16वें लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। हमें फिर चुनने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन चुनने के लिये क्या है? झूठे आश्वासनों और गाली-गलौच की गन्दी धूल के नीचे असली मुद्दे दब चुके हैं। दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों के देश भारत के 66 साल के इतिहास में सबसे महँगे और दुनिया के दूसरे सबसे महँगे चुनाव (30 हज़ार करोड़) में कुपोषण, बेरोज़गारी या भुखमरी मुद्दा नहीं है! बल्कि “भारत निर्माण” और देश के “विकास” के लिए चुनाव करने की दुहाई दी जा रही है! विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है और इसका असर भारत के टाटा, बिड़ला, अम्बानी-सरीखे पूँजीपतियों पर भी दिख रहा है। ऐसे में, भारत का पूँजीपति वर्ग भी चुनाव में अपनी सेवा करने वाली चुनावबाज़ पार्टियों के बीच चुन रहा है। पूँजीवादी जनतंत्र वास्तव में एक धनतंत्र होता है, यह शायद ही इससे पहले किसी चुनाव इतने नंगे रूप में दिखा हो। सड़कों पर पोस्टरों, गली-नुक्कड़ों में नाम चमकाने वाले पर्चों और तमाम शोर-शराबे के साथ जमकर दलबदली, घूसखोरी, मीडिया की ख़रीदारी इस बार के चुनाव में सारे रिकार्ड तोड़ रही है। जहाँ भाजपा-कांग्रेस व तमाम क्षेत्रीय दल सिनेमा के भाँड-भड़क्कों से लेकर हत्यारों-बलात्कारियों-तस्करों-डकैतों के सत्कार समारोह आयोजित करा रहे हैं, तो वहीं आम आदमी पार्टी के एनजीओ-बाज़ “नयी आज़ादी”, “पूर्ण स्वराज” जैसे भ्रामक नारों की आड़ में पूँजीपतियों की चोर-दरवाज़े से सेवा करने की तैयारी कर रही है; भाकपा-माकपा-भाकपा(माले) जैसे संसदीय वामपंथी तोते हमेशा की तरह ‘लाल’ मिर्च खाकर संसदीय विरोध की नौटंकी के नये राउण्ड की तैयारी कर रहे हैं। उदित राज व रामदास आठवले जैसे स्वयंभू दलित मसीहा सर्वाधिक सवर्णवादी पार्टी भाजपा की गोद में बैठ कर मेहनतकश दलितों के साथ ग़द्दारी कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह खड़ा होता है कि हमारे पास चुनने के लिए क्या है?
शहादत दिवस पर देश के विभिन्न हिस्सों में कार्यक्रम
आज हमारे लिए शहादत दिवस मनाना कोई रस्म पूर्ति करना नहीं है बल्कि सच्चे अर्थो में शहीदों के बेहतर समाज बनाने के सपने को सकार करने के लिए शहीदों के जीवन व विचारों से प्रेरणा लेकर इंकलाब की लड़ाई को जारी रखनी होगा | शहीदों की लड़ाई सिर्फ विदेशी हकूमत के खिलाफ़ नहीं थी बल्कि मेहनतकश जनता की देसी लूट के खिलाफ़ भी थी। 1947 से लेकर अबतक देश की मेहनतकश जनता के साथ जो लूट-शोषण-अन्याय होता आया है इस बात की चीखती गवाही है कि भगतसिंह और उनके साथियों के सपनों का समाज बनना अभी बाकी है।लोक सभा चुनावों में जितनी भी पार्टियाँ शामिल हो रही हैं किसी से भी जनकल्याण की कोई उम्मीद नहीं है। किसी भी पार्टी के पास जनकल्याण की कोई ठोस नीति नहीं है सिर्फ खोखले दावे हैं। इन असहनीय हालातों में व्यापक जनता का जागना, संघर्ष के लिए एकजुट होना न टालनेयोग्य बन चुका है।
शहीद भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू के 84 वें शहादत दिवस (23 मार्च,2014) के अवसर पर
क्या यह सोचकर आपके दिल में तड़प नहीं पैदा होती कि भगतसिंह और उनके नौजवान साथियों की कुरबानी के 84 बरस बीत जाने के बाद भी आज हम पूँजीवादी लूट-खसोट, गैर-बराबरी, शोषण-दमन, अत्याचार और भ्रष्टाचार से भरे वैसे ही समाज में घुट-घुट कर जी रहे हैं जिसे मिटाने के लिए उन जैसे असंख्य नौजवान शहीद हुए थे? क्या आपको नहीं लगता कि यूँ गुलामों की तरह जीना तो मौत से भी बदतर है? क्या ये बेहतर नहीं कि हार और गुलामी को अपनी किस्मत मानने के बजाय शहीदे-आजम भगतसिंह के नारे को फिर से दोहराये कि ‘‘अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है, विद्रोह करो और विद्रोह से क्रान्ति की ओर आगे बढ़ो!’’
भगतसिंह द्वारा किया गया ‘माई फ़ाइट फ़ॉर आयरिश फ्रीडम’ का हिन्दी अनुवाद
अंग्रेज़ी न्यायालय एकदम ख़ाली हो गये थे। ‘मृत्युदण्ड’ घोषित किये रहने पर भी प्रजातान्त्रिक न्यायालय खचाखच भरे रहते थे। देशवासियों का झुकाव प्रजातन्त्र की ओर था। अब परिस्थिति भी बहुत बदल चुकी थी। हमारे सैनिक रायफ़लें लेकर खुल्लम-खुल्ला घूमने लगे। जहाँ-तहाँ लोग उनका ख़ूब स्वागत करते।
भगतसिह की जेल नोटबुक: एक महान विचारयात्रा का दुर्लभ साक्ष्य
कैसा अनुपम इच्छा-बल था उस वीर का! उन अकथनीय परिस्थितियों में, फाँसी से पहले एक पुस्तक पढ़ना! परन्तु लेनिन के व्यक्तित्व का प्रभाव इतना प्रबल था कि सुदूर औपनिवेशिक भारत में मृत्युदण्ड प्राप्त क़ैदी उनके जीवन का वर्णन करने वाली पंक्तियों को यों पढ़ते थे, मानो जीवनदायी स्रोत से घूँट भर रहे हों।
शहीदेआज़म की जेल नोटबुक
भारतीय इतिहास के इस दुर्लभ दस्तावेज़ का महत्त्व सिर्फ़ इसकी ऐतिहासिकता में ही नहीं है। भगतसिह के अधूरे सपने को पूरा करने वाली भारतीय क्रान्ति आज एक ऐसे पड़ाव पर है जहाँ से नये, प्रचण्ड वेग से आगे बढ़ने के लिए इसके सिपाहियों को ‘इन्क़लाब की तलवार को विचारों की सान पर’ नयी धार देनी है। यह नोटबुक उन सबके लिए विचारों की रोशनी से दमकता एक प्रेरणापुंज है जो इस विरासत को आगे बढ़ाने का जज़्बा रखते हैं।
भगतसिह की जेल नोटबुक जो शहादत के तिरसठ वर्षों बाद छप सकी
भगतसिह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिह के चिन्तक व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक स्पष्ट रोशनी पड़ी है, उनकी विकास की प्रक्रिया समझने में मदद मिली है और यह सच्चाई और अधिक पुष्ट हुई है कि भगतसिह ने अपने अन्तिम दिनों में, सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था।
भगतसिंह को फाँसी के बाद जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट का प्रमाणपत्र
मैं एतद् द्वारा प्रमाणित करता हूँ कि भगतसिंह को दिये गये मृत्युदण्ड की तामील कर दी गयी है, और कि तद्नुसार उपरोक्त भगतसिंह को सोमवार 23 मार्च, 1931 को शाम 7 बजे लाहौर सेण्ट्रल जेल में गरदन से उस समय तक लटकाये रखा गया जब तक उसकी मृत्यु न हो गयी, कि शरीर पूरे एक घण्टे तक लटका रहा, और उसे तब तक नीचे नहीं उतारा गया जब तक मेडिकल अफ़सर द्वारा जीवन निश्शेष होने की पुष्टि नहीं कर ली गयी; और कि कोई दुर्घटना, त्रुटि या कोई अन्य अनिष्ट नहीं हुआ।
भगतसिंह को सज़ा-ए-मौत की तामीली का ट्रिब्यूनल द्वारा जारी वारण्ट
इस आदेश द्वारा आपको, उपरोक्त सुपरिण्टेण्डेण्ट को, अधिकृत किया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि इस आदेश पर अमल करते हुए 17 अक्टूबर के दिन लाहौर में उपरोक्त भगतसिंह को गरदन से तब तक लटकाया जाये जब तक उसकी मृत्यु न हो जाये, और आदेश पर अमल के प्रमाणपत्र के साथ इस वारण्ट को हाईकोर्ट को वापस भेज दें।
भगतसिह का अंग्रेज़ी हस्तलेख
भगतसिह का अंग्रेज़ी हस्तलेख