मन्दिर-मस्ज़िद के नाम पर फ़र्ज़ी विवाद खड़े करके जनता को दंगाई भीड़ में तब्दील करने की संघी साज़िशों को नाकाम करो !

मन्दिर-मस्ज़िद के नाम पर फ़र्ज़ी विवाद खड़े करके जनता को दंगाई भीड़ में तब्दील करने की संघी साज़िशों को नाकाम करो !

  • दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा का साझा बयान

पिछले कुछ सालों से मस्ज़िदों के नीचे मन्दिर “ढूॅंढने” के मामलों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। इन कारगुज़ारियों का धार्मिक आस्था से कोई सरोकार नहीं है। इनका कुल मकसद जनता को दंगों की आग में झोंकना है। भाजपा और संघ परिवार का व्यापक हिन्दू आबादी के हितों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इनका एक ही काम है और वह है बहुसंख्यक ग़रीब हिन्दू आबादी का ध्यान उसके तबाह-बर्बाद जीवन से हटाना और अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी को उसके दुश्मन के तौर पर पेश करना। जनता जब धर्म के नाम पर लड़ेगी तो वह इस पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ कैसे लड़ पायेगी जिसके चलते हमारा जीवन नरक हुआ जा रहा है। जनता को आपस में लड़ाकर पूँजीपतियों की सेवा करना ही भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति का सार है। फ़ासीवादियों को अपनी दंगाई राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए जिस छद्म दुश्मन की तलाश होती है भारत में वह मुस्लिम समुदाय को बनाया जा रहा है।

आजकल सम्भल, अजमेर, मथुरा आदि से लेकर तमाम जगहों पर मन्दिर-मस्ज़िद के नाम पर विवाद पैदा करने के प्रयास तेज हो गये हैं। सम्भल में संघी वकीलों के द्वारा स्थानीय कोर्ट के माध्यम से सर्वे का नाटक रचवाया गया। इस उपद्रव में पाँच युवाओं को मौत के घाट उतार दिया गया जिसमें उत्तरप्रदेश पुलिस की संदिग्ध भूमिका सबके सामने है। इससे पहले बहराइच में भी पहले मस्ज़िद के सामने ताण्डव किया गया और फिर पीड़ितों के घरों पर ही बुलडोजर चढ़ा दिया गया। अजमेर से लेकर मथुरा तक में यही करने की तैयारी है। संघी ज़हरखुरानी गिरोह के सोशल मीडिया नेटवर्क और गोदी मीडिया के साम्प्रदायिक प्रचार ने जनता के और खासकर निम्नमध्यवर्ग के बड़े हिस्से को साम्प्रदायिकता के नशे में धकेल दिया है। न्यायपसन्द युवाओं के सामने जनता तक आलोचनात्मक विवेक और सही इतिहासबोध लेकर जाने का काम निश्चय ही आज चुनौतीपूर्ण है।

हालिया मामलों में मस्ज़िदों के नीचे मन्दिर “ढूँढने” के संघी षड्यन्त्रों में न्यायपालिका भी साथ खड़ी दिखायी दी है। स्थानीय अदालतों को पिछले चीफ़ जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ की उस टिप्पणी से भी सहारा मिला है जिसमें वे कहते हैं कि ‘उपासना स्थल अधिनियम 1991’ किसी भी धार्मिक स्थल के अतीत के स्वरूप की पड़ताल या सर्वे करने से नहीं रोकता है। यदि किसी उपासना स्थल के स्वरूप में बदलाव करना ही निषिद्ध है तो सर्वे करके झगड़े-टण्टे का नया विषय पैदा करना बिल्कुल अनुचित है। क्या चन्द्रचूड़ जी को मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़े पैदा करके दंगों की आग में वोट के रोट सेंकने वाले गिरोह की असली मंशा का अहसास नहीं था? यदि नहीं था तो जज साहब बहुत “भोले” हैं! ‘उपासना स्थल अधिनियम 1991’ स्पष्ट तौर पर धार्मिक स्थलों के 15 अगस्त 1947 के पहले के स्वरूप के वैसा ही बना रहने को सुनिश्चित करता है। यदि यह क़ानून सख़्ती से लागू होता है तो सर्वे आदि का कोई सवाल ही नहीं उठता।

अतीत का हिसाब लेने का निरर्थक प्रयास करने पर कोई आमादा हो ही जाये तो उसे ऐसे हज़ारों हिन्दू मन्दिर मिल जायेंगे जिन्हें बौद्ध और जैन धर्म के मठों और उपासना स्थलों को ध्वस्त करके तथा उनकी मूर्तियों तक का स्वरूप बदलकर बनाया गया है। चोल-चालुक्य-राष्ट्रकूट शासकों से लेकर हर्षवर्धन तक अनेक राजा हुए हैं जिन्होंने एक-दूसरे के राज्य के मन्दिरों को लूटा, तोड़ा और उनका स्वरूप बदला। यदि सल्तनत व मुग़ल काल में भी ऐसी कुछ घटनाएँ हुई होंगी तो इसमें नया कुछ भी नहीं था। और असल में सल्तनत व मुग़ल दौरों का तो राज ही मुस्लिम-राजपूत शासन का मिला-जुला रूप रहा है। अतीत में हुए किसी तथाकथित अन्याय का वर्तमान में हिसाब लिया जाना न केवल अन्यायपूर्ण है बल्कि यह देश की जनता के धार्मिक सौहार्द्र में पलीता लगाने की कोशिश भी है। अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने की लड़ी एक जगह नहीं रुकने वाली है। यह हमें दक्षिण अफ़्रीका तक पहुँचा देगी!

जनता अपने आप से मन्दिर-मस्ज़िद की राजनीति में उलझती भी नहीं है। सल्तनत और मुगलकाल के तक़रीबन हज़ार साल के दौरान तमाम ऐसी जातियाँ और समुदाय अस्तित्व में आये जिन्हें खुद नहीं पता था कि वे हिन्दू हैं या मुस्लिम। शासक चाहे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के रहे हों उन्होंने जनता का ख़ून ही चूसा है और हर दौर की जनता भी इस बात को समझती रही है। 1857 की क्रान्ति (जिसमें हिन्दू-मुस्लिम आबादी ने कन्धे से कन्धा मिलाकर फिरंगियों से लोहा लिया था) से पहले भारत में साम्प्रदायिक दंगों का कोई इतिहास नहीं मिलता। भारत में साम्प्रदायिकता के बीज अंग्रेजों ने बोये। संघी फ़ासीवादियों ने इसी साम्प्रदायिकता को आधार बनाया है और देश को नरक की भट्ठी में झोंक दिया है। अपनी फ़ासीवादी राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए किसी भी धार्मिक स्थल को मन्दिर घोषित करना संघियों के लिए चुटकियों का खेल है। न्यायपालिका में बैठे जज साहिबान को भी इनकी हाँ में मुण्डी हिलाने से कोई गुरेज़ नहीं है। देश में मुस्लिम होना ही जैसे आज अपराध बना दिया गया है। योगी से लेकर मोदी तक ‘बटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ जैसे ज़हरीले नारे दे रहे हैं और हिन्दू आबादी में इस्लामोफोबिया का बेशर्मी से प्रसार कर रहे हैं। हिन्दुओं को ख़तरा मुस्लिमों से नहीं है बल्कि नफ़रत के उन सौदागरों से है जिनके राज में बेरोज़गारी, बीमारी और महँगाई ने लाखों लोगों को मौत के मुँह में धकेल दिया। ज़ाहिर सी बात है इसमें बहुसंख्यक आबादी हिन्दू ही रही होगी। हर न्यायप्रिय इन्सान को आज की इस अँधेरगर्दी का विरोध करना चाहिए वरना वह दिन दूर नहीं जब फ़ासिस्ट बूँटों की धमक आपके दरवाज़े पर भी सुनायी देगी और सुनायी दे भी रही है।

इस देश के मेहनतकश लोगों, न्यायप्रिय युवाओं और छात्रों को यह बात समझनी होगी कि हम क्रान्तिकारी परिवर्तन के ज़रिये ही समाज को पूँजीवादी व्यवस्था और इसके सड़ाँध भरे रूप फ़ासीवाद से मुक़्त करा सकते हैं। अशफ़ाक़-बिस्मिल, भगतसिंह-आज़ाद की क्रान्तिकारी विरासत को हमें जनता तक लेकर जाना होगा। हमें साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति का विरोध करना होगा और धर्म, जाति, लिंग की सीमाओं को तोड़ते हुए जन आन्दोलनों का निर्माण करके फ़ासीवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब देना होगा। धर्म को व्यक्तिगत मसला बनाये जाने के मुद्दे पर भी हमें संघर्ष करना होगा। हमें शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा, आवास, महँगाई और भ्रष्टाचार जैसे उन वास्तविक और ठोस मुद्दों को उठाना होगा जो हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं।

जाति-धर्म में नहीं बँटेंगे,

मिलजुल कर संघर्ष करेंगे !

– दिशा छात्र संगठन

– नौजवान भारत सभा

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