राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बनने के 100 वर्ष पूरे होने पर देश को मोदी सरकार के “तोहफ़े”!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बनने के 100 वर्ष पूरे होने पर देश को मोदी सरकार के “तोहफ़े”!

 

साथियो,

इस साल दशहरे के दिन ‘आरएसएस’ के निर्माण के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ फ़ासीवादी विचारधारा और राजनीति पर आधारित एक फ़ासीवादी संगठन है। राष्ट्रीय आन्दोलन और स्वतंत्रता संग्राम के पूरे दौर में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी आरएसएस के लोगों और इसके तथाकथित नायकों की भूमिका जनता को आपस में बाँटने वाली, अंग्रेज़भक्त और स्वतंत्रता संग्राम से गद्दारी करने वालों की रही है। और यही सच्चाई इनकी दुखती रग है जिसके दर्द से छुटकारा ये झूठों के तमाम पुलिन्दे लिखकर भी नहीं पा सके हैं। इनके प्रतीक पुरुषों द्वारा आज़ादी आन्दोलन से ग़द्दारियाँ, अंग्रेज़ों से गलबहियाँ, अंग्रेज़ों की पेंशनखोरी और क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी इस क़दर कुख्यात है कि उसे छुपाने के लिए इनके पास झूठ परोसने के सिवाय कोई और साधन नहीं है। घर की बही हो और काका लिखणिया हो तो झूठ बोलने से गुरेज़ कैसा!?

हाल ही में मोदी जी ने आरएसएस के निर्माण के 100 साल पूरे होने पर 100 रुपये का सिक्का और डाक टिकट जारी किये हैं। मोदी जी इससे पहले 15 अगस्त को भी आज़ादी आन्दोलन में आरएसएस के योगदान को लेकर खूब गपोड़े हाँक रहे थे। ये चीज़ें ‘सर्वधर्म समभाव’ के नाम पर देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता को बेपर्द करने के चन्द और उदाहरणों के अलावा कुछ नहीं हैं। अब दिल्ली के बारे में यह सुनने को मिल रहा है कि यहाँ विद्यार्थियों को आरएसएस के देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान के बारे में भी पढ़ाया जायेगा। ईमानदारी से चला जाये तो आज़ादी के आन्दोलन में आरएसएस के तथाकथित योगदान वाले हिस्से में किताब के पन्ने कोरे ही रहने चाहिए लेकिन पी. एन. ओक और दीनानाथ बत्रा जैसे गोयबल्स के चेलों के चेले ऐसा नहीं करने वाले और परिणामस्वरूप बच्चों को चण्डूखाने की गपों को पढ़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। भाड़े के इतिहासकारों और संघी गुबरैले लिख्खाड़ों को जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। लेकिन तारीख़ गवाह है कि शासकों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता है। इतिहास के इस साम्प्रदायिकीकरण और विकृतिकरण का नौजवान भारत सभा पुरज़ोर विरोध करती है। हम देश के छात्रों-युवाओं से अपील करते हैं कि देश के सच्चे इतिहास व संघियों की असली भूमिका को पहले तो स्वयं जानें और उसके बाद इससे देश की मेहनतकश जनता और युवा पीढ़ी को भी परिचित करायें।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उर्फ़ ‘आरएसएस’ नामक दुनिया के इस सबसे बड़े फ़ासिस्ट संगठन की देशभक्ति और राष्ट्रसेवा के ढोंग की असलियत हम आपके सामने पेश कर रहे हैं। इसके लिए हम इन्हीं के प्रतीक पुरुषों के लेखों-बयानों से चन्द उद्धरण आपके समक्ष रखेंगे। तो आइए जानें : संघ की असली जन्मकुण्डली क्या है ?

स्वतंत्रता संग्राम से विश्वासघात :

1925 में विजयदशमी के दिन अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चूँ तक नहीं की। जब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ देश की जनता लड़ रही थी तब संघी लोगों को लाठियाँ भाँजना सिखा रहे थे और वह भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि अपने ही देशवासियों के ख़िलाफ़। आरएसएस के संस्थापक सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार, दूसरे सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर और हिन्दुत्व के प्रचारक विनायक दामोदर सावरकर ने आज़ादी की लड़ाई से लगातार अपने को दूर रखा। यही नहीं, जब भगतसिंह और उनके साथी अंग्रेज़ सरकार से यह माँग कर रहे थे कि उन्हें फाँसी नहीं बल्कि गोली से उड़ा दिया जाये तब सावरकर अंग्रेज़ी हुक़ूमत को माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। जब देश में लाखों लोगों की चेतना में आज़ादी की लड़ाई में शरीक होने का विचार सबसे प्रमुख था, उस समय आरएसएस ने न तो स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी की और न ही भागीदारी करने की चाहत रखने वालों को ही प्रोत्साहित किया। संघ के कार्यकर्ता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी तो गोरी हुक़ूमत का विरोध करने वालों की मुखबिरी में शामिल थे। सोचने वाली बात है कि आज इन्हें लोगों को देशभक्ति के प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका किसने दे दिया?

आरएसएस के आज़ादी के आन्दोलन से विश्वासघात को समझने के लिए एक बार उसी के नेताओं के लेखों और भाषणों को देखिए :

असहयोग आन्दोलन (1920-21) भारत की आज़ादी में एक बड़ा आन्दोलन था जिसने देश की जनता की आज़ादी की चाह को मुखर अभिव्यक्ति दी लेकिन ‘गुरूजी’ के नाम से जाने जाने वाले सरसंघचालक गोलवलकर इस संघर्ष में शामिल नौजवानों का पक्ष लेने की जगह क़ानून और व्यवस्था की चिन्ता ज़ाहिर करते हैं। वे किसी अंग्रेज़ अधिकारी या शासक की तरह चिन्तित थे। वह कहते हैं:

‘संघर्ष के बुरे परिणाम हुआ ही करते हैं। 1920-21 के आन्दोलन (असहयोग आन्दोलन) के बाद लड़कों ने उद्दण्ड होना आरम्भ किया, यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। परन्तु संघर्ष के बाद उत्पन्न होने वाले ये अनिवार्य परिणाम हैं। बात इतनी ही है कि उन परिणामों को क़ाबू में रखने के लिए हम ठीक व्यवस्था नहीं कर पाये। सन् 1942 के बाद तो क़ानून का विचार करने की आवश्यकता ही नहीं, ऐसा प्रायः लोग सोचने लगे’। (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4,पृष्ठ 41,भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

गोलवलकर के अनुसार ‘संघर्ष के परिणाम बुरे’ ही होते हैं। तो क्या भारतीय जनता आज़ादी के लिए संघर्ष नहीं करती? अपने ऊपर ज़ुल्म ढहाने वाले क़ानूनों के प्रति भारतीय नौजवान चुप बैठते? उनका सम्मान करते? अंग्रेज़ों के क़ानून और व्यवस्था की चिन्ता करने वाले गोलवलकर कम-से-कम यही राय रखते हैं। गोलवलकर ने संघ की स्वतंत्रता आन्दोलन से अलग रहने की नीति पर मुस्तैदी से अमल किया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भी उन्होंने यही रुख अपनायाः

‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’ (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खण्ड-4, पृष्ठ 40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

1942 के आन्दोलन के समय गोलवलकर संघ संचालक थे। जब देश की जनता का देशप्रेम, आज़ादी के संघर्ष में अपना सबकुछ बलिदान करने की तीव्र इच्छा थी। लोग ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर आज़ाद होने के लिए लड़ रहे थे तो संघ ने क्या किया? ‘संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया’। क्योंकि अंग्रेज़ भक्ति ही उनकी देशभक्ति थी। 9 मार्च 1960 को इन्दौर, मध्यप्रदेश में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए गोलवलकर ने कहाः

“नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थितियों के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी (हेडगेवार) के पास गये थे। इस ‘शिष्टमण्डल’ ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आन्दोलन से स्वातंत्र्य मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डॉक्टर जी ने कहा – “ज़रूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा ?’’ उस सज्जन ने बताया- ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’ तो डॉक्टर जी ने कहा, ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।’’ (श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 39-40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

दरअसल आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार, गोलवलकर या ‘हिन्दुत्व’ के प्रचारक इस गिरोह का कोई भी नेता हो उसने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में एक ओर तो ख़ुद भाग नहीं लिया वहीं दूसरी ओर उन्होंने आम भारतीय को भी जो इनके सम्पर्क में था अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की कि वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता आन्दोलन में शरीक न ही हो। हेडगेवार ने एक बार संघ की तरफ़ से नहीं परन्तु व्यक्तिगत रूप से नमक सत्याग्रह में भाग लिया, लेकिन इसके बाद उन्होंने आज़ादी के लिए चल रहे किसी संघर्ष में भाग नहीं लिया। गोलवलकर अंग्रेज़ शासकों को विजेता मानते थे और उनकी दृष्टि में विजेताओं का विरोध न करके उनके साथ अपनापन रखना चाहिए।

“एक बार एक प्रतिष्ठित वृद्ध सज्जन अपनी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिए एक नूतन सन्देश लाये थे। उनको शाखा के स्वयं सेवकों के सम्मुख बोलने का अवसर दिया गया तो अत्यन्त ओजस्वी स्वर में वे बोले- ‘अब तो केवल एक काम करो। अंग्रेज़ों को पकड़ो और मार-मार कर निकाल बाहर करो। इसके पश्चात फिर देखा जायेगा।’ इतना ही कहकर बैठ गये। इस विचारधारा के पीछे है- राज्यसत्ता के प्रति द्वेष तथा क्षोभ की भावना एवं द्वेषमूलक प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति। आज की राजनैतिक भावविपन्नता का यही दुर्गुण है कि उसका आधार है प्रतिक्रिया, द्वेष तथा क्षोभ, और अपनापन छोड़कर विजेताओं का विरोध।” (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 109-110)

गोलवलकर की नज़र में, जो कि आरएसएस के ‘दार्शनिक- गुरू’ की तरह माने जाते हैं, ब्रिटिश हुक़ूमत के प्रति भारतीय जनता के मन में द्वेष रखना ठीक नहीं है!! ये सज्जन न ही उनका विरोध करने को कहते हैं, तो क्या अपने ऊपर जोर-ज़ुल्म करने वाली अंग्रेज़ी सत्ता से भारत की जनता प्यार करती, उन्हें गले लगाती?

आज़ादी के संघर्ष के दौरान जब आरएसएस ने लगातार लोगों को आज़ादी की लड़ाई से दूर रखने और खुद संघर्ष में भाग नहीं लेने का फ़ैसला लिया उसी समय शहीद भगतसिंह और उनके साथी देश के नौजवानों से आज़ादी के लिए अलख जगाने और क्रान्ति का सन्देश देश के हर कोने तक पहुँचाने की अपील कर रहे थे।

स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का अपमानः

आज देशभर में गाल बजाते हुए टी.वी. चैनलों पर उन्मादी बात करना, सभाओं में भड़काऊ भाषण देना आरएसएस और भाजपा का सबसे प्रिय काम हो गया है। देश की आम जनता की शिक्षा, चिकित्सा, आवास और महँगाई जैसे मुद्दों को छोड़, न जाने ये किस विकास का तोता रटन्त करते रहते हैं। आज ये शहीद भगतसिंह का शहीदी दिवस और जन्मदिन तो मनाते हैं ताकि जनता की आँखों में धूल झोंक सकें लेकिन क्या कभी सचमुच इन्होंने शहीदों का सम्मान किया है? क्या जब तमाम क्रान्तिकारी जेलों की कोठरियों में कोड़े खा रहे थे, देश की आज़ादी के लिए फाँसी का फन्दा चूम रहे थे, तो संघी बात बहादुरों ने एक बार भी उनका सम्मान किया, एक बार भी उनका साथ दिया? इसका स्पष्ट उत्तर है, नहीं! संघ का पूरा इतिहास केवल झूठ और कुत्साप्रचार का पुलिन्दा मात्र है। भगतसिंह, राजगुरू, अशफ़ाक़ उल्ला खां, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की जो शहादत आज भी देश के हर एक इंसान के लिए देशभक्ति का एक आदर्श है, देखिए गोलवलकर उसके बारे में क्या कहते हैं:

‘हमारी भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य सब संस्कृतियों नें ऐसे बलिदान की उपासना की है तथा उसे आदर्श माना है और ऐसे सब बलिदानियों को राष्ट्रनायक के रूप में स्वीकार किया है परन्तु हमने भारतीय परम्परा में इस प्रकार के बलिदान को सर्वोच्च आदर्श नहीं माना है।’ (गोलवलकर, ‘विचार नवनीत’, पृष्ठ- 280-281)

जिन शहीदों के बलिदान पर तमाम देशवासी गर्व करते हों उसे कमतर बताकर गोलवलकर किस भारतीय संस्कृति की बात कर रहे हैं। दरअसल आरएसएस और उसके नेताओं की संस्कृति है कट्टरता और नफ़रत फैलाना, लोगों को हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बाँटना, नहीं तो जो क्रान्तिकारी जनता के दिलों को अन्याय से लड़ने के लिए प्रेरित करते हों उनके बारे में ऐसा सोचना क्या दिखाता है! गोलवलकर ने जहाँ अंग्रेज़ शासकों को ‘विजेता’ कहकर सम्मान से देखने की बात की वहीं उन्होंने क्रान्तिकारी शहीदों को असफल व्यक्तियों के रूप में देखा और उनके बलिदानों को महान नहीं कहा।

शहादत की पूरी परम्परा की निन्दा करते हुए वे कहते हैं:

‘निःसन्देह ऐसे व्यक्ति जो अपने आपको बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊँचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकाँक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि वे अन्ततः अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गम्भीर त्रुटि थी।’ (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 281)

गोलवलकर के लिए महान आदर्श है सावरकर जैसे लोग, जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ माफीनामा लिखते हैं और जनता में हिन्दू साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलते हैं। जब अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लोग लड़ रहे थे तो सरकार लोगों को पकड़कर जेल में डाल देती थी, गोलियों से भून देती थी, फाँसी पर चढ़ा देती थी। उस समय अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ना साहस और जोख़िम का काम निःसन्देह था। और जिनके दिलों में देश के लिए प्यार था उन्होंने जान तक का जोख़िम उठाया। लेकिन इन सबके प्रति आरएसएस तिरस्कार भाव रखता है। जेल जाना उसके लिए ठीक नहीं था और उस समय यह लोगों को लम्बा जीवन जीने का उपदेश दे रहा था।

हेडगेवार की जीवनी के अनुसारः

‘देशभक्ति का मतलब केवल जेल जाना नहीं है। इस तरह की दिखावटी देशभक्ति में बह जाना सही नहीं है। वे (हेडगेवार) अक्सर यह अपील किया करते थे कि वक्त आने पर देश के लिए मरने के लिए हमेशा तैयार रहने के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए संगठन बनाते हुए जिन्दा रहने की इच्छा भी बहुत ज़रूरी है’ (सी. पी. भिजकर, ‘संघ वृक्ष का बीजः डॉ. केशव राव हेडगेवार’, पृष्ठ-21)

और हेडगेवार तथा गोलवलकर का मतलब जिस संगठन से था वह था संघ जिसने आज़ादी की लड़ाई में भागीदारी से दूर रहते हुए ज़िन्दा रहने और माफ़ीनामे लिखने में अपनी भूमिका निभायी।

माफ़ीनामे और मुखबिरी का इतिहासः

आज़ादी के पूरे आन्दोलन में संघ के लोगों का इतिहास अंग्रेज़ों को माफ़ीनामें देने और क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने का रहा है। जब आज़ादी के समय तमाम लोग अपनी जान की बाजी लगाकर लड़ रहे थे तब अंग्रेज़ों की मार से घबराये सावरकर (जिसको संघ वीर सावरकर कहता है!!?) अण्डमान की जेल से माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। जेल में रहते हुए सावरकर ने एक-दो नहीं चार-चार माफ़ीनामे लिखे। अण्डमान जेल में आने के बाद 30 अगस्त 1911 को सावरकर ने अपनी पहली दया याचिका लिखी जिसे ख़ारिज कर दिया गया। सावरकर ने अपना दूसरा माफ़ीनामा 14 नवम्बर 1913 को लिखा। गवर्नर जनरल काउंसिल के गृह सदस्य को लिखे अपने माफ़ीनामे में भारत की आज़ादी के आन्दोलन के सम्मान की तनिक भी परवाह न करते हुए अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए वे ब्रिटिश हुक़ूमत के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उन्होने कहा कि :

‘यद्यपि जेल में मेरा व्यवहार हर समय असाधारण रूप से अच्छा था इसके बावजूद छः महीने के बाद भी मुझे जेल से बाहर नहीं भेजा गया जबकि अन्य अपराधियों को भेजा गया। जेल में आने के दिन से आज तक मैंने अपने व्यवहार को जितना सम्भव हो अच्छा बनाने का प्रयास किया… मैं सरकार की किसी भी तरह की क्षमता (ब्रिटिश सरकार) में सेवा करने के लिए तैयार हूँ जैसा भी वह चाहे। मेंरे व्यवहार में ईमानदारी पूर्ण परिवर्तन हुआ है और मुझे आशा है कि भविष्य में ऐसा ही होगा… मुझे आशा है कि सम्माननीय महोदय इन बातों को ध्यान में रखेंगे’

इसके बाद सावरकर ने 1917 में एक और माफ़ीनामा भेजा था। 30 मार्च 1920 को सावरकर ने चौथा माफ़ीनामा भेजा था जिसमें उसने कहा कि :

‘‘…न तो मुझे और न ही मेरे परिवार के किसी सदस्य को सरकार से कोई शिकायत है… साथ ही मेरे परिवार के किसी सदस्य पर 1909 से अब तक कोई अभियोग ही चला है …’’

साथ ही सावरकर ने अपनी गतिविधियों को जिनके कारण उन्हें जेल भेजा गया था अतीत की बात कहा और पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार के क़ानून और संविधान के प्रति आस्था व्यक्त की। सावरकर ने यहाँ तक कहा कि :

‘‘अगर सरकार हमारी तरफ़ से कोई वायदा चाहती है तो मैं और मेरा भाई सरकार द्वारा तय किये गये किसी भी निश्चित और उचित समय तक किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने के लिए प्रसन्नता से अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं।’

ये हैं संघ-भाजपा के वीर सावरकर जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए किसी भी तरह से ब्रिटिश सत्ता के विरोध में भाग लेने से मना कर दिया था।

अटल बिहारी वाजपेयी ने जो संघ के कार्यकर्ता और भारत के प्रधानमंत्री थे, एक बार कहा था कि उन्होंने सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया था। लेकिन किस तरह से भाग लिया था, उस आन्दोलन में उनकी भूमिका क्या थी? इस पर वह कुछ नहीं बोले। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उनकी भूमिका एक मुख़बिर की थी।

दरअसल अगस्त 1942 में भुजरिया के मेले में (उत्तर प्रदेश) एक बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे और वहाँ कुछ नौजवानों द्वारा पुराने नायकों के गीत गाये गये और बटेश्वर वन विभाग के कार्यालय को ब्रिटिश सत्ता से मुक्त कराने का आह्वान किया गया था। यहाँ से मार्च करते हुए भीड़ ने बटेश्वर जाकर कार्यालय पर हमला कर दिया और तिरंगा फहरा दिया। इस जुलूस में अटल बिहारी वाजपेयी और उनके भाई प्रेम बिहारी भी शामिल थे। बटेश्वर की घटना के बाद कई अन्य लोगों के साथ अटल बिहारी को गिरफ़्तार किया गया कोर्ट में अटल विहारी बाजपेयी ने घटना में शामिल कई लोगों के नाम बताये थे जो कि वह छिपा सकते थे।

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी गवाही में कहा कि :

“27 अगस्त 1942 को बटेश्वर बाज़ार में लगभग 2 बजे दिन में पुराने नायकों के गीत गाये गये। ककुआ उर्फ़ लीलाधर (Kakua alias Liladhar) और महुअन (Mahuan) द्वारा गीत गाया गया और भाषण दिया गया और इन्होने लोगों को वन क़ानून (forest laws) तोड़ने के लिए उकसाया।”

अटल बिहारी द्वारा यह आज़ादी की लड़ाई में उन दो लोगों के ख़िलाफ़ दिया गया बयान था जो लोगों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए कह रहे थे। स्पष्ट है कि आरएसएस जिस देशभक्ति का दम भरता है इतिहास के तथ्य इस सबके विपरीत उसे आज़ादी की लड़ाई का गद्दार घोषित करते हैं।

वास्तव में भारतीय फ़ासिस्टों का पूरा इतिहास ऐसे ही कारनामों से भरा हुआ है। इसीलिए फ़ासिस्ट इतिहास से डरते हैं और उसे तोड़ने-मरोड़ने और विकृत करने में लगे रहते हैं। भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारियों के सच्चे वारिसों का फ़र्ज़ है कि फ़ासिस्टों के असली कारनामों से देश की जनता को परिचित करायें। लोगों को उनके असली सवालों पर संगठित करें और फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त देने में अपनी भूमिका अदा करें।

अमर शहीदों का पैग़ाम, जारी रखना है संग्राम !
धर्म-जाति के झगड़े छोड़ो, सही लड़ाई से नाता जोड़ो !

– नौजवान भारत सभा –

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