जिन आदमियों को फाँसी पर चढ़ाने की कोशिश की गयी थी, उनके ख़िलाफ़ कोई भी सबूत नहीं मिल पाया था, इसीलिए वह मुक़दमा नहीं चलाया गया। सरकार की यह चाल ख़राब और घृणित है। आतंकवादी आन्दोलन को रोकने के लिए भी यह कोई अच्छा तरीक़ा नहीं। लेकिन नक़ली साज़िशों में निर्दोषों को मारने से राज की नींवें पक्की नहीं, बल्कि खोखली हो रही हैं। (इस सन्दर्भ में) रूस के ज़ार और फ्रांस के लुइस को नहीं भूलना चाहिए।
भगतसिंह – साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज
जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ दम गजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बह चले हैं। सिर छिपा कर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है, और क्या साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
भगतसिंह – सत्याग्रह और हड़तालें
उधर सत्याग्रह की धूम है और इधर हड़तालों का भी कुछ कम ज़ोर नहीं। बड़ी ख़ुशी इस बात की है कि देश में फिर प्राण जगे हैं और पहले-पहल ही किसानों और श्रमिकों का युद्ध छिड़ा है। इस बात का भी आने वाले बड़े भारी आन्दोलन पर असर रहेगा। वास्तव में तो यही लोग हैं कि जिन्हें आज़ादी की ज़रूरत है। किसान और मज़दूर रोटी चाहते हैं और उनकी रोटी का सवाल तब तक हल नहीं हो सकता जब तक यहाँ पूर्ण आज़ादी न मिल जाये। वे गोलमेज कॉन्फ्रेंस या अन्य ऐसी किसी बात पर रुक नहीं सकते। ख़ैर।
भगतसिंह – धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम
बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है।
भगतसिंह – आतंक के असली अर्थ
यदि कोई डाकू कुल्हाड़ी लेकर किसी के घर में आ घुसे तो उसे आतंक (की कार्यवाही) कहा गया, लेकिन यदि घरवालों ने छुरी का इस्तेमाल कर डाकू को मार डाला तो उसे भी आतंक (का काम) माना गया। अर्थात जब अपने और अपने परिवार की रक्षा के लिए ताक़त का योग्य और नेक इरादों से इस्तेमाल किया गया तब भी उसे आतंक ही कहा गया।
भगतसिंह – हर सम्भव तरीक़े से पूर्ण स्वतन्त्रता
दूसरी बात यह है कि क्या हमने क़सम खा रखी है कि यदि शान्तिपूर्ण तरीक़े से स्वराज मिलेगा तो लेंगे, अन्यथा हम अंग्रेज़ी राज में ही रहना पसन्द करेंगे? ‘हाँ’ कहने वाले अन्धे आदर्शवादी लोगों के साथ हम बात नहीं करना चाहते। जिस स्वराज के बारे में दुनिया का सबकुछ क़ुर्बान किया जा सकता है, उसके बारे में ऐसी बेकार बातों की क्या ज़रूरत है?
भगतसिंह – तख़्तापलट गुप्त षड्यन्त्र
हमें इस बात से इन्कार नहीं कि हिन्दुस्तान में तख़्ता पलटने का आन्दोलन है, लेकिन हमारा कहना है कि इस समय जो हो रहा है वह पुलिस की ओर से है और इतिहास बताता है कि जब भी कोई तख़्ता पलटने का काम शुरू करते हैं, वे अपने वार कम ही ख़ाली जाने देते हैं। और सरकार को भी यह निश्चय रखना चाहिए कि ऐसे लोगों को (जिनका धर्म-ईमान ही देश की आज़ादी हो और जो बाक़ी सब तरीक़ों से निराश होकर आज़ादी के लिए इस तरीक़े पर भरोसा रखने लगें) दबाने में वह कभी भी सफल नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी ही सख़्तियाँ करे और कितनी ही चालें चले और न ही आज तक कोई सरकार इसमें सफल हुई है। इन आन्दोलनों को समाप्त करने का सही तरीक़ा तो यही है कि उन लोगों की माँग पूरी की जाये, ताकि वे शान्त हों।
ग़दर आन्दोलन की कुछ व्यथा
यह ख़याल कि कोई इन्क़लाब करे और ख़ून-ख़राबे से न डरे, झटपट नहीं आ जाता। धीरे-धीरे शासक लोग ज़ुल्म करते हैं और लोग दरख़्वास्तें देते हैं, लेकिन अहंकारी शासक उस तरफ़ ध्यान नहीं देते। फिर लोग कुछ हल्ला करते हैं, लेकिन कुछ नहीं बनता। उस समय फिर आगे बढ़े हुए नौजवान इस काम को सँभालते हैं। यदि किसी देश में शान्ति हो और लोग सुख-चैन से बैठे हों तो वहाँ उतनी देर इन विचारों का प्रचार नहीं हो सकता, जब तक कि उन्हें कोई ऐसा बड़ा भारी नया विचार न दिया जाये, जिस पर कि वे परवानों की तरह क़ुर्बान हो जायें। या ‘ज़ुल्म’ इस बात के लिए लोगों को तैयार करते हैं।
ट्रेड यूनियन बिल
यदि यह बिल पास हो गया तो मज़दूर फिर उन्हीं ज़ंजीरों में जकड़े जायेंगे जिनमें से कि यत्न से अभी वे निकले ही थे। फिर उन ज़ंजीरों को तोड़ना आसान नहीं होगा। इसलिए श्रमिकों को अब वक़्त सँभालना चाहिए और ऐसा ज़ोरदार आन्दोलन करना चाहिए कि इस पूँजीपति गुट को, जो अभी मज़दूरों को ग़ुलामी से छूटने नहीं देना चाहता, नानी याद आ जाये। पर यह नानी भी तभी याद आ सकती है, यदि आने वाली संसद में इनकी ऐसी हार हो कि याद कर-कर आँखें मला करें। इस समय संसद में इन पूँजीपतियों का बहुमत है। इस बहुमत के अभियान में ही ये लोग अकड़े फिर रहे हैं और मज़दूरों को नज़रों में भी नहीं लाते।
भगतसिंह – आयरिश स्वतन्त्रता युद्ध
हमारे देश के नौजवान विवाह कराने के लिए दौड़ते फिरते हैं। बाप ने कभी सवारी नहीं की होती लेकिन वर बना बेटा तलवार बाँधकर मरियल घोड़ी पर चढ़कर निकल पड़ता है। उसकी उस चाल को भी क़ाबू में रखने के लिए दो व्यक्ति आगे से उसे पकड़े रहते हैं। और फिर जाकर कपड़ों की गाँठ की तरह बँधी लड़की के साथ (वर महोदय का) गठबन्धन हो जाता है। सर्वत्र ख़ुशियाँ मनायी जाती हैं। लड़का ब्याहा गया! लानत है ऐसे विवाह पर और ऐसे वर पर।