जनता के हक में बने कानूनों को दुरुपयोग के बहाने कमजोर करने की साजिश को पहचानो

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी कानून को कमजोर करने के फैसले को वापस लो!

जनता के हक में बने कानूनों को दुरुपयोग के बहाने कमजोर करने की साजिश को पहचानो

जाति-धर्म के नाम पर ना बंटकर असली मुद्दों पर एकजुट हो

साथियो,

ये पर्चा आपके लिए है अगर आप इंसानियत के पक्ष में हैं, अगर आप मेहनत करने वाले मजदूर हैं या फिर आप एक साफ दिल के बेरोजगार युवा हैं जो तमाम दिक्‍क्‍तों के बावजूद अपने आसपास के लोगों की तकलीफों पर दुखी होता है और कुछ कर गुजरने की सोचता है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि देश भर में आजकल जनता के अलग-अलग हिस्‍सों के संरक्षण के लिए बने विभिन्‍न कानूनों को कमजोर करने का समय चल रहा है। कुछ कानून सीधे संसद में बदले जा रहे हैं तो किसी में कोर्ट द्वारा संज्ञान लेकर परिवर्तन किये जा रहे हैं। मोदी सरकार विभिन्‍न श्रम कानूनों को “व्‍यापार करने की आसानी” के नाम पर बदलने की योजना लम्‍बे समय से बना रही है और इसका ड्राफ्ट तैयार है। जाहिर है कि व्‍यापार आसान तभी होता है जब मजदूरों का शोषण बढ़ता है। ऐसा ही एससी/एसटी कानून के मामले में हो रहा है। देशभर में बेहद अरक्षित दलित आबादी पर होने वाले अत्‍याचारों के खिलाफ 1989 में बने इस कानून को 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमजोर करने का फैसला सुनाया गया। कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के बाद अब एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई है और साथ ही अग्रिम जमानत पर रोक भी हटा दी गई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला साफ तौर पर दर्शाता है कि मोदी सरकार द्वारा आंकड़ों की अनदेखी करते हुए कमजोर दलीलें रखी गई हैं। अभी तक भी फासीवादी-मनुवादी मोदी सरकार की चुप्पी भी इसी ओर संकेत करती है। असल में भाजपा और आरएसएस इस कानून को निष्प्रभावी बनाना चाहती है। ऐसे में सभी गरीब मेहनतकश आबादी और इंसाफपसन्‍द लोगों को इस कानून में परिवर्तन के विरुद्ध एकजुट होकर दलितों पर बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत है क्‍योंकि ये एक एक कर कभी दलित, कभी मजदूर, तो कभी महिलाओं के हकों के संरक्षण के लिए बने कानूनों को निष्‍प्रभावी बनाते रहेंगे।

आप खुद ही देखिए, कानूनों का कितना “दुरुपयोग” होता है
कितने दलितों की हत्‍या कब और कहां न्‍यायिक परिणाम
44 किलवनमनी, तमिलनाडु, 25 दिसम्‍बर 1968 सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया
13 चुंदुर, आन्‍ध्रप्रदेश, 6 अगस्‍त 1991 2014 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया
10 नागरी, बिहार, 11 नवम्‍बर 1998 मार्च 2013 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया
22 शंकर बीघा गांव, बिहार, 25 जनवरी, 1999 जनवरी 2015 में सभी आरोपी बरी
21 बथानी टोला, बिहार, 11 जुलाई 1996 अप्रैल 2012 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया
32 मिंयापुर, बिहार, 2000 2013 में सभी को छोड़ दिया गया
58 लक्ष्‍मणपुर बाथे, 1 दिसम्‍बर 1997 2013 में सभी को छोड़ दिया गया
1 महाराष्‍ट्र का प्रसिद्ध नितिन आगे केस, जिसमें एक नौजवान को गांव के सामने मार दिया गया था, 28 अप्रैल 2014 23 नवम्‍बर 2017 के दिन सबको छोड़ दिया गया

सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून में परिवर्तन करने का  कारण ये बताया कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। देशभर में दलित विरोधी जातिगत नफरत व हिंसा का लम्‍बा इतिहास रहा है व इस फैसले के कुछ ही दिन बाद 29 मार्च के दिन गुजरात में एक दलित की हत्‍या सिर्फ इसलिए कर दी गयी कि वो घोड़ा रखता था। एससी/एसटी एक्ट के बावजूद भी देश में हर घंटे दलितों के खिलाफ 5 से ज्यादा हमले दर्ज होते हैं; हर दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है; अगर दलित महिलाओं की बात की जाए तो उनकी स्थिति तो और भी भयानक है। प्रतिदिन औसतन 6 स्त्रियां बलात्कार का शिकार होती हैं। पिछले दस सालों 2007-2017 में दलित विरोधी अपराधों में 66 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है , 2016 में 48,000 से ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं। साथ में दी गयी तालिका से भी ये स्‍पष्‍ट है कि दलितों के विरुद्ध हुए बर्बर से बर्बर हत्‍याकाण्‍डों में भी सजाएं बिल्‍कुल नहीं हुई। ये चन्द आंकड़े साफ बता रहे हैं कि 70 साल की आजादी के बाद भी गरीब दलित आबादी हक-अधिकारों से वंचित है। महाराष्‍ट्र भी दलित विरोधी अत्‍याचारों के मामले में काफी आगे हैं। खैरलांजी से लेकर नितिन आगे तक की घटनाएं इस चीज की गवाही देती है। बर्बर दलित उत्पीड़न की घटनाएं सरकार के दलित विरोधी चेहरे को उजागर कर देती हैं, साथ ही पुलिस -प्रशासन से लेकर कोर्ट में बैठे अधिकारी भी जातिय मानसिकता से ग्रस्त हैं।  तभी दलितों पर हमले करने वाले ज्यादातर अपराधी बच निकलते हैं। देशभर में एससी/एसटी कानून के तहत वैसे भी वर्तमान में दलित उत्पीडन के मामले की एफआईआर दर्ज कराना सबसे मुश्किल काम होता है। साथ ही पुलिस प्रशासन का रवैया मामले में सजाओं का प्रतिशत काफी कम कर देता है।  दूसरा इस कानून में गलत केस दर्ज कराने पर पीड़ित के विरुद्ध आईपीसी की धारा 182 के अंतर्गत केस दर्ज करके दण्डित करने का प्रावधान पहले से ही है। इसी प्रकार अग्रिम जमानत मिलने तथा उच्च अधिकारियों की अनुमति से ही गिरफ्तारी करने का आदेश इस एक्ट के डर को बिलकुल खत्म कर देगा। हम सभी जानते है कि पहले ही इस एक्ट के अंतर्गत सजा मिलने की दर बहुत कम है। इस प्रकार कुल मिला कर एससी/एसटी एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के इरादे से सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये दिशा निर्देश दलितों की रक्षा की बजाय आरोपी के हित में ही खड़े दिखाई देते हैं जिससे दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही होगी।

साथियो, देश में कानून दो तरह के होते हैं। एक वो कानून जो जनता के एक हिस्‍से या सारे हिस्‍से के हक-अधिकारों से सम्‍बन्धित होते हैं (जैसे महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के लिए बने कानून, मजदूरों के हकों-अधिकारों से सम्‍बन्धित कानून, दलितों पर अत्‍याचार रोकने के लिए बने कानून आदि) और दूसरे कानून वो होते हैं जो जनता का दमन-उत्‍पीड़न करने के लिए सरकार व प्रशासन को ताकत देते हैं (जैसे पुलिस को एनकाउंटर की ताकत देना, फौज को कुछ इलाको में विशेषाधिकार यानि एनकाउंटर व गिरफ्तार करने की इजाजत देना)। हमारे देश की सरकार चाहे वह कांग्रेस की रही हो या अभी भाजपा वाली सरकार हो, वो स्‍पष्‍ट तौर पर पूँजीपतियों के हितों का प्रतिनिधित्‍व करती है। उनके हितों के लिए वो जहां मजदूरों के अधिकारों को लगातार कम कर रही है वहीं सरकार के दमन के अधिकारों को बढ़ा रही है। फर्जी मामलों में मारूति के मजदूरों को चार साल तक जेल में रखना, देश की जेलों में दसियों साल तक मुस्लिम नौजवानों को रखना और बाद में निर्दोष कहकर छोड़ देना,  फर्जी  एनकाउंटर में लोगों को मार देना ये उसी के उदाहरण हैं। अभी आधार कार्ड को अनिवार्य बनाकर भी सरकार और प्रशासन अपने दमन के दायरे को बढ़ाने की योजना बना रहा है। लेकिन सरकार और प्रशासन ये भी जानते हैं कि अगर लोगों के अधिकारों को एक साथ छीना तो बगावत हो  जायेगी इसलिए वो धीरे-धीरे छीनते हैं और साथ ही छीनते समय भी जनता के बीच जातिगत और धार्मिक झगड़े लगा देते हैं। जैसा कि अभी एससी/एसटी कानून के मामले में हो रहा है। जनता को दलित और गैर दलित के बीच बांटा जा रहा है। हमें याद रखना चाहिए कि आज वो अगर जनता के एक हिस्‍से के लिए आए हैं तो कल हमारे लिए भी जरूर आयेंगे।  भारत की पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता (सरकार और पुलिस-प्रशासन) स्‍पष्‍ट तौर पर गरीब विरोधी, दलित विरोधी और महिला विरोधी है यानि इस पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता का एक जातिगत चरित्र भी है और लैंगिक चरित्र भी। यह समझकर ही हम इसके विरुद्ध संघर्ष कर सकते हैं।

दोस्‍तो, आज देशभर में  बेरोजगारी अभूतपूर्व स्‍तर पर है। खेती में मशीनों के आने के साथ बड़े पैमाने पर मजदूर बाहर आ रहे हैं वहीं पूँजीवादी आर्थिक संकट के कारण नये रोजगार उद्योगों में भी नहीं पैदा हो रहे। ऐसे  ही समय में देशभर में साम्‍प्रदायिक और जातिगत तनाव बढ़ाया जा रहा है, आम जनता के हक अधिकार छीने जा रहे हैं। एससी/एसटी कानून 1989 में बदलाव भी पहले से ही दमन-उत्‍पीड़न झेल रही दलित आबादी को ओर अंधेरे में धकेलेगा। हमें इसके विरुद्ध एकजुट होना पड़ेगा। ये जिम्‍मेदारी आज देश के मजदूरों और नौजवानों के कंधे पर है कि वो इसको जल्‍द से जल्‍द समझ लें। हमे हिटलर के समय के एक कवि पास्‍टर निमोलर के शब्‍दों को याद करना पड़ेगा। अगर वो आज यहां होते तो यही कहते

पहले वो आये दलितों के लिए,

मैं कुछ नहीं बोला क्‍योंकि मैं दलित नहीं था।

फिर वो आये मुसलमानों के लिए,

मैं कुछ नहीं बोला क्‍योंकि मैं मुसलमान भी नहीं था

फिर वो आये मजदूरों के लिए,

मैं कुछ नहीं बोला, मैं मजदूर भी नहीं था

और फिर वो आये मेरे लिए

तब तक कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता

इंकलाबी सलाम के साथ,

अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच, नौजवान भारत सभा

ब्राह्मणवाद का एक इलाज, मेहनतकश का इंक़लाब!

मेहनतकश की वर्ग एकता – जि़न्दाबाद, जि़न्दाबाद!

जातियों में बँटेंगे नहीं, एकजुट हो संघर्ष करेंगे!

मुंबई संपर्क: शहीद भगतसिंह पुस्तकालय, रूम २०४, हिरानंदानी बिल्डींग, लल्लूभाई कंपाऊंड, मानखुर्द (प), फोन नं. – 9145332849, 9619039793

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One Thought to “जनता के हक में बने कानूनों को दुरुपयोग के बहाने कमजोर करने की साजिश को पहचानो”

  1. Yes we are right in this issue but we are creat problems
    If you give suggestions so loss of more
    It’s is verey big work
    But we do wo rk hard in this condition

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