रूसी क्रान्ति केवल राजनीतिक क्रान्ति ही नहीं थी, बल्कि उसने राष्ट्र के जीवन के हर पहलू में क्रान्ति पैदा कर दी। जहाँ राजनीतिक सत्ता एक ज़ालिम बादशाह ज़ार से छीनकर देश की आम जनता के हाथों में सौंप दी गयी वहाँ आर्थिक मैदान में ‘कमाये कोई, और मौज़ उड़ाये कोई’ वाली बात भी समाप्त कर दी गयी। आज वहाँ न तो लाखों और करोड़ों श्रमिक भूखे नज़र आते हैं और न ही चन्द हरामख़ोरी करने वाले मोटे पेटवाले पूँजीपति ही नज़र आते हैं। सामाजिक जीवन में कोई ऊँच-नीच बाक़ी नहीं रही। स्त्रियों के भी समान अधिकार हैं। आज रूस ही ऐसा देश है जहाँ अधिक से अधिक लोग ख़ुश व प्रसन्न हैं। उनकी क्रान्ति वाक़ई सच्ची क्रान्ति है।
भगतसिंह – मेरी रूस यात्रा
जिन मुसीबतों को उठाकर वे लोग गये थे वह क़िस्सा बहुत उत्साहवर्धक है और दर्दनाक भी है। शौक़त उस्मानी उन्हीं व्यक्तियों में से हैं। तुर्किस्तान की लड़ाइयों में से वे किस तरह जान बचाकर निकले और किस तरह रूस पहुँचे और वहाँ की हालत देखकर अचम्भित हो उठे। ये सब बातें किताब पढ़ने से ही सम्बन्ध रखती हैं। नौजवानों को इस किताब की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए और बाहर जाकर दुनिया देखने का शौक़ पैदा करना चाहिए। रूस का बहुत अच्छा हाल लिखा हुआ है। प्रत्येक हिन्दी पढ़े सज्जन को यह किताब मँगवाकर पढ़नी चाहिए।
भगतसिंह – रूस के युगान्तकारी नाशवादी (निहिलिस्ट)
रूस में एक बहुत बड़े नाशवादी हुए हैं इवान तुर्गनेव। उन्होंने 1862 में एक उपन्यास लिखा ‘पिता और पुत्र’। इस उपन्यास के प्रकाशन पर बहुत शोर-शराबा हुआ, क्योंकि उसमें नवयुवकों के आधुनिक विचारों का चित्रण किया गया था। पहले-पहल तुर्गनेव ने ही नाशवाद शब्द इस्तेमाल किया था। नाशवाद का अर्थ है कुछ भी न मानने वाला (निहिल – कुछ भी नहीं); शाब्दिक अर्थ है – जो कुछ भी न माने। लेकिन वास्तव में ये लोग जनता के पुराने रस्मो-रिवाज़ और कुरीतियों के विरोधी थे। ये लोग देश की मानसिक ग़ुलामी से थक गये थे, इसलिए उन्होंने इसके विरुद्ध विद्रोह किया। इन्होंने सिर्फ़ कहा ही नहीं बल्कि व्यवहार में कर भी दिखाया।
भगतसिंह – अराजकतावाद: तीन
दरअसल जब दमन और शोषण सीमा से अधिक हो जाये, जब शान्तिमय और खुले काम को कुचल दिया जाये, तब कुछ करने वाले हमेशा गुप्त रूप से काम करना शुरू कर देते हैं और दमन देखते ही प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाते हैं। यूरोप में जब ग़रीब मज़दूरों का भारी दमन हो रहा था, उनके हर तरह के कार्य को कुचल डाला गया था या कुचला जा रहा था, उस समय रूस के सम्पन्न परिवार से माईकल बैकुनिन को जो रूस के तोपख़ाने में एक बड़े अधिकारी थे, पोलैण्ड के विद्रोह से निबटने के लिए भेजा गया था। वहाँ विद्रोहियों को जिस प्रकार ज़ुल्म करके दबाया जा रहा था, उसे देखकर उनका मन एकदम बदल गया और वे युगान्तकारी बन बैठे। अन्त में उनके विचार अराजकतावाद की ओर झुक गये। उन्होंने सन् 1834 में नौकरी त्याग दी। उसके पश्चात बर्लिन और स्विट्ज़रलैण्ड के रास्ते पेरिस पहुँचे। उस समय आमतौर पर सरकारें इनके विचारों के कारण इनके विरुद्ध थीं। 1864 तक वह अपने विचार पुख़्ता करते रहे और मज़दूरों में प्रचार करते रहे।
भगतसिंह – अराजकतावाद: दो
सम्पत्ति बनाने का विचार मनुष्यों को लालची बना देता है। वह फिर पत्थर-दिल होता चला जाता है। दयालुता और मानवता उसके मन से मिट जाती है। सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए राजसत्ता की आवश्यकता होती है। इससे फिर लालच बढ़ता है और अन्त में परिणाम – पहले साम्राज्यवाद, फिर युद्ध होता है। ख़ून-ख़राबा और अन्य बहुत नुक़सान होता है। अगर सबकुछ संयुक्त हो जाये तो कोई लालच न रहे। मिल-जुलकर सभी काम करने लगें। चोरी, डाके की कोई चिन्ता न रहे। पुलिस, जेल, कचहरी, फ़ौज की ज़रूरत न रहे। और मोटे पेटवाले, हराम की खाने वाले भी काम करें। थोड़ा समय काम करके पैदावार अधिक होने लगे। सभी लोग आराम से पढ़-लिख भी सकें। अपनेआप शान्ति भी रहे, ख़ुशहाली भी बढ़े। अर्थात वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि संसार से अज्ञानता दूर करना बहुत आवश्यक है।
भगतसिंह – अराजकतावाद: एक
अराजकतावाद एक नया दर्शन है जिसके अनुसार एक नया समाज बनेगा। जनता का रहन-सहन या भ्रातृत्व ऐसा होगा जिसमें कि मनुष्य के बनाये नियम कोई अवरोध न पैदा कर सकेंगे। उनके अनुसार किसी भी शासन की ज़रूरत नहीं महसूस होती, क्योंकि प्रत्येक सरकार दमन पर टिकी होती है। इसलिए यह अनावश्यक है।
भगतसिह – स्वाधीनता के आन्दोलन में पंजाब का पहला उभार
ऐसा लगता है कि उस समय इस प्रान्त (पंजाब) के युवक इन भावनाओं से प्रभावित होकर ही स्वतन्त्रता संघर्ष में कूद पड़ते थे। तीन मास पहले जहाँ बिल्कुल ख़ामोशी थी, वहाँ अब स्वदेशी और स्वराज्य का आन्दोलन इतना बलशाली हो गया कि नौकरशाही घबरा उठी। उधर लायलपुर इत्यादि ज़िलों में नये कलोनी एक्ट के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था। वहाँ किसानों की हमदर्दी में रेलवे के मज़दूरों ने भी हड़ताल की और उनकी सहायता के लिए धन भी एकत्रित किया जाने लगा।
भगतसिह – शहीद ख़ुशीराम!
लोग डर गये। कौन कहता था कि निहत्थों पर भी गोली चलायी जा सकती है। आम लोगों ने गिरते-पड़ते पीठ में ही गोलियाँ खायीं। लेकिन उनमें भी श्री ख़ुशीराम जी शहीद ने छाती पर गोलियाँ खा-खाकर क़दम आगे ही बढ़ाया और बहादुरी की लाजवाब मिसाल क़ायम कर दी।
भगतसिह – दिल्ली-केस के शहीद!
पिछली बार हमने दिल्ली-साज़िश का कुछ हाल भाई बालमुकुन्द जी के जीवन से दिया। भाई बालमुकुन्द जी, जैसाकि पिछली बार बताया गया था, गिरफ्तारी के समय महाराजा जोधपुर के लड़कों को पढ़ाते थे। एक दिन मोटर में राजकुमार के साथ बैठे सैर को जा रहे थे कि अंग्रेज़ अधिकारी उनके गिरफ्तारी के वारण्ट लेकर पहुँच गया।
भाई बालमुकुन्द जी
आपको फाँसी की सज़ा हुई। आपने बड़ी प्रसन्नता से सुनी। अपील ख़ारिज हो चुकने के बाद आपको 1915 में फाँसी पर लटका दिया गया। लोग बताते हैं कि आप बड़े चाव से दौड़े-दौड़े गये। फाँसी के तख़्ते पर चढ़ गये और अपने हाथों से ही फाँसी की रस्सी को गले में डाल लिया।