देश की मेहनतकश जनता जंग नहीं चाहती हमें चाहिए बेहतर शिक्षा, स्वस्थ्य सुविधाएँ, रोज़गार के अवसर और जीवन की अनुकूल स्थितियाँ!
हमें युद्धोन्माद में बहककर शासक वर्गों को उनके नापाक मंसूबों में कामयाब नहीं होने देना है!
22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले के बाद एक-दूसरे को ललकारने के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच में 6-7 मई की रात से जंगी झड़पें शुरू हो गयी हैं। बक़ौल भारतीय सेना उसने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के कुछ आतंकी ठिकानों पर ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के तहत हमले किये। इसके बाद पाकिस्तानी सेना ने इन्हें नागरिक इलाके बताकर भारत के सीमावर्ती राज्यों के कुछ शहरों में हमले किये। इन हमलों में कई लोगों की जान चली गयी और सैकड़ों लोगों की ज़िन्दगी दर-बदर हुई है। इसके बाद भारत की ओर से भी जवाबी कार्रवाई की बात की जा रही है और लाहौर के एयर डिफ़ेन्स सिस्टम को नाकाम करने के समाचार हैं। इस समय चारों और युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद की बयार बह रही है। अफ़वाहों का बाज़ार पूरा गरम है और पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि असल में चल क्या रहा है। गोदी मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इधर-उधर की वीडियो शेयर करके युद्धोन्माद को ओर भी भड़काने में लगा हुआ है। तथाकथित प्रगतिशील और लिबरल जमात भी अन्धराष्ट्रवाद की गटर-गंगा में गोते लगा रही है। कुल मिलाकर अभी स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है। हालात यदि पूर्ण युद्ध की तरफ़ बढ़ते हैं तो जान-माल का भयंकर नुक़सान होगा। दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हैं ऐसे में किसी भी बड़े युद्ध के परिणाम विनाशकरी साबित हो सकते हैं। हम देश की सरकार से माँग करते हैं कि युद्ध की ओर बढ़ती स्थिति को हर हालत में रोका जाना चाहिए।
देश के युवाओं को किसी भी प्रकार के युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद से सावधान रहना चाहिए। इस बात को हमें धैर्य से समझना चाहिए कि युद्ध किनको फ़ायदा पहुँचाता है और किन्हें नुक़सान और जनता को सच्चाई से वाक़िफ़ कराना चाहिए। सीमा पर तनाव या मुठभेड़ की ख़बरें आती हैं तो मीडिया और कूपमण्डूक मध्यवर्ग युद्धोन्माद को भड़काने के काम में जुट जाते हैं। ऐसे में बहुत से लोगों की रगें फड़फड़ाने लगती हैं और चारों ओर से बदला लो!, सबक सिखाओ!, घर में घुसकर मारो! आदि जैसे उन्मादी नारों का शोर सुनायी देने लगता है। मध्य वर्ग को ही इस तरह के फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद का बुखार ज़्यादा चढ़ता है! देशी-विदेशी कॉरपोरेट घराने गलाकाटू प्रतिस्पर्धा के बावजूद आपस में गलबहियाँ करके मुनाफ़ा निचोड़ने के उपक्रम में लगे रहते हैं। श्रमिक वर्ग युद्धोन्माद का अपनी पहल पर कभी शिकार नहीं बनता तथा सच सामने आते ही वह बड़ा जल्दी इससे उबर भी जाता है। लेकिन फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के ताप में दनदनाता इतिहास बोध से रिक्त तबका बिना भूत-भविष्य का ख़याल किये अपनी ही धुन में विनाशलीला की तैयारी रचवाने की कोशिश में लगा रहता है। और यही लोग तब चुप रहते हैं जब बेहतर भोजन व ज़रूरी साजो-सामान की बुनियादी ज़रूरतों तक से भी सैनिकों को महरूम रखा जाता है!
हम माँग करते हैं कि पहलगाम, पुलवामा समेत तमाम ऐसे हमलों की उच्चस्तरीय निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। हालिया दशकों में पाकिस्तान का शासक वर्ग बलूचों, पश्तूनों और पाक-अधिकृत कश्मीर में कश्मीरियों पर हो रहे राष्ट्रीय दमन के ख़िलाफ़ जन-प्रतिरोध का सामना कर रहा है। वहाँ की चरमराती हुई आर्थिक स्थिति ने जनता में बड़े स्तर पर रोष पैदा किया है। वहाँ जब भी जनता का असन्तोष बढ़ता है तब वहाँ के शासक जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिए कश्मीर के मुद्दे को उठाते रहे हैं। भारत की अर्थव्यवस्था के हालात भी इस समय बेहतर नहीं हैं। यहाँ भी समय-समय पर जाति और धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाने के प्रयास जारी रहते हैं। देश की जनता इस समय शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार से महरूम है और बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी उसकी कमर तोड़ रही हैं। सीमा पर होने वाली झड़पों और युद्ध के हालात में होता यह है कि जनता अपने असल मुद्दों-मसलों को भूल जाती है और युद्धोन्माद में बह जाती है। सीमाओं पर बढ़ता तनाव सरकारों को जनता का ध्यान असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के तौर पर राहत प्रदान कर देता है। किन्तु इससे जनता पर लदे मुश्किलों के पहाड़ में और भी इज़ाफ़ा होना तय होता है।
सोचने वाली बात यह है कि इन सैनिक झड़पों, जंगों और युद्धोन्माद का खामियाजा कौन भुगतता है? ज़ाहिर सी बात है जनता! उसी के नौजवान बेटे-बेटियाँ सीमा पर मरते हैं। युद्धोन्माद पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले नेताओं और अपने दिल का गुबार निकालने वाले नफरती चिण्टूओं को इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं होता है कि इस दौरान उन सैनिकों के घरों में कैसा ग़मज़दा माहौल होता है जिन्हें बदला लेने के “नायक” बनाकर ये जंग की भट्ठी में झोंकवा देना चाहते हैं! और जनता के असल मुद्दों को भी युद्धोन्माद के ज़हरीले माहौल में गायब कर दिया जाता है। सम्राज्यवादी युद्धों और युद्धोन्माद से फ़ायदा किसको होता है? ज़ाहिर सी बात है पूँजीपतियों और उनकी चाकर सरकारों को। क्योंकि एक तो युद्धों के दौरान पूँजीपतियों को हथियारों के कारोबार का अवसर मिलता है। पूँजीवादी हथियार उद्योग आम निर्दोषों के ख़ून की कीमत पर ही फलता-फूलता है। दूसरा, युद्धों के दौरान हुए विनाश के कारण पूँजीनिवेश की नयी सम्भावनाएँ पैदा होती हैं और तीसरा इस दौरान जनता को उसके हक़ों से वंचित करने वाली डाँवाडोल व्यवस्था भरभराकर गिरने की बजाय फ़िर से ताल ठोकने लायक हो जाती है। युद्ध और क्षेत्रीय झड़पें तब तक लोगों के जीवन को लीलते रहेंगे जब तक इनकी पोषक पूँजीवादी व्यवस्थाएँ बरकरार रहेंगी। इसलिए हमारी ताकत एक समतामूलक-शोषणविहीन समाज के निर्माण के लिए लगनी चाहिए। युद्धोन्माद में बहना हमारे लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा। मेहनतकश जनता को अपने-अपने देशों की सरकारों पर देश को जंग में झोंकने के ख़िलाफ़ दबाव बनाना चाहिए तथा अपने असल हक़-अधिकारों को एक पल के लिए भी भूलना नहीं चाहिए।
नौजवान भारत सभा द्वारा जारी