भगतसिंह – नेहरू समिति की रिपोर्ट

स्वतन्त्रता कभी दान में प्राप्त नहीं होगी। लेने से मिलेगी। शक्ति से हासिल की जाती है। जब ताक़त थी तब लॉर्ड रीडिग गोलमेज़ कॉन्‍फ्रेंस के लिए महात्मा गाँधी के पीछे-पीछे फिरता था और जब आन्दोलन दब गया, तो दास और नेहरू बार-बार ज़ोर लगा रहे हैं और किसी ने गोलमेज तो दूर, ‘स्टूल कॉन्‍फ्रेंस’ भी न मानी। इसलिए अपना और देश का समय बरबाद करने से अच्छा है कि मैदान में आकर देश को स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए तैयार करना चाहिए। नहीं तो मुँह धोकर सभी तैयार रहें कि आ रहा है – स्वराज्य का पार्सल!

भगतसिंह – बारदोली सत्याग्रह

यह सत्याग्रह सरकार के साथ संघर्ष के विचार से नहीं आरम्भ किया गया वरन केवल यह शिकायत दूर करने के लिए था। नेताओं ने यह स्वीकार भी किया है। लेकिन समझ में नहीं आता कि एक-एक शिकायत के लिए लड़ने-झगड़ने के बजाय मूल या जड़ का क्यों नहीं इलाज किया जाता? असल में ज़िम्मेदार नेता तो ज़िम्मेदारी से भागते हैं और तुरन्त समझौते पर उतर आते हैं। तो यह बात स्पष्ट है कि इस तरह लाभ हमेशा ताक़तवर को ही होता है। हम समझते हैं कि जब तक नेता युगान्तकारी भावना और उत्साह के साथ ऐसा क्रान्तिकारी संघर्ष नहीं छेड़ेंगे, तब तक आज़ादी-आज़ादी का शोर करना दूर की बात है।

भगतसिंह – एक और दमनकारी क़ानून

जिस तरह हिन्दुस्तान में कारख़ाने बढ़ रहे हैं, उसी तरह हमारे पूँजीपति और अंग्रेज़ों के लाभ-हानि भी साझे होते जा रहे हैं और ये देश में उभर रहे जन-आन्दोलन को सामान्यतया दबाने का संयुक्त रूप से प्रयत्न कर रहे हैं। अब एक समय दो क़ानून स्वीकृत हो रहे हैं: एक है जन-सुरक्षा बिल (पब्लिक सेफ्टी बिल) और दूसरा है औद्योगिक विवाद बिल (ट्रेड्स डिस्प्यूट बिल) अर्थात किसी पूँजीपति और मज़दूरों का किसी सवाल पर झगड़ा हो जाये तब तुरन्त एक पंचायत गठित कर दी जाये, जिसमें पूँजीपति मालिकों तथा मज़दूरों के प्रतिनिधि शामिल हों और इसका अध्येता एक निष्पक्ष व्यक्ति हो।

भगतसिंह – श्रमिक आन्दोलन को दबाने की चालें

विश्व में जो अन्धेरगर्दी इन ख़ुदगर्ज़ और बेईमान पूँजीपति शासकों ने मचा रखी है, वह लिखकर लोगों को समझायी नहीं जा सकती। अब जब उनके पर्दे दुनिया में खुल रहे हैं और अब जब श्रमिक भी इन लोगों को अपने श्रम पर हराम की मोटी-मोटी खाल चढ़ाने से रोकने का यत्न करने लगे हैं तो ये तड़पते हैं और शान्ति-शान्ति का शोर मचाने लगते हैं। सम्पत्ति ख़तरे में है, दुनिया कैसे चलेगी, आदि वाक्यों से शोर मचाकर आम लोगों और श्रमिकों को समाजवादी आन्दोलन के विरोधी बना रहे हैं। साथ ही साथ उन आन्दोलनों को दबाने के विचार से अन्धा अत्याचार करने की ठान ली है। आज हम समाचारपत्रों में पढ़ रहे हैं कि लोगों की सुरक्षा नाम का एक (Public Safety – removed from India-bill) बिल असेम्बली में पेश हो रहा है। पेश सरकार की ओर से ही होना है। बिल का आशय यह है कि यदि समाजवादी विचारों का प्रचार करने वाला कोई ऐसा आदमी भारत में आ जायेगा, जो यहाँ का नागरिक न होगा तो उसे नोटिस देकर एकदम देश से निकाल दिया जायेगा। यह बिल क्यों पास किया जायेगा और इसे पास करवाने के लिए क्या-क्या घटिया चालें चली जा रही हैं, यही हम पाठकों को बताना चाहते हैं।

भगतसिंह – षड्यन्त्र क्यों होते हैं और कैसे रुक सकते हैं?

हो सकता है कि अमीर लोग ऐशो-आराम में आज़ादी को भूल जायें और ग़ुलामी को पसन्द करें क्योंकि उनके लिए तो ऐश-परस्ती ही आज़ादी हो सकती है, लेकिन जो लोग भूखे मर रहे हैं, वे समझते हैं कि हमें मरना ही है, तो फिर क्यों न मर्दे-मैदान बनकर इस अन्यायपूर्ण और ज़ालिम व्यवस्था को रद्द करने में मरें, क्यों न देश के ग़रीबों को जगाने के लिए और भारतमाता को आज़ाद करवाने के लिए शीश दिये जायें? हो सकता है ऐसे विचार कुछ देर तक ग़रीबों के दिमाग़ में न आयें, लेकिन कब तक रुक सकेंगे, इस अन्याय, ग़ुलामी और ग़रीबी के खि़लाफ़ शुरू से ही षड्यन्त्र होते आये हैं। जब तक यह हाल रहेगा, जोशीले लोग षड्यन्त्र करते रहेंगे, क्योंकि तमाम षड्यन्त्रों की जड़ ग़रीबी और ग़ुलामी ही है।

भगतसिंह – युगान्तकारी माँ

श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल को आजीवन क़ैद हो गयी। जब वह बनारस जेल से अण्डमान (कालेपानी) भेजे गये, उस समय उनकी आयु 22 बरस की थी। माँ उनसे मिलने गयी और प्रसन्नतापूर्वक कहा – “मेरा पुत्र सचमुच संन्यासी हो गया है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि उसने अपना जीवन देश-सेवा के लिए अर्पित कर दिया है।” इसके पश्चात पुलिस उनका पीछा करने लगी और बहुत परेशान करती रही।

भगतसिंह – श्री इन्द्रचन्द्र नारंग का मुक़दमा

सबसे अधिक ज़ोर इस बात पर दिया गया है कि वह ‘बन्दी जीवन’ बेचता था और इसलिए यह राजपरिवर्तनकारी साज़िश का सदस्य समझा जाता है। ख़ूब! हम पूछते हैं कि ‘बन्दी जीवन’ क्या ज़ब्त किताब है? क्या सरकार ने उसकी बिक्री पर रोक लगायी हुई है? यदि नहीं तो श्री इन्द्रचन्द्र को सज़ा किस बात की दी गयी है? मज़ा तो यह है कि किताब उसके भाई ने लाहौर-हिन्दी भवन से प्रकाशित की है। उसकी बिक्री के लिए सभी ने प्रयत्न किये हैं। लेकिन इसमें साज़िश का क्या सबूत है?

भगतसिंह – विद्यार्थी और राजनीति

सभी देशों को आज़ाद करवाने वाले वहाँ के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पायेंगे? नौजवानों के 1919 में विद्यार्थियों पर किये गये अत्याचार भूल नहीं सकते। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें एक भारी क्रान्ति की ज़रूरत है। वे पढ़ें। ज़रूर पढ़ें। साथ ही पोलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़े और अपने जीवन इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों का इसी में उत्सर्ग कर दें। वरन बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता।

भगतसिंह – ‘अछूत का सवाल’

उठो, अछूत कहलाने वाले असली जन-सेवको तथा भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविन्द सिह की फ़ौज की असली शक्ति तुम्हीं थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सबकुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी ज़िन्दा है। तुम्हारी क़ुर्बानियाँ स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं। तुम जो नित्यप्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोत्तरी करके और ज़िन्दगी सम्भव बनाकर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हम लोग नहीं समझते। लैण्ड-एलिएनेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी ज़मीन नहीं ख़रीद सकते। तुम पर इतना ज़ुल्म हो रहा है कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती हैं – उठो, अपनी शक्ति को पहचानो। संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिशें किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा।