शहीद भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू के 84 वें शहादत दिवस (23 मार्च,2014) के अवसर पर

क्या यह सोचकर आपके दिल में तड़प नहीं पैदा होती कि भगतसिंह और उनके नौजवान साथियों की कुरबानी के 84 बरस बीत जाने के बाद भी आज हम पूँजीवादी लूट-खसोट, गैर-बराबरी, शोषण-दमन, अत्याचार और भ्रष्टाचार से भरे वैसे ही समाज में घुट-घुट कर जी रहे हैं जिसे मिटाने के लिए उन जैसे असंख्य नौजवान शहीद हुए थे? क्या आपको नहीं लगता कि यूँ गुलामों की तरह जीना तो मौत से भी बदतर है? क्या ये बेहतर नहीं कि हार और गुलामी को अपनी किस्मत मानने के बजाय शहीदे-आजम भगतसिंह के नारे को फिर से दोहराये कि ‘‘अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है, विद्रोह करो और विद्रोह से क्रान्ति की ओर आगे बढ़ो!’’

भगतसिंह की वैचारिक विरासत और हमारा समय

इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुनःस्मरण-मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर संगठित होकर साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की दिशा और मार्ग का सन्धान करना है, जब एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करने का कार्यभार हमारे सामने है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से हमें कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।