महान क्रान्तिकारी खुदीराम बाेस के शहादत दिवस 11 अगस्‍त पर…

महान क्रान्तिकारी खुदीराम बाेस के शहादत दिवस पर…

साथियो, 18 साल की उम्र ऐसी है जब हम सही मायने में अपनी आँखें खोलते हैं और हमारे सपनों को पंख लगते हैं। उन पंखों के सहारे हम उड़ते हैं और अपने बाहों में दुनिया की सभी खुशियाँ समेटने की कोशिश करते हैं। जब इस काम में अपने संगी-साथी तलाशते हैं और जब प्यार की विराट भावना, मधुर सुगन्ध की तरह हमारे दिलों के कोने कोने में बस जाती है। इस उम्र की ख़ुशी ऐसी होती है जब शहर, सड़क, जंगल, पहाड़, समुद्र जैसी बड़ी चीज़ों को तो छोड़िये, छोटी-छोटी चीज़ें अपने नये रूप में हमारे सामने आती हैं। पहले से अलग जब हम किसी की ज़िम्मेदारी नहीं होते बल्कि जब हम ख़ुद ज़िम्मेदार होते हैं। जब हम गढ़े जाने की जगह ख़ुद गढ़ना शुरू करते हैं। सृजन ही हमें जीवन से, इंसानों से, पूरी प्रकृति से प्रेम करना सिखाता है। 18 साल की उम्र ऐसी है, जब हम सृजन करना शुरु करते हैं और जीवन से, इंसानों से, पूरी प्रकृति से सचेत होकर प्यार करना सीखते हैं। जब हम अपनी दुनिया बनाना शुरू करते हैं।
ज़रा सोचिए! इसी उम्र में अगर हमें अपने इस दुनिया से रुख़सत होने की तैयारी करनी पड़ी। इसी उम्र में अपनी ख़ुशियों को भूलना पड़े व अपने पंखों को काटना पड़े। रंगों और कोलाहल से भरी दुनिया छोड़कर शान्ति की अँधेरी चादर ओढ़नी पड़े। हमारे देश का ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से संघर्ष का इतिहास ऐसे क्रान्तिकारियों की कुर्बानियों से भरा पड़ा है। वो क्रान्तिकारी अंग्रेज़ी हुक्मरानों के ज़ुल्म से हारकर, अपने वक़्त की परेशानियों से डरकर मृत्यु का रास्ता नहीं अपनाये थे। बल्कि वो मौत से भी सृजन कर रहे थे। वो आने वाली पीढ़ियों के सुन्दर, उजले दिन का सृजन कर रहे थे और उस भावी समय में इंसानों की ख़ुशियों को महसूस कर ख़ुश हो रहे थे। उनकी आँखें बहुत दूर तक देखती थी उनके पंखों की उड़ान एक जीवन से आगे थी। उन्हें अपने सपने में इतना विश्वास था कि वो फाँसी के तख़्ते पर खड़े होकर फन्दे के सामने भी वो मौत को चुनौती दे रहे थे। वो मर गये लेकिन जनता की स्मृतियों व संकल्पों में ज़िन्दा रहे, ज़िन्दा हैं।
आज ऐसे ही एक महान क्रान्तिकारी खुदीराम बोस का शहादत दिवस है। मात्र साढ़े 18 साल में खुदीराम बोस की शहादत ने ऐसी ही अमरता का सृजन किया। खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के मोहबनी गाँव में हुआ था। खुदीराम बोस का बचपन उस दौर में शुरु हुआ था जब अंग्रेज़ों की बेरहमी और फूट-डालो, राज करो’ की साज़िश ज़ोरों पर थी। वक़्त ने खुदीराम बोस को कम उम्र में ही बड़ा बना दिया था। खुदीराम बोस 1902 में ही यानि 13-14 वर्ष की छोटी सी उम्र में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सक्रिय हो गये थे। सत्येन्द्रनाथ बसु की प्रेरणा से वो गुप्त क्रान्तिकारी संगठन के सदस्य बने। खुदीराम बोस की बड़ी बहन अनूरूपा देवी ने लिखा है कि ‘..1904 में खुदीराम एक बार बिना बताये कहीं चला गया। काफी दिनों बाद एक चिट्ठी मिली जिसमें खुदीराम ने लिखा था कि -मेरी प्यारी बहन, अब यह मेरे लिए सम्भव नहीं कि मैं एक साधारण गृहस्थ की ज़िन्दगी जिऊँ, और न ही मेरी आगे पढ़ाई जारी रखने की इच्छा है। तो क्यों मैं आप पर बोझ बनकर रहूँ? सो मैंने सन्यास लेने का फ़ैसला कर लिया है। अनूरूपा देवी ने लिखा है कि -तो मेरा प्यारा छोटा भाई सन्यासी बनने निकल पड़ा! लेकिन नहीं वह ईश्वर की खोज में नहीं निकला था वह तो अपने देश के लोगों को अच्छी तरह जानने समझने के लिए निकला था। ….बाद में पता चला कि वो बांकुरा के एक गरीब, अशक्त, भूखों मर रहे बूढ़े परिवार के खेत में काम कर रहा था क्योंकि उनके पास खेत में कोई काम करने वाला नहीं था। अनूरूपा देवी ने लिखा है कि-खुदीराम को मैंने तीन मुट्ठी खुद्दी (चावल के छोटे टुकड़े) देकर खरीदा था (कई बच्चों को मरने पर बच्चों को ज़िन्दा रखने के लिए गाँव देहात में किया जाने वाला स्वांग, जिसके तहत बच्चों को बहन या कोई रिश्तेदार खरीदता है)। मैं चाहती थी कि वो मेरा होकर रहे, लेकिन वह देश के लोगों के हाथों खरीदा जा चुका था। मैंने उसे तीन मुट्ठी चावल के टुकड़ों से खरीदा था। लेकिन देश के निर्भीक लड़कों ने उसे मुट्ठी भर ख़ून से खरीद लिया था।‘
मिदनापुर में हैजा फैला तो खुदीराम डट गये। चेचक का प्रकोप फैला, खुदीराम सबसे आगे। बाढ़ का प्रकोप हुआ तो चन्दा इकट्ठा कर कपड़े खरीदेने, खाना खिलाने में लग गये। छोटे बच्चों व बूढ़ों को कन्धे पर लादकर सुरक्षित जगह लाते रहे। स्वदेशी आन्दोलन शुरू हुआ तो खुदीराम फिर सबसे आगे। चाहे अंग्रेज व्यापारियों द्वारा बनाये गये नमक या चीनी की बिक्री बन्द करवाना हो या विदेशी कपड़ा बेचने वाली दुकानों के आगे पिकेटिंग करनी हो। खुदीराम सभी कामों में प्रवीण थे। जब अन्य कार्यकर्ता थककर घर लौट जाते या अपने अभिभावकों के दबाव में आकर टोली छोड़ जाते तब भी हमेशा एक अथक योद्धा मैदान में बचा रहता, सारे कामों को अकेला करता हुआ, वह अक्सर खुदीराम ही होते थे। 1906 में ‘वन्देमातरम्’ पर्चा बाँटने की वजह से जेल गये बाद में कम उम्र होने व कुछ खुलासा न होने के कारण छूट गये। 1907 में गुप्त संगठन के आर्थिक संकट के समाधान के लिए हाटगछिया में दुर्गा पूजा के दौरान डाक खजाना को लूटा। आखिरी काम था ‘किंग्सफोर्ड’ की बग्घी पर बम फेंकना। बंगाल विभाजन के ख़िलाफ़ आन्दोलन चलाने वाले नवयुवकों को कलकत्ता के इस कुख्यात मजिस्ट्रेट ने कठोर दण्ड दिये थे। इस कुख्यात मजिस्ट्रेट को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के रूप में भेजा गया। इस बदनाम अंग्रेज अधिकारी को सबक सिखाने के लिए ‘युगान्तर समिति’ ने निश्चय किया। इस काम के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी नियुक्त किये। दुर्भाग्य से उस बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं था। पुलिस के घिरने के बाद प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली थी जबकि खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिये गये। अन्ततः अंग्रेज़ी जल्लादों ने 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में इस नौजवान क्रान्तिकारी को 18 वर्ष 8 महीना 8 दिन की छोटी सी उम्र में फाँसी पर लटका दिया।
खुदीराम बोस के फाँसी के बाद बंगाल के जुलाहे एक ख़ास किस्म की धोती बुनने लगे जिनके किनारे पर खुदीराम लिखा होता था। बंगाल की धरती के इस महान सन्तान के प्रभाव को एक बाउल गायक के अमर गीत से समझा जा सकता है। जिसे सुन ऐसा लगता है मानो खुदीराम ने फाँसी चढ़ते हुए खुद ही गाया हो-एक बार विदाई दे माँ घूरे आसी, हँसबि हँसबि चढ़बो फाँसी देखबे भारतवासी! यह गीत 1910 में एक धोती में छपा हुआ पाया गया।
खुदीराम बोस की पीढ़ी कांग्रेस के समझौतों से, धीरे धीरे इंतज़ार करने से इतर कुर्बानी व त्याग के रास्ते जल्दी से जल्दी अंग्रेज़ी हुकूमत को देश से भगाना चाहती थी। बंगाल की पहली पीढ़ी के क्रान्तिकारी अंग्रेजों के खि़लाफ़ संघर्ष में धार्मिक व भावनात्मक नारों का सहारा लेते थे। लेकिन वो धार्मिक कट्टरपन्थी और साम्प्रदायिक नहीं थे। वन्देमातरम्, भारतमाता की जय, गीता के नाम पर शपथ लेने के बावजूद उनका नज़रिया संकीर्ण नहीं था। खुदीराम बोस से जेल में उनकी बहन का मिलना सम्भव नहीं हुआ या उन्हें अनुमति नहीं मिली। लेकिन वह मुस्लिम महिला जिसने कभी खुदीराम को आश्रय दिया था, वो उनसे मिलने मुजफ्फरपुर चली आई थी। इसके बारे में तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्रामियों की संस्था ‘विप्लवी निकेतन’ द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘मृत्युहीन प्राण’ में लिखा है-अपने बहनोई के घर से निष्कासित खुदीराम को एक वकील सैयद अब्दुल वहीद की बहन के यहाँ शरण मिली। उन दिनों खुदीराम की प्रत्येक गतिविधि पर खुफिया पुलिस की कड़ी नज़र थी। ऐसे वक़्त में एक मुस्लिम महिला द्वारा शरण दिया जाना आश्चर्य की बात थी। जब खुदीराम को फाँसी की सज़ा मिली तो वह मुस्लिम महिला खुदीराम से मिलने कलकत्ते से दौड़ी चली आई।
खुदीराम बोस जैसे क्रान्तिकारियों के आगे आने वाले भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारियों ने भावना के साथ अपने नारे भी सोच समझकर गढ़े। गौरतलब है कि भगतसिंह के समय तक वन्देमातरम्, भारतमाता की जय, गीता के श्लोक की जगह इंकलाब ज़िन्दाबाद, कौमी एकता ज़िन्दाबाद, पूँजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे क्रान्तिकारियों के मुँह से सुनाई पड़ते हैं। धार्मिक कट्टरता, हिन्दू-मुस्लिम झगड़े के ख़िलाफ़ बहुत सचेत तौर पर जनता को शिक्षित व संगठित करने पर जोर देते हैं। कांग्रेस व गाँधी के वर्ग चरित्र की सही शिनाख्त करते हैं। शहीद होने से पहले साफ़ साफ़ कहते कि उनका मकसद केवल गोर साहबों को भगाना नहीं है, इरविन की जगह पुरुषोत्तम दास का शोषण स्थापित करना नहीं है बल्कि गोरी-भूरी दोनों बुराई मिटाना है। उन्होंने साफ़ कहा कि क्रान्ति से उनका मतलब धर्मनिरपेक्ष व समतामूलक समाज का निर्माण है जिसमे सत्ता मेहनतकश के हाथ होगी।
साथियो! आज देश में फासीवाद का प्रेत अपनी कब्र से बाहर आ गया है। संघ परिवार व भाजपा के नेतृत्व में हिटलर और मुसोलिनी के समय की विनाशलीला दुहराये जाने की तैयारी हो चुकी है। आज भाजपा व उसका मातृ संगठन संघ परिवार तथा उसके आनुषंगिक संगठन ‘वन्देमातरम्’, ‘भारत माता की जय’ का खूब नारा लगाते हैं। वह अतीत के इन क्रान्तिकारियों की विरासत हड़पना चाहते हैं। लेकिन इन क्रान्तिकारियों के कर्मों को नहीं अपनाते। हिन्दू-मुस्लिम को आपस में भिड़ाने, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर दंगे भड़काने, सोशल मीडिया पर उन्माद फैलाने, गाली-गलौच, विरोधियों की माँ-बहन को घटिया कमेण्ट करने का काम ये लगातार करते हैं। इनके हर भाषण में ‘राष्ट्र सर्वोपरि है’, राष्ट्रवाद जैसे शब्द की पुनरावृत्ति होती रहती है। लेकिन इनका ‘राष्ट्र’ मज़दूरों-किसानों-आम जनता, अन्य धार्मिक समुदायों, आदिवासियों व दलितों का नहीं है बल्कि अम्बानी-अडानी, टाटा-विड़ला जैसे धनपशुओं का है। इनके ‘राष्ट्र’ में मेहनतकश का खून मुट्ठीभर पूंजीवादी जोंकें पीती रहती हैं। आज श्रम कानूनों में ऐसे बदलाव किये गए हैं कि करोड़ों मज़दूरों की जिंदगी नर्क बन गई है। मज़दूरों के बाद कर्मचारियों के हकों पर डकैती डाली जा रही है। एक तरफ रेलवे जैसे अति महत्वपूर्ण विभाग पूँजीपतियों को बेचे जा रहे हैं। दूसरी ओर ‘राष्ट्र के विकास का नारा उछाला जा रहा है। एक तरफ छात्र-युवा बेरोज़गारी के भयंकर संकट से त्रस्त होकर अवसाद, आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं दूसरी तरफ ‘जय श्री राम’ जबरिया बुलवाया जा रहा है। जानवर के नाम पर आदमी मारा जा रहा है। कारपोरेट घरानों के अरबों-खरबों चन्दे से, धार्मिक उन्माद व जातीय समीकरण बिठाकर, ईवीएम में छेड़छाड़कर चुनाव जीतने वाली भाजपा पारदर्शिता की बात रोज़ करती है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे ज़रूरी मदों में भी भयंकर कटौती की जा रही है दूसरी ओर जनता के ‘अच्छे दिन’ का नारा बुलन्द किया जा रहा है। जनता रोजी-रोटी के लिए जूझ रही है और नेताओं की विलासिता, चुनावी विज्ञापन और मनोरंजन व विदेश यात्रा में अरबों उड़ाया जा रहा है। एक तरफ लोकतन्त्र और संविधान का हवाला दिया जा रहा है दूसरी तरफ यूएपीए जैसे अंग्रेजों के समय से भी खतरनाक काले कानून जनता के लिए लड़ने वालों को मुँह बन्द करने के लिए लाये जा रहे हैं। राष्ट्रीयताओं का दमन किया जा रहा है. अनुच्छेद-370 का हटाया जाना इसका सबसे तत्कालिक ज्वलंत उदहारण है। टीवी, चैनल, अखबार इनके कब्जे में है। वो लगातार इनके कुकृत्यों को छुपाते रहते हैं और इन्हें ‘देशभक्त’ के रूप में पेश करते रहते हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रप्रेम का दिखावा करने वाली मीडिया, क्रान्तिकारियों के विचारों व पुस्तकों को लोगों की पहुँच से दूर कर दो टके के हीरो-हिरोइन व उनकी फिल्मों, फूहड़ व घटिया गायकों, अन्धविश्वास, उन्माद, नशा आदि युवाओं में परोस रही है। इसलिए क्रांतिकारियों की विरासत से अपरिचित नयी पीढ़ी इनके ‘राष्ट्र’, ‘भारत माता की जय’ के जुमलों में इनको ‘‘देशभक्त’’ मान बैठती है। तमाम बलात्कारियों, दंगाइयों, अपराधियों, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसी आतंकी गतिविधियों के आरोपियों को साथ में लेकर चलने वाली पार्टी भी ‘देशभक्ति’ का ड्रामा करने में सफल हो रही है। देश के युवाओं को आज देश को इस दुश्चक्र से निकालना होगा। उन्हें देश के क्रान्तिकारियों के विचारों को जानना होगा। देश कोई कागज पर बना नक्शा नहीं होता। देश बनता है लोगों से। देश को सही मायने में चलाते हैं देश के खेतों-कारखानों में खटने वाले मेहनतकश। क्रान्तिकारियों के लिए देशहित का मतलब इनके हित से था। लेकिन आज यही आबादी रोटी रोटी को मोहताज है। इन्हीं मेहनतकश के शोषण से अडानी अम्बानी को फायदा पहुँचाने के लिए संघ तथा भाजपा लगातार धार्मिक झगड़ों में लोगों का ध्यान उलझा रही है। इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस सपा बसपा तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियाँ देश का भला करेंगी। ये सब रावण के दस चेहरे हैं। साँपनाथ और नागनाथ हैं। भगतसिंह के शब्दों में कहें तो आज जनता को लूटने वाले भूरे साहब हैं। अगर हम क्रान्तिकारियों का अध्ययन करें तो हम खुद सही-ग़लत को समझ जायेंगे।
सच पूछिये तो हम खुदीराम जैसे महान क्रान्तिकारियों को इसलिए याद कर रहे हैं ताकि क्रान्ति के सपने पर पड़ी धूल राख को साफ किया जा सके। क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ी की जा सके। क्योंकि फिर से कुर्बानी का मौसम आ गया है। खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों के ज़ज्बे और सपने को अपनाने का नया दौर आ गया है और हमें पीछे नहीं रहना है।

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