चुप रहना छोड़ दो! गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ दो!! पितृसत्ता मुर्दाबाद!
अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के 107 वर्ष पूरे होने के अवसर पर
आज यह घोषणा करने का दिन कि हम भी हैं इंसान
घृणित दासता किसी रूप में हमें नहीं स्वीकार!
बहनो! साथियो!
हम बेहद बिगड़ चुके हालात में 107वें स्त्री दिवस पर पहुँचे हैं। यह दिन हमें हमेशा स्त्रियों की समानता, उनकी मुक्ति और उनके अधिकारों के लिए शानदार संघर्ष की याद दिलाता है। इस 10 मार्च को हमारे देश की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले की पुण्यतिथि को 120 वर्ष हो जायेंगे। सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला थी जिन्होंने जाति प्रथा के साथ ही स्त्रियों की गुलामी के खि़लाफ़ आवाज़ उठायी थी। आज के दौर में भी स्त्रियों के सामाजिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। स्त्री-विरोधी अपराधों का ग्राफ़ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। देश के किसी न किसी कोने से बलात्कार, एसिड हमले, दहेज के लिए हत्या और छेड़छाड़ के रूप में आये दिन भारतीय समाज की घृणित मर्दवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति ख़बरों में आती रहती है। अभी हाल ही में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के छात्रावास में रहने वाली छात्राओं के माँसाहार पर रोक लगाना, रात 8 बजे तक हॉस्टल में वापस आना और रात नौ बजे के बाद मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होने जैसे ऊल-जलूल नियम बनाये गये है। जबकि ऐसी कोई भी रोक छात्रों के लिए नहीं है। जब इन छात्राओं ने इसका विरोध किया तो इन्हें डराया-धमकाया जा रहा है। मुम्बई विश्वविद्यालय में छात्राओं के लिए रात में पुस्तकालय जाने की भी मनाही है। हालांकि उसके विरोध में छात्राओं के उग्र आन्दोलन के बाद वाइस चांसलर ने नियम हटाने की बात की है। ऐसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा गुरमेहर कौर को सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने के बाद देशद्रोही साबित करने की कोशिश की गई, उसे बलात्कार की धमकी दी गई। इन घटनाओं से हमारे देश के ‘‘महान लोकतन्त्र’’ में स्त्रियों की आज़ादी की असलियत सामने आ जाती है। 16 दिसम्बर, 2012 में निर्भया के साथ हुई घटना के बाद स्त्रियों के लिए सुरक्षा अध्यादेश 3 फरवरी 2013 को पास करवाया गया, लेकिन उसके बाद भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान समाज के ऊपर के तबकों के मानस में गहराई तक पैठे सांस्कृतिक पतन और प्रबुद्ध लबादे में ढँका हुआ पुरुष स्वामित्ववाद भी बेनकाब हुआ है। कई नेताओं, अफसरों और साधु-संतों द्वारा यौन अपराधों में संलिप्तता के बाद जाने-माने पत्रकार, न्यायाधीश, नोबेल पुरस्कार विजेता पर्यावरणविद् और यहाँ तक कि मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष भी ऐसे ही आरोपों को लेकर कठघरे में हैं।
सत्तासीन लोगों की मानसिकता समय-समय पर बेहूदा बयानबाजियों के द्वारा सामने आती ही रहती हैं। मुलायम सिंह यादव द्वारा ‘लड़कों से गलती होने’ से लेकर अबू आजमी, विजयवर्गीय, बाबूलाल गौड़, बनवारी लाल सिंघल, ओमप्रकाश चौटाला, पुडुचेरी के शिक्षा मंत्री थियागराजन, ममता बनर्जी आदि की टिप्पणियाँ इसका उदाहरण हैं। अभी चल रहे पाँच राज्यों चुनावों में भी स्त्री सुरक्षा का मुद्दा हर राजनीतिक पार्टी के घोषणापत्र में शामिल रहा और इसे लेकर खूब सारे वायदे किये गये, लेकिन ये वही तमाम लोग हैं जो समय-समय पर अपनी रुग्ण मानसिकता का परिचय देते रहते हैं। जितनी भी शर्मनाक टिप्पणियाँ आयी हैं उनमें सबसे ज़्यादा वर्तमान भाजपा सरकार के मंत्रियों द्वारा की गयी टिप्पणियाँ हैं। महिला दिवस पर दिये एक इण्टरव्यू में खुद महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने कहा कि शाम 6 बजे के बाद लड़कियों को बाहर नहीं निकलने देने का नियम सही है क्योंकि रात के समय हार्मोन उबाल मारते हैं। एक एनजीओ को साक्षात्कार देते हुए पुलिस के बड़े अधिकारियों एवं न्यायाधीशों ने स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वे पश्चिमी संस्कृति की नकल करती हैं इसलिए अपनी हालात की वे ही जिम्मेदार हैं। यह साफ दिखाता है कि पुलिस और नौकरशाही की सोच कितनी ‘‘उन्नत’’ है! वैसे भी जब बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने गयी लड़की के साथ पुलिसवाले दुबारा बलात्कार करते हैं और गिरफ्तार की गयी महिला राजनीतिक कार्यकर्ताओं को यौन यातना देने वाले पुलिसवाले सरकार द्वारा वीरता पुरस्कार पाते हैं वहाँ हम क्या उम्मीद कर सकते हैं! धार्मिक गुरुओं और बाबाओं पर तो यौन उत्पीड़न के कई मामले दर्ज हैं, यह सारा देश जानता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमाते-इस्लामी हिन्द जैसे संगठन और खाप पंचायतें भी स्त्रियों के ख़िलाफ़ फतवे जारी करते रहते हैं। सहशिक्षा खत्म करने, औरतों को लक्ष्मण रेखा न लाँघने, गृहणियाँ बनकर जीवन व्यतीत करने आदि की नसीहत देते रहते हैं। खाप पंचायतों के प्रमुखों ने तो लड़कियों के जींस पहनने, मोबाइल रखने, लड़कों से दोस्ती करने आदि को स्त्री विरोधी अपराधों का कारण बताया है और इसलिए बाल विवाह को वैध करार दिया है। एक निहायत ही हास्यास्पद बयान में खाप पंचायत के जितेन्दर छत्तर ने कहा कि ‘चाऊमीन’ और फास्ट-फूड खाने से इस तरह की घटनाएँ घट रही हैं! कहने का मतलब यह कि शासक वर्ग के हर हिस्से के लोग औरतों को ही नसीहतें देते रहते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए! जबकि संसद में 112 ऐसे लोग हैं जिनपर हत्या और स्त्री विरोधी अपराधों तक के मामले दर्ज हैं। सेना द्वारा अफस्पा और इसी तरह के अन्य कानूनों की आड़ में किये गये कुकर्मों की गवाही मणिपुर के मनोरमा बलात्कार काण्ड और कश्मीर में कुनान-पोशपुरा दे रहे हैं।
संक्षेप में कहा जाय तो हम 107वें स्त्री दिवस पर बेहद चुनौतीपूर्ण और अन्धकारमय स्थिति में पहुँचे हैं। पूरे देश भर में साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतें सक्रिय हैं और ये स्त्रियों से उनकी आज़ादी, उनके आखिरी हक़ को भी छीन लेना चाहती हैं। ‘लव ज़िहाद’ और ‘धर्मान्तरण’ के नाम पर एक विशेष समुदाय के साथ-साथ स्त्रियों को भी टारगेट किया जाता रहा है, क्योंकि इसकी आड़ में अन्तरधार्मिक और प्रेम विवाह करने से रोकने का रास्ता सुगम होगा। सार्वजनिक स्थलों पर प्रेमी जोड़ों के बैठने, वैलेण्टाइन डे मनाने और आधुनिक कपड़े पहनने आदि को मुद्दा बनाकर ये हिन्दुत्ववादी गुण्डावाहिनियाँ आये दिन औरतों की आज़ादी पर सवाल खड़ा करती रहती हैं। ज़ाहिरा तौर पर ये कामकाज़ी और मेहनती औरतों की आज़ादी पर हमला बोल रहे हैं। ये लोग अपनी नसीहत मीनाक्षी लेखी, सुषमा स्वराज, निरंजन ज्योति, उमा भारती और स्मृति ईरानी को क्यों नहीं देते? उन्हें भी अपने घरों में बैठकर ‘‘गौरवशाली संस्कृति’’ को बढ़ावा देना चाहिए! दरअसल फासिस्टों की नज़र में स्त्रियाँ स्वयं निर्णय लेनेवाली सक्षम नागरिक नहीं होतीं बल्कि वे पुरुषों की हिफ़ाजत में रहनेवाली ‘‘घर की इज्ज़त’’ होती हैं और उनका आज़ादी से फैसले लेना और आत्मनिर्भर होना पुरुष प्रतिष्ठा के ख़िलाफ़ है, शास्त्रों के ख़िलाफ़ है! इन धर्मध्वजाधारियों के लिए स्त्री कुलदीपक पैदा करने और वंश चलाने की मशीन है। इसी सोच के आधार पर इनकी राजनीतिक पार्टी भाजपा की सरकार द्वारा ‘‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’’ की मुहिम चलायी जा रही है। दरअसल जबतक औरतों को सामाजिक रूप से स्वतंत्रता और बराबरी का अधिकार हासिल नहीं होता तबतक सिर्फ लाख प्रचारों से भी भ्रूण हत्याएँ रुकने वाली नहीं हैं। आज भी जिस समाज में लड़कियों के जन्म से ही मातम का माहौल छा जाता हो वहाँ सिर्फ क़ानून-व्यवस्था और इस तरह के प्रचारों से कुछ खास बुनियादी फर्क नहीं पड़नेवाला।
पिछले 107 वर्षों के स्त्रियों के शानदार संघर्षों से हासिल हक़ों को ये फासीवादी, प्रतिक्रियावादी ताकतें छीन लेना चाहती हैं। ये आज स्त्री मुक्ति के प्रश्न के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी हैं। 8 मार्च 1908 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के वस्त्र उद्योगों में काम करनेवाली स्त्री मज़दूरों ने वोट देने के अधिकार और यूनियन बनाने के अधिकार की माँग करते हुए पूरे मैनहटन शहर को जाम कर दिया था। यह प्रदर्शन पूरे विश्व भर में चर्चा का केन्द्र बन गया था। इसके बाद 1910 में जब कोपेनहेगन में मज़दूर पार्टियों के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में 8 मार्च को स्त्री दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पास हुआ, तब से स्त्रियों का संघर्ष कई उपलब्धियों को हासिल करता हुआ यहाँ तक पहुँचा था, जिसमें वोट देने का अधिकार, उत्तराधिकार, समान वेतन का हक़ आदि कम-से-कम क़ानूनी तौर पर मिला है। जब पूरा शासन-प्रशासन का ढाँचा मुनाफे की गंदी हवस पर टिका हो और जहाँ पूँजीवादी लूट, लोभ और लालच की संस्कृति में औरत भी एक उपभोक्ता माल हो वहाँ इस तरह के क़ानून किस हद तक लागू हो सकेंगे? केवल औपचारिक कानूनी हक़ों और संसद में आरक्षण बिल पास हो जाने से औरतों की सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा और अभी तो ऐसे क़ानून भी कम ही हैं जिनमें औरतों की वास्तविक आज़ादी की बात की गयी है। ज़ाहिर है, स्त्री मुक्ति आन्दोलन के समक्ष कई गम्भीर चुनौतियाँ मौजूद हैं।
ऐसे में, 107वें स्त्री दिवस के अवसर पर जहाँ हम सावत्रीबाई फुले, रोज़ा लक्जे़मबर्ग, क्लारा जेटकिन, अलेक्जैण्ड्रा कोलोन्ताई, मादाम भीखाजी कामा, प्रीतिलता वादेदार, मैरी क्यूरी जैसी यशस्वी स्त्रियों के संघर्ष को, दुनिया भर की मेहनतकश और कामकाज़ी स्त्रियों के गौरवशाली आन्दोलन को याद करते हैं और उन्हें पुनर्जीवित करने का आह्वान करते हैं। हम यह भी आह्वान करते हैं कि ऐसी सभी औरतें जिनमें आज़ादी और बराबरी की चाहत है, वे अपने-अपने दायरों से बाहर निकलें और इस दिन को एक संकल्प दिवस के तौर पर मनायें। स्त्री मुक्ति आन्दोलन आज महज़ कुछ एन.जी.ओ., कुलीन स्त्रीवादी संगठनों, स्त्री-विमर्श के सेमिनारों और पहचान की राजनीति करने वाले संगठनों के कुलीनवादी कार्रवाइयों का केन्द्र बनकर रह गया है। याद रखना ज़रूरी है कि अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की शुरुआत मेहनतकश स्त्रियों ने की थी। आज तक स्त्रियों को जो भी हक़ दुनिया में हासिल हुए हैं वे किसी किस्म के कुलीनतावादी स्त्री आन्दोलन के द्वारा नहीं बल्कि मेहनतकश स्त्रियों के आन्दोलनों से ही हासिल हुए हैं। यह संयोग नहीं है कि दुनिया की पहली मज़दूर सत्ता सोवियत सत्ता ने सबसे पहले औरतों को वोट डालने का अधिकार दिया। आज प्रतिक्रियावाद और फासीवाद से लड़ने के लिए जुझारूपन की ज़रूरत है न कि ऐसे मध्यवर्गीय कुलीनतावादी आन्दोलनों की। स्त्रियों को तमाम मध्ययुगीन और आधुनिक बर्बरताओं के खिलाफ़ प्रचण्ड वेगवाही सामाजिक-सांस्कृतिक तूफान खड़ा करना होगा। उन्हें स्त्री की गुलामी और पुरुष वर्चस्ववाद के सबसे मजबूत खम्बों धार्मिक कट्टरता और जातिवाद के ख़िलाफ़ डटकर खड़ा होना होगा।
हमारी लड़ाई समस्त पुरुषों से नहीं बल्कि पुरुषवादी मानसिकता से है जिसके ख़िलाफ़ बराबरी की चाहत रखने वाले हर पुरुष और स्त्री को मिलकर लड़ना होगा। इसके साथ ही आज एक बार फिर स्त्रियों की मुक्ति के आन्दोलन को मध्यवर्गीय दायरों से निकलकर मेहनतकशों के बीच और सड़कों तक जाना होगा। उन्हें पेशा और पोशाक चुनने की आज़ादी के लिए लड़ना होगा, उन्हें समान काम के लिए समान वेतन के लिए लड़ना होगा, उन्हें चूल्हे-चौखट की दुनिया में क़ैद किये जाने के खिलाफ़ लड़ना होगा, उन्हें अपने आपको भोग की वस्तु बनाये जाने के ख़िलाफ़ लड़ना होगा, उन्हें पढ़ने के हक़ के लिए लड़ना होगा, उन्हें लड़ने के हक़ के लिए लड़ना होगा, उन्हें न सिर्फ अपनी बल्कि समूची मेहनतकश अवाम की मुक्ति के लिए लड़ना होगा। यही अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस का सच्चा सन्देश है। हम इस मौके पर सभी स्त्रियों, छात्रों-नौजवानों और मेहनतकश साथियों का आह्वान करते हैं कि इस लड़ाई के लिए आगे आयें! हम आप सभी का आह्वान करते हैं कि इस मुहिम से जुड़ें और स्त्री मुक्ति एवं समूची मानव मुक्ति की परियोजना को आगे बढ़ायें!
मार्ग मुक्ति का गढ़ना होगा! जीना है तो लड़ना होगा!!
स्त्री मुक्ति के संघर्ष को समस्त मेहनतकश जनता के मुक्ति संघर्ष से जोड़ो!!
पूँजीवादी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द करो!
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
- नौजवान भारत सभा
- स्त्री मुक्ति लीग
- दिशा छात्र संगठन
- यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी (यूसीडीई)