आपके समझौते के बाद आपने अपना आन्दोलन बन्द किया है, और फलस्वरूप आपके सब क़ैदी रिहा हुए हैं। पर क्रान्तिकारी क़ैदियों का क्या? 1915 ई. से जेलों में पड़े हुए ग़दर-पक्ष के बीसों क़ैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं। मार्शल लॉ के बीसों क़ैदी आज भी ज़िन्दा क़ब्रों में दफ़नाये पड़े हैं। यही हाल बब्बर अकाली क़ैदियों का है।
भगतसिंह – राजनीतिक मामलों की पैरवी पर
ऐसे केसों में हमें अपने द्वारा प्रचारित विचारों और आदर्शों को स्वीकार कर लेना चाहिए और स्वतन्त्र भाषण का अधिकार माँगना चाहिए, परन्तु कहाँ यह बात और कहाँ यह कहना कि हमने कुछ कहा ही नहीं! हम इस तरह अपने ही आन्दोलन के हितों के विरुद्ध जाते हैं। कांग्रेस को मौजूदा आन्दोलन में बिना मुक़दमों की पैरवी किये जेल जाने से नुक़सान पहुँचा है। मेरे विचार में यह एक ग़लती थी।
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त – विशेष ट्रिब्यूनल के पुनर्गठन पर
अदालत में क्रान्तिकारियों, ख़ासकर भगतसिंह को संवाददाताओं और जनता के सामने लाठियों और जूतों से मारा गया। भगतसिंह ने भारतीयों को गाली देने पर आपत्ति करते हुए जस्टिस आग़ा हैदर के भारतीय होने पर सवाल किया और पूछा कि ऐसी मानसिक स्थिति वाले जज न्याय कैसे करेंगे? जस्टिस आग़ा हैदर ने उस दिन की कार्रवाई पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। इस घटना की दुनियाभर में चर्चा हुई। सारे भारत में भगतसिंह-दिवस मनाया गया, जिसके फलस्वरूप जस्टिस कोल्डस्ट्रीम को लम्बी छुट्टी पर जाना पड़ा और 21 जून को ट्रिब्यूनल नये सिरे से गठित किया गया। अब जस्टिस जी.सी. हिल्टन को अध्यक्ष व जस्टिस जे.के. टैप और जस्टिस अब्दुल कादिर को सदस्य बनाया गया।
भगतसिंह – अदालत एक ढकोसला है – छह साथियों का एलान
अगर कोई सरकार जनता को उसके इन मूलभूत अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का केवल यह अधिकार ही नहीं बल्कि आवश्यक कर्त्तव्य भी बन जाता है कि ऐसी सरकार को समाप्त कर दे। क्योंकि ब्रिटिश सरकार इन सिद्धान्तों, जिनके लिए हम लड़ रहे हैं, के बिल्कुल विपरीत है, इसलिए हमारा दृढ़ विश्वास है कि जिस भी ढंग से देश में क्रान्ति लायी जा सके और इस सरकार का पूरी तरह ख़ात्मा किया जा सके, इसके लिए हर प्रयास और अपनाये गये सभी ढंग नैतिक स्तर पर उचित हैं। हम वर्तमान ढाँचे के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के पक्ष में हैं। हम वर्तमान समाज को पूरे तौर पर एक नये सुगठित समाज में बदलना चाहते हैं। इस तरह मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असम्भव बनाकर सभी के लिए सब क्षेत्रों में पूरी स्वतन्त्रता विश्वसनीय बनायी जाये। जब तक सारा सामाजिक ढाँचा बदला नहीं जाता और उसके स्थान पर समाजवादी समाज स्थापित नहीं होता, हम महसूस करते हैं कि सारी दुनिया एक तबाह कर देने वाले प्रलय-संकट में है।
भगतसिंह – विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना पर
उन अध्यादेशों से हमारी भावनाओं को कुचला नहीं जा सकता। भले ही आप कुछ इन्सानों को कुचल देने में सफलता हासिल कर लें, लेकिन याद रहे, आप इस राष्ट्र को नहीं कुचल सकते। जहाँ तक इस अध्यादेश का सन्दर्भ है, हम इसे अपनी शानदार सफलता मानते हैं। हम आरम्भ से ही यह बताने का प्रयास करते रहे हैं कि आपका यह क़ानून एक ख़ूबसूरत फ़रेब है। यह न्याय नहीं दे सकता। लेकिन अफ़सोस है कि जेल में जो सुविधाएँ क़ानूनन और इंसाफ़ करके अपराधियों को मिलती हैं और साधारण बन्दियों को भी दी जाती हैं, वे सुविधाएँ भी हम राजनीतिक बन्दियों को नहीं दी जातीं। हम चाहते थे कि सरकार पर्दे से बाहर आये और स्पष्ट कहे कि राजनीतिक बन्दियों को बचाव का कोई अवसर नहीं दिया जा सकता।
गवाहियों की अपेक्षा रसगुल्ले ज़्यादा ज़रूरी
दोपहर में भोजन के बाद कथित अपराधी जतिन सान्याल ने मजिस्ट्रेट से शिकायत की कि उनके लिए बंगाल से रसगुल्ले का पार्सल आया था, लेकिन जेल-अधिकारियों ने वह इस तरह कुचल डाला कि वे खाने योग्य न रहे।
काकोरी केस के बन्दियों के नाम तार
आपकी नाज़ुक हालत के बारे में जानकर बहुत दुख है। हमारा पहला तार आप तक नहीं पहुँचा। हम आपसे हार्दिक निवेदन करते हैं कि सरकार की ओर से बन्दियों के वर्गीकरण के अन्तिम नोटिस को ध्यान में रखते हुए आप अपना संघर्ष त्याग दें। जहाँ तक नये नियमों के लागू होने का प्रश्न है, हमें एक साथ इन्तज़ार करना चाहिए।
हिन्दुस्तानी एसोसिएशन, बर्लिन के नाम तार
उनका जीवन भारतीय मुक्ति के लम्बे संघर्ष के आदर्श में एक राष्ट्रीय सम्पत्ति है, जो आज़ादी की लड़ाई के कार्यकर्ताओं को हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।
स्पेशल मजिस्ट्रेट, लाहौर के नाम
प्रत्येक शिक्षित विचाराधीन क़ैदी को कम से कम एक अख़बार लेने का अधिकार है। अदालत में ‘एक्ज़ीक्यूटिव’ कुछ सिद्धान्तों पर हमें हर रोज़ एक अंग्रेज़ी अख़बार देने के लिए सहमत हुई थी। लेकिन अधूरी चीज़ें न होने से भी बुरी होती हैं। अंग्रेज़ी न जानने वाले बन्दियों के लिए स्थानीय अख़बार देने के अनुरोध व्यर्थ सिद्ध हुए। अतः स्थानीय अख़बार न देने के आदेश के विरुद्ध रोष प्रकट करते हुए हम दैनिक ट्रिब्यून लौटाते रहे हैं।
गृह मन्त्रालय, भारत सरकार को स्मरणपत्र
स्वतन्त्रता के कार्य में जुटे रहने के कारण कंगाल हो गये राजनीतिक कार्यकर्ताओं का क्या होगा? क्या उन्हें किसी न्यायाधीश की दया पर छोड़ दिया जाये, जो प्रत्येक को साधारण अपराधी कहकर अपनी वफ़ादारी सिद्ध करने की कोशिश करता रहेगा। या यह आशा की जाये कि एक असहयोगी जेल से अच्छे व्यवहार की प्रार्थना करते हुए उन लोगों के आगे हाथ फैलायेगा, जिनके विरुद्ध वह जूझ रहा है? क्या यह ढंग इस बेचैनी के कारण को दूर करने का है या बढ़ाने का? तर्क दिया जा सकता है कि जेलों के बाहर दरिद्रता में जीते लोगों को जेलों में ऐशो-आराम की आशा नहीं रखनी चाहिए जहाँ कि उन्हें सज़ा के उद्देश्य से बन्दी बनाकर रखा गया है। पर वे कौन-से सुधार हैं जिनकी ऐश के लिए आवश्यकता होती है? क्या वे मात्र साधारण जीवन-स्तर की आवश्यकताएँ नहीं हैं?