज़न के हैं। 20 प्रतिशत बच्चे क्षीण (वेस्टेड) हैं। वैश्विक न्यूनतम ग़रीबी दर 1.25 डॉलर प्रतिदिन है लेकिन भारत के 90 प्रतिशत लोग 1 डॉलर प्रतिदिन से कम कमाते हैं। इन भयंकर हालात के कारण जानने के लिए मोदी सरकार के अन्तिम बजट पर नज़र डालना काफ़ी होगा।
आख़िरी बजट 19,78,060 करोड़ (लगभग 20 लाख करोड़) रुपये का था। इसमें से श्रम और रोज़गार सृजन के लिए मात्र 6,243 करोड़ रुपये (0.32 प्रतिशत) रखा गया था। उच्चतर शिक्षा के लिए मात्र 28,765 करोड़ रुपये रखे गये हैं। मानव संसाधन विकास के लिए मात्र 72,039 करोड़ रुपये, यानी कुल बजट का मात्र 3.64 प्रतिशत रखा गया है। जन स्वास्थ्य हेतु कुल बजट का मात्र 1.1 प्रतिशत ख़र्च किया जायेगा। दूसरी ओर सार्वजनिक ख़र्चों में और जनता हेतु खाद्यान्न के लिए मिलने वाली सब्सिडी में भारी कटौती की गयी है और जन वितरण प्रणाली का बण्टाधार कर दिया गया है। यह प्रक्रिया मनमोहन सिंह सरकार ने ही शुरू कर दी थी। एग्रो-आधारित व सम्बन्धित क्षेत्र में वायदा व्यापार और अडानी जैसे पूँजीपतियों को दाल व तेल आदि की जमाखोरी और सट्टेबाज़ी की खुली छूट दे दी गयी है। यही कारण है कि खाने के सामानों की महँगाई नियन्त्रण में नहीं आने वाली है। सब्जियाँ और दालें आम मेहनतकश आबादी की तश्तरी से ग़ायब हो चुकी हैं। देश में कुल कार्यशक्ति है करीब 77 करोड़ जबकि कुल रोज़गार हैं 48 करोड़, यानी कि करीब 29 करोड़ काम करने योग्य लोग बेरोज़गार हैं। 4 करोड़ लोग तो पढ़े-लिखे बेरोज़गार हैं जो ग्रेजुएट व पोस्टग्रेजुएट की डिग्रियों के साथ खलासी व चपरासी के पदों के लिए आवेदन कर रहे हैं! आज देश में करीब 22 करोड़ असंगठित मज़दूर 12-12 घण्टे काम कर रहे हैं। यदि 8 घण्टे के कार्यदिवस के कानून को ही सरकार लागू कर दे तो 11 करोड़ नये रोज़गार तुरन्त पैदा हो जायेंगे! लेकिन उल्टा सरकार एक नये कानून के ज़रिये बाल मज़दूरी तक को खुली छूट दे रही है और नये श्रम कानूनों के ज़रिये ठेका मज़दूरी को बढ़ाने का काम कर रही है। ऐसे में, ज़ाहिर है कि बेरोज़गारी आने वाले समय में और ज़्यादा बढ़ेगी। सरकारी नौकरियों में भर्ती में भारी कटौती की गयी है और सरकारी उपक्रमों में भी नयी भर्तिया अधिकतर ठेके पर हो रही हैं। यही कारण है कि रोज़गार सृजन पर कुल बजट का मात्र 0.32 प्रतिशत रखा गया है। वहीं दूसरी ओर सरकार अन्धराष्ट्रवाद और पाकिस्तान का भय दिखाकर रक्षा क्षेत्र पर बजट का 17.24 प्रतिशत ख़र्च कर रही है, यानी, 340,922 करोड़ रुपये! लेकिन वास्तव में पुलिस और फौज-फाटे का इस्तेमाल देश भर में मज़दूर आन्दोलनों को कुचलने, आम मेहनतकश जनता को दबाकर रखने, कश्मीर व उत्तर-पूर्व में दमन के लिए होता है। आज जो युद्धोन्माद फैलाया जा रहा है, उसकी असलियत भी हमें समझने की ज़रूरत है साथियो।
दोस्तो! ग़रीब मेहनती जनता के आँसुओं के समन्दर में कुछ ऐयाशी की मीनारे खड़ी हैं। ये ऐयाशी की मीनारें देश के 15 फीसदी आबादी, यानी पूँजीपतियों, नेताओं-नौकरशाहों, ठेकेदारों, शेयर दलालों और उच्च मध्यवर्ग की हैं। बजट में करीब 1300 करोड़ रुपये केवल राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और संसद पर खर्च पर रखे गये हैं। संसद-नामक सुअरबाड़े की एक मिनट की कार्रवाई पर 3 लाख रुपये, यानी प्रतिदिन करीब 14 करोड़ रुपये ख़र्च होते हैं। और इस ख़र्च पर बनाये जाते हैं जनता-विरोधी कानून और नियम! हर सांसद को प्रति वर्ष 0.48 करोड़ रुपये मिलते हैं। अगर इसमें विकास निधि को जोड़ दें तो सांसदों को मिलने वाली रकम हो जाती है 2.5 करोड़ रुपये प्रति वर्ष। यानी कि 543 सांसदों को प्रति वर्ष 1500 करोड़ रुपये मिलते हैं! देश के फौज, पुलिस, नौकरशाही, वीआईपी सुरक्षा और कैबीनेट पर ही हर साल अरबों रुपये ख़र्च होते हैं। इस भारी-भरकम और ख़र्चीले जनतन्त्र की कीमत पूँजीपतियों से नहीं बल्कि जनता से वसूली जाती है। यही कारण है कि पिछले तीन दशकों से अप्रत्यक्ष करों में लगातार बढ़ोत्तरी की जा रही है और पूँजीपतियों से वसूला जाने वाला कारपोरेट टैक्स व प्रत्यक्ष कर (आयकर) घटाया जा रहा है। देश के सबसे धनी 0.01 प्रतिशत लोगों और बाकी जनता की औसत आय में करीब 200 गुने का अन्तर है। सात दशकों में पूँजीपति घरानों की सम्पत्ति में 1000 गुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है। जनता के जल-जंगल-जमीन की लूट के ज़रिये पिछले 15 वर्षों में इसमें और ज़्यादा तेज़ रफ्तार से बढ़ोत्तरी हुई है। ये दो तस्वीरें हैं एक ही देश की। एक ओर ग़रीबी और मुफ़लिसी की शिकार 80 प्रतिशत जनता है और दूसरी ओर मुट्ठी भर धनपशु हैं, जो परजीवी जोंकों के समान जनता के शरीर से चिपके हुए उसका खून चूस रहे हैं। पिछले सात दशकों की आज़ादी में हमें यही हासिल हुआ हैः ग़रीबों की आँसुओं के समन्दर में अमीरज़ादों की ऐश्वर्य की मीनारें!
शासक वर्गों द्वारा फैलाये जा रहे युद्धोन्माद की असलियत को पहचानो!
आज पाकिस्तान से युद्ध भड़काने की साज़िशें चल रही हैं। कारपोरेट घरानों के दरबारी और भाट की भूमिका अदा करने वाला इलेक्ट्रानिक व प्रिण्ट मीडिया युद्धोन्माद भड़का रहा है। भारत का सोशल मीडिया पर उछलकूद मचाने वाला उच्च मध्यवर्ग इस उन्माद में पगला सा गया है। लेकिन ज़रा सोचिये दोस्तो! इस युद्ध से किसे क्या मिलेगा? इस युद्ध में क्या इस उच्च मध्यवर्ग के लोग मरेंगे? सीमा पर कौन लड़ेगा? मज़दूरों और किसानों के बेटे-बेटियाँ! और मरेंगे भी वही! आतंकवाद का भस्मासुर तो इसी व्यवस्था ने पैदा किया है। धार्मिक कट्टरपंथ और आतंकवाद मौजूदा व्यवस्था की ही जारज औलादें हैं। इनका इस्तेमाल जनता को बाँटने और आपस में लड़ाने और साथ ही युद्धोन्माद भड़काने के लिए किया जाता है। आज भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी चरम पर है। हुक्मरान जनता के बीच अलोकप्रिय हो रहे हैं और उनकी सत्ता संकटग्रस्त है। ऐसे में, सबसे अच्छा होता है कि एक युद्ध पैदा करके जनता के गुस्से को ग़लत दिशा में मोड़ दिया जाय और अन्धराष्ट्रवाद की लहर में सारे असली मुद्दे किनारे कर दिये जायें। आज दोनों देशों के हुक्मरानों को इससे फ़ायदा है। आज दोनों ही देशों के हुक्मरानों को एक युद्ध की ज़रूरत पड़ सकती है। इसीलिए आज यह युद्धोन्माद भड़काया जा रहा है। भाजपा का सुब्रमन्यम स्वामी कह रहा है कि भारत को पाकिस्तान पर आणविक हमला कर देना चाहिए और खुद भारतीय जनता को आणविक युद्ध में 10 करोड़ लोगों की कुरबानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए! यह फासीवादी पागलपन दोनों ही देशों को विनाश की ओर ले जायेगा। स्वामी जैसे अर्द्ध-पागलों से पूछना चाहिए कि क्या वे अपने बच्चों, नाती-पोतों को आणविक युद्ध करने के लिए भेजेंगे? क्या मोदी, गडकरी, राजनाथ सिंह, पर्रीकर जैसे लोग खुद ये युद्ध लड़ने जायेंगे? नहीं दोस्तो! इसमें दोनों देशों के ग़रीबों के बेटे-बेटियाँ मरेंगे! युद्ध के दौरान ये हुक्मरान तो अपने सुरक्षित बंकरों में जाम छलका रहे होंगे! इसलिए हमें इस युद्धोन्माद में कतई नहीं फँसना चाहिए और असल मुद्दों पर सोचना और लड़ना चाहिए।
जाति-धर्म के झगड़े छोड़ो! सही लड़ाई से नाता जोड़ो!
दोस्तो! इस समय पूरे देश में एक बार फिर से जाति और धर्म के नाम पर जनता को बाँटा जा रहा है। क्या आपने कभी सोचा है कि हमेशा उसी समय ये झगड़े क्यों पैदा किये जाते हैं जब देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी अपने चरम पर होती है? क्या आपने कभी सोचा है कि जाति-धर्म के झगड़ों में हमेशा हर समुदाय के आम मेहनतकश क्यों मरते हैं, कभी कोई तोगड़िया या ओवैसी क्यों नहीं मरता? दोस्तो! ज़रा गहराई से सोचिये! आज भी देश में जाट आरक्षण, पटेल आरक्षण को लेकर झगड़े पैदा किये जा रहे हैं। कोपर्डी में एक नाबालिग के बलात्कार के बाद, जिसके आरोपी दलित हैं, जातिवादी ताक़तों ने मराठों की जातिगत गोलबन्दी शुरू कर दी है और यह माँग की है कि दलित व आदिवासी उत्पीड़न-रोधी कानून समाप्त किया जाय क्योंकि इसका दुरुपयोग होता है और साथ ही मराठों के लिए आरक्षण की माँग की है! मगर सच्चाई यह है कि भारत में हर कानून का ही दुरुपयोग होता है; अगर इस तर्क से कोई कानून समाप्त किया जाय, तो हर कानून समाप्त करना पड़ेगा! सच्चाई तो यह है कि आज भी बर्बरतम उत्पीड़न, हत्याओं, बलात्कारों का शिकार सबसे ज़्यादा ग़रीब दलित आबादी होती है। असल बात यह है कि इस घटना के बहाने शासक वर्ग को एक बार फिर आम लोगों को जाति के नाम पर बाँटने का अवसर मिल गया है। अस्मितावादी राजनीति का नियम ही यह होता है कि वह दूसरी अस्मिताओं को भी मज़बूत बनाती है।
आरक्षण की राजनीति के बारे में जितना कहा जाय कम है। सवर्णवादी ब्राह्मणवादी मानसिकता रखने वाली ताक़तें आरक्षण को ब्राह्मणवादी सोच से समाप्त करने की माँग कर रही हैं और कह रही हैं कि इससे योग्यता से समझौता होता है! लेकिन तथ्य कुछ और बताते हैं। जिन राज्यों में आरक्षण सबसे बेहतर तरीके से लागू हुआ (जैसे कि तमिलनाडु) वहाँ की शैक्षणिक व स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर उन राज्यों से कहीं बेहतर है जहाँ आरक्षित सीटें भ्रष्टाचार के कारण भरी ही नहीं जातीं। साथ ही, योग्यता को लेकर जिनके पेट में दर्द हो रहा है, वे कभी मेडिकल, इंजीनियरिंग व प्रबन्धन कॉलेजों में प्रबन्धन कोटा, कैपीटेशन फीस व एनआरआई कोटा का विरोध क्यों नहीं करते? स्पष्ट है कि आरक्षण का यह विरोध पूर्णतः सवर्णवादी ब्राह्मणवादी मानसिकता से किया जाता है।
इतने दशकों के आरक्षण के बावजूद दलितों का केवल 11 प्रतिशत हिस्सा आज मध्य वर्ग या उच्च मध्यवर्ग तक उठ पाया है। 89 प्रतिशत दलित आज भी खेतिहर या औद्योगिक मज़दूर हैं। यह 11 प्रतिशत दलित मध्यवर्ग आरक्षण के शुरुआती दशक में ही पैदा हो गया था। इसमें कोई नया इजाफ़ा नहीं हो रहा है। स्वयं सोचियेः उच्च शिक्षा में आरक्षण का लाभ ग़रीब दलित को कैसे मिलेगा जब 86 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूली शिक्षा से ही ‘ड्रॉप आउट’ हो जाते हैं? जब समूची अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र ही समाप्त किया जा रहा है और निजीकरण का बोलबाला है तो आरक्षण का क्या लाभ ग़रीब दलित आबादी तक पहुँच पायेगा? जब सरकारी नौकरियाँ 2 प्रतिशत के रफ्तार से घट रही हों तो ग़रीब मेहनतकश दलित को आरक्षण से क्या मिल पायेगा? अगर अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो इस नीति से अब मेहनतकश ग़रीब दलित को कुछ नहीं मिल रहा। ऐसे में, यह सोचना कि आरक्षण के ज़रिये जाति का ख़ात्मा या दलितों की मुक्ति हो सकती है, एक विभ्रम है। ठोस तथ्य इस सच्चाई को साफ़ कर देते हैं। अब स्वयं दलित आबादी को आपस में आरक्षण के प्रश्न पर बाँटा जा रहा है। दलित और महादलित का बँटवारा हो रहा है, दलित और आदिवासियों को आपस में लड़ाया जा रहा है, जिस ‘बहुजन एकता’ का सपना बार-बार दिखाया गया था, उसके ओबीसी और दलित आपस में लड़ रहे हैं। स्पष्ट है कि आरक्षण की पूरी राजनीति आज मेहनतकश लोगों को बाँटने के लिए की जा रही है।
ऐसे में, हमारा कहना है कि हमें आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में नहीं फँसना चाहिए। यह शासक वर्ग का ‘ट्रैप’ है; वे यही चाहते हैं कि इस पूरे मसले की सच्चाई को समझने की बजाय हम पक्ष या विपक्ष की अवस्थिति अपना लें ओर आपस में ही लड़ पड़ें। हमारा कहना है कि आज जो आरक्षण है, उसकी सीटें न भरना भ्रष्टाचार है और हमें इसका विरोध करना चाहिए मगर साथ ही हमें दलित मेहनतकश अवाम को भी समझाना चाहिए कि आरक्षण के रास्ते अब कुछ विशेष हासिल नहीं होने वाला है। हमें आज वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन खड़ा करते हुए ‘सभी को समान व निशुल्क शिक्षा व सभी को रोज़गार’ को बुनियादी अधिकार बनाने के लिए लड़ना चाहिए।
शहीदे-आज़म भगतसिंह का सपनाः ख़त्म करो पूँजी का राज! लड़ो बनाओ लोकस्वराज्य!
साथियो, शहीदे-आज़म भगतसिंह ने फाँसी पर चढ़ने से पहले ही कहा था कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी आती है तो वह मुट्ठी भर धन्नासेठों की आज़ादी होगी और इससे देश के ग़रीब किसानों और मज़दूरों को कुछ विशेष प्राप्त नहीं होगा। लॉर्ड इरविंग और लॉर्ड कैनिंग की जगह ठाकुर दास और पुरुषोत्तम दास ले लेंगे लेकिन मज़दूरों का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा, जनता पहले के ही समान ग़रीबी और बेरोज़गारी का दंश झेलती रहेगी। सात दशकों की आज़ादी के अनुभव ने इन भविष्यवाणियों को शब्दशः सही साबित किया है। भगतसिंह और उनके साथियों का मानना था कि उनकी लड़ाई केवल अंग्रेज़ी गुलामी के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि हर प्रकार के शोषण और लूट के ख़िलाफ़ है। भगतसिंह ने कहा था, “हम गोरी बुराई की जगह भूरी बुराई लाने की ज़हमत नहीं उठाना चाहते।” भगतसिंह का मानना था कि इस देश के आम मेहनतकश ग़रीबों को सच्ची आज़ादी मिलने का केवल एक अर्थ हो सकता है-समस्त कल-कारखानों, सभी खेतों-खलिहानों और सभी खानों-खदानों पर आम मेहनतकश अवाम का साझा हक़। एक ऐसी व्यवस्था को ही हम लोकस्वराज्य व्यवस्था कहते हैं। सिर्फ़ स्वराज्य नहीं! बल्कि आम मेहनतकश जनता का स्वराज्य! इससे कम कुछ भी हम आम मेहनतकश लोगों की ज़िन्दगी में बेहतरी नहीं ला सकता है। सरकारें बदलती रहेंगी, लेकिन उनकी पूँजी-परस्त नीतियाँ वही रहेंगी। क्या पिछले कई दशकों के दौरान ये साबित नहीं हुआ है? इसलिए हम शहीदे-आज़म भगतसिंह का अनुसरण करते हुए आज एक ऐसी लोकस्वराज्य व्यवस्था के निर्माण को अपना लक्ष्य मानते हैं। शहीदे-आज़म भगतसिंह ने यह भी कहा था कि ऐसी व्यवस्था का निर्माण खुद-ब-खुद नहीं हो सकता है। यह कार्य मेहनतकश जनता को स्वयं करना होगा। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि आम मेहनतकश जनता यह कार्य तभी कर सकती है, जब वह अपनी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करे। यह क्रान्तिकारी पार्टी चुनावों की नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि क्रान्ति के ज़रिये सत्ता मेहनतकश जनता के हाथों में पहुँचायेगी! हम सभी जानते हैं कि चुनावों में इस या उस पार्टी की सरकार बनने से समूची राज्य व्यवस्था में कोई फर्क नहीं आता; पुलिस, फौज, नौकरशाही, न्यायपालिका, कानून-संविधान वही रहते हैं। वास्तव में, व्यवस्था का ये पूरा ढाँचा अगर बरकरार रहता है, तो अव्वलन तो कोई क्रान्तिकारी पार्टी चुनावों में जीत ही नहीं सकती, और अगर किसी तरह जीत भी गयी तो वह कोई परिवर्तन नहीं ला सकती। जैसे ही वह बैंक, वित्तीय संस्थानों, उद्योगों, खानों-खदानों आदि का राष्ट्रीयकरण करेगी वैसे ही देश के धन्नासेठ, ठेकेदार, बड़े व्यापारी सेना और पुलिस के अधिकारी जमातों के साथ मिलकर और साम्राज्यवाद की मदद से उसका तख्तापलट कर देंगे। भगतसिंह का इसीलिए मानना था कि जनता की व्यापक पहलकदमी और भागीदारी पर आधारित इंक़लाब के रास्ते ही समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता के इन सभी खाने के दाँतों को तोड़ा जा सकता है और एक सच्चा लोकस्वराज्य स्थापित किया जा सकता है। हमारा मानना है कि आठ दशकों बात भी शहीदे-आज़म की यह बात सही है और इस पर अमल के ज़रिये ही एक नयी व्यवस्था, एक नये समाज का निर्माण सम्भव है।
यह रास्ता मुश्किल और लम्बा है दोस्तो! लेकिन यही एकमात्र रास्ता है। हम पिछले वर्षों में अण्णा हज़ारे के ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के ढोंग और नौटंकी को भी देख चुके हैं। ये भी वास्तव में छोटे मालिकों, ठेकेदारों और व्यापारियों की ही पार्टी है। इन्होंने ‘आम आदमी’ का जुमला इसलिए उछाला था क्योंकि इन्हें वोट चाहिए थे। नैतिकता और सदाचार का ढोल बजाने वाली आम आदमी पार्टी के तमाम मन्त्री, विधायक आज सेक्स स्कैण्डल, ज़मीन कब्ज़ा, हत्या और फर्जीवाड़े जैसे मसलों में फँसे हुए हैं। कांग्रेस और भाजपा के बारे में जितना कम कहा जाये अच्छा है। संसदीय वामपंथियों (भाकपा, माकपा व भाकपा-माले) का काम हमेशा से पूँजीवादी व्यवस्था की आख़िरी सुरक्षा पंक्ति का रहा है। लाल मिर्च खाकर ‘विरोध-विरोध’ की रट लगाने वाले इन संसदीय तोतों की भूमिका ज़्यादा से ज़्यादा कांग्रेस या किसी ‘तीसरे मोर्चे’ की पूँछ में कंघी करने की होती है। जिन राज्यों में ये सत्ता में पहुँचे हैं वहाँ इन्होंने भी मज़दूरों और किसानों पर वैसे ही जुल्म ढाये हैं जैसे कांग्रेस और भाजपा की सरकारें ढाती हैं। इनका अवसरवाद और ग़द्दारी आज किसी से छिपी नहीं है। सुधारवाद और एनजीओपंथ ने इस देश को पिछले तमाम दशकों में क्या दिया? पहले सर्वोदयी याचकों और भूदानियों ने जनता के आक्रोश पर ठण्डे पानी के छिड़काव का काम किया था, आज वही काम एनजीओपंथी कर रहे हैं। लुब्बेलुबाब ये कि हम चुनावी जंजाल और सुधारवादी धोखे की असलियत को पिछले सात दशकों में पहचान चुके हैं। ऐसे में, हमारे पास एक ही रास्ता है-शहीदे-आज़म भगतसिंह का रास्ता! इंक़लाब का रास्ता! मेहनतकश अवाम की इंक़लाबी पार्टी खड़ी करने का रास्ता! इसके बिना न तो हम अपने रोज़मर्रा के हक़ों, मसलन, भोजन, रिहायश, रोज़गार आदि के लिए लड़ सकते हैं और न ही अपने अन्तिम लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं, यानी कि समूची सत्ता मेहनतकश के हाथों सौंपने का लक्ष्य।
‘लोकस्वराज्य अभियान’ का लक्ष्य
‘लोकस्वराज्य अभियान’ का मकसद इसी विचार को जन-जन तक पहुँचाना है। दोस्तो! अगर हम आज़ादी के समय ही शहीदे-आज़म भगतसिंह के बताये रास्ते को अपना पाते तो शायद आज देश की यह हालत न होती। हम एक बेहतर समाज में जी रहे होते। लेकिन एक सपने को हम आधी सदी से भी ज़्यादा समय तक टालते रहे हैं। अब इसे और ज़्यादा नहीं टाला जा सकता है। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के जीवन और भविष्य का प्रश्न है। अगर आपको भी यह लगता है कि जो कुछ है, वह सही नहीं है, इसे बदला जाना चाहिए, तो नीचे दिये पते पर सम्पर्क करें और लोकस्वराज्य अभियान से जुड़ें। हमें हमसफ़रों की ज़रूरत है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति का यह काम कुछ बहादुर युवा नहीं कर सकते। यह कार्य व्यापक मेहनतकश अवाम की गोलबन्दी और संगठन के बिना नहीं हो सकता है। यह आम जनता की भागीदारी के बिना नहीं हो सकता है। हम विशेषकर नौजवानों का आह्वान करेंगे कि वे इस अभियान से जुड़ें। इतिहास में ठहराव की बर्फ़ हमेशा युवा रक्त की गर्मी से पिघलती है। क्या आज के युवा अपनी इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुँह चुरायेंगे? हमें नहीं लगता! हमारे देश में ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जिनके दिलों में अन्याय और ग़ैर-बराबरी को देखकर आग लगती है। लेकिन कोई विकल्प न होने के कारण हम कुछ कर नहीं पाते। हमारे इस अभियान का मकसद एक ऐसा क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करना है जिससे ऐसे तमाम युवा, तमाम नागरिक और बुद्धिजीवी जुड़ सकें जो क्रान्तिकारी परिवर्तन के हिमायती हैं; जो रियायतें माँग-माँगकर और सुधारों की पैबन्दें लगा-लगाकर और चुनावी मदारियों के धोखे में जीना स्वीकार नहीं करते; जो शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके साथियों के रास्ते को मानते हैं; जो इज़्ज़त और आसूदगी की ज़िन्दगी चाहते हैं; जो न्याय और बराबरी चाहते हैं। इसलिए हम सभी इंसाफ़पसन्द इंसानों का आह्नान करते हैं: क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य अभियान से जुड़ें! भगतसिंह के सपनों को साकार करने की मुहिम में शामिल हों!
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,
बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा,
यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फ़ॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी (यूसीडीई)
भगतसिंह ने दी आवाज, बदलो-बदलो देश समाज
भगतसिंह का ख्वाब, इलेक्शन नहीं, इन्कलाब
यह पर्चा पढ़कर रख देने और भूल जाने के लिए नहीं है। पहली बात तो यह कि इस मुहिम को पूरे देश में फैलाने के लिए, पर्चे-साहित्य-पोस्टर आदि भारी तादाद में छापने के लिए और हमारे प्रचार-दस्तों के अभियानों के लिए आप अपनी सुविधाओं में से कटौती करके ज़्यादा से ज़्यादा आर्थिक सहयोग करें। हमारी अपील यह भी है कि आप हमारे सम्पर्क केन्द्रों को अपना नियमित आर्थिक सहयोग भेजें। साथ ही, यह पर्चा नई क्रान्ति के रास्ते पर हमसफ़र बनने का न्यौता भी है। यदि आप भी सोचते हैं कि आपकी कोई भूमिका हो सकती है तो आइये, हम विस्तार से पूरे कार्यक्रम और ठोस योजना पर विचार-विमर्श करें, मतभेदों को सुलझायें और ठोस व्यावहारिक तैयारी एवं आन्दोलन के कामों में जुट जायें।
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