बिना क्रान्ति जाति उन्मूलन सम्भव नहीं! बिना जाति-विरोधी संघर्ष क्रान्ति सम्भव नहीं!

पूँजीवाद का नाश हो! जातिवाद का नाश हो! ब्राह्मणवाद का नाश हो!
बिना क्रान्ति जाति उन्मूलन सम्भव नहीं! बिना जाति-विरोधी संघर्ष क्रान्ति सम्भव नहीं!

साथियो!

साम्प्रदायिक फासीवादी और सवर्णवादी नरेन्द्र मोदी-नीत भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद से मेहनतकश दलित आबादी और धार्मिक अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो गया है। अपने राजनीतिक लाभ के लिए मोदी सरकार ने फासीवादी गुण्डा गिरोहों को खुली छूट दे रखी है। गोरक्षा के नाम पर ऊना में दलितों पर बर्बर अत्याचार से लेकर गोमांस खाने के झूठे आरोप के आधार पर अख़लाक की हत्या तक तमाम उदाहरण दिखला रहे हैं कि हमारे देश में फासीवादी बर्बरता पाँव पसार रही है। इसी प्रकार हिटलर के नेतृत्व में नात्सियों ने भी जर्मनी में यहूदियों और राजनीतिक विरोधियों पर क्रूर अत्याचार किये थे। भारत का संघी फासीवाद अपने नात्सी और फासीवादी पूर्वजों के पद-चिन्हों पर ही चल रहा है।

मेहनतकश दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर गोरक्षा और धर्मरक्षा के नाम पर हमले इसलिए किये जा रहे हैं कि इस देश के आम मेहनतकश लोगों का ध्यान इस बात पर जाये ही नहीं कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से बेरोज़गारी और महँगाई में भयंकर बढ़ोत्तरी हुई है। धार्मिक व जातिवादी उन्माद फैलाया जा रहा है ताकि हम यह न देख सकें कि पिछले दो वर्षों में अडानी और मोदी सरकार की मिलीभगत से दालों की ज़बर्दस्त जमाखोरी के कारण ही आज दाल हमारी खाने की प्लेट से ग़ायब हो चुकी है। हम यह न देख सकें कि पिछले दो वर्षों में मोदी सरकार ने कांग्रेस सरकार की उन्हीं जनविरोधी नीतियों को और ज़्यादा ज़ोर-शोर से लागू किया है, जिसके कारण आज देश में बेरोज़गारों व अर्द्धबेरोज़गारों की संख्या 27 करोड़ को छू रही है; असंगठित मज़दूरों की संख्या 47 करोड़ के करीब पहुँच रही है; 4 करोड़ नौजवान बी.ए.-एम.ए. की डिग्रियाँ लेकर सड़कों की ख़ाक छान रहे हैं। मोदी सरकार और समूची पूँजीवादी व्यवस्था की नाकामयाबी की कड़वी सच्चाइयों पर हमारा ध्यान न जाये इसके लिए ही मेहनतकश दलितों व धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ गोरक्षा के नाम पर एक उन्माद पैदा किया जा रहा है।

साथियो! यह ग़ौरतलब बात है कि आज़ादी के 69 वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे देश में जातिवादी-ब्राह्मणवादी सोच पोर-पोर में समायी हुई है। इस सोच को देश की पूँजीवादी चुनावी राजनीति खुलकर हवा देती है और जनता को बाँटने में इसका पूरा इस्तेमाल करती है। कांग्रेस से लेकर भाजपा तक, राजद से लेकर जद(यू) तक, सपा से लेकर बसपा तक जाति समीकरणों के आधार पर ही अपनी चुनावी गोटें लाल करते हैं। भाकपा, माकपा व भाकपा (माले) जैसी तथाकथित वामपंथी पार्टियाँ भी जाति की समीकरणों को ध्यान में रखकर अपनी चुनावी रणनीतियाँ तैयार करती हैं। साथ ही, स्वयं आम मेहनतकश जनता की मानसिकता में विभिन्न शासक वर्गों ने हज़ारों वर्षों में जातिवाद के ज़हर को गहरे पैठा दिया है। नतीजतन, पूँजीपतियों और उनकी नुमाइन्दगी करने वाली तमाम चुनावी पार्टियों की जनविरोधी नीतियों व हमलों के समक्ष आज आम मेहनतकश जनता एकजुट नहीं हो पाती और जाति के नाम पर बँट जाती है। शहीदे-आज़म भगतसिंह ने कहा था, “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए।” भगतसिंह के ये शब्द आज पहले कहीं से ज़्यादा प्रासंगिक हैं।

आज देश भर में मेहनतकश दलित आबादी भी संघी फासीवादियों के अत्याचारों के खिलाफ़ चुप नहीं बैठ रही है। उसने केवल संविधान और सरकार के भरोसे रहने, रियायतें माँगने और सुधारवाद के भरोसे रहना बन्द कर दिया है। गुजरात में मेहनतकश दलितों ने सम्मान और समानता के हक़ के लिए जो जंग छेड़ी है वह शानदार है। आज देश के मेहनतकश ग़रीब दलित मज़दूर और आम मेहनतकश यह समझ रहा है कि इंक़लाब के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वह समझ रहा है कि केवल शासक वर्गों के साथ सहयोग कर कुछ रियायतें हासिल करने के रास्ते से उसे पिछले आठ दशकों में कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका है। देश का मेहनतकश दलित और पिछड़े वर्गों के दमित ग़रीब लोग समझ रहे हैं कि आरक्षण के ही रास्ते उन्हें बराबरी और इंसाफ़ हासिल नहीं हो सकता है। ग़ौरतलब है, सरकारी नौकरियाँ पिछले कई वर्षों से दो प्रतिशत से भी तेज़ रफ्तार से घट रही हैं। आरक्षण को लागू न करने के सवर्णवादी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ना ज़रूरी है। मगर आरक्षण के भरोसे ही दलित मुक्ति के खोखले सपने परोसने वालों से सावधान रहें। यदि पिछले कई दशकों के आरक्षण के बाद भी आज देश में 90 प्रतिशत दलित ग़रीबी, अपमान और अन्याय झेल रहे हैं, तो क्या यह सिद्ध नहीं होता कि दलित मुक्ति की पूरी परियोजना को आरक्षण पर सीमित करना एक साज़िश है? दलितों के बीच से जो एक धनी व उच्च मध्यवर्गीय तबका पैदा हुआ है, वह शासक वर्ग का साझीदार है। इस कुलीन मध्यवर्गीय दलित तबके को अब मेहनतकश दलितों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों और अन्याय से कोई लेना-देना नहीं है। यही तबका ही मुख्य रूप से नौकरियों और उच्च शिक्षा में अब आरक्षण का भी लाभ उठा रहा है। मेहनतकश दलितों को इसका लाभ बिरले ही मिल पाता है क्योंकि 87 प्रतिशत दलित स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते। दलितों के बीच से पैदा हुआ यह छोटा सा शासक वर्ग जाति उन्मूलन के संघर्ष से पूरी तरह ग़द्दारी कर चुका है। वरना क्या कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में दलितों के विरुद्ध हुए जघन्य अत्याचारों के बावजूद किसी दलित नेता या नौकरशाह ने जुबानी जमाखर्च की नौटंकी के अलावा कुछ नहीं किया? उल्टे रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज जैसे दलितों के मसीहा बनने वाले घृणित राजनीतिज्ञ सवर्णवादियों और ब्राह्मणवादियों की पालकी ढो रहे हैं! क्या मायावती से लेकर थिरुमावलवन जैसे पूँजीवादी दलित राजनीतिज्ञ वक्त पड़ने पर संघियों और सवर्णवादियों के साथ मोर्चे नहीं बना लेते? दलित मुक्ति के आन्दोलन में व्याप्त व्यवहारवाद ने जाति-उन्मूलन के ऐतिहासिक संघर्ष को बहुत नुकसान पहुँचाया है। व्यवहारवाद का अर्थ है-‘ज़रूरत पड़ने पर गधे को बाप बनाओ’; ‘जो भी शासन में हो उससे सहयोग करो और रियायतें माँगो’; ‘बदलाव जनता के जुझारू क्रान्तिकारी आन्दोलन से नहीं सरकारी कानूनों और नीतियों से होता है’, ‘परिवर्तनकामी रास्ता बेकार है, छोटे-छोटे सुधारों के लिए लड़ते रहो’ वगैरह।

देश की मेहनतकश दलित और पिछड़ी आबादी यह समझ रही है कि सरकारों और संविधान के भरोसे रहकर अब और कुछ हासिल नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज देश भर में दलित मेहनतकश आबादी ने जुझारू संघर्ष और आन्दोलन का रास्ता चुना है। अन्य जातियों के मेहनतकश भी काफी हद तक उनका साथ दे रहे हैं। लेकिन अभी इस वर्ग एकजुटता को और ज़्यादा बढ़ाने की आवश्यकता है। मज़दूरों और आम मेहनतकशों को यह समझना होगा कि जातिवादी रूढ़िवादी विचारों को त्यागे बग़ैर उनका भला नहीं है। बजाय अपने दुश्मन के विरुद्ध लड़ने के, वे आपस में ही लड़ मरेंगे। क्या आपने सोचा है कि जातिवादी उत्पीड़न के शिकार हमेशा ग़रीब दलित क्यों होते हैं? कोई नौकरशाह या नेताशाह दलित कभी इसके निशाने पर क्यों नहीं होता? क्या आपने कभी सोचा है कि जाति-आधारित हिंसा में कोई अमीर सवर्ण या कुलीन मध्यवर्गीय दलित का घर क्यों नहीं जलता? हमेशा इन उत्पीड़न और दंगों में ग़रीब आबादी क्यों जान-माल का नुकसान उठाती है? इन सवालों पर सोचते ही सच्चाई सामने आने लगती है।

जाति उन्मूलन के संघर्ष में नौजवानों की विशेष भूमिका की ज़रूरत है। हमारे देश में आज़ादी के बाद से जो शहरीकरण व औद्योगिकीकरण हुआ उसने छुआछूत और आनुवांशिक जाति श्रम विभाजन को काफ़ी कमज़ोर किया है, लेकिन अन्तरजातीय विवाहों के न होने के कारण जाति व्यवस्था अपना रूप बदलकर मज़बूती से शासक वर्गों की सेवा कर रही है। अवैज्ञानिक व अतार्किक विचारों ने जातिगत रूढ़ियों को बढ़ावा ही दिया है। वहीं स्त्रियों की गुलामी ने भी जाति व्यवस्था के ध्वंस को मुश्किल बना रखा है। स्त्रियों को चूल्हे-चौखट तक सीमित कर दिया जाता है और उन्हें अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने का हक़ नहीं दिया जाता। नतीजतन, समाज में जाति का दम घोंटने वाला रूढ़िबद्ध ढाँचा भी कायम रहता है। ऐसे में, नवयुवकों और नवयुवतियों को आगे आकर इन अवैज्ञानिक और अतार्किक विचारों पर चोट करनी चाहिए। उन्हें सबसे पहले आकर छुआछूत को तोड़ना चाहिए, अन्तरजातीय विवाहों की परम्परा बहाल करनी चाहिए और शहीदे-आज़म भगतसिंह के विचारों को अपनाते हुए हर प्रकार के ब्राह्मणवादी-मनुवादी विचारों पर पुरज़ोर चोट करनी चाहिए। लेकिन यह कार्य नौजवान तभी कर सकते हैं, जब वे संगठित हों और अपने क्रान्तिकारी युवा संगठन का निर्माण करें। समाज के प्रबुद्ध नागरिकों को भी जाति उन्मूलन की मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जाति-विरोधी मुहिम चलानी चाहिए। दलित उन्मूलन का ऐतिहासिक कार्यभार महज़ दलित आबादी का उत्तरदायित्व नहीं है। जाति का उन्मूलन अस्मिता के आधार पर बने दलित संगठनों या दलित आन्दोलनों के ज़रिये नहीं बल्कि वर्ग-आधारित जाति-विरोधी संगठन व आन्दोलन के ज़रिये ही सम्भव है। यह समूचे क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक प्रमुख एजेण्डा है।

ऐसे वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन को जाति-उन्मूलन की लड़ाई को मज़दूर आन्दोलन, स्त्री मुक्ति आन्दोलन, दमित राष्ट्रीयताओं के आन्दोलन के साथ जोड़ना होगा और एक आमूलगामी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक क्रान्ति को अपना लक्ष्य बनाना होगा। जो लोग यह सोचते हैं कि राजनीतिक व आर्थिक क्रान्ति के बिना ‘सामाजिक क्रान्ति’ हो जायेगी या आर्थिक शोषण के विरुद्ध लड़े बग़ैर सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लड़ा जा सकता है, वे भयंकर ग़लतफ़हमी का शिकार हैं। आर्थिक शोषण हर-हमेशा सामाजिक अन्याय व उत्पीड़न के साथ गुंथा-बुना होता है। इसलिए यह सोचना कि राजनीतिक-आर्थिक क्रान्ति के लिए शहीदे-आज़म भगतसिंह और सामाजिक क्रान्ति के लिए अम्बेडकरवाद, अज्ञानपूर्ण है। शहीदे-आज़म भगतसिंह इस बात को समझते थे कि आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न एक-दूसरे के साथ गुंथे-बुने होते हैं और इन्हें कायम रखने का कार्य शासक वर्ग और उनकी राजनीतिक सत्ता करती है। आर्थिक शोषण सामाजिक उत्पीड़न के ऐतिहासिक सन्दर्भ व पृष्ठभूमि को बनाता है और सामाजिक उत्पीड़न बदले में आर्थिक शोषण को आर्थिक अतिशोषण में तब्दील करता है। यही कारण है कि 10 में से 9 दलित-विरोधी अपराधों के निशाने पर ग़रीब मेहनतकश दलित होते हैं और यही कारण है कि मज़दूर आबादी में भी सबसे ज़्यादा शोषित और दमित दलित जातियों के मज़दूर होते हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के सम्मिश्रित रूपों को बनाये रखने का कार्य शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक सत्ता करते हैं। यही कारण है कि इस आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न को ख़त्म करने का संघर्ष वास्तव में पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता के ध्वंस और मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना का ही एक अंग है। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति को अलग-अलग करके देखना अवैज्ञानिक है और जो बिना राजनीतिक-आर्थिक क्रान्ति के ‘सामाजिक क्रान्ति’ की बात करता है, उसकी सोच सुधारवाद, संविधानवाद और शासकों से रियायतें माँगने से आगे कभी नहीं जा सकती, चाहे वह ब्राह्मणवाद और मनुवाद के बारे में कितनी ही मूर्तिभंजक बातें क्यों न करे। शहीदे-आज़म भगतसिंह का मेहनतकश आबादी के इंक़लाब का रास्ता ही वास्तव में एक ऐसी आमूलगामी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्रान्ति का रास्ता है, जो आर्थिक शोषण के साथ-साथ सामाजिक उत्पीड़न के तमाम रूपों के विरुद्ध कारगर तौर पर संघर्ष को सम्भव बनाता है।

जाति व्यवस्था हमारे देश के पिछड़ने के तमाम कारणों में से एक अहम कारण है। इसके कारण हमारे देश में जनता का जनवादी आन्दोलन कमज़ोर हुआ; इसके कारण आज़ादी की लड़ाई में क्रान्तिकारी पक्ष कमज़ोर हुआ; और इसी के कारण आज पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ाई में आम जनता का पक्ष कमज़ोर हो रहा है। नतीजतन, हमारे देश की ऐतिहासिक प्रगति के रास्ते में जाति-व्यवस्था एक बाधा का काम कर रही है। जाति व्यवस्था का उन्मूलन हमारे समाज की ऐतिहासिक प्रगति को रफ्ऱतार देने के लिए बेहद ज़रूरी है।

हम सभी मेहनतकश दलित भाइयों और बहनों को शहीदे-आज़म भगतसिंह के ये शब्द याद दिलाना चाहेंगे, “उठो, अपनी शक्ति पहचानो! संगठनबद्ध हो जाओ! असल में स्वयं कोशिश किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा। स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को यत्न करना चाहिए—कहावत है, ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’ अर्थात् संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इंकार करने की जुर्रत नहीं कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक न बनो। दूसरों के मुँह की ओर मत ताको। लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है। यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गरीबी और गुलामी का असली कारण है। इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना। उसकी चालों से बचना—तुम असली सर्वहारा हो। संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी। बस गुलामी की ज़ंजीरें कर जाएँगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बग़ावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो और राजनीतिक व आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोए हुए शेरो! उठो और ब़गावत खड़ी कर दो!” (‘अछूत समस्या’, भगतसिंह) शहीदे-आज़म के ये शब्द मानो आज के लिए ही लिखे गये हों। आज इसी कार्यदिशा को समझने की ज़रूरत है।

हम सभी मज़दूर भाइयों और बहनों को याद दिलाना चाहेंगे कि शहीदे-आज़म भगतसिंह ने कहा था कि तुम अपनी गुलामी की बेड़ियाँ तभी काट सकते हो, जब तुम स्वयं जात-पाँत और ऊँच-नीच के अवैज्ञानिक व ढकोसलेपंथी विचारों को छोड़ दो। अगर तुम दलित मेहनतकश साथियों और स्त्रियों को गुलाम समझोगे तो तुम स्वयं भी पूँजी की गुलामी करते रहने के लिए अभिशप्त होगे! शहीदे-आज़म भगतसिंह ने कहा था कि मज़दूर क्रान्ति और मज़दूर सत्ता के लिए मज़दूरों की वर्ग एकजुटता पहली शर्त है। यह वर्ग एकजुटता तभी कायम हो सकती है, जब हम जात-पाँत के विचारों को हमेशा के लिए दफ्ना दें!

हम सभी छात्र-नौजवान दोस्तों और सभी प्रबुद्ध नागरिक साथियों से अपील करेंगे कि अपनी अग्रणी भूमिका को पहचानें! कोई भी समाज क्रान्तिकारी और परिवर्तनकामी युवाओं की कुर्बानियों और अगुवाई के बूते ही आगे बढ़ता है। सच्चा नौजवान वही है जो किसी भी रूप में अन्याय और शोषण के खिलाफ़ विद्रोह और गुस्से से भरा हो। जिस युवा के लिए शोषण, उत्पीड़न, दमन आम बातें हो गयी हैं, वे दिल से बूढ़े हो चुके हैं और नौजवान कहलाने का हक़ खो चुके हैं। जो नागरिक मौजूदा सड़े-गले सामाजिक ढाँचे के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठाते, जो ढकोसलों, अन्धविश्वासों और पाखण्डों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल नहीं फूँकते, क्या उन्हें यह अधिकार है कि वे अपने आपको प्रबुद्ध व जनवादी समुदाय का हिस्सा कहें? हमें पूरा विश्वास है कि हमारे देश के क्रान्तिकारी युवा और बुद्धिजीवी वर्ग अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ेंगे। हम एक शुरुआत कर रहे हैं साथियो! हमें अपने साथ और सहयोग की ज़रूरत है। आइये दोस्तो! इस जाति-विरोधी जनमुहिम का हिस्सा बनें! यह हम सब की मुहिम है। यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है।

जाति-धर्म के झगड़े छोड़ो! सही लड़ाई से नाता जोड़ो!

जाति उन्मूलन का रास्ता-इंक़लाब का रास्ता!

ब्राह्मणवाद का नाश हो! जातिवाद का नाश हो!

अखिल भारतीय जाति-विरोधी मंच

नौजवान भारत सभा   दिशा छात्र संगठन   बिगुल मज़दूर दस्ता

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3 Thoughts to “बिना क्रान्ति जाति उन्मूलन सम्भव नहीं! बिना जाति-विरोधी संघर्ष क्रान्ति सम्भव नहीं!”

  1. कपूर चन्द अपर जिला जज से नि

    महान विद्रोही कवि कबीर के बाद महान विद्रोही लेखक महा पंडित राहुल सांकृत्यान की लेखनी ने देश में व्याप्त पाखण्ड,अन्धविशवास आर्थिक शोषण सामाजिक असमानता वउत्पीड़न के खिलाफ जनता जनार्दन को जागृत किया.

  2. Ambast kumar

    Hme aplog ke sath milkar awaz uthani chahiye, sabse pahle hamlog ko media wale ko sabak sikhana chahiye jo galat afwah felate h unlogo ko desdrohi ka sja dena chahiye kyuki media narad munni ki tarah kisi bhi bat ko bdha chdha kr bolte h or ham log ko jhut ke andhere me rakhte h, ye log paise ke lye talwe chatne ka adi ho gye h or neta log poltics nhi khelte h bas paiso ke lye media poltics khelti h, inhi logo ko jhuti afwah se apas me ladte jhgadte ham ko awaz uthakar jagruk karna hoga taki oo kabhi asa na kare

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