स्वाधीनता के आन्दोलन में पंजाब का पहला उभार
भगतसिंह ने जेल में पंजाब की राजनीतिक जागृति का इतिहास लिखा था, जिसका निम्नलिखित अंश 1931 में लाहौर के साप्ताहिक ‘बन्देमातरम्’ में धारावाहिक छपा था। यह उर्दू अनुवाद का हिन्दी रूपान्तर है। – स.
पंजाब के भूतपूर्व गवर्नर सर माइकेल ओडायर ने अपनी पुस्तक ‘India : As I Saw’ में एक अप्रिय किन्तु साथ ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सच्चाई को प्रकट किया है। उन्होंने कहा है कि पंजाब राजनीतिक हलचलों में सबसे पीछे है। पंजाब के राजनीतिक आन्दोलनों का जिन्हें थोड़ा-सा भी ज्ञान है, वह इस सच्चाई को भली प्रकार समझ सकते हैं।
आज तक का इतिहास देखिये। भारत को स्वाधीन करने के लिए सर्वाधिक बलिदान इस प्रान्त ने किया है। इसके लिए बड़े भारी-भारी संकट इस प्रान्त की जनता को सहन करने पड़े हैं। राजनीतिक, धार्मिक आदि आन्दोलनों में पंजाब भारत के अन्य प्रान्तों से आगे रहा है, और देश के लिए जानो-माल की क़ुर्बानी सबसे ज़्यादा इसी सूबे के लोगों ने दी है, किन्तु इस पर भी हमें सिर झुकाकर यह स्वीकार करना पड़ता है कि राजनीतिक क्षेत्र में पंजाब सबसे पीछे है।
इसका कारण केवल यह है कि राजनीतिक आन्दोलन यहाँ की जनता के व्यक्तिगत जीवन का एक आवश्यक अंग नहीं बन सका। साहित्यिक क्षेत्र में भी इस प्रान्त ने यथायोग्य स्थान प्राप्त नहीं किया। शिक्षित वर्ग के लिए उस समय तक – ओडायर के इस पुस्तक के लिखने तक – स्वदेश की स्वाधीनता का प्रश्न सबसे अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण नहीं बना था, इसलिए बहुधा कहा जाता है कि यह सूबा बहुत पीछे है। हिन्दुस्तान में और भी बहुत-से ऐसे सूबे हैं जो पंजाब से बहुत पीछे हैं, किन्तु खेद है कि यह अभागा सूबा इस प्रकार के आरोप सहकर भी पीछे ही है।
पंजाब की विशेष अपनी कोई भाषा नहीं। भाषा न होने के कारण साहित्य- सृजन के क्षेत्र में भी कोई प्रगति नहीं हो सकी। अतः शिक्षित समुदाय को पश्चिमी साहित्य पर ही निर्भर रहना पड़ा। इसका खेदजनक परिणाम यह हुआ कि पंजाब का शिक्षित वर्ग अपने प्रान्त की राजनीतिक हलचलों से अलग-थलग-सा रहता रहा। इसी कारण पंजाब के साहित्य और कला-क्षेत्र में राजनीति को स्थान नहीं मिल सका। यही कारण है कि पंजाब में ऐसे कार्यकर्ता इने-गिने ही हैं, जो अपना सम्पूर्ण जीवन राजनीति को दे सके हैं। इसी आधार पर इस प्रान्त पर ऐसे आरोप लगाये जाते हैं। अपने प्रान्त की इस कमी की ओर प्रान्तीय नेताओं और पुरुष समाज का ध्यान आकर्षित करना ही इन लेखों का उद्देश्य है।
गुरु राम सिंह जी के नेतृत्व में हुए कूका विद्रोह से लेकर आज तक पंजाब में जो भी आन्दोलन हुए और जिस प्रकार जनता में चेतना आयी, उससे वह स्वतन्त्रता की वेदी पर अपना सर्वसुख न्योछावर करने के लिए तैयार हो गयी। इनमें जिन व्यक्तियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। उनका जीवन-चरित्र तथा इतिहास प्रत्येक स्त्री-पुरुष के साहस को बढ़ाने वाला है जिससे वह अपने अध्ययन और अनुभवों के प्रकाश में भावी आन्दोलनों को भी भली प्रकार चला सकेंगे। इस इतिहास को लेखबद्ध करने में मेरा यह उद्देश्य कदापि नहीं है कि भविष्य में भी ठीक इसी प्रकार के आन्दोलन सफल हो सकेंगे। मेरा उद्देश्य तो केवल यह है कि जनता उन शहीदों की क़ुर्बानियों और उनके आजीवन देश-सेवा में लगे रहने से प्रेरणा प्राप्त करे और उनका अनुकरण करे। समय आने पर किस तरह कार्य करना होगा, इसका फ़ैसला देश की तत्कालीन परिस्थिति को देखते हुए कार्यकर्ता स्वयं कर सकते हैं।
पंजाब में राजनीतिक हलचलें कैसे प्रारम्भ हुईं?
सन् 1907 से पूर्व पंजाब में बिल्कुल ही ख़ामोशी थी। विद्रोह (कूका विद्रोह) के बाद कोई ऐसा राजनीतिक आन्दोलन नहीं उठा जो शासकों की नींद खोल सकता। 1908 में पंजाब में पहली बार कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। किन्तु उस समय कांग्रेस के कार्य का आधार शासकों के प्रति वफ़ादारी प्रकट करना था। इसलिए राजनीतिक क्षेत्र में उसका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा। सन् 1905-06 में बंगाल-विभाजन के विरुद्ध जो शक्तिशाली आन्दोलन उठ खड़ा हुआ था और स्वदेशी के प्रचार तथा विदेशी के बहिष्कार की जो हलचल प्रारम्भ हुई थी, इसका पंजाब के औद्योगिक जीवन तथा साधारण जनता पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा था। उन दिनों यहाँ भी (पंजाब) स्वदेशी वस्तुएँ, विशेषतः खाण्ड तैयार करने का सवाल पैदा हुआ और देखते-देखते एक-दो मिलें भी खुल गयीं। यद्यपि सूबे के राजनीतिक जीवन पर इसका कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु सरकार ने इस उद्योग को नष्ट करने के लिए गन्ने की खेती का लगान तीन गुना कर दिया। पहले एक बीघे का लगान केवल 2.50 रुपये था, जबकि अब साढ़े सात रुपये देने पड़ते थे। इससे किसानों पर एक भारी बोझ आ पड़ा और वह एकदम हतबुद्धि-से रह गये।
नया कलोनी एक्ट
दूसरी ओर सरकार ने लायलपुर इत्यादि में कई नहरें खुदवाकर और जालन्धर, अमृतसर, होशियारपुर के निवासियों को बहुत-सी सुविधाओं का लालच देकर इस क्षेत्र में बुला लिया था। ये लोग अपनी पुरानी ज़मीन-जायदाद छोड़कर आये और कई वर्ष तक अपना ख़ून-पसीना एक करके इन्होंने इस जंगल को गुलज़ार कर दिया। लेकिन अभी ये चैन भी न ले पाये थे कि नया कलोनी एक्ट इनके सर पर आ गया। यह एक्ट क्या था, किसानों के अस्तित्व को ही मिटा देने का एक तरीक़ा था। इस एक्ट के अनुसार हर व्यक्ति की जायदाद का वारिस केवल उसका बड़ा लड़का ही हो सकता था। छोटे पुत्रों का उसमें कोई हिस्सा नहीं रखा गया था। बड़े लड़के के मरने पर वह ज़मीन या अन्य जायदाद छोटे लड़कों को नहीं मिल सकती थी, जिससे उस पर सरकार का अधिकार हो जाता था।
कोई आदमी अपनी ज़मीन पर खड़े वृक्षों को नहीं काट सकता था। उनसे वह एक दातुन तक नहीं तोड़ सकता था। जो ज़मीनें उनको मिली थीं उन पर वह केवल खेती कर सकते थे। किसी प्रकार का मकान या झोंपड़ा, यहाँ तक कि पशुओं को चारा डालने के लिए खुरली तक नहीं बना सकते थे। क़ानून का थोड़ा-सा भी उल्लंघन करने पर 24 घण्टे का नोटिस देकर तथाकथित अपराधी की ज़मीन ज़ब्त की जा सकती थी। कहा जाता है कि ऐसा क़ानून बनाकर सरकार चाहती थी कि थोड़े-से विदेशियों को तमाम ज़मीन का मालिक बना दिया जाये और ज़मीन के हिन्दोस्तानी काश्तकार उनके सहारे पर रहें। इसके अतिरिक्त सरकार यह भी चाहती थी कि अन्य प्रान्तों की भाँति पंजाब में थोड़े-से बड़े-बड़े ज़मींदार हों और बाक़ी निहायत ग़रीब काश्तकार हों। इस प्रकार जनता दो वर्गों में विभक्त हो जाये। मालदार कभी भी और किसी भी हालत में सरकार-विरोधियों का साथ देने का साहस नहीं कर सकेंगे और निर्धन कृषकों को, जो दिन-रात मेहनत करके भी पेट नहीं भर सकेंगे, इसका अवसर ही नहीं मिलेगा। इस प्रकार सरकार खुले हाथों जो चाहेगी, करेगी।
अशान्ति के बीज
उन दिनों उत्तर प्रदेश और बिहार वग़ैरह सूबों में किसानों की हालत ऐसी ही है (थी) लेकिन पंजाब के लोग जल्द ही सँभल गये। सरकार की इस नीति के विरुद्ध उन्होंने ज़बरदस्त आन्दोलन प्रारम्भ किया। रावलपिण्डी की तरफ़ भी इन दिनों ही नया बन्दोबस्त ख़त्म हुआ था और लगान बढ़ाया गया था। इस प्रकार सन् 1907 के शुरू में ही अशान्ति के समस्त कारण उपस्थित थे। इस वर्ष के शुरू में ही पंजाब के गवर्नर सर डांकिज़ल ऐबिटसन ने कहा भी था कि इस समय यद्यपि प्रकट रूप से तो शान्ति है, किन्तु जनता के हृदय में असन्तोष बढ़ता जा रहा है।
इन दिनों देशभर में एक ख़ामोशी छायी हुई थी। ‘ठहरो और देखो’ की मनःस्थिति में जनता थी। यह ख़ामोशी तूफ़ान आने से पहले की शान्ति थी। बेचैनी पैदा होने के सभी कारण उपस्थित थे, विशेषतः पंजाब में तो ऐसी परिस्थितियाँ थीं कि अशान्ति उत्पन्न हो जाना सर्वथा उचित और आवश्यक ही था।
सन् 1906 की कांग्रेस
1906 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। दादा भाई नौरोजी उसके सभापति थे। इस अधिवेशन में उन्होंने सर्वप्रथम अपने भाषण में ‘स्वराज्य’ शब्द का उच्चारण किया। British Parliament के अपने निजी अनुभवों के आधार पर स्व. दादा भाई ने कहा था कि यदि हम कुछ प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें अपने अन्दर ताक़त पैदा करनी होगी। अपने पाँवों के बल पर ही हमें खड़ा होना होगा, पत्थरों की तरह स्थिर दृष्टि से देखतेभर रहने से ही काम नहीं चलेगा।
लाला लाजपत राय
ठीक यही बात एक वर्ष पूर्व बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी ने कही थी। पूज्य लाला जी कांग्रेस के प्रधान स्वर्गीय गोखले के साथ एक डेपूटेशन में इंग्लैण्ड भेजे गये थे। वहाँ से लौटकर उन्होंने एक बहुत ही गरम भाषण दिया था।
लोकमान्य तिलक
1906 के कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक का बोलबाला था, नवयुवक समुदाय उनकी खरी और स्पष्ट बातों के कारण उनका भक्त बन गया था। उनकी निर्भीकता, कुछ कर गुज़रने की भावना और बडे़ से बड़े कष्ट सहने के लिए हर क्षण तैयार रहने के कारण नवयुवक उनकी ओर खिचे चले आ रहे थे। कांग्रेस अधिवेशन के अतिरिक्त कांग्रेस के पण्डाल से बाहर भी लोकमान्य के अनेक भाषण इस अवसर पर हुए थे।
सरदार किशन सिंह और सरदार अजीत सिंह
जो युवक लोकमान्य के प्रति विशेष रूप से आकर्षित हुए थे, उनमें कुछ पंजाबी नौजवान भी थे। ऐसे ही दो पंजाबी जवान किशन सिंह और मेरे आदरणीय चाचा स. अजीत सिंह जी थे।
‘भारतमाता’ अख़बार तथा मेहता नन्दकिशोर
स. किशन सिंह तथा स. अजीत सिंह ने वापस लाहौर आकर ‘भारतमाता’ नामक एक मासिक पत्र का प्रकाशन करना आरम्भ किया और आदरणीय मेहता नन्दकिशोर को साथ लेकर अपने विचारों का प्रचार करना शुरू कर दिया। इनके पास न धन था और न धनी वर्ग से सम्पर्क ही था। किसी सम्प्रदाय के नेता या महन्त भी नहीं थे। अतः प्रचार-कार्य के लिए अपेक्षित सभी साधन स्वयं ही जुटाने पड़े। एक दिन घण्टी बजाकर बाज़ार में कुछ लोगों को जमा कर लिया और इस विषय पर भाषण देने लगे कि विदेशियों ने भारतीय उद्योग एवं व्यवसाय को किस प्रकार नष्ट किया है। वहीं यह भी एलान कर दिया कि आगामी रविवार को एक महत्त्वपूर्ण सभा ‘भारतमाता’ के कार्यालय के पास, जो लाहौरी और शालामारी दरवाज़े के मध्य स्थित है, होगी। पहली सभा पापड़ मण्डी में, दूसरी लाहौरी मण्डी में हुई। तीसरी सभा में भाषणों से पूर्व एक पंजाबी नवयुवक ने बड़ी ही मर्मस्पर्शी तथा देशभक्तिपूर्ण भावनाओं से सराबोर एक नज़्म पढ़ी, जिसकी श्रोताओं ने बहुत प्रशंसा की। अब यह नौजवान भी इसी दल में सम्मिलित हो गये। यह नौजवान पंजाब के प्रसिद्ध राष्ट्रकवि लाला लालचन्द ‘फलक’ थे, जो आज तक अपनी उत्साहपूर्ण कविताओं से देश को जगाते रहे हैं। इसी सप्ताह लाला पिण्डीदास जी तथा डॉ. ईश्वरी प्रसाद जी इत्यादि कुछ और सज्जन भी इस दल में सम्मिलित हो गये। इन सबके दल में आने से ‘अंजुमन मुहिब्बताने वतन’ के नाम से एक संस्था बनायी गयी, जो बाद में ‘भारतमाता सोसाइटी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
आगामी रविवार को फिर एक सार्वजनिक सभा होने वाली थी। उसी दिन लाहौर में श्रीमती ऐनी बीसेण्ट के भाषण का भी आयोजन था। कुछ मित्रों ने परामर्श दिया कि इस अवसर पर भारतमाता सोसाइटी भंग कर दी जावे, किन्तु यह परामर्श स्वीकार नहीं किया गया और न अपनी सभा को ही स्थगित करना उचित समझा। आख़िर सभा हुई तो उपस्थिति पर्याप्त थी। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गयी कि प्रत्येक रविवार को सभा हुआ करेगी और इस संस्था के प्रधान स. अजीत सिंह तथा सेक्रेट्री मेहता नन्दकिशोर चुने गये हैं।
जाटों की सभा
एक-दो मास तक इसी प्रकार प्रचार होता रहा। एक दिन लाहौर और अमृतसर क्षेत्र के जाट कृषकों ने लगान बढ़ाये जाने के विरुद्ध एक सभा करने का निश्चय किया। अजमेरी दरवाज़े के बाहर रतनचन्द की सराय में यह सभा आयोजित की गयी थी, किन्तु जब जाट लोग जमा हो गये तो डी.सी. ने रतनचन्द के लड़के को बुलाकर जायदाद ज़ब्त कर लेने की धमकी दी। इस पर रतनचन्द के लड़के ने वहाँ एकत्र हुए किसानों को अपनी सराय से बाहर निकाल दिया। इस स्थिति में किसानों ने नगर के नेता माने जाने वाले सज्जनों से सम्पर्क स्थापित किया, किन्तु वहाँ से भी उन्हें साफ़ जवाब मिला। हर ओर से मायूस होकर वे बेचारे म्युनिसिपल गार्डन में जा बैठे। इसी बीच ‘भारतमाता सोसाइटी’ के सदस्यों को इसकी सूचना मिली और वे इन लोगों को अपने स्थान पर ले आये। सोसाइटी के पास एक कमरे के अतिरिक्त एक विशाल मैदान भी था। इस मैदान में दरियाँ बिछाकर शामियाना लगवा दिया गया और एक ओर उन किसानों के भोजन के लिए लंगर का प्रबन्ध कर दिया गया। इससे किसानों का उत्साह बहुत बढ़ गया और फिर पूरे एक सप्ताह प्रतिदिन वहीं सभाएँ हुईं, जिनमें निर्भीक भाषण दिये गये। इस सभा में आम किसानों का उत्साह देखकर ‘भारतमाता सोसाइटी’ के सदस्यों का हौसला और भी बढ़ गया।
इसके बाद देहातों के दौरे का कार्यक्रम बनाया गया, जिससे किसानों को लगानबन्दी के लिए तैयार किया जा सके। यह सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा थी और जनता में जोश इतना था कि इस संघर्ष में वह अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देने के लिए तत्पर रहती थी।
सूफ़ी अम्बाप्रसाद
ठीक इन्हीं दिनों भारतमाता सोसाइटी में एक उच्च कोटि के देशभक्त, राजनीतिक और लेखक प्रविष्ट हुए। आपका नाम श्री सूफ़ी अम्बाप्रसाद था। सूफ़ी जी का जन्म सन् 1858 में मुरादाबाद में हुआ था। उर्दू के प्रभावशाली लेखक, हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक तथा स्वतन्त्रता के एक निर्भीक पुजारी थे। आपने एक साप्ताहिक निकाला था और इसके वर्षभर बाद ही राज-विद्रोह के अपराध में सवा दो वर्ष के कारावास का दण्ड मिला। यह सज़ा काटकर आये तो सालभर के भीतर-भीतर आपके ख़िलाफ़ दूसरा मुक़दमा खड़ा कर दिया गया और इस बार आपको 6 वर्ष के कारावास का दण्ड मिला। उन दिनों राज-विद्रोह में दण्ड पाये हुए क़ैदियों को बहुत ख़तरनाक माना जाता था और उनके साथ जेल में व्यवहार भी बहुत बुरा होता था। सन् 1906 में आप जेल से रिहा हुए और पंजाब में यह नयी राजनीतिक जागृति देखकर पंजाब चले आये। यहीं आकर आप ‘हिन्दुस्तान’ साप्ताहिक के सहकारी सम्पादक बनाये गये। आपके गर्मागर्म लेखों और सम्पादकियों में आपका नाम दिये जाने से अख़बार के मालिकों को बड़ी घबराहट रहती थी। इस पर आपको उक्त अख़बार से त्यागपत्र देना पड़ा। सबसे पहले आप जाटों की सभा में आये थे और फिर यहीं रह गये। बाद में तो सरदार अजीत सिंह से आपकी ऐसी घनिष्ठता हो गयी थी कि एक-दूसरे से अलग होना सर्वथा असम्भव हो गया।
इन्हीं दिनों लायलपुर में एक बहुत बड़ा मेला होने वाला था। यह मेला ‘मण्डी मवेशियाँ’ के नाम से प्रसिद्ध था। इस मेले में लोग हज़ारों मवेशियों को ख़रीदने-बेचने के लिए सम्मिलित हुआ करते थे। इस वर्ष दैनिक ‘ज़िमींदार’ के मालिक मियाँ सिराजुद्दीन तथा एक-दो अन्य सज्जनों ने इस अवसर पर एक सभा करने का निश्चय किया। इसमें नये कलोनी एक्ट के विरुद्ध प्रस्ताव पास करने थे। इस सभा में भाषण देने के लिए लाला जी को विशेष रूप से बुलाया गया था। भारतमाता सोसाइटी के सदस्यों ने भी इस अवसर पर सभा करने का निश्चय किया। भारतमाता सोसाइटी के सदस्य गरमदली थे, अतः वैधानिक रूप से आन्दोलन चलाने का विचार रखने वाले सज्जन इससे थोड़े घबरा गये। भारतमाता सोसाइटी की ओर से दो कार्यकर्ता वहाँ इस उद्देश्य से भेजे गये कि वे वहाँ पहुँचकर अपने अनुकूल परिस्थिति बना लें, जिससे एक-दो दिन बाद सरदार अजीत सिंह जी अपने अन्य साथियों के साथ पहुँचकर सफलता के साथ प्रचार कर सकें।
ज़िमींदार-सभा की ओर से जो पण्डाल लगा था उसमें ही दो-एक दिन भाषण देकर ‘भारतमाता सोसाइटी’ के कार्यकर्ताओं ने जन-साधारण की सहानुभूति प्राप्त कर ली। उधर जिस दिन स्वर्गीय लाला जी लाहौर से रवाना हुए, उसी दिन स. अजीत सिंह जी ने भी वहाँ के लिए प्रस्थान किया। लाला जी ने स. अजीत सिंह से पुछवाया कि आपका भावी कार्यक्रम क्या है? अपने कार्यक्रम की सूचना भी लाला जी ने दी कि सरकार ने कलोनी एक्ट में जो थोड़ा-सा परिवर्तन कर दिया है उसके लिए सरकार का धन्यवाद देते हुए ये क़ानून को रद्द करने की माँग करेंगे।
सरदार जी ने उत्तर में कहा – हमारा कार्यक्रम तो यह है कि जनता को लगानबन्दी के लिए तैयार किया जाये। साथ ही हमारे कार्यक्रम में सरकार के प्रति धन्यवाद को तो कोई स्थान मिल ही नहीं सकता।
लाला जी और सरदार जी दोनों ही लायलपुर पहुँचे। स्वर्गीय लाला जी का विशाल जुलूस निकाला गया, जिसके कारण लगभग दो घण्टे में लाला जी पण्डाल में पहुँच पाये। लेकिन हमारे ऐसे भी लोग थे जो जुलूस में सम्मिलित न होकर सीधे पण्डाल में ही पहुँच गये थे और वहाँ भाषण आरम्भ हो गये थे। एक-दो छोटे-छोटे भाषणों के पश्चात स. अजीत सिंह जी ने भाषण दिया। आप बहुत ही प्रभावशाली व्याख्यानदाता थे। आपकी निर्भीक भाषण-शैली ने जनता को आपका भक्त बना दिया और श्रोतागण भी जोश में आ चुके थे। जिस समय इस सभा के आयोजक जुलूस को लेकर पण्डाल में पहुँचे, जनता ‘भारतमाता सोसायटी’ के साथ हो चुकी थी। एक-दो नरमदली नेताओं ने स. अजीत सिंह को बोलने से रोकने की कोशिश की थी, लेकिन श्रोताओं ने उनको ऐसी फटकार लगायी कि वह अपना-सा मुँह लेकर रह गये। इससे जनता के जोश में और भी वृद्धि हो गयी। एक किसान ने उठकर एलान कर दिया कि मेरे पास 10 मुरब्बे ज़मीन है, जिसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ, और अपनी पत्नी सहित देशसेवा के लिए तैयार हूँ।
स. अजीत सिंह के पश्चात लाला लाजपतराय भाषण देने के लिए उठे। लाला जी पंजाब के बेजोड़ भाषणकर्ता थे, किन्तु उस दिन के वातावरण में वे जिस शान, जिस निर्भीकता तथा निश्चयात्मक भावनाओं के साथ बोले, उसकी बात ही कुछ निराली थी। लाला जी के भाषण की एक-एक लाइन पर तालियाँ बजती थीं और जय के नारे बुलन्द होते थे। सभा के पश्चात बहुत-से व्यक्तियों ने अपने को देश का कार्य करने हेतु अर्पित करने की घोषणा की।
लायलपुर के डी.सी. भी वहाँ उपस्थित थे। सभा की कार्यवाही देखकर उन्होंने यह परिणाम निकाला कि यह सारा आयोजन एक षड्यन्त्र था। लाला लाजपत राय इन सबके गुरु हैं और नवयुवक स. अजीत सिंह उनका शिष्य है। सरकार का यह विचार बहुत दिनों तक बना रहा। सम्भवतः लाला जी और अजीत सिंह जी को नज़रबन्द करने का भी यही कारण था।
लाला जी के भाषण के बाद श्री बाँकेदयाल जी ने एक बहुत ही प्रभावशाली नज़्म पढ़ी, जो बाद में अत्यन्त लोकप्रिय हो गयी। यह नज़्म ‘पगड़ी सँभाल ओ जट्टा’ थी।
लाला बाँकेदयाल पुलिस में सब-इंस्पेक्टर थे, और सरकारी नौकरी छोड़कर इस आन्दोलन में सम्मिलित हो गये थे। इस दिन नज़्म पढ़कर जब वह मंच से उतरे तो भारतमाता सोसायटी के कार्यकर्ताओं ने उनको गले से लगा लिया।
लाहौर में हुए दंगे के बाद म्युनिसिपल बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास किया था कि शहर में सभी कॉलेजों के प्रिंसिपलों से कहा जाये कि वे विद्यार्थियों को राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेने से रोकें और उन्हें छात्रावास से बाहर न जाने दें। जो विद्यार्थी उनकी आज्ञा का पालन न करे उसे कड़ा से कड़ा दण्ड दिया जाये।
इस प्रस्ताव के सम्बन्ध में लोकमान्य तिलक ने अपने मराठी पत्र ‘केसरी’ में एक ज़बरदस्त लेख लिखा था। लोकमान्य ने लिखा था कि इस दंगे पर किसे खेद और दुख न होगा? कौन चाहता है कि युवक थोड़े धैर्य से काम न लें? लेकिन म्युनिसिपल बोर्ड के इस प्रस्ताव का क्या आशय है? पचास वर्ष बाद आज देश के युवकों में थोड़ी-सी जागृति दिखायी दी है। उसे एक साधारण-से बलवे के कारण नष्ट करने का प्रस्ताव क्यों किया जाये? आज जब युवकों में देश-भक्ति की भावनाएँ उमड़ रही हैं और वे स्वाधीनता के लिए बेचैन हैं तो उनको प्रेम के साथ समझाना चाहिए कि वे अपनी शक्ति का इस प्रकार अपव्यय न करें।
जनता जोश में आकर जब कुछ कर गुज़रती थी तो गरम दल की यही नीति होती थी। गरम दल के नेता जानते थे कि जब जनता में जागृति होती है, तो उसके साथ जोश और बेचैनी होना भी अवश्यम्भावी है। वे यह भी जानते थे कि फूँक-फूँककर क़दम रखने वाले महानुभाव स्वतन्त्रता के संघर्ष में अधिक समय तक नहीं टिक सकते। राष्ट्र के निर्माता तो नवयुवक ही हुआ करते हैं। किसी ने सच कहा है –
“सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते, क्योंकि वह बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं। सुधार तो होते हैं युवक के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिन्हें भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम तथा अनुभव अधिक करते हैं।”
ऐसा लगता है कि उस समय इस प्रान्त (पंजाब) के युवक इन भावनाओं से प्रभावित होकर ही स्वतन्त्रता संघर्ष में कूद पड़ते थे। तीन मास पहले जहाँ बिल्कुल ख़ामोशी थी, वहाँ अब स्वदेशी और स्वराज्य का आन्दोलन इतना बलशाली हो गया कि नौकरशाही घबरा उठी। उधर लायलपुर इत्यादि ज़िलों में नये कलोनी एक्ट के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था। वहाँ किसानों की हमदर्दी में रेलवे के मज़दूरों ने भी हड़ताल की और उनकी सहायता के लिए धन भी एकत्रित किया जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अप्रैल के अन्त तक पंजाब सरकार घबरा गयी। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर ने भारत सरकार को अपने एक पत्र में यह सम्पूर्ण स्थिति बताते हुए लिखा था – “प्रान्त के उत्तरी ज़िलों में केवल शिक्षित वर्ग, और उनमें भी ख़ासकर वकील तथा विद्यार्थी तबके तक ही नये विचार सीमित हैं, किन्तु प्रान्त के केन्द्र की ओर बढ़ते ही यह साफ़ नज़र आता है कि असन्तोष और अशान्ति तेज़ी से बढ़ती जा रही है।” इसी पत्र में आगे चलकर उन्होंने लिखा था, “इन लोगों को (आन्दोलन के नेताओं को) अमृतसर और फ़िरोज़पुर में विशेष रूप से सफलता मिली है। रावलपिण्डी तथा लायलपुर की तरफ़ भी वे बेचैनी फैलाने में क़ामयाब हो रहे हैं। लाहौर का तो कहना ही क्या है।” पत्र के अन्त में कहा गया है, “कुछ नेता तो अंग्रेज़ों को देश से निकाल देने के मंसूबे बाँध रहे हैं। कम से कम वे हमें शासन से हटा देने की चेष्टा में अवश्य हैं। वे या तो शक्ति के द्वारा ऐसा करना चाहते हैं, या जनता और शासन के बीच असहयोग द्वारा! ऐसा वातावरण उत्पन्न करने के लिए वे उत्तरदायित्वहीन ढंग से अंग्रेज़ों के प्रति घृणा तथा द्वेष उत्पन्न कर देना चाहते हैं। वर्तमान स्थिति बहुत ही नाज़ुक है और शीघ्र ही हमें इसका कुछ न कुछ प्रबन्ध करना चाहिए।”
शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं।
ये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
इन विचारों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावनासम्पन्न युवाओं को परिचित कराना आवश्यक है जिनके कन्धे पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है। इसी उदेश्य से भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत है।
आयरिश क्रान्तिकारी डान ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों और सभी 108 उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है। इसके बावजूद ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कर्इ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को ‘सम्पूर्ण दस्तावेज़’ के बजाय ‘सम्पूर्ण उपलब्ध’ दस्तावेज़ नाम दिया गया है।
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