भगतसिंह – अराजकतावाद: तीन

अराजकतावाद: तीन

पिछले दो लेखों में हमने अराजकतावाद के सम्बन्ध में सर्वसाधारण तथ्य लिखे थे। ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय पर जोकि दुनिया के पुराने विचारों एवं परम्पराओं के विरुद्ध नया-नया ही सामने आये, इतने छोटे लेख से पाठकों की जिज्ञासा को शान्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अनेक शंकाएँ जन्म लेती हैं। फिर भी हम उनके मोटे-मोटे सिद्धान्त पाठकों के सामने रख रहे हैं जिनसे कि वे इनकी मोटी-मोटी बातें समझ चुके होंगे। अब हम इसी तरह साम्यवाद, समाजवाद और नाशवाद जैसे सिद्धान्तों पर लिखेंगे, ताकि हिन्दुस्तान भी समझ सके कि विदेशों में कौन-कौन-सी विचारधाराएँ चलन में हैं। मगर किसी अन्य विषय पर लिखने से पूर्व अराजकतावाद के सम्बन्ध में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण एवं रोचक बातें लिखने का विचार है जिसमें नाशवाद का इतिहास भी है, अर्थात अराजकतावादियों ने अब तक क्या किया? वे किस प्रकार बदनाम किये गये?

ऊपर हमने उनके विचार बताये हैं। अब हम यह बताना चाहते हैं कि उन्होंने इन विचारों को अमलीजामा पहनाने के लिए क्या किया और किस प्रकार वह बल-प्रयोग से बहुत मज़बूत सरकारों से भिड़ जाते थे और उन मुठभेड़ों में जान की बाज़ी तक लगा देते थे।

दरअसल जब दमन और शोषण सीमा से अधिक हो जाये, जब शान्तिमय और खुले काम को कुचल दिया जाये, तब कुछ करने वाले हमेशा गुप्त रूप से काम करना शुरू कर देते हैं और दमन देखते ही प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाते हैं। यूरोप में जब ग़रीब मज़दूरों का भारी दमन हो रहा था, उनके हर तरह के कार्य को कुचल डाला गया था या कुचला जा रहा था, उस समय रूस के सम्पन्न परिवार से माईकल बैकुनिन को जो रूस के तोपख़ाने में एक बड़े अधिकारी थे, पोलैण्ड के विद्रोह से निबटने के लिए भेजा गया था। वहाँ विद्रोहियों को जिस प्रकार ज़ुल्म करके दबाया जा रहा था, उसे देखकर उनका मन एकदम बदल गया और वे युगान्तकारी बन बैठे। अन्त में उनके विचार अराजकतावाद की ओर झुक गये। उन्होंने सन् 1834 में नौकरी त्याग दी। उसके पश्चात बर्लिन और स्विट्ज़रलैण्ड के रास्ते पेरिस पहुँचे। उस समय आमतौर पर सरकारें इनके विचारों के कारण इनके विरुद्ध थीं। 1864 तक वह अपने विचार पुख़्ता करते रहे और मज़दूरों में प्रचार करते रहे।

बाद में उन्होंने राष्ट्रीय मज़दूर कांग्रेस पर क़ब्ज़ा कर लिया और 1860 से 1870 तक आप अपने दल को संगठित करते रहे। 4 सितम्बर, 1870 में पेरिस में तीसरा पंचायती राज क़ायम करने की घोषणा की गयी। फ्रांस में कई स्थानों पर पूँजीपति सरकार के विरुद्ध लड़ाइयाँ व विद्रोह हुए। लियोन शहर में विद्रोह भड़का। उसमें बैकुनिन शामिल हुए। इनका पलड़ा ही भारी रहा। कुछ ही दिनों बाद वहाँ उनकी हार हो गयी और वे वहाँ से लौट आये।

1873 में हसपानिया में बग़ावत खड़ी हो गयी। उसमें शामिल होकर ये लड़े। कुछ दिन तक तो मामला ख़ूब गरम रहा लेकिन अन्त में वहाँ भी हार हो गयी। वहाँ से लौटे तो इटली में बग़ावत जारी थी। वहाँ जाकर इन्होंने युद्ध की बागडोर हाथ में ले ली। गैरीबाल्डी भी कुछ विरोध के बाद उनके साथ मिल गये थे। कुछ दिनों के दंगों के बाद वहाँ भी हार हो गयी। इस तरह उनका सारा जीवन लड़ने-भिड़ने में गुज़र गया। अन्त में जब वह बूढ़े हो गये तो उन्होंने अपने साथियों को ख़त लिखे कि अब मैं अपने हाथों से नेतृत्व की बागडोर छोड़ता हूँ ताकि काम में रुकावट न पड़े। अन्त में जुलाई, 1876 में बीमारी की हालत में उनका निधन हो गया।

बाद में बहुत ताक़तवर चार व्यक्ति इस कार्य के लिए कमर कसकर तैयार हुए। वे थे कारलो केफियर्स, इटली के रहने वाले, काफ़ी सम्पन्न परिवार से थे। दूसरे, माला टेम्टा। आप बड़े विद्वान डॉक्टर थे। लेकिन आप सभी कुछ छोड़कर युगान्तकारी बन गये। तीसरे, पाल ब्रसी भी बड़े मशहूर डॉक्टर थे। आप भी इसी कार्य में लग गये। चौथे थे पीटर क्रोपोटकिन। आप रूसी परिवार से थे। कई बार मज़ाक़ में कहा जाता था कि असल में आपको ही ज़ार बनना था। आप सभी बैकुनिन के अनुयायी थे। आपने कहा कि हम ज़बान से बहुत प्रचार कर चुके लेकिन कोई असर नहीं होता। नयी-नयी विचारधाराएँ सुनाकर थक गये हैं। जनता पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए अब व्यावहारिक प्रचार आरम्भ किया जाये। क्रोपोटकिन ने कहा –

“A single deed makes more propaganda in a few days than a thousand pamphlets. The Government defends itself. It rages prtilessly, but by this it only caused further deeds to be committed by one or more persons and drives the insurgents to heroism. One deed bringsforth another, opponents join the mutiny, the Govt. splits into factions, harshness intesifies the conflict, concessions come too late, the revolution breaks out.”

अर्थात एक ही व्यावहारिक काम हज़ारों किताबों और पत्रिकाओं से अधिक प्रचार कर देता है। सरकार स्वयं अपनी रक्षा करती है। उसे ग़ुस्सा आता है। जलन होती है और वह दमन करती है। कई लोग थककर प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर कभी ठीक उसी तरह के काम होते हैं तो उन्हें शहीद कर दिया जाता है। विरोधी भी आकर शामिल हो जाते हैं। सरकार तड़पती है। आपस में उनकी नोक-झोंक होने लगती है। जनता की शर्तें स्वीकारने में बेवजह देर की जाती है और इन्‍क़लाब की जंग शुरू हो जाती है। यह विचारों का दृश्य आपके सामने रखा गया है। पीटर क्रोपोटकिन रूसी युगान्तकारियों में से थे। पकड़े जाने के बाद पीटर पाल नामक क़िले में बन्दी बनाये गये थे। उस सख़्त जेल में से ये भाग गये और यूरोप में जाकर अपने विचारों का प्रचार करने लगे। उपरोक्त बातों से पता चलता है कि उस समय उनकी मनःस्थिति क्या थी।

सबसे पहले उन्होंने बर्न नामक शहर में (फ्रांस में) मज़दूरों के शासन की स्थापना वाले दिन की बरसी मनायी। यह बात 18 मार्च, 1876 की है। उस दिन उन्होंने मज़दूरों का जुलूस निकाला और बाज़ार में पुलिस से हाथापाई भी कर बैठे। जब सिपाहियों ने उनके लाल झण्डे को उखाड़ने का प्रयास किया, तब बहुत तगड़ा फ़साद खड़ा हो गया। अनेक सिपाही बुरी तरह घायल हुए। अन्त में ये सभी पकड़े गये और 10 से 40 दिनों तक क़ैद की सज़ा हुई।

उधर अप्रैल माह में इटली में किसानों को उकसाकर अनेक स्थानों पर बग़ावतें खड़ी कर दीं। वहाँ भी इनके साथी पकड़े गये, जिनमें से काफ़ी बरी हो गये। उनका विचार अब इसी तरह से प्रचार का था। इसलिए वे कहा करते थे – Neither money nor organizations nor literature was needed any longer for (for theri propaganda work). One human being in revolt with torch or dynamite was off to instruct the world. अर्थात प्रचार-कार्य के लिए न तो धन की आवश्यकता है, न बड़े पोथों की और न बड़े भारी संगठन की। कोई भी एक आदमी – जिसने हाथ में मशाल पकड़ी हुई हो, जिससे वह आग लगा सके या डाइनामाइट हो जिससे वह एक बार मकानों और ऐसे इन्सानों को उड़ा सके – सारी दुनिया को अपनी इच्छानुसार शिक्षा दे सकता है।

अगले बरस, 1868 से बस ऐसे कामों ने ज़ोर पकड़ लिया। बर्लिन में इटली का बादशाह हम्बर्ट जब अपनी बेटी के साथ मोटरकार में जा रहा था, तब उसे मारने का प्रयास किया गया। शहंशाह विलियम को एक साधारण नवयुवक ने गोली मार दी। तीन हफ्ते बाद डॉक्टर कार्ल नौवलिग ने एक बार खिड़की में से शहंशाह पर गोली चला दी। जर्मनी में उस समय ग़रीब मज़दूरों के भाषणों को निर्मम ढंग से कुचला जा रहा था। उसके बाद एक दिन गोष्ठी करके फ़ैसला लिया गया था कि जिस प्रकार भी सम्भव हो, इस भ्रष्ट पूँजीवादी वर्ग और उसकी मददगार सरकार एवं पुलिस आदि को भयभीत किया जाये।

15 दिसम्बर, 1883 को विलीरिड फ्लोडसोर्फ में उलुबैक नाम के कुख्यात पुलिस अफ़सर को मार डाला गया। 23 जून, 1884 को रुजेट को इसी अपराध में फाँसी दे दी गयी। अगले ही दिन इसके बदले में ब्लेटिक, पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी गयी। आस्ट्रिया की सरकार ग़ुस्से में आ गयी और वियना में पुलिस ने ज़बरदस्त घेराबन्दी करके अनेक व्यक्ति गिरफ्तार कर लिये और दो को फाँसी पर टाँग दिया।

उधर लियुन में हड़तालें हुईं। एक हड़ताली फुरनियर ने अपने पूँजीपति मालिक को गोली मार दी। उसके अभिनन्दन समारोह में एक पिस्तौल उपहार-स्वरूप दी गयी। 1888 में वहाँ बहुत गड़बड़ी मची हुई थी और रेशम के मज़दूर भूखों मर रहे थे। पूँजीपतियों के समाचारपत्र मालिक और उनके दूसरे धनी मित्र एक जगह ऐश उड़ाने में मसरूफ़ थे। वहीं एक बम फेंक दिया गया। अमीर लोग काँप उठे। 60 अराजकतावादी पकड़े गये। उनमें से केवल तीन ही बरी किये गये। लेकिन फिर भी असली बम फेंकने वाले की बहुत तलाश की जाती रही। अन्त में वह पकड़ा गया और फाँसी पर लटका दिया गया। बस इस तरह ही उनके विचारों की लाइन पर काम चल पड़ा। फिर तो जहाँ भी हड़ताल होती, वहीं क़त्ल भी हो जाता। इन बातों का ज़िम्मेदार भी अराजकतावादियों को ही ठहराया जाता, इसलिए इस नाम से ही लोग थर-थर काँपने लगे।

उधर एक जर्मन अराजकतावादी जहानमोस्ट, जो पहले दफ़्तरी का काम करता था, 1882 में अमेरिका जा पहुँचा। उसने भी यह विचार जनता के समक्ष रखने आरम्भ किये। वह भाषण बड़ा सुन्दर देता था और उसका अमेरिका में बहुत प्रभाव पड़ा। 1886 में शिकागो आदि में बहुत-सी हड़तालें हो रही थीं। एक काग़ज़-कारख़ाने के मज़दूरों में एक अराजकतावादी स्पाईज उपदेश दे रहा था। कारख़ाना-मालिकों ने इसे बन्द करने की कोशिश की। वहाँ लड़ाई हो गयी। पुलिस बुलायी गयी, जिसने आते ही गोली चला दी। छह आदमी मारे गये और कई ज़ख़्मी हो गये। स्पाईज को ग़ुस्सा आया। उसने स्वयं जाकर एक नोटिस कम्पोज करके मुद्रित कर दिया कि मज़दूरों को मिलकर अपने निरपराध भाइयों के ख़ून का बदला लेना चाहिए। अगले दिन 4 मई, 1886 को ‘हे मार्केट’ में जलसा था। शहर का अध्यक्ष इसे देखने आया था। उसने देखा कि वहाँ कोई आपत्तिजनक बातें नहीं हो रही हैं। वह चला गया। बाद में पुलिस ने आकर बिना आगा-पीछा देखे मारपीट करनी शुरू कर दी और कहा कि जलसा बन्द करो। तभी एक बम पुलिसवालों पर फेंका गया जिसके साथ ही बहुत से पुलिसवाले मारे गये। कई व्यक्तियों को पकड़कर फाँसी की सज़ा दे दी गयी। जाते-जाते उनमें से एक शख़्स कहने लगा – “मैं फिर कहता हूँ, मैं वर्तमान व्यवस्था का कट्टर दुश्मन हूँ। मैं चाहता हूँ कि हम इस राजसत्ता को मिटा दें और ख़ुद राजसत्ता का इस्तेमाल करें। आप शायद हँसें कि मैं तो अब बम नहीं फेंक सकूँगा लेकिन मैं बताता हूँ कि तुम्हारे ज़ुल्मों ने सभी मज़दूरों को बम सँभालने और चलाने पर मजबूर कर दिया है। यह जान लो कि मैं सच कह रहा हूँ कि मेरे फाँसी लगने पर और भी कई आदमी पैदा हो जायेंगे। मैं तुम्हें घृणित दृष्टि से देखता हूँ और तुम्हारी राजसत्ता को मटियामेट कर देना चाहता हूँ। मुझे फाँसी चढ़ा दो।” ख़ैर, इस तरह बहुत-सी घटनाएँ होती रहीं। लेकिन एक-दो प्रसिद्ध घटनाएँ और हुईं। अमेरिका के अध्यक्ष मैकनिल पर गोली चलायी गयी और फिर स्टील कम्पनी में हड़ताल हुई। यहाँ मज़दूरों पर ज़ुल्म ढाये जा रहे थे। उसके मालिक हैनरी-सी फ्रिक को अलेक्ज़ेण्डर नामक अराजकतावादी ने गोली मारकर ज़ख़्मी कर दिया, जिसे आजीवन क़ैद हो गयी। ख़ैर, इसी तरह अमेरिका में भी अराजकतावादियों के इस विचार का प्रचार और उस पर अमल होने लगा।

इधर यूरोप में भी अन्धेर चल रहा था। पुलिस और सरकार के साथ इन अराजकतावादियों का झगड़ा बढ़ गया। अन्त में एक दिन वैलेण्ट नाम के एक नवयुवक ने असेम्बली में बम फेंक दिया, लेकिन एक औरत ने उसका हाथ पकड़कर उसे बाधा दी, परिणामस्वरूप कुछ डिप्टियों के घायल होने के अलावा कुछ और विशेष न हुआ। उसने बड़ी बुलन्द आवाज़ में स्पष्टीकरण देते हुए कहा – “It takes a loud voice to make the deaf hear.” यानी बहरों को सुनाने के लिए बड़ी बुलन्द आवाज़ की ज़रूरत है। अब तुम मुझे सज़ा दोगे, पर मुझे इसका कोई भय नहीं क्योंकि मैंने तुम्हारे दिल को चोट पहुँचायी है। तुम जोकि ग़रीबों के साथ अत्याचार करते हो और मेहनत करने वाले भूखे मरते हैं और तुम उनका ख़ून चूस-चूसकर ऐश कर रहे हो। मैंने तुम्हें चोट मारी है। अब तुम्हारी बारी है।

उसके लिए बहुत-सी अपीलें की गयीं। सबसे ज़्यादा ज़ख़्मी हुए असेम्बली के सदस्य ने भी जूरी से कहा कि इस पर दया की जाये, लेकिन कार्नेट नामक अध्यक्ष की जूरी ने उनकी बातों को अस्वीकारते हुए उसे फाँसी की सज़ा दे दी। बाद में एक इटैलियन लड़के ने एक छुरी कार्नेट के पार कर दी, जिस पर वैलेण्ट का नाम लिखा हुआ था।

इसी तरह हद दर्जे के अत्याचारों से तंग आकर स्पेन में भी बम चले और अन्ततः एक इटैलियन ने वजीर को मार डाला। इसी तरह यूनान के बादशाह, आस्ट्रिया की मलिका पर भी हमले किये गये। 1900 में गैटाने ब्रैसी ने इटली के बादशाह हर्बर्ट को मार डाला। इसी प्रकार वे लोग ग़रीबों की ख़ातिर अपनी ज़िन्दगियों से खेलते रहे और हँसते-हँसते फाँसी पर चढ़ते रहे…इसलिए उनके विरोधी भी उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते। उनके अन्तिम शहीदों साको और वैल्जेटी को अभी पिछले साल फाँसी हुई। वे जिस दिलेरी से फाँसी पर लटके, सब जानते हैं। बस यही संक्षिप्त इतिहास है – अराजकतावाद और उसके कार्यों का। अगली बार साम्यवाद के बारे में लेख लिखेंगे।


शहीद भगतसिंह व उनके साथियों के बाकी दस्तावेजों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। 


Bhagat-Singh-sampoorna-uplabhdha-dastavejये लेख राहुल फाउण्डेशन द्वारा प्रकाशित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़’ से लिया गया है। पुस्तक का परिचय वहीं से साभार – अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में राहुल फाउण्डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित किया गया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुन:स्मरण मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करना है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
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