फाँसी से पहले साथियों को भगतसिंह का अन्तिम पत्र

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और क़ुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है – इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हरगिज़ नहीं हो सकता।

कुलतार के नाम भगतसिंह का अन्तिम पत्र

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-जफ़ा क्या है,
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।
दहर से क्यों ख़फ़ा रहे, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।

कुलबीर के नाम भगतसिंह का अन्तिम पत्र

तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया। मुलाक़ात के समय तुमने अपने ख़त के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा था। कुछ शब्द लिख दूँ, बस। देख, मैंने किसी के लिए कुछ न किया। तुम्हारे लिए भी कुछ न कर सका। आज तुम सबको विपदाओं में छोड़कर जा रहा हूँ। तुम्हारी ज़िन्दगी का क्या होगा? गुज़र किस तरह करोगे? यही सब सोचकर काँप जाता हूँ। लेकिन भाई हौसला रखना। विपदाओं में भी कभी न घबराना।

क्रान्तिकारी दोस्तों के नाम सुखदेव का पत्र

अपनी सफलता इस बात पर निर्भर है कि हमारे workers अपने revolution ideals, tactics और struggles को ख़ूब समझते हैं। आज के arm chair politicians और sentimental lectures द्वारा क्रान्ति का कार्य नहीं चलाया जाना चाहिए। बल्कि ऐसे व्यक्तियों को अपनी Organisationमें ही नहीं लेना चाहिए। क्रान्ति करने के हेतु वे ही व्यक्ति लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं जो Self scrificing devotion के हों, जो revolutionary education प्राप्त किये हों और जीवन में क्रान्ति को profession समझे हों। जो व्यक्ति Revolutionary work को अपना profession नहीं बना सकता वह एक Sympathiser के सिवा कुछ नहीं है।

सुखदेव – आवाज़ दबाना दुखदायी है!

अभी-अभी पता चला है कि हमारा वह statement जो हमने 3 तारीख़ को दिया है अखबार वालों ने नहीं छापा। कारण यह कहा जाता है कि उसमें लीडरों को criticise किया गया है और उनके इस समझौते को बुरा कहा गया है। उफ़, कैसी शरम की बात है! भाई, सच पूछो तो हमें सरकार फाँसी नहीं लगा रही। हमारा गला तो हमारे So-called leaders ही दबा रहे हैं जो हमारी आवाज़ निकलने नहीं देते।

सुखदेव का अधूरा पत्र

राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत सरकार, नयी दिल्ली के सौजन्य से प्राप्त सुखदेव की यह अपूर्ण, अप्रेषित चिट्ठी सुखदेव के बोर्स्टल जेल से, सेण्ट्रल जेल लाहौर में स्थानान्तरण के समय प्राप्त हुई थी। मूल चिट्ठी पाकिस्तान सरकार के रिकॉर्ड में है लेकिन इसकी फ़ोटोस्टेट प्रतिलिपि राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध है।

सुखदेव का तायाजी के नाम पत्र

माता-पिता के लिए गौरव की बात यही है कि उनका लड़का उनके लिए नेकनामी पैदा करे न कि कलंक। माता-पिता की सदा यह इच्छा रहती है कि उनका लड़का बड़ा नाम कमाये और जीवन के संग्रामों में किसी से भी पीछे न रहे। मैं जानता हूँ आपकी भी ऐसी ही मानसिक अवस्था है और जब आप देखते हैं कि मैं किसी बात में भाग नहीं लेता और हमेशा चुप रहता हूँ तो आपको बहुत दुख होता है। सचमुच, मैं आपसे सच्चे दिल से कहता हूँ, आपको इस बारे में दुखी देखकर मैं स्वयं बहुत दुखी होता हूँ। और क्या कहूँ, मैंने इस कारण से कितने अपनों को नाराज़ किया है और कितनों की नज़र में बुरा बना हूँ। इतना होने पर भी इस बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता और न सफ़ाई देना चाहता हूँ। पर आपसे यह अवश्य कहूँगा कि आप कभी इन विचारों को लेकर दुखी न हों और मैं क्या करता हूँ और मुझे क्या करना चाहिए, इन बातों पर कभी विचार ही न करना चाहिए।

बटुकेश्वर दत्त को भगतसिंह का पत्र

मुझे सज़ा सुना दी गयी है और फाँसी का हुक्म हुआ है। इन कोठरियों में मेरे अलावा फाँसी का इन्तज़ार करने वाले बहुत-से मुजरिम हैं। ये लोग यही प्रार्थनाएँ कर रहे हैं कि किसी तरह वे फाँसी से बच जायें। लेकिन उनमें से शायद मैं अकेला ऐसा आदमी हूँ जो बड़ी बेसब्री से उस दिन का इन्तज़ार कर रहा हूँ जब मुझे अपने आदर्श के लिए फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने का सौभाग्य मिलेगा। मैं ख़ुशी से फाँसी के तख़्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूँगा कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से क़ुर्बानी दे सकते हैं।

पिता जी के नाम भगतसिंह का पत्र

आप जानते हैं कि हम एक निश्चित नीति के अनुसार मुक़दमा लड़ रहे हैं…मेरा हर क़दम इस नीति, मेरे सिद्धान्तों और हमारे कार्यक्रम के अनुरूप होना चाहिए। आज स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। लेकिन अगर स्थितियाँ इससे कुछ और भी अलग होतीं तो भी मैं अन्तिम व्यक्ति होता जो बचाव प्रस्तुत करता। इस पूरे मुक़दमे में मेरे सामने एक ही विचार था और वह यह कि हमारे विरुद्ध जो संगीन आरोप लगाये गये हैं, बावजूद उनके हम पूर्णतया इस सम्बन्ध में अवहेलना का व्यवहार करें। मेरा नज़रिया यह रहा है कि सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को ऐसी स्थितियों में उपेक्षा दिखानी चाहिए और उनको जो भी कठोरतम सज़ा दी जाये, वह उन्हें हँसते-हँसते बरदाश्त करनी चाहिए। इस पूरे मुक़दमे के दौरान हमारी योजना इसी सिद्धान्त के अनुरूप रही है। हम ऐसा करने में सफल हुए या नहीं, यह फ़ैसला करना मेरा काम नहीं। हम ख़ुदगर्जी को त्यागकर अपना काम कर रहे हैं।

भगतसिंह – कुलबीर को एक और पत्र

मुझे यह जानकर कि एक दिन तुम माँजी को साथ लेकर आये और मुलाक़ात का आदेश न मिलने से निराश होकर वापस लौट गये, बहुत दुख हुआ। तुम्हें तो पता चल चुका था कि जेल में मुलाक़ात की इजाज़त नहीं देते। फिर माँजी को साथ क्यों लाये? मैं जानता हूँ कि इस समय वे बहुत घबरायी हुई हैं, लेकिन इस घबराहट और परेशानी का क्या फ़ायदा, नुक़सान ज़रूर है, क्योंकि जब से मुझे पता चला कि वे बहुत रो रही हैं, मैं स्वयं भी बेचैन हो रहा हूँ।