नौजवानों से दो बातें

नौजवानों से दो बातें

पीटर क्रोपोटकिन (अनुवाद  – सत्यम)

प्रिंस पीटर क्रोपोटकिन (1842-1921) रूस के प्रसिद्ध अराजकतावादी क्रान्तिकारी थे। वह एक जाने-माने भूगोलविद और भूगर्भशास्त्री थे लेकिन 1870 के दशक में सबकुछ छोड़कर क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हो गये। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वह भागकर विदेश चले गये और 1886 में इंग्लैण्ड में बस गये। ‘एन अपील टु यंग’ नाम का उनका यह प्रसिद्ध लेख अपने पेशों में शामिल होने के लिए तैयार युवकों-युवतियों को सम्बोधित था और सबसे पहले क्रोपोटकिन के अखबार ‘ला रिवोल्ट’ में 1880 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद से दुनियाभर में एक पैम्फ़लेट के रूप में यह बार-बार छपता रहा है और आज भी इसकी अपील उतनी ही प्रभावी और झकझोर देने वाली है।

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आज मैं नौजवानों को सम्बोधित करना चाहता हूं। बूढ़े इस पैम्फ़लेट को रख दें और ऐसी बातें पढ़कर अपनी आंखें न दुखायें जो उन्हें कुछ भी नहीं देंगी। जाहिर है बूढ़ों से मेरा मतलब उनसे है जो दिल और दिमाग से बूढ़े हैं।

naujawano seमैं यह मानकर चल रहा हूं कि आप अठारह या बीस वर्ष की उम्र के हैं; कि आपने अपनी अप्रेण्टिसशिप या पढ़ाई पूरी कर ली है; कि आप जीवन में बस प्रवेश कर रहे हैं। मैं यह मानकर चलता हूं कि आपका दिमाग उस अंधविश्वास से मुक्त है जो आपके अध्यापक आप पर थोपने की कोशिश करते रहे; कि आप शैतान से नहीं डरते, और आप पादरियों और धर्माचार्यों की अनाप-शनाप बातें सुनने नहीं जाते। इसके साथ ही, आप उन सजे-धजे छैलों, एक सड़ रहे समाज के उन उत्पादों में से नहीं हैं जिन्हें देखकर अफ़सोस होता है, जो अपनी बढ़िया काट की पतलूनों और बंदर जैसे चेहरे लिये पार्कों में घूमते-फि़रते हैं और जिनके पास इस कम उम्र में ही सिर्फ़ एक ही चाहत होती है  किसी भी कीमत पर मौज-मस्ती लूटने की कभी न बुझने वाली चाहत।… इसके उलट, मैं यह मानता हूं कि आपके सीनों में गर्मजोशी से भरा एक दिल धड़कता है और इसीलिए मैं आपसे बात कर रहा हूं।

मैं जानता हूं कि आपके मन में पहला सवाल यह उठता है आपने अक्सर खुद से पूछा है: “मैं क्या बनूंगा?” यह सच है कि नौजवानी में इनसान यह सोचता है कि किसी विद्या या विज्ञान का वर्षों तक समाज की कीमत पर अध्ययन करने के बाद वह अपनी बुद्धि, अपनी क्षमता, अपने ज्ञान का इस्तेमाल उन लोगों को अधिकार दिलाने के लिए करेगा जो आज बदहाली, दुख और अज्ञान में जी रहे हैं। उसने अपनी पढ़ाई इसलिए नहीं की है कि वह अपनी उपलब्धियों को अपने निजी लाभ के लिए लूट के औजारों के रूप में इस्तेमाल करेगा। अगर वह ऐसा नहीं सोचता तो जरूर ही उसका मस्तिष्क विकृत होगा और व्यसनों ने उसे पागल बना दिया होगा।

आप भी उनमें से हैं जो ऐसा सपना देखते हैं, देखते हैं न? अच्छी बात है, आइये, अब देखते हैं कि अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए आपको क्या करना चाहिए।

मैं नहीं जानता कि आप किस तबके में जन्मे हैं। हो सकता है कि आप पर भाग्य की कृपादृष्टि हो और आप विज्ञान का अध्ययन कर सके हों; आप डाक्टर, बैरिस्टर, लेखक या वैज्ञानिक बनने वाले हों; आपके सामने एक व्यापक क्षेत्र खुला हो; आप विस्तृत ज्ञान और प्रशिक्षित मेधा से लैस होकर जीवन में प्रवेश कर रहे हों। या फि़र यह भी हो सकता है कि आप महज एक ईमानदार दस्तकार हों जिसका विज्ञान का ज्ञान उतना ही है जितना आपने स्कूल में सीखा था; लेकिन आपके साथ यह फ़ायदा है कि आपने खुद अपने अनुभव से यह सीखा है कि हमारे समय में मेहनतकश लोग कैसी कमरतोड़ मेहनत की जिन्दगी गुजारते हैं।

अभी मैं पहले वाली बात लेकर चलूंगा, दूसरी स्थिति पर हम आगे बात करेंगे। मैं यह मान लेता हूं कि आपको वैज्ञानिक शिक्षा मिली है। मान लेते हैं कि आप डाक्टर बनना चाहते हैं। कल मोटे कपड़े पहने हुए एक व्यक्ति आपको एक बीमार औरत को देखने के लिए बुलाने आयेगा। वह आपको उन संकरी गलियों में से एक में ले जायेगा जहां आमने-सामने रहने वाले पड़ोसी चाहें तो राहगीरों के सिर के ऊपर से एक-दूसरे से हाथ मिला सकते हैं। आप गंदगी और बदबू से भरे एक माहौल में दाखिल होते हैं जहां सिर्फ़ एक घिसी हुई ढिबरी की टिमटिमाती लौ रोशनी दे रही है। आप गंदी सीढ़ियों से गुजरते हुए दो, तीन, चार या पांच मंजिल ऊपर चढ़ते हैं और एक अंधेरे, सर्द कमरे में आप पाते हैं कि वह बीमार औरत गंदे चिथड़ों से ढंके बिस्तर पर लेटी है। फ़टे-पुराने कपड़ों में ठिठुरते हुए पीले चेहरे वाले बच्चे बड़ी-बड़ी आंखों से आपको देखते हैं। औरत का पति जीवन भर बारह-तेरह घंटे रोज काम करता रहा है, चाहे जो भी हो जाये। अब पिछले तीन महीने से वह बेरोजगार है। उसके धंधे में बेकार होना अनहोनी बात नहीं है; हर साल एकाध बार ऐसा होता है। लेकिन पहले जब वह बेरोजगार होता था तो उसकी पत्नी पन्द्रह आने रोज पर घरों में काम कर लिया करती थी शायद उसने आपकी भी कमीजें धोई हों; लेकिन अब पिछले दो महीने से वह बिस्तर पर है, और दुख-तकलीफ़ ने अपने गंदे पंजों में पूरे परिवार को जकड़ लिया है।

डाक्टर, आप उस बीमार औरत के लिए क्या नुस्खा लिखेंगे? आपने पहली नजर में ही देख लिया है कि उसकी बीमारी की वजह खून की कमी, अच्छे भोजन का अभाव और ताजा हवा न मिलना है। आप उसे क्या लेने को कहेंगे रोज अच्छा भुना हुआ मांस? देहात की खुली हवा में थोड़ी कसरत? नमी से मुक्त और हवादार बेडरूम? क्या विडम्बना है! अगर वह इस सबका खर्च उठा सकती तो आपकी सलाह का इंतजार किये बिना ही बहुत पहले ही यह सब हो चुका होता।

अगर आप दिल के भले हैं, साफ़गोई से बातें करते हैं और आपके चेहरे पर ईमानदारी है तो परिवार के लोग आपको बहुत सी बातें बतायेंगे। वह आपको बतायेंगे कि पार्टीशन के दूसरी ओर रहने वाली औरत जो इस कदर खांसती है कि सुनकर आपका कलेजा फ़टने लगता है, एक गरीब धोबिन है जो कपड़े इस्तरी करके गुजारा करती है; कि एक मंजिल नीचे रहने वाले सारे बच्चों को बुखार है; कि सबसे नीचे रहने वाली दर्जिन बसन्त तक जिन्दा नहीं रह पायेगी; और अगले मकान में तो हालात और भी बुरे हैं।

इन सब बीमार लोगों से आप क्या कहेंगे? आप उन्हें भरपूर खाना खाने, हवा बदलने, थोड़ी कम मेहनत करने की सलाह देंगे…आप सोचते हैं कि काश आप ऐसा कर पाते लेकिन आप ऐसा कहने की भी हिम्मत नहीं कर पाते और टूटे दिल के साथ आप बाहर आ जाते हैं, आपके होंठों पर बस एक गाली होती है।

अगले दिन आप उस कबूतरखाने में रहने वाले लोगों की किस्मत पर दुखी मन से सोच रहे होते हैं कि आपका पार्टनर बताता है कि कल एक नौकर उसे लेने आया था, चार घोड़ों वाली एक बग्घी में। यह एक बढ़िया हवेली की मालकिन के लिए थी, रातों को नींद न आने के कारण थकी हुई एक औरत के लिए जिसका सारा समय सजने-धजने, भेंट-मुलाकातों, नाच-पार्टियों और मूर्ख पति के साथ झगड़ों में खर्च होता था। आपके दोस्त ने उसे सलाह दी कि अपने जीने के ढंग को थोड़ा नियमित करे, थोड़ा कम गरिष्ठ भोजन करे, खुली हवा में थोड़ा टहल लिया करे, गुस्से को काबू में रखे और किसी तरह के उपयोगी काम के अभाव की थोड़ी-बहुत भरपाई करने के लिए अपने बेडरूम में ही कुछ कसरत-वसरत कर लिया करे।

एक इसलिए मर रही है क्योंकि उसे अपने पूरे जीवन में न तो कभी जी भर खाना मिला है और न ही जी भर आराम; दूसरी इसलिए दुखी है क्योंकि उसने अपने जन्म के समय से कभी यह जाना ही नहीं है कि काम क्या होता है।

अगर आप ऐसे तुच्छ स्वभाव के व्यक्ति हैं जो खुद को हर चीज का आदी बना लेता है, जो बेहद विचलित कर देने वाले दृश्यों को देखकर भी बस एक ठण्डी आह और शेरी के एक गिलास से राहत पा जाता है, तो आप धीरे-धीरे ऐसी विपरीत स्थितियों के आदी बन जायेंगे, और एक पशुवृत्ति आप पर हावी होती जायेगी; आपके जेहन में बस एक ही ख्याल रहेगा, कि किसी तरह मौज-मस्ती में जीनेवालों की बिरादरी में शामिल हो जायें ताकि फि़र कभी उन दुखियारों के बीच न जाना पड़े। लेकिन अगर आप इंसान हैं, अगर आपकी हर भावना इच्छापूर्वक किये गये कार्य में तब्दील होती है; अगर आपके भीतर बुद्धिमान व्यक्ति को पशु ने कुचला नहीं है, तो किसी दिन आप खुद से यह कहते हुए घर लौटेंगे, “नहीं, यह गलत है; ऐसा अब और नहीं चलते रहना चाहिए। बीमारियों का इलाज करना ही काफ़ी नहीं है; हमें उनकी रोकथाम करनी चाहिए। जीवन-स्तर में थोड़ा-सा सुधार और थोड़े से बौद्धिक विकास से हमारे आधे रोगी और आधी बीमारियां खत्म हो जायेंगी। शरीर विज्ञान को कुछ देर किनारे रख दो! खुली हवा, अच्छा भोजन, कम जानलेवा मेहनत हमें यहां से शुरू करना चाहिए। इसके बिना डाक्टर का पूरा पेशा ही ठगी और बात-बहादुरी के सिवा कुछ नहीं रह जायेगा।”

उसी दिन आप समाजवाद को समझना शुरू कर देंगे। आप इसे पूरी तरह जानना चाहेंगे, और अगर परोपकार शब्द आपके लिए महत्वहीन नहीं है, अगर आप प्राकृतिक विज्ञान के दार्शनिक की तर्कशीलता को सामाजिक प्रश्न के अध्ययन पर लागू करेंगे, तो आप पायेंगे कि अंततः आप हमारे बीच आ गये हैं, और आप सामाजिक क्रान्ति लाने के लिए वैसे ही काम करेंगे जैसे हम करते हैं।

लेकिन शायद आप कहेंगे, “सिर्फ़ व्यावहारिक काम भाड़ में जाये! मैं खुद को शुद्ध विज्ञान के लिए समर्पित करूंगा: मैं एक खगोलशास्त्री, एक भौतिकविज्ञानी, एक रसायनविज्ञानी बनूंगा। यही वे काम हैं जो हमेशा फ़लदायी होते हैं, भले ही वे फ़ल सिर्फ़ भावी पीढ़ियों को मिलें।”

आइए, पहले ये समझने की कोशिश करें कि आप विज्ञान के प्रति समर्पित होकर क्या हासिल करना चाहते हैं। क्या आप महज उस आनन्द की खोज में हैं जो बेशक अपरिमित होता है जो प्रकृति के अध्ययन और हमारी बौद्धिक क्षमताओं के प्रयोग से प्राप्त होता है? अगर बात यह है तो मैं आपसे कहूंगा कि जो दार्शनिक इसलिए विज्ञान को अपनाता है कि वह अपना जीवन सुखद बना सके, वह उस पियक्कड़ से किस तरह अलग है जो सिर्फ़ शराब से मिलने वाले तात्कालिक सुख की तलाश में जीता है? इसमें कोई शक नहीं कि दार्शनिक ने अपना सुख-साधन ज्यादा बुद्धिमानी से चुना है, क्योंकि यह उसे दारूबाज की तुलना में कहीं ज्यादा गहरा और दीर्घजीवी आनन्द देता है। लेकिन बस इतना ही फ़र्क है! दोनों का उद्देश्य उतना ही स्वार्थपूर्ण है निजी सुख।

लेकिन नहीं, आपको यह स्वार्थपूर्ण जीवन बिताने की चाह नहीं है। विज्ञान के लिए काम करके आप मानवता के लिए काम करना चाहते हैं, और अपने अध्ययन तथा जांच-पड़ताल में आप इसी विचार से निर्देशित होंगे।

यह एक सुहाना भ्रम है! हममें से कौन होगा जिसने पहली बार विज्ञान के प्रति समर्पित होते समय इसे गले नहीं लगाया होगा?

लेकिन अगर आप वाकई मानवता के बारे में सोच रहे हैं, अगर आप अपने अध्ययन में मानवता की भलाई का लक्ष्य रखते हैं, तो एक विराट प्रश्न आपके सामने उठ खड़ा होता है; क्योंकि आपमें चाहे जितनी भी कम आलोचनात्मक भावना क्यों न हो, आप जल्दी ही यह देख लेंगे कि हमारे आज के समाज में विज्ञान विलासिता के मातहत ही है, इसका इस्तेमाल कुछ लोगों के लिए जीवन सुखपूर्ण बनाने के लिए होता है लेकिन अधिकांश मानवता की पहुंच से यह दूर ही रहता है।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान की ठोस प्रस्थापनाओं को आये एक सदी से ज्यादा अरसा गुजर चुका है, लेकिन हममें से कितने हैं जो इन्हें पूरी तरह समझते हैं या वास्तविक वैज्ञानिक आलोचनात्मक दृष्टि से लैस हैं? मुश्किल से कुछ हजार लोग जो उन करोड़ों लोगों के बीच खोये से हैं जो अब भी पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासों में डूबे हुए हैं और इसके परिणामस्वरूप धार्मिक पाखंडियों की कठपुतलियां बनने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

एक कदम और आगे बढ़ें और जरा इस बात पर एक नजर डालें कि विज्ञान ने भौतिक और नैतिक स्वास्थ्य के तर्कपूर्ण आधार स्थापित करने के लिए क्या किया है। विज्ञान हमें बताता है कि अपने शरीर के स्वास्थ्य की हिफ़ाजत के लिए हमें कैसे जीना चाहिए, हमारी भीड़भरी आबादी को जीवन की बेहतर परिस्थितियां मुहैया कराने के लिए क्या करना चाहिए। लेकिन इन दो दिशाओं में किया गया अपार काम क्या महज हमारी किताबों में कैद होकर नहीं रह गया है? हम जानते हैं कि ऐसा ही है। और भला क्यों? क्योंकि विज्ञान आज सिर्फ़ मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए है, क्योंकि समाज को दो वर्गों मजदूरी पाने वाले गुलामों और पूंजी हड़पने वालों में बांटने वाली सामाजिक असमानता तर्कपूर्ण जीवनस्थितियों की इसकी तमाम शिक्षाओं को नब्बे प्रतिशत इंसानों के लिए एक कड़वा मजाक बनाकर रख देती है।

मैं ऐसे बहुत से उदाहरण दे सकता हूं लेकिन मैं इतने पर ही रुक जाता हूं: आप बस इतना कीजिए कि फ़ाउस्ट की कोठरी के बाहर जाइये जिसकी धूल से अटी खिड़कियों से छनकर धूमिल रोशनी किताबों से भरी उसकी आलमारियों पर पड़ती है; अपने इर्दगिर्द देखिए और आपको हर कदम पर इस विचार के समर्थन में नये सबूत मिलेंगे।

अब ये महज वैज्ञानिक सत्यों और आविष्कारों को बटोरने का सवाल नहीं रहा। सबसे बढ़कर जरूरी यह है कि विज्ञान अब तक जो खोजें कर चुका है उन्हें हर ओर फ़ैलाया जाये, उन्हें अपने रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बना लिया जाये, उन्हें सबकी साझा सम्पत्ति बना दिया जाये। हमें चीजों को इस तरह से व्यवस्थित करना होगा ताकि हर कोई, तमाम मानवजाति इन सत्यों को समझने और लागू करने के काबिल हो जाये; हमें विज्ञान को विलासिता की वस्तु नहीं बल्कि हर इंसान के जीवन की बुनियाद बनाना होगा। इंसाफ़ का यही तकाजा है।

मैं और आगे बढ़ता हूं: मैं कहता हूं कि खुद विज्ञान का हित इसी बात में है। विज्ञान वास्तव में तभी प्रगति करता है जब किसी नये सत्य के लिए जमीन पहले से तैयार होती है। ऊष्मा की यांत्रिक उत्पत्ति का सिद्धान्त पिछली शताब्दी में ही खोजा जा चुका था ;उसी रूप में जैसे हर्न और क्लासियस आज इसे सूत्रबद्ध करते हैं) लेकिन यह अस्सी वर्ष तक अकादमिक दस्तावेजों में दफ्न रहा, तब तक जब तक कि भौतिक विज्ञान की जानकारी इतनी फ़ैल गयी कि उसे स्वीकार करने लायक लोग तैयार हो गये। प्रजातियों की विविधताओं के बारे में इरासमस डार्विन के विचार उनके पोते ;चार्ल्स डार्विन) के जरिए तीन पीढ़ियों के बाद अकादमिक दार्शनिकों द्वारा स्वीकारे गये, और यह भी जनमत के दबाव के बिना नहीं हुआ। कवि या कलाकार की तरह दार्शनिक भी हमेशा ही उस समाज की उपज होता है जिसमें वह जीता और शिक्षाएं देता है।

लेकिन अगर आपमें ये विचार खदबदा रहे हैं, तो आप समझेंगे कि सबसे महत्वपूर्ण काम यह है कि उस हालात में आमूलचूल परिवर्तन लाया जाये जिसमें एक ओर तो दार्शनिक वैज्ञानिक सत्यों से ठसाठस भरा होता है, और दूसरी ओर इंसानों की भारी आबादी उसी हाल में रहती है जिसमें वे पांच या दस सदी पहले थे यानी गुलामों और मशीनों की हालत में और स्थापित सत्यों को भी समझने में असमर्थ होती है। और जिस दिन आप इस व्यापक, गहरे, मानवीय और ठोस वैज्ञानिक सत्य को अपना लेंगे, उसी दिन आप विशुद्ध विज्ञान में अपनी अभिरुचि खो देंगे। आप इस बदलाव को लाने के उपाय ढूंढ़ने में लग जायेंगे, और अगर आप इस खोज में वैसी ही निष्पक्षता का परिचय देंगे जो आपने अपने वैज्ञानिक अनुसंधान में दिखायी तो जरूर ही आप समाजवाद के लक्ष्य को अपना लेंगे; तमाम झूठे तर्कों को आप छोड़ देंगे और हमारे बीच आ जायेंगे। पहले ही सुख और विलासिता में जी रहे इस छोटे से समूह के लिए और अधिक सुख के सामान जुटाने के बजाय आप अपना ज्ञान और समर्पण उनकी सेवा में लगायेंगे जो वंचित और उत्पीड़ित हैं।

और यकीन मानिए कि आपको एक महान कर्तव्य पूरा करने की खुशी महसूस होगी, अपनी भावनाओं और अपने कामों के बीच वास्तविक एकता का एहसास होगा, और तब आप पायेंगे कि आपके भीतर ऐसी शक्तियां हैं जिनका आपको कभी सपने में भी आभास नहीं था। और जिस दिन और हमारे प्राफ़ेेसरों की तमाम कोशिशों के बावजूद वह दिन दूर नहीं है जिस दिन वह बदलाव हो जायेगा जिसके लिए आप काम कर रहे हैं, तो सामूहिक वैज्ञानिक काम से नई शक्तियां पाकर और इसे अपनी ऊर्जा देने वाले मजदूरों की सेनाओं की ताकतवर मदद पाकर विज्ञान आगे की ओर एक ऐसी जबर्दस्त छलांग भरेगा जिसकी तुलना में आज की धीमी प्रगति नौसिखुओं के छिटपुट प्रयोगों जैसी लगेगी।

तब आप विज्ञान का आनन्द उठा सकेंगे; वह आनन्द सबके लिए होगा।

अगर आप कानून की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं और बार में शामिल होने वाले हैं, तो शायद आप भी अपनी भावी गतिविधि लेकर कई भ्रम पाले हुए हैं मैं यह मानकर चल रहा हूं कि आप ऊंची भावना वाले लोगों में से एक हैं और यह समझते हैं कि दूसरों की भलाई करने का क्या मतलब होता है। शायद आप सोचते हैं, “मैं अपना जीवन हर तरह के अन्याय के विरुद्ध अनवरत और ऊर्जस्वी संघर्ष को समर्पित करूंगा! मैं अपनी सारी क्षमताएं कानून, यानी सर्वोच्च न्याय की अभिव्यक्ति की विजय के लिए लगाऊंगा क्या इससे बढ़कर उदात्त कैरियर कोई हो सकता है?” आप आत्मविश्वास से भरे हुए अपने चुने हुए पेशे में जीवन की शुरुआत करते हैं।

ठीक है: हम लॉ रिपोर्ट्स का कोई भी पन्ना पलटते हैं और देखते हैं कि असली जिन्दगी आपको क्या बतायेगी।

हमारे सामने एक धनी भूस्वामी का मामला है। वह अपने एक असामी की बेदखली की मांग करता है जिसने लगान नहीं चुकाया है। कानूनी दृष्टिकोण से मुकदमा निर्विवाद है; गरीब किसान लगान नहीं चुका सकता इसलिए उसे धक्के मारकर निकाल देने के अलावा और कोई उपाय नहीं। लेकिन अगर हम तथ्यों की जांच करेंगे तो हमें कुछ इस तरह की बातें पता चलेंगी: जमींदार वसूल किया हुआ लगान ऐशो-आराम में उड़ाता रहा है और असामी दिनो-रात कड़ी मेहनत करता रहा है। जमींदार ने अपनी जागीर की हालत सुधारने के लिए कुछ नहीं किया है, फि़र भी एक रेलवे लाइन का निर्माण, नई सड़कों के बनने, एक दलदली भूमि को सुखाये जाने और परती जमीन पर खेती शुरू हो जाने के चलते उसकी जमीन की कीमत पचास वर्ष के भीतर तीन गुना हो गयी है। लेकिन इस बढ़ोत्तरी में भारी योगदान करने वाले असामी किसान ने खुद को बरबाद कर लिया है; वह सूदखोरों के हाथ में पड़ गया और गले तक कर्ज में डूबा हुआ है। वह अब जमींदार को लगान चुकाने की हालत में नहीं है। कानून, जो हमेशा सम्पत्ति का पक्ष लेता है, इस मामले में एकदम स्पष्ट है: जमींदार का पक्ष सही है। लेकिन आप, जिसकी न्याय भावना अब तक कानून के फ़रेबी तर्कों से दबी नहीं है, आप क्या करेंगे? क्या आप कहेंगे कि किसान को सड़क पर खदेड़ दिया जाना चाहिए? कानून तो यही कहता है। या आप अपील करेंगे कि जमींदार को अपनी सम्पत्ति में हुई बढ़ोत्तरी किसान को लौटा देनी चाहिए जिसकी मेहनत का वह नतीजा है? इंसाफ़ का यही तकाजा है। आप किधर खड़े होंगे? कानून के पक्ष और न्याय के विरोध में, या न्याय के पक्ष और कानून के विरोध में?

या जब मजदूर बिना नोटिस दिये मालिक के खिलाफ़ हड़ताल पर चले जायें, तो आप किसका पक्ष लेंगे? कानून का पक्ष, यानी उस मालिक का पक्ष जिसने आर्थिक संकट के एक दौर का फ़ायदा उठाकर बेहिसाब मुनाफ़ा कमाया है? या आप कानून के विरुद्ध, लेकिन उन मजदूरों के पक्ष में खड़े होंगे जो इस पूरे दौरान महज दो आने रोज की मजदूरी पर काम करते रहे और अपनी बीवियों और बच्चों को अपनी आंखों के सामने भूख और बीमारी से मरता देखते रहे? क्या आप धोखाधड़ी से भरे कागज के उस टुकड़े के पक्ष में खड़े होंगे जो “अनुबंध की स्वतंत्रता” की बात करता है? या आप इंसाफ़ का पक्ष लेंगे जिसके मुताबिक एक ऐसे अनुबंध का कोई मतलब नहीं है जिसमें एक पक्ष जमकर खाया-पिया हुआ व्यक्ति हो और दूसरा ऐसा व्यक्ति जो महज जीने के लिए अपना श्रम बेचता है; ऐसा अनुबंध दरअसल अनुबंध ही नहीं है जो ताकतवर और कमजोर के बीच किया गया हो।

एक और मामला लेते हैं। यहां लंदन में एक व्यक्ति मांस की दुकान के आसपास मंडरा रहा था। उसने मांस का एक टुकड़ा उठाया और वहां से भागा। उसे गिरफ्तार करके पूछताछ की गयी तो पता चला कि वह एक बेरोजगार कारीगर है और उसने तथा उसके परिवार ने चार दिन से कुछ नहीं खाया है। दुकानदार से कहा जाता है कि वह उस व्यक्ति को जाने दे मगर वह तो अड़ा हुआ है कि उसे इंसाफ़ चाहिए! वह मुकदमा कर देता है और उस व्यक्ति को छह महीने की कैद हो जाती है। कानून अंधा होता है! जब आप हर दिन ऐसे ही फ़ैसले सुनते हैं तो क्या कानून और समाज के खिलाफ़ आपकी अंतरात्मा बगावत नहीं कर देती?

या फि़र, क्या आप उस व्यक्ति के खिलाफ़ कानून लागू करने की बात करेंगे जिसका बचपन से ही न तो ठीक से पालन हुआ और न कभी उसे प्यार के दो शब्द सुनने को मिले। जमाने भर की ठोकरें खाया हुआ वह एक जागीर पर पहुंचता है और चंद सिक्कों के लिए अपने पड़ोसी की हत्या कर देता है। क्या आप उसे फ़ांसी दिये जाने, या इससे भी बुरी सजा, बीस साल की कैद दिलाने की मांग करेंगे, जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि वह कोई अपराधी नहीं बल्कि एक सिरफि़रा है, और वैसे भी उसके जुर्म का दोषी हमारा पूरा समाज है?

क्या आप कहेंगे कि हताशा के एक क्षण में मिल को आग लगा देने वाले सूती कपड़ा मजदूरों को जेल में ठूंस देना चाहिए; कि एक धनपशु हत्यारे पर गोली चलाने वाले उस व्यक्ति को आजीवन कारावास होना चाहिए; कि उन विद्रोहियों को गोली मार देनी चाहिए जिन्होंने बैरिकेडों पर भविष्य का झंडा लहराया था? नहीं, हजार बार नहीं!

अगर आप कालेज में पढ़ायी गयी बातों को दुहराने के बजाय विवेक से सोचेंगे; अगर आप कानून का विश्लेषण करेंगे और कानून की असली जड़ यानी ताकतवर के अधिकार और इसके सार, यानी मनुष्य जाति के लम्बे और रक्तरंजित इतिहास की तमाम तानाशाहियों को जायज ठहराने के लिए कानून के इर्दगिर्द बुने गये शब्दजाल को नोचकर फ़ेंक देंगे; जब आप इसे समझ लेंगे तो कानून के प्रति आपकी नफ़रत और भी गहरी हो जायेगी। आप यह समझ जायेंगे कि लिखित कानून का सेवक बने रहने का मतलब है रोज-ब-रोज अंतरात्मा के कानून के खिलाफ़ खड़े होना और गलत का पक्ष लेना। और चूंकि यह संघर्ष हमेशा नहीं चलता रह सकता, इसलिए या तो आप अपनी अंतरात्मा का गला घोंटकर एक धूर्त बदमाश बन जायेंगे, या फि़र आप परम्परा से नाता तोड़ लेंगे और हमारे साथ मिलकर इस आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अन्याय को पूरी तरह नष्ट करने के लिए काम करेंगे।

लेकिन तब आप एक समाजवादी बन जायेंगे, एक क्रान्तिवादी बन जायेंगे।

और आप, युवा इंजीनियर, आप जो कि उद्योगों में विज्ञान को लागू करके मजदूरों की दशा सुधारने के सपने देखते हैं कैसी दुखद निराशा, कैसा भयानक मोहभंग आपकी प्रतीक्षा में है! आप अपने दिमाग की उपयोगी ऊर्जा का इस्तेमाल करके एक ऐसी रेलवे लाइन की योजना तैयार करते हैं जो गहरे खड्डों के किनारे से गुजरती हुई और ग्रेनाइट के पहाड़ों का सीना चीरती हुई दो देशों को एक करेगी जिन्हें प्रकृति ने अलग-अलग कर दिया है। लेकिन जैसे ही काम शुरू होता है, आप देखते हैं कि अभावों और बीमारी के शिकार मजदूरों की फ़ौजें उन अंधेरी सुरंगों में खट रही हैं आप देखते हैं कि उनमें से बहुतेरे चंद बचे हुए सिक्कों और तपेदिक के कीटाणुओं को लेकर घर लौट रहे हैं; रेलमार्ग के हर नये हिस्से पर मील के पत्थरों की तरह आप लोगों के शव देखते हैं जो एक अंधे लालच का नतीजा है; और जब रेल मार्ग बनकर तैयार होता है तो आप पाते हैं कि वह एक हमलावर सेना के तोपखाने को भेजने के लिए इस्तेमाल हो रहा है…

आपने अपनी जवानी के सबसे अच्छे साल एक ऐसे आविष्कार को अंतिम रूप देने में गुजार दिये हैं जिससे उत्पादन में आसानी होगी और कई प्रयोगों के बाद, रात-रात भर जागने के बाद आखिरकार आप इस मूल्यवान खोज में सफ़ल होते हैं। आप इसे इस्तेमाल में लगाते हैं और इसका नतीजा आपकी उम्मीदों से कहीं बढ़कर सामने आता है। दस या बीस हजार आदमी सड़कों पर फ़ेंक दिये जाते हैं! जो बचे रह जाते हैं, जिनमें से ज्यादातर बच्चे हैं, महज मशीन के एक पार्ट बनकर रह जायेंगे! तीन, चार, दस मालिक अपनी दौलत को कई गुना और बढ़ा लेंगे और पहले से भी अधिक अय्याशी में डूब जायेंगे…क्या यही आपका सपना है?

अंततः, आप हाल में उद्योगों में हुए विकास का अध्ययन करते हैं और आप देखते हैं कि सिलाई मशीन के आविष्कार से सिलाई करने वाली स्त्री को कोई भी फ़ायदा नहीं हुआ है; कि हीरे की नोक वाली ड्रिल मशीनों के बावजूद सेंट गोटहार्ड सुरंग का मजदूर एंकीलोसिस से मर जाता है; कि गिफ़ार्ड कम्पनी की लिफ्ट आने के बाद भी राजगीर और दिहाड़ी मजदूर पहले की तरह अब भी बेरोजगार हैं। अगर आप उसी स्वतंत्र भावना के साथ सामाजिक समस्याओं पर विचार करेंगे जो यंत्रें के अनुसंधान में आपने दिखायी थी, तो यकीनन आप इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि निजी सम्पत्ति और उजरती गुलामी के वर्चस्व के तहत हर नया आविष्कार मजदूर की गुलामी को ज्यादा सख्त बनाता है, उसके श्रम को ज्यादा कमरतोड़ बनाता है, मंदी और बेकारी के दौर पहले से भी जल्दी-जल्दी आते हैं, संकट पहले से ज्यादा तीखे होते हैं और इससे फ़ायदा सिर्फ़ उस शख्स को होता है जिसके पास पहले से ही ऐशोआराम के सारे साधन मौजूद होते हैं।

जब आप इस नतीजे पर पहुंच जायेंगे तो आप क्या करेंगे? या तो आप तरह-तरह के तर्कों से अपनी अंतरात्मा को शांत करना शुरू कर देंगे और फि़र एक दिन आप नौजवानी के अपने ईमानदार सपनों को अलविदा कह देंगे और अपने लिए सुख के साधन बटोरने में जुट जायेंगे तब आप शोषकों के खेमे में चले जायेंगे। या फि़र अगर आपके सीने में कोमल हृदय है, तो आप खुद से कहेंगे: “नहीं, यह समय आविष्कारों का नहीं है। पहले हमें उत्पादन के पूरे ढांचे को बदल देने के लिए काम करना होगा। जब निजी सम्पत्ति का खात्मा हो जायेगा, तब उद्योगों में हर नई खोज से पूरी मानव जाति को लाभ होगा; और तब मजदूरों की यह बड़ी जमात जो आज महज मशीन बन कर रह गई है, तब सोचने-समझने वाले लोगों का एक समूह बन जायेगी जो अध्ययन से प्रशिक्षित और शारीरिक श्रम के दौरान कुशल बनी अपनी बुद्धि को उद्योगों के विकास में लगायेंगे और इस तरह यंत्रें में होने वाली प्रगति आगे की ओर एक ऐसी उछाल भरेगी जो पचास वर्ष के भीतर इतना कुछ हासिल कर लेगी जिसके बारे में आज हम सपना भी नहीं देख सकते।”

और मैं स्कूल मास्टर से क्या कहूं उस व्यक्ति से नहीं जो अपने पेशे को एक उबाऊ काम मानता है बल्कि उससे जो खुशी से छलकते उत्साही बच्चों से घिरा होने पर उनके चहकते चेहरों और निश्छल हंसी से खुद भी उत्साहित हो उठता है, मैं उससे अपनी बात कहता हूं जो उनके छोटे-छोटे दिमागों में मानवता के वे विचार भरने की कोशिश करता है जो उसने अपनी नौजवानी में संजोये थे।

अक्सर मैं देखता हूं कि आप उदास हैं और मैं जानता हूं कि आपके माथे पर बल क्यों पड़े हैं। आज आपके प्रिय छात्र ने विलियम टेल की कहानी इतने उत्साह के साथ कक्षा में पढ़कर सुनायी! बेशक उसका लैटिन का ज्ञान उतना अच्छा नहीं है लेकिन उसका दिल निश्छल और उमंग से भरा है। उसकी आंखें चमक रही थीं; ऐसा लगता था कि वह तमाम अत्याचारियों को वहीं खत्म कर देना चाहता है; उसने इतने जोश के साथ शिलर की ये भावपूर्ण पंक्तियां पढ़ीं:

तोड़ दे जब दास अपनी बेड़ियों को

उठ खड़ा हो तब मुक्त मनुज भी।

लेकिन जब वह घर लौटा तो उसकी मां, उसके पिता, उसके चाचा ने उसे पादरी या देहात के पुलिसमैन के प्रति सम्मान नहीं दिखाने के लिए कस कर लताड़ लगाई; “दूरदर्शिता, अधिकारियों के प्रति सम्मान, अपने से बड़ों के आगे झुकने” को लेकर उसे तब तक भाषण पिलाते रहे जब तक कि उसने शिलर को ताक पर रखकर “अपनी मदद कैसे करें” पढ़ना नहीं शुरू कर दिया।

और फि़र, कल ही आपको पता चला कि आपके सबसे अच्छे शिष्य जीवन में खासे बिगड़े लोग निकले हैं। एक तो दिनो-रात बस अफ़सर बनने के सपने देखता है; दूसरा अपने मालिक के साथ मिलकर मजदूरों की मामूली मजदूरी में से चोरी करने की जुगत भिड़ाता रहता है; और आप अपने आदर्शों और जीवन के इस वैषम्य पर सोचते और दुखी होते रहते हैं।

आप अब भी इस पर चिन्तन-मनन करते रहते हैं! लेकिन मैं देख रहा हूं कि अब से दो साल बाद हताशा-दर-हताशा से गुजरने के बाद आप अपने प्रिय लेखकों को उठाकर धर देंगे और कहने लगेंगे कि बेशक टेल एक बड़ा ईमानदार व्यक्ति था लेकिन वह थोड़ा सिरफि़रा था; कि कविता ड्राइंगरूम में जलती आग के पास बैठकर पढ़ने के लिए बड़ी अच्छी चीज है, खासकर तब जब आप सारे दिन तीन का पहाड़ा सिखाते रहे हों, लेकिन कविगण हमेशा ही आसमान में रहते हैं और उनके विचारों का न तो आज के जीवन से कोई ताल्लुक होता है और न ही इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स के अगले दौरे से…

या, हो सकता है कि आपकी नौजवानी के सपने परिपक्व अवस्था में आपके दृढ़ विचार बन जायें। आपकी इच्छा हो कि स्कूलों में और स्कूलों के बाहर सबके लिए खुली और मानवीय शिक्षा का प्रबंध हो। यह देखते हुए कि मौजूदा हालात में यह असम्भव है, आप बुर्जुआ समाज की नींव पर ही हमला शुरू कर देंगे। फि़र आपको शिक्षा विभाग द्वारा बर्खास्त कर दिया जायेगा और आप अपना स्कूल छोड़कर हमारे बीच आ जायेंगे और हममें से एक बन जायेंगे। आप उन लोगों को ज्ञान देने लगेंगे जो जिन्दगी के तमाम अनुभव हासिल करने के बाद भी शिक्षा से वंचित हैं; आप उनको बतायेंगे कि मानवजाति को कैसा होना चाहिए, या हम सब मिलकर क्या कर सकते हैं। आप मौजूदा व्यवस्था को पूरी तरह बदल डालने के लिए समाजवादियों के साथ मिलकर काम करेंगे, सच्ची समानता, वास्तविक बंधुत्व और पूरे विश्व के लिए कभी न खत्म होने वाली स्वतंत्रता का लक्ष्य हासिल करने के वास्ते हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेंगे।

अंत में, मैं युवा कलाकार, मूर्तिकार, चित्रकार, कवि और संगीतकार से बात करता हूं, क्या आप नहीं देखते कि आपके पूर्वजों को प्रेरित करने वाली वह पवित्र अग्नि आज के इंसानों में नजर नहीं आती? कि आज कला सड़क-बाजार की चीज बना दी गयी है और सर्वत्र औसतपने का राज है?

क्या इसके अलावा भी कुछ हो सकता है? प्राचीन विश्व की फि़र से खोज करने, प्रकृति के सोतों में नहाकर ताजा हो जाने की वह खुशी जिससे पुनर्जागरण काल की महान कृतियों का जन्म हुआ था, हमारे युग की कला से नदारद है; क्रान्तिकारी आदर्शों से रहित यह अब तक ठंडी पड़ी रही है, और किसी दूसरे आदर्श के अभाव में हमारी कला सोचती है कि यथार्थवाद के रूप में इसे एक नया आदर्श मिल गया है। यह बड़े मनोयोग से किसी पौधे की पत्ती पर पड़ी ओस की बूंद का हूबहू चित्र उकेरती है, किसी गाय के पैर की मांसपेशियों की नकल उतारती है, या गद्य और पद्य में किसी सीवर की दमघोंटू गंदगी या ऊंचे दर्जे की वेश्या के कमरे का सटीक वर्णन प्रस्तुत करती है।

 आप कहते हैं, “लेकिन अगर ऐसा है, तो क्या करना होगा?” मेरा जवाब है, अगर आपके मुताबिक आपके भीतर मौजूद पवित्र अग्नि सुलगती ढिबरी की बत्ती से ज्यादा नहीं है तो आप वैसा ही करते रहेंगे जैसा करते रहे हैं और आपकी कला बहुत जल्दी ही सेठों की दुकानों की सजावट करने, तीसरे दर्जे के आपेराओं की पुस्तकों और क्रिसमस पर छपने वाली वार्षिक पुस्तकों में बेलबूटे बनाने तक पतित होकर रह जायेगी आपमें से ज्यादातर आंख मूंदे इसी रास्ते पर दौड़े चले जा रहे हैं…

लेकिन अगर आपका दिल वाकई इंसानियत के लिए धड़कता है, अगर एक सच्चे कवि की तरह आप जीवन के स्वरों को सुन सकते हैं, तो अपने चारों ओर लहराते दुख के इस सागर को आप देखेंगे, भूख से मरते इन लोगों का सामना करेंगे, खदानों में एक के ऊपर एक पड़ी लाशों और बैरीकेडों पर क्षत-विक्षत शवों के बीच खुद को महसूस करेंगे, देशनिकाले की सजा पाये कैदियों की उन लम्बी कतारों को देखेंगे जो साइबेरिया की बर्फ़ और कटिबंधीय टापुओं के दलदलों में दफ्न होने जा रहे हैं; जीवन-मृत्यु के इस संघर्ष को आप देखेंगे जो लड़ा जा रहा है पराजितों के आर्तनादों और विजेताओं के अश्लील अट्टहासों के बीच, कायरता से टकराती वीरता के बीच, घृणित धूर्तता का सामना करती उदात्त दृढ़ता के बीच इस सबको देखकर आप तटस्थ नहीं रह सकेंगे; आप आयेंगे और उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़े होंगे क्योंकि आप जानते हैं कि सौन्दर्य, उदात्तता, खुद जीवन की भावना उन लोगों के पक्ष में है जो लड़ रहे हैं प्रकाश के लिए, मानवता के लिए, न्याय के लिए!

आखिरकार आप मुझे रोक देते हैं!

आप कहते हैं, “क्या बकवास है! लेकिन अगर शुद्ध विज्ञान विलासिता है और डाक्टरी की प्रैक्टिस महज ठगी है; अगर कानून का मतलब नाइंसाफ़ी है और नये यंत्रें का आविष्कार बस डकैती का एक और साधन है; अगर ‘व्यावहारिक आदमी’ की सहजबुद्धि के विपरीत खड़े स्कूल को भी बदलने की जरूरत है; और अगर क्रान्तिकारी विचार से रहित कला सिर्फ़ पतित ही हो सकती है तो फि़र मेरे करने के लिए बचता ही क्या है?”

अच्छी बात है, मैं आपको बताता हूं।

एक बहुत बड़ा और बेहद रोमांचक काम; एक ऐसा काम जिसमें आपकी कार्रवाइयों का आपकी अंतश्चेतना से पूरा तालमेल होगा, एक ऐसा उद्यम जो आपमें सबसे उदात्त और ऊर्जस्वी भावनाएं जगाने में सक्षम है।

कौन सा काम? मैं आपको बताता हूं।

यह तय करना आपका काम है कि आप लगातार अपनी अंतरात्मा को धोखा देते रहेंगे और आखिरकार एक दिन कहेंगे: “भाड़ में जाये इंसानियत, जब तक लोग इतने मूर्ख हैं कि आप कुछ भी कर सकें, तब तक क्यों न मैं हर तरह के सुख-साधन जुटाऊं और उन्हें जमकर भोगूं?” या एक बार फि़र वही अवश्यंभावी विकल्प आपके सामने होगा कि आप समाजवादियों के साथ आयें और उनके साथ मिलकर समाज को पूरी तरह बदल डालने के लिए काम करें। हम जिस विश्लेषण से गुजरे हैं वह हमें इसी नतीजे पर पहुंचाता है, इससे अलग कुछ नहीं हो सकता। हर बुद्धिमान व्यक्ति इसी तार्किक नतीजे पर पहुंचेगा, बशर्ते कि वह अपने चारों ओर मौजूद स्थितियों को ईमानदारी और विवेक के साथ देखे और उन छलपूर्ण तर्कों को दरकिनार कर दे जो बुर्जुआ शिक्षा तथा उसके इर्दगिर्द मौजूद स्वार्थपूर्ण हित उसके कानों में फ़ुसफ़ुसाते रहते हैं।

जैसे ही हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, “फि़र करना क्या होगा?”

जवाब आसान है।

इस माहौल को छोड़ दीजिए जिसमें आप पले हैं और जहां यह कहना एक फ़ैशन है कि जनता पशुओं के झुण्ड के सिवा कुछ नहीं है; आम लोगों के बीच आ जाइये जवाब खुद-ब-खुद मिल जायेगा।

आप देखेंगे कि हर कहीं, इंग्लैण्ड में, फ्रांस में, जर्मनी में, इटली में, रूस में और यहां तक कि अमेरिका में, हर कहीं जहां भी एक वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त हैं और एक वर्ग उत्पीड़ित है, वहां मेहनतकश वर्ग के बीच जबर्दस्त काम चल रहा है, जिसका लक्ष्य है पूंजीवादी सामंती शासन द्वारा लादी गयी गुलामी को हमेशा के लिए खत्म कर देना और एक ऐसे समाज की बुनियाद डालना जो इंसाफ़ और बराबरी पर टिका हो। जनता का आदमी अब अपना दुख उन गीतों में उड़ेलकर नहीं रह जाता जिनके सुर आपके दिल को चीर कर रख देते हैं; जैसे गीत ग्यारहवीं सदी के भूदास गाते थे और स्लाव किसान आज भी गाते हैं। वह अपना अधिकार पाने के लिए अपने साथी मेहनतकशों के साथ मिलकर जूझता है, उसे मालूम है कि वह क्या कर रहा है और अपने रास्ते की हर रुकावट से भिड़ने के लिए वह तैयार है।

उसके विचार लगातार यह सोचने पर केन्द्रित रहते हैं कि ऐसा क्या किया जाये जिससे जीवन तीन-चौथाई मनुष्यों के लिए अभिशाप न रहे, बल्कि सबके लिए वास्तविक आनन्द बन जाये। वह समाजशास्त्र की सबसे बीहड़ समस्याओं को लेता है और अपने विवेक, अपनी प्रेक्षण क्षमता और श्रमपूर्वक जुटाये अपने अनुभव से उन्हें हल करने की कोशिश करता है। अपनी ही जैसी बदहाली में जी रहे दूसरे लोगों  के साथ आपसी समझदारी बनाने के लिए वह समूह बनाने की, संगठित होने की कोशिश करता है। वह संस्थाएं गठित करता है जो छोटे-छोटे चंदों के दम पर मुश्किल से चलती हैं; वह सीमा पार के अपने जैसे लोगों से रिश्ते बनाने की कोशिश करता है; और वह उन दिनों की तैयारी करता है जब लोगों के बीच युद्ध असम्भव हो जायेंगे वह उन हवाई मानवतावादियों से कहीं बेहतर ढंग से यह काम करता है जो विश्व शान्ति का नारा लेकर उछलकूद करते रहते हैं। यह जानने के लिए उसके बंधु क्या कर रहे हैं, उनके साथ ज्यादा करीबी जुड़ाव बनाये रखने के लिए, अपने विचारों को प्रस्तुत करने और फ़ैलाने के लिए वह अपना छापाखाना चलाता है लेकिन कितनी मुश्किलें उठाकर, कैसे अनवरत काम की बदौलत वह यह कर पाता है! आखिरकार, जब वह घड़ी आ जाती है, तो वह उठता है, फ़ुटपाथों और बैरिकेडों को अपने खून से लाल करता हुआ वह उन स्वतंत्रताओं को हासिल करने के लिए झपट पड़ता है जिन्हें धनी और ताकतवर लोग बाद में फि़र से भ्रष्ट कर देंगे और उसी के खिलाफ़ मोड़ देंगे।

कोशिशों का कैसा अंतहीन सिलसिला है! कभी न रुकने वाला कैसा संघर्ष है! हर बार नये सिरे से शुरू होने वाली कैसी कड़ी मेहनत है; कई बार तो बीच में ही लड़ाई छोड़ जाने वालों से खाली हुई जगहों की भरपाई करनी पड़ती है यह नतीजा होता है थकान का, आत्मा के भ्रष्ट हो जाने का, प्रताड़नाओं का; कई बार बर्बर हमलों और ठण्डे दिमाग से किये गये हत्याकाण्डों से तबाह हुई फ़ौजों की भरपायी करनी पड़ती है। कभी-कभी बड़े पैमाने पर किये गये कत्लेआम से एक झटके से तोड़ दी गयी कड़ियों को फि़र से, अध्यवसायपूर्वक जोड़ना पड़ता है और नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है।

ये अखबार उन लोगों की बदौलत चलते रहते हैं जो खुद को नींद और भोजन से वंचित करके समाज से ज्ञान के चंद कतरे जुटा लेते हैं; आंदोलन उन चंद सिक्कों के दम पर जीवित रहता है जो जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं में से भी कटौती करके दिये जाते हैं; और यह सब लगातार मौजूद इस खतरे की छाया में चलता है कि जैसे ही मालिक को यह पता चलेगा कि “उसका मजदूर, उसका गुलाम, समाजवाद के रंग में रंगा है” वैसे ही उसका परिवार भीषण दुख-तकलीफ़ के भंवर में घिर जायेगा।

अगर आप जनता के बीच जायेंगे तो आप यही देखेंगे।

अपने बोझ के तले लड़खड़ाते हुए इस अंतहीन संघर्ष में मेहनत करने वाले इंसान ने न जाने कितनी बार यह सवाल किया है:

”कहां हैं, कहां हैं वे नौजवान लोग जिन्हें हमारी कीमत पर शिक्षा मिली है? कहां हैं वे नौजवान जिनके पढ़ने के दौरान हमने उन्हें खिलाया, कपड़े पहनाये? कहां हैं वे जिनके लिए खाली पेट और बोझ से दुहरे होते हुए हमने ये मकान बनाये, ये कालेज बनाये, ये लेक्चर रूम और संग्रहालय खड़े किये? कहां हैं वे लोग जिनके फ़ायदे के लिए हमने पीले, थके हुए चेहरों के साथ ये बढ़िया किताबें छापी हैं जिनमें से ज्यादातर को हम पढ़ भी नहीं सकते? कहां हैं वे, वे प्राफ़ेेसर जो दावा करते हैं कि उनके पास मानवजाति का तमाम ज्ञान-विज्ञान है, और जिनके लिए मानवजाति भी किसी दुर्लभ कीड़े से बढ़कर नहीं है? कहां हैं वे लोग जो हमेशा ही मुक्ति की प्रशंसा में भाषण देते रहते हैं लेकिन हमारी स्वतंत्रता के बारे में कभी नहीं सोचते जो रोज-ब-रोज उनके कदमों तले कुचली जाती है? कहां हैं वे, वे लेखक और कवि, वे चित्रकार और मूर्तिकार? एक शब्द में, कहां है पाखण्डियों का वह पूरा गिरोह जो आंखों में आंसू भरकर जनता के बारे में बातें करता है लेकिन जो कभी गलती से भी हमारे बीच नहीं नजर आता, हमारे कमरतोड़ जीवन में हमारी मदद करता नहीं दिखता?”

कहां हैं वे, वाकई, कहां हैं?

अरे, कुछ तो कायरतापूर्ण उदासीनता के साथ आराम से जी रहे हैं; और बाकी, ज्यादातर लोग “गंदी भीड़” से नफ़रत करते हैं और अगर इस भीड़ ने उनके एक भी विशेषाधिकार को हाथ लगाने की जुर्रत की तो उस पर टूट पड़ने के लिए तैयार रहते हैं।

यह सच है कि कभी-कभी ऐसा कोई नौजवान हमारे बीच आता है जो ढोल-नगाड़ों और बैरिकेडाें के सपने देखता है और सनसनीखेज दृश्यों की चाहत रखता है, लेकिन जैसे ही उसे पता चलता है कि बैरिकेड की मंजिल तक का रास्ता लम्बा है, काम कठिन है और इस मुहिम में मिलने वाली सराहना का मुकुट कांटों से भरा है, वैसे ही वह जनता की लड़ाई को छोड़कर चल देता है। आम तौर पर ऐसे लोग महत्वाकांक्षी मंसूबेबाज होते हैं जो अपने पहले प्रयासों में नाकाम रहने के बाद इस तरीके से लोगों को फ़ुसलाकर उनके वोट हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैसे ही जनता उन्हीं के बताये उसूलों को लागू करना शुरू करती है वैसे ही वे उसकी निंदा करने में सबसे आगे हो जाते हैं; अगर लोगों ने उनके, यानी आंदोलन के नेताओं के इशारा करने के पहले आगे बढ़ने की जुर्रत कर दी तो शायद ये तोपों और राइफ़लों का मुंह उनकी ओर मोड़ने के लिए भी तैयार हो जायेंगे।

इस सबमें जहरीला अपमान, दम्भपूर्ण घृणा और कायरतापूर्ण गालियों को जोड़ दीजिए और आप समझ जायेंगे कि सामाजिक क्रान्ति के रास्ते में उच्च और मध्य वर्गों के ज्यादातर युवकों से लोग आजकल क्या उम्मीद कर सकते हैं।

लेकिन तब आप पूछेंगे, “हमें क्या करना होगा?” जबकि करने को सबकुछ पड़ा हुआ है! काम इतना है कि नौजवान लोगों की पूरी सेना अपनी समस्त युवा ऊर्जा खपा सकती है, अपनी मेधा और प्रतिभा की पूरी ताकत इस महान काम में लोगों की मदद करने में लगा सकती है!

हमें क्या करना होगा? सुनिए।

शुद्ध विज्ञान के प्रेमियो, अगर आप समाजवाद के उसूलों से लैस हैं, अगर आप दरवाजे पर दस्तक दे रही क्रान्ति के वास्तविक अर्थ को समझ गये हैं, तो क्या आप यह नहीं देखते कि अगर विज्ञान को नये उसूलों के साथ एकता कायम करनी है तो इसे नये सांचे में ढालना होगा; क्या आप यह नहीं देखते कि इस क्षेत्र में आपको उससे भी बड़ी क्रान्ति करनी है जैसी क्रान्ति अठारहवीं सदी में विज्ञान की हर शाखा में की गयी थी? क्या आप यह नहीं समझते कि इतिहास जो आज महज महान राजाओं, महान राजनीतिज्ञों और महान संसदों के बारे में किस्से-कहानियां भर है कि इतिहास को भी जनता के नजरिये से फि़र से लिखा जाना है, मानवजाति के लम्बे विकासक्रम में जनता द्वारा किये गये काम के नजरिये से लिखा जाना है? क्या आप यह नहीं देखते कि सामाजिक अर्थशास्त्र जो आज महज पूंजीवादी डकैती पर पवित्र आवरण डालने का काम करता है के मूलभूत सिद्धान्तों को और इसके असंख्य अमलों को भी नये सिरे से रचे जाने की जरूरत है? कि नृतत्वशास्त्र को, समाजशास्त्र को, नीतिशास्त्र को पूरी तरह नये सांचे में ढालना होगा, गहराई से बदल डालना होगा प्राकृतिक परिघटनाओं की अवधारणा के अर्थ में भी और व्याख्या की पद्धतियों की दृष्टि से भी।

तो ठीक है, काम में जुट जाइये! अपनी क्षमताओं को अच्छे लक्ष्य के लिए समपिर्त कर दीजिए। खासकर, अपने स्पष्ट तर्क से पूर्वाग्रहों से लड़ने में हमारी मदद कीजिए और संश्लेषण की अपनी क्षमता से एक बेहतर संगठन की बुनियाद डालने में मदद कीजिए। इससे भी बढ़कर, हमें रोज-ब-रोज की अपनी बहसों में सच्चे वैज्ञानिक अनुसंधान की निर्भीकता को लागू करना सिखाइये और हमें दिखाइये कि सत्य की जीत के लिए किस तरह लोग अपनी जान भी कुर्बान कर देते हैं, जैसा कि आपके पूर्वजों ने किया था।

कड़वे अनुभव से समाजवाद की शिक्षा पाने वाले डाक्टरो, आज, कल या कभी भी हमें यह बताने से थकिये मत कि अगर जीवन और काम की यही स्थितियां बनी रहीं तो लोग तिल-तिलकर मरते रहेंगे; कि जब तक बहुसंख्यक मानवता ऐसी स्थितियों में जीती रहेगी जो अच्छे स्वास्थ्य के लिए विज्ञान द्वारा बतायी स्थितियों के ठीक विपरीत हैं, तब तक आपकी सारी दवाइयां और इलाज बीमारी के विरुद्ध शक्तिहीन रहेंगे; लोगों को इस बात का कायल कीजिए कि असल जरूरत बीमारी के कारणों को मिटाने की है, और हम सबको यह दिखाइये कि इन कारणों को मिटाने के लिए क्या करना जरूरी है।

अपने नश्तर लेकर आइये और हमारे सामने अपने अचूक हाथ से इस सड़ते हुए समाज की चीर-फ़ाड़ करके दिखाइये। हमें बताइये कि विवेकपूर्ण जीवन कैसा होना चाहिए और कैसा हो सकता है। सच्चे सर्जनों की तरह जोर देकर कहिये कि जिस अंग में गैंगरीन हो गया हो उसे काटकर फ़ेंक देना होगा वरना पूरे शरीर में जहर फ़ैल जायेगा।

आपमें से जो उद्योगों में विज्ञान लागू करने पर काम करते रहे हैं, आइये और हमें साफ़-साफ़ बताइये कि आपकी खोजों का क्या परिणाम रहा है। जो लोग भविष्य की ओर निडर होकर बढ़ने में हिचकिचा रहे हैं उन्हें समझाइये कि मानवजाति द्वारा अर्जित ज्ञान के गर्भ में कैसे विस्मयकारी नये आविष्कार छुपे हुए हैं, बेहतर परिस्थितियां पाकर उद्योग क्या कमाल दिखा सकता है, मनुष्य अगर दूसरों के लिए खटने के बजाय खुद के लिए श्रम करें तो वे कितना उत्पादन कर सकते हैं।

कवियो, चित्रकारो, मूर्तिकारो, संगीतकारो, अगर आप अपने असली मिशन को और स्वयं कला के वास्तविक हित को समझ गये हैं, तो हमारे साथ आइये। अपनी कलम, अपनी तूलिका, अपनी छेनी, अपने विचारों को क्रान्ति की सेवा में लगाइये। अपनी भावपूर्ण शैली में, या अपने प्रभावशाली चित्रें में हमारे सामने उत्पीड़कों के विरुद्ध जनता के बहादुराना संघर्षों की तस्वीर पेश कीजिए; हमारे नौजवानों के दिलों में उसी क्रान्तिकारी उत्साह की अग्नि प्रज्ज्वलित कीजिए जिससे हमारे पुरखों की आत्माएं दमकती थीं; महिलाओं को बताइये कि सामाजिक मुक्ति के महान लक्ष्य के लिए अपना जीवन बलिदान कर देने वाले पति का पेशा कितना उदात्त है! लोगों को दिखाइये कि उनका वास्तविक जीवन कितना भयानक है, और इसकी कुरूपता के कारणों पर उंगली रखिए; हमें बताइये कि अगर हर कदम पर हमारी वर्तमान समाज व्यवस्था की मूर्खताएं और अपमानजनक क्षुद्रताएं अड़चनें न डालें तो जीवन कितना विवेकपूर्ण हो सकता है।

अंत में, आप सब जिनके पास ज्ञान, प्रतिभा, क्षमता और उद्यम है, अगर आपके स्वभाव में सहानुभूति की एक भी चिंगारी है तो आइये, अपने साथियों के साथ आइये और अपनी सेवायें उनको दीजिए जिन्हें उनकी सबसे अधिक जरूरत है। अगर आप आते हैं तो याद रखिये कि आप मालिकों की तरह नहीं, उस्तादों की तरह नहीं बल्कि संघर्ष के हमराह साथियों की तरह आये हैं; कि आप राज करने, हुक्म चलाने नहीं बल्कि एक ऐसे नये जीवन में नयी शक्ति पाने आये हैं जो भविष्य पर विजय पाने के लिए एक उत्ताल तरंग की तरह आगे बढ़ रहा है: कि आप सिखाने कम और बहुतों की आकांक्षाओं को समझने ज्यादा आये हैं; इसलिए आये हैं कि इन आकांक्षाओं को ऊंचा दर्जा दें, उन्हें आकार दें, और फि़र उन्हें वास्तविक जीवन में साकार करने के लिए युवावस्था के तमाम जोश और उम्र के तमाम होश के साथ बिना रुके और बिना जल्दबाजी के काम में जुट जायें। तभी और सिर्फ़ तभी आप एक पूर्ण, एक उदात्त और एक विवेकपूर्ण जीवन बिता सकेंगे। तभी आप यह देखेंगे कि इस राह पर आपका हर प्रयास प्रचुर मात्र में अपने फ़ल लेकर आयेगा।  जब एक बार आपके कार्यों और आपकी अंतश्चेतना के निर्देशों में यह उदात्त एकता कायम हो जायेगी तो यह आपको इतनी ताकत दे देगी जिसका आपने कभी सपना भी नहीं देखा होगा।

लोगों के बीच रहकर, उनका सम्मान और कृतज्ञता अर्जित करते हुए सत्य, न्याय और समानता के लिए अनवरत संघर्ष सभी राष्ट्रों के नौजवान इससे बढ़कर किस कैरियर की चाहत कर सकते हैं?

खाते-पीते घरों के आप लोगों को यह बताने में मुझे काफ़ी समय लगा है कि जीवन आपके सामने द्वंद्व उपस्थित कर रहा है, अगर आप साहसी और ईमानदार हैं तो आप समाजवादियों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने के लिए आने पर मजबूर होंगे और उनकी कतारों में शामिल होकर सामाजिक क्रान्ति के लक्ष्य को आगे बढ़ायेंगे। लेकिन यह सत्य कितना सीधा-सादा है! लेकिन जब आप बुर्जुआ परिवेश के प्रभाव में पले-बढ़े लोगों से बात कर रहे हों तो कितने सारे झूठे तर्कों से लड़ना होता है, कितने सारे पूर्वाग्रहों पर विजय पानी होती है, कितनी सारी स्वार्थपूर्ण आपत्तियों को दरकिनार करना होता है!

आज आप लोगों से बात करने में, जनता के नौजवानों से बात करने में संक्षिप्त बात कहना आसान है। तर्क और कार्रवाई करने का साहस आप में चाहे जितना भी कम हो, घटनाओं का दबाव ही आपको समाजवादी बनने के लिए मजबूर कर देगा।

मेहनतकश लोगों का हिस्सा होते हुए भी समाजवाद की विजय के लिए खुद को समर्पित नहीं करना वास्तविक हितों की गलत समझदारी रखना है, अपने लक्ष्य को और सच्चे ऐतिहासिक मिशन को बीच में ही छोड़ देना है।

क्या आपको बचपन का वह समय याद है जब जाड़े की एक सुबह आप अपने अंधेरे अहाते में खेलने गये थे? आपके हल्के कपड़ों से होकर ठण्ड आपके शरीर को काट रही थी और सर्द कीचड़ आपके घिसे हुए जूतों में घुस गया था। उस उम्र में भी जब आपने गर्म कपड़ों से ढंके हुए लाल-लाल गालों वाले बच्चों को दूर से गुजरते देखा था जो आपको हिकारत की नजर से घूर रहे थे, तभी आप अच्छी तरह जान गये थे कि सर से पांव तक ढंके हुए ये नन्हें शैतान आपके या आपके साथियों की बराबरी नहीं कर सकते, न अकल में, न कामनसेंस में और न ही फ़ुर्ती और ताकत में। लेकिन बाद में जब आपको सुबह पांच या छह बजे से एक गंदे कारखाने में कैद रहकर लगातार बारह घंटे एक घड़घड़ाती मशीन के पास खड़े रहना पड़ा, और खुद मशीन की तरह दिनो-रात, साल-दर-साल उसके साथ काम करते रहना पड़ा इस पूरे दौरान वे चुपचाप बढ़िया स्कूलों में, अकादमियों में, यूनिवर्सिटियों में शिक्षा पाते रहे। और अब वे ही बच्चे, आपसे कम अक्लमंद, लेकिन बेहतर शिक्षा पाये हुए, आपके मालिक बन गये हैं और जीवन के तमाम सुख तथा सभ्यता के तमाम लाभों को भोग रहे हैं। और आप? किस तरह का जीवन आपकी प्रतीक्षा कर रहा है?

आप एक छोटे से, अंधेरे, नमी भरे कमरे में लौटते हैं जहां कुछ वर्ग फ़ीट में पांच या छह इंसान सुअरों की तरह रहते हैं; जहां आपकी मां, जिसे जीवन ने बीमार कर दिया है और जो उम्र से नहीं बल्कि चिन्ताओं से बूढ़ी हो गयी है, आपको खाने के नाम पर सूखी रोटी और आलू देती है जिसके साथ एक काला-सा द्रव होता है जिसे मजाक में ही चाय कहा जा सकता है। इस सबसे ध्यान बंटाने के लिए आपके पास रोज-ब-रोज बस ये ही एक सवाल होता है, “कल मैं बनिये का उधार कैसे चुकाउंगा और उसके बाद मकानमालिक का भाड़ा कहां से दूंगा?”

क्या! आप तीस-चालीस साल तक इसी दमघोंटू जिन्दगी में घिसटते रहेंगे जैसे आपके मां और पिता जिये थे? क्या आप जीवन भर दूसरों के लिए अच्छे जीवन के तमाम आनन्द, ज्ञान और कला के तमाम सुख जुटाने के लिए खटते रहेंगे और बदले में बस इसी बात की फि़क्र आपको मिलेगी कि कल की रोटी कहां से आयेगी? क्या आप खुद को कमरतोड़ काम की चक्की में पीस डालेंगे और बदले में सिर्फ़ मुश्किलें और बदहाली हासिल करेंगे जब संकट का समय आपको बेरोजगार कर देगा? क्या आप जीवन से बस यही चाहते हैं?

शायद आप हार मान लेंगे। अपनी स्थिति से बाहर निकलने का कोई भी रास्ता न पाकर शायद आप खुद से कहेंगे, “पूरी की पूरी पीढ़ियां इसी नियति से गुजरी हैं, और मैं तो कुछ बदल नहीं सकता, इसलिए मुझे भी झुकना ही होगा। तो ठीक है, मैं भी खटता रहूंगा और जैसे भी बन पड़े जी लूंगा!”

अच्छी बात है। ऐसी हालत में जिन्दगी खुद आपको ठोकरों से बहुत कुछ सिखा देगी।

एक दिन आर्थिक संकट आयेगा, वैसा आर्थिक संकट जो अब पहले की तरह कभी-कभी नहीं आता बल्कि ऐसा संकट जो एक पूरे उद्योग को तबाह कर देता है, जो हजारों मजदूरों को भयंकर बदहाली में धकेल देता है, जो पूरे के पूरे परिवारों को कुचल डालता है। बाकी सबकी तरह आप भी इस आपदा के विरुद्ध जूझते हैं। लेकिन जल्दी ही आप देखेंगे कि किस तरह आपकी पत्नी, आपका बच्चा, आपका दोस्त, धीरे-धीरे अभावों के शिकार बन जाते हैं और आपकी आंखों के सामने घुल-घुलकर मर जाते हैं। सिर्फ़ पेट भर खाने की कमी, देखभाल और डाक्टरी मदद की कमी से वे गरीब के फ़टेहाल बिस्तर पर दम तोड़ देते हैं जबकि धूप से चमकते महानगर की सड़कों पर अमीरों के झुण्ड के झुण्ड मौज-मस्ती में गुजरते रहते हैं मरते हुए लोगों की कराहों से बेफि़क्र और बेपरवाह।

तब आप समझेंगे कि कितना घृणित है यह समाज। आप इस संकट के कारणों पर सोचेंगे और अगर आप जांच-पड़ताल करेंगे तो आप इस नापाक व्यवस्था की जड़ों तक पहुंच जायेंगे जो करोड़ों इंसानों को मुट्ठी भर निकम्मे अय्याशों के क्रूर लालच की दया पर छोड़ देती है। तब आप समझेंगे कि समाजवादियों का यह कहना सही है कि हमारे मौजूदा समाज को ऊपर से नीचे तक नये सिरे से संगठित करना होगा और ऐसा किया जा सकता है।

आम संकटों से आगे चलकर अब आपके मामले की बात करते हैं। एक दिन जब आपका मालिक अपनी दौलत को और बढ़ाने के लिए आपसे चंद सिक्के और निचोड़ने के वास्ते मजदूरी में कुछ और कटौती करता है तो आप विरोध करते हैं; लेकिन वह घमण्ड में भरा जवाब देता है, “जो भी मैं दे रहा हूं उस पर काम नहीं कर सकते तो जाकर घास खाओ।” तब आप समझेंगे कि आपका मालिक भेड़ की तरह आपको मूड़ने की ही कोशिश नहीं करता बल्कि उसकी नजर में आप एक निचले दर्जे के जानवर हैं। तब आप समझेंगे कि मजदूरी-व्यवस्था के जरिए आपको अपने सख्त शिकंजे में कस कर रखने से ही वह संतुष्ट नहीं है बल्कि हर तरह से आपको गुलाम बना लेना चाहता है। तब या तो आप उसके आगे घुटने टेक देंगे, आप मानवीय सम्मान की भावना भी छोड़ देंगे और इसका अंत यह होगा कि आप हर तरह का अपमान झेलते रहेंगे। या फि़र आपका खून खौल उठेगा, यह सोचकर आप कांप उठेंगे कि आप कैसे भयावह ढलान पर सरकते जा रहे हैं; आप गुस्से में पलटकर जवाब देंगे और सड़क पर बेरोजगारों की भीड़ में धकेल दिये जायेंगे। तब आप समझेंगे कि समाजवादियों की यह बात कितनी सच है, “विद्रोह करो! इस आर्थिक गुलामी के खिलाफ़ उठ खड़े हो!” तब आप आकर समाजवादियों की कतारों में अपनी जगह लेंगे और आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक, हर तरह की गुलामी को पूरी तरह तबाह कर देने के लिए उनके साथ मिलकर काम करेंगे।

फि़र किसी दिन आप उस सुंदर युवा लड़की की कहानी सुनेंगे जिसकी सधी चाल, खुशनुमा स्वभाव और मुस्कुराहट भरी बातों को आप इतने प्यार से सराहते थे। साल-दर-साल बदहाली से लड़ने के बाद उसने अपना गांव छोड़ दिया और बड़े शहर में चली आयी। वह जानती थी कि यहां जीने का संघर्ष कठिन होगा लेकिन उसे उम्मीद थी कि कम से कम वह ईमानदारी से रोजी-रोटी कमा लेगी। पर आप जानते हैं कि उसकी नियति क्या हुई? किसी पूंजीपति के लड़के ने उस पर डोरे डाले और उसकी छलभरी बातों में आकर लड़की ने नौजवानी की पूरी भावना के साथ खुद को समर्पित कर दिया। लेकिन जल्दी ही उसने पाया कि पूंजीपति के लड़के ने उसे छोड़ दिया है और गोद में अपने बच्चे के साथ वह अकेली रह गयी है। वह साहसी थी और उसने संघर्ष का दामन नहीं छोड़ा लेकिन ठण्ड और भूख के खिलाफ़ इस असमान संघर्ष में वह टूट गयी और उसके अंतिम दिन किसी खैराती अस्पताल में बीते, कोई नहीं जानता किस अस्पताल में…

आप क्या करेंगे? एक बार फि़र आपके सामने दो रास्ते खुले हुए हैं। या तो आप इस अप्रिय याद कोे किसी मूर्खतापूर्ण वाक्य से दरकिनार कर देंगे। आप कहेंगे, “ऐसा करने वाली वह पहली नहीं थी और न ही आखिरी होगी।” शायद किसी दिन अपने ही जैसे दूसरे पशुओं के साथ आप किसी सार्वजनिक जगह पर उस लड़की की याद पर कालिख पोतते हुए कोई अश्लील लतीफ़ा सुना रहे होंगे। या फि़र गुजरे दिनों की यादें आपके दिल को छू लेंगी; आप उस धोखेबाज धनपशु को ढूंढ़ेंगे ताकि उसके मुंह पर करारा तमाचा जड़ सकें; आप रोज होने वाली ऐसी घटनाओं के कारणों पर सोचेंगे और समझ जायेंगे कि जब तक समाज दो खेमों मेें बंटा हुआ है तब तक इन पर रोक नहीं लगेगी। एक ओर दुनिया के तमाम दुखियारे हैं और दूसरी ओर हैं वे काहिल चिकनी-चुपड़ी बातों में माहिर वासना में डूबे पशु। आप समझ जायेंगे कि इस खाई को पाटने का वक्त अब आ चुका है और आप समाजवादियों के बीच अपनी जगह लेने के लिए दौड़े आयेंगे।

और आप, आम मेहनतकश स्त्रियो, क्या यह सब सुनकर आप पर कोई असर नहीं हुआ? अपनी गोद के बच्चे के सुन्दर सिर को सहलाते हुए क्या आप यह कभी नहीं सोचतीं कि अगर समाज के मौजूदा हालात नहीं बदलते तो कैसा भविष्य उसके इंतजार में है? क्या आप अपनी छोटी बहन और अपने तमाम बच्चों के भविष्य के बारे में कभी नहीं सोचतीं? क्या आप चाहती हैं कि आपके बेटे भी वैसे ही जानवर की तरह खटते रहें जैसे आपके पिता खटे थे, शाम की रोटी के सिवा उनकी कोई चिन्ता न हो और दारू के अड्डे के सिवा उनके जीवन में कोई आनन्द न हो? क्या आप चाहती हैं कि आपके पति, आपके बेटे हमेशा उस नौबढ़ छोकरे की दया पर रहें जो अपने बाप से मिली पूंजी के दम पर उनका शोषण करता है? क्या आप यही चाहती हैं कि वे हमेशा मालिक के गुलाम बने रहें जो उनकी हड्डियों का चूरा तक बेच डाले, धनी शोषकों के चरागाहों में खाद बनने वाले गोबर से बढ़कर उनकी हैसियत न रहे?

नहीं, कभी नहीं; हजार बार नहीं! मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जब आपने सुना कि जोश और दृढ़ता से भरे आपके पतियों ने हड़ताल की मगर अंततः उन्हें सर झुका कर उस घमण्डी बुर्जुआ की शर्तें माननी पड़ीं, तो आपका खून खौल उठा। मैं जानता हूं कि आप उन स्पेनी औरतों को सराहती हैं जो एक जनविद्रोह के समय विद्रोहियों की अगली कतारों में चल रही थीं और जिन्होंने सिपाहियों की संगीनों के आगे अपनी छातियां कर दी थीं। मुझे विश्वास है कि आप उस औरत का नाम इज्जत के साथ लेती हैं जिसने जेल में एक समाजवादी बंदी को क्रूर यातनायें देने वाले दुष्ट अफ़सर के सीने में गोली उतार दी थी। और मुझे यकीन है कि पेरिस की उन महिलाओं के बारे में पढ़कर आपके दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं जिन्होंने गोलों की बौछार की परवाह न करके “अपने आदमियों” को बहादुरी से लड़ते रहने का हौसला दिया था।

आप में से हर एक ईमानदार नौजवान, स्त्री और पुरुष, किसान, मजदूर, दस्तकार और सिपाही, आप में से हर एक समझेगा कि आपके अधिकार क्या हैं और आप हमारे साथ आयेंगे। आप उस क्रान्ति की तैयारी के लिए अपने भाइयों के साथ मिलकर काम करने के वास्ते आयेंगे जो गुलामी की हर निशानी का सफ़ाया करके, बेड़ियों को छिन्न-भिन्न करके, पुरानी सड़ चुकी परम्पराओं को तोड़कर और समस्त मानवजाति के लिए खुशियों से भरे जीवन का नया और व्यापक रास्ता खोलकर आखिरकार सच्ची स्वतंत्रता, वास्तविक समानता और निश्छल बंधुत्व की स्थापना करेगी। तब सभी मनुष्य सबके साथ मिलकर, सबके साथ काम करते हुए अपने श्रम के फ़लों का पूरा आनन्द उठाते हुए, अपनी सभी क्षमताओं का भरपूर विकास करते हुए एक विवेकपूर्ण, मानवीय और सुखपूर्ण जीवन बितायेंगे।

अब कोई यह न कहे कि हम जो एक छोटा सा समूह हैं इस महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए बहुत कमजोर हैं।

जरा गिनिये और देखिए कि इस अन्याय को सहन करने वाले हम जैसे कितने लोग हैं।

हम किसान जो दूसरों के लिए काम करते हैं और खुद भूसी चबाते हैं जबकि हमारे मालिक बढ़िया गेहूं खाते हैं अकेले हमारी तादाद करोड़ों में है।

हम मजदूर जो बढ़िया रेशम और मखमल तैयार करते हैं ताकि हम खुद चिथड़ों में लिपटे रह सकें हमारी भी भारी तादाद है; और जब कारखानों की धड़धड़ हमें थोड़ा भी मौका देती है तो हम सड़कों और चौराहों पर समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ पड़ते हैं।

हम सिपाही जो आदेशों से या हंटरों की मार से हांके जाते हैं, हम जो वे गोलियां खाते हैं जिनके लिए हमारे अफ़सरों को तमगे और पेंशनें मिलती हैं; हम अज्ञानी और अभागे लोग जिन्हें अपने भाइयों को गोली मारने के सिवा कुछ नहीं सिखाया गया हमें तो बस इतना ही करना है कि पूरा घूम जायें उन सजे-धजे अफ़सरों की ओर जो बस हमें आदेश देना जानते हैं। हमें उनके चेहरों पर मौत का पीलापन नजर आ जायेगा।

अरे, हम सब जो रोज खटते और जलील होते हैं, हम सब मिलकर इतनी विराट संख्या में हैं जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता; हम वह समुद्र हैं जो सबको समेट सकता है, सबको स्वाहा कर सकता है।

जिस दिन हम ऐसा करने की ठान लेंगे, उसी दिन इंसाफ़ होगा: उसी क्षण धरती के तमाम अत्याचारी धूल चाटते नजर आयेंगे।

नौजवान भारत सभा जनचेतना की आभारी है जिन्‍होने पुस्तिका की मूल फाइल हमें उपलब्‍ध करवायी। पुस्तिका का परिचय भी वहीं से लिया गया है। 

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One Thought to “नौजवानों से दो बातें”

  1. Nitin nigam

    Thank u so much…. Ye pamplet maine lagbhag 5-6 baar padhi h… Bahut sandaar kitab h…. Jab bhi padta hu har bar kuch naya…. Bahut achhi book.

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