मनुस्‍मृति दहन की 89वीं वर्षगांठ पर – जाति उन्‍मूलन आन्‍दोलन को प्रतीकवाद, सुधारवाद और अर्जियां देने से आगे ले जाने का संकल्‍प लो!

मनुस्‍मृति दहन (25 दिसम्‍बर, 1927) की 89वीं वर्षगांठ पर
जाति उन्‍मूलन आन्‍दोलन को प्रतीकवाद, सुधारवाद और अर्जियां देने से आगे ले जाने का संकल्‍प लो!

साथियो,

आज से 89 वर्ष पहले महाड़ में मेहनतकश दलितों ने एक बग़ावत शुरू की थी। इसकी शुरुआत 19-20 मार्च 1927 को बहिष्‍कृत सम्‍मेलन से हुई थी। लेकिन वास्‍तव में इस सम्‍मेलन का विचार आर. बी. मोरे ने मई 1924 में पेश किया, जिन्‍हें बाद में कॉमरेड आर. बी. मोरे के नाम से जाना गया। इस सम्‍मेलन में डा. अम्‍बेडकर को उनकी अकादमिक उप‍लब्धियों के लिए सम्‍मानित करने की योजना बनायी गयी थी। तीन वर्षों की तैयारी के बाद 19-20 मार्च 1927 को महाड़ में यह सम्‍मेलन हुआ और सम्मेलन की समाप्ति के ठीक पहले अनन्‍त विनायक भाई चित्रे के प्रस्‍ताव पर यह निर्णय लिया गया कि सभी एकत्र लोग साथ जाकर बोले प्रस्‍ताव को लागू करें और चावदार तालाब से पानी पियें। बोले प्रस्‍ताव को महाड़ के नगरनिगम ने पास कर दिया था, जिसके अनुसार सभी सार्वजनिक जल भंडार दलितों के लिए खुले होंगे। 20 मार्च 1927 को दलितों ने चावदार तालाब से पानी लेकर पिया। जुलूस की अगुवाई डा. भीमराव अम्‍बेडकर ने की। इसके बाद वापस लौटते दलितों पर जातिवादी ब्राह्मणवादी गुण्‍डा ताक़तों ने हमले किये। मेहनतकश और जुझारू दलित हज़ारों की तादाद में महाड़ में मौजूद थे और इन हमलों का जवाब देना चाहते थे। मगर डा. अम्‍बेडकर ने उन्‍हें ऐसा करने से रोक दिया और कानून के दायरे में रहकर काम करने का निर्देश दिया। इसके बाद 25 दिसम्‍बर 1927 को डा. अम्‍बेडकर के नेतृत्‍व में चावदार तालाब से फिर से पानी लेने के लिए सत्‍याग्रह आयोजित करने का प्रण लिया गया।

इस सत्‍याग्रह के लिए लम्‍बी तैयारियां की गयीं। इसी सत्‍याग्रह के लिए आयोजित सम्‍मेलन के पहले दिन (25 दिसम्‍बर 1927) को मनुस्‍मृति के चुने हुए हिस्‍सों को बापू सहस्रबुद्धे ने हवनकुण्‍ड की अग्नि के हवाले किया। डा. अम्‍बेडकर मनुस्‍मृति के उन हिस्‍सों को बापू सहस्रबुद्धे को सौंप रहे थे। यह जाति उन्‍मूलन के लिए ब्राह्मणवादी विचारधारा पर चोट करने की दिशा में एक महत्‍वपूर्ण प्रतीकात्‍मक कदम था। इस दिन का इस रूप में ऐतिहासिक महत्‍व है। बाद में, महाड़ सत्‍याग्रह न हो सका क्‍योंकि ब्राह्मणवादी ताक़़तों ने ब्रिटिश कोर्ट से स्‍थगन आदेश ले लिया था और कलेक्‍टर ने स्‍वयं सम्‍मेलन में आकर एक भाषण दिया, जो वास्‍तव में कानून न तोड़ने की धमकी थी। इसके बावजूद सम्‍मेलन के बहुमत ने निर्णय लिया कि कानून तोड़कर भी सत्‍याग्रह किया जाय। लेकिन सम्‍मेलन के तीसरे दिन सुबह डा. अम्‍बेडकर के प्रस्‍ताव पर यह निर्णय लिया गया कि ब्रिटिश सरकार व कानून के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए। सम्‍मेलन का समापन एक प्रतीकात्‍मक जुलूस के साथ हुआ। इसके बाद करीब दस वर्ष तक डा. अम्‍बेडकर ब्रिटिश अदालत के फैसले के खिलाफ केस लड़ते रहे। अन्‍त में बॉम्‍बे हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि दलितों को चावदार तालाब से पानी पीने का हक़ है क्‍योंकि वह सार्वजनिक तालाब है और केस में डा. अम्‍बेडकर की विजय हुई। मगर तब तक वह महान विद्रोह समाप्‍त हो चुका था, जिसे ग़रीब मेहनतकश दलितों ने महाड़ में 1927 में शुरू किया था।

इसके बावजूद, मनुस्‍मृति दहन का एक प्रतीकात्‍मक महत्‍व था और यह दूसरे महाड़ सम्‍मेलन की उपलब्धि था। इस प्रतीकात्‍मक घटना ने दलित आबादी के बीच एक आत्‍मविश्‍वास पैदा करने और दिमागी गुलामी की बेडि़यों को तोड़ने में एक भूमिका निभायी। उस दौर में, एक प्रतीकात्‍मक कदम का भी एक महत्‍व था, जो कि किसी भी दमित शोषित आबादी के आन्‍दोलन के शुरुआत में होता है।

लेकिन साथियो! आज हम महज़ प्रतीकात्‍मक कदमों के दौर से बहुत आगे आ चुके हैं। दलित आबादी का 89 प्रतिशत कामगार है। ये कामगार समझते हैं कि जहां सम्‍मान की लड़ाई को लड़ना जरूरी है, वहीं यह भी सच है कि अपने आर्थिक और राजनीतिक हक़ों को हासिल किये बिना सामाजिक सम्‍मान की लड़ाई भी अधूरी रहेगी। वे अपने भौतिक अधिकारों के लिए भी सड़कों पर उतरते रहे हैं। 1907 में महान अय्यंकली के विद्रोह से लेकर वाईकोम सत्‍याग्रह, तेलंगाना, तेभागा, पुनप्रा वायलार में खेतिहर दलित मज़दूरों के संघर्ष और फिर देश के अलग-अलग हिस्‍सों में 1960 और 1970 के दशक में सवर्ण जमीन्‍दारों के खिलाफ दलितों के जुझारू संघर्षों तक, जाति-उन्‍मूलन की लड़ाई ने एक लम्‍बा सफर तय किया है। इस लड़ाई में डा. भीमराव अम्‍बेडकर ने भी दलितों के बीच सम्‍मान और गरिमा का बोध स्‍थापित करने में महत्‍वपूर्ण योगदान किया और ब्रिटिश सरकार से कई कानूनी अधिकार व रियायतें हासिल कीं।

आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं वहां केवल प्रतीकात्‍मक कदमों से काम नहीं चल सकता। आज दलितों के सम्‍मान के लिए भी सिर्फ अरजि़यां देने, मुकदमे लड़ने और सरकारों को ज्ञापन देने से ज्‍यादा कुछ नहीं होने वाला है और सड़कों पर उतरकर लड़ने की जरूरत है। क्‍या अदालतों में ग़रीब दलित आबादी के लिए न्‍याय है? क्‍या बथानी टोला, लक्ष्‍मणपुर बाथे के हत्‍यारों को सज़ा मिली? क्‍या दलित विरोधी उत्‍पीड़न में कानूनों, मुकदमों और अर्जियों से कोई कमी आयी है? क्‍या अस्मितावादी राजनीति करने वाले तथाकथित दलित चुनावी और गैर-चुनावी दल वोट बैंक और प्रतीकात्‍मक मुद्दों से आगे जाते हैं? नहीं।

ऐसे में, मनुस्‍मृति दहन की वर्षगांठ के मौके पर हमें क्‍या संकल्‍प लेना चाहिए? हमें आज एक ऐसे जाति उन्‍मूलन आन्‍दोलन की आवश्‍यकता है, जो कि सड़कों पर लड़ने की ताक़त रखता हो; जो मेहनतकशों की वर्ग एकजुटता खड़ी कर सवर्णवादी पूंजीवादी ताक़तों से लड़ने की कूव्‍वत रखता हो; जो मेहनतकश आबादी में व्‍याप्‍त जातिगत पूर्वाग्रहों के विरुद्ध एक लम्‍बा प्रचार और शिक्षण चला सकता हो। आज जो सत्‍ता में बैठा है वह है पूंजीवाद, ब्राह्मणवादी, जातिवादी अस्मितावाद का गठजोड़; आज जो लुट रहा है वह है मज़दूर-मेहनतकश, जिसका एक अच्‍छा-खासा हिस्‍सा है ग़रीब दलित आबादी, पिछड़ी जातियों की आबादी, स्त्रियां और आदिवासी। सत्‍ता में बैठे पूंजीवादी, ब्राह्मणवादी, जातिवादी अस्मितावादी अपने वर्ग हितों पर एकजुट हैं, लेकिन जो लुट रहे हैं, बरबाद हो रहे हैं, जिनके खिलाफ उत्‍पीड़न हो रहा है, वे बंटे हुए हैं। ऐसे में, हमें एक ऐसा जाति-विरोधी आन्‍दोलन खड़ा करना होगा जोकि वर्ग एकजुटता पर आधारित हो और जो कानून, अदालत, संवैधानिक व्‍यवस्‍था को लेकर किसी भ्रम का शिकार न हो; जो अर्जियां देने और प्रतीकात्‍मक मुद्दों से आगे जाता हो। क्‍या पिछले कई दशकों से दलित मुक्ति और जाति-उन्‍मूलन के आन्‍दोलन के अस्मितावाद, प्रतीकवाद, सुधारवाद और कानूनवाद के गोल चक्‍कर में अटके रहने से पहले ही हम काफी नुकसान नहीं उठा चुके हैं? हमें इस गोल चक्‍कर से तत्‍काल निकलने की आवश्‍यकता है। आइये, आज के दिन एक जुझारू वर्ग आधारित जाति-उन्‍मूलन आन्‍दोलन खड़ा करने की शपथ लें।

ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद! जातिवाद मुर्दाबाद! अस्मितावाद मुर्दाबाद! पूंजीवाद मुर्दाबाद! सुधारवाद मुर्दाबाद!

समूची मेहनतकश आबादी की वर्ग एकता जिन्‍दाबाद!

नौजवान भारत सभा

अखिल भारतीय जाति-विरोधी मंच

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  1. “ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद! जातिवाद मुर्दाबाद! अस्मितावाद मुर्दाबाद! पूंजीवाद मुर्दाबाद! सुधारवाद मुर्दाबाद!”
    मै समझता हूँ, जाति द्वारा प्रताडना को पूंजीवाद के द्वारा मजदुर वर्ग के शोषण के समकक्ष खड़ा करने से आन्दोलन कमजोड ही होगा! वर्गीय एकता, वर्गीय विरोध, वर्गीय आन्दोलन सारे शोषण के खिलाफ है, चाहे जातीय या औरतों का उत्पीडन, शोषण हो, या फिर राष्ट्रिय उत्पीडन या बाल मजदुर का मसला हो! पर उसे उसके घटकों में बांधना गैर क्रांतिकारी कदम होगा!
    साम्यवादी विचारक बटे हुए हैं कि समाजवादी क्रांति हो या फिर प्रजातान्त्रिक जनवाद के लिए लड़ें; मजदुर वर्ग के नेत्रित्व में आगे बढ़ें या फिर किसान के; कौन सा वर्ग किसके साथ हो; आदि! फिर यह, जो की हर ‘क्रांतिकारी’ संगठन में फ़ैल रहा है!
    आज दलित, आदिवासी, मुस्लिम आदि बंट चुके हैं मजदुर और पूंजीपति वर्ग में! सही है की बहुमत पूंजीपति ऊपर की ही जाति से हैं! पर आब उसे ‘बराबर’ करने का समय नहीं है, यह ऐतिहसिक रूप से पिछड़ा कदम होगा! समय है तयारी समाजवादी क्रांति का!
    वैसे इस विषय पर और विचार और संवाद की जरुरत!

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