सभी जातियों के गरीबों को एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है। निश्चित रूप से ये रास्ता आसान नहीं है। अगर आसान होता तो अब तक सभी जातियों के गरीब अपने आप ही एकजुट हो जाते और तब जाति व्यवस्था खत्म हो जाती। हजारों सालों से भारत में जाति व्यवस्था है और ऐसे में थोड़े से प्रचार से गरीब साथ नहीं आ जायेंगे पर ये भी सच है कि इसके अलावा ओर कोई रास्ता नहीं है।
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अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस–चुप रहना छोड़ दो! गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ दो!!
आज के दौर में भी स्त्रियों के सामाजिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। स्त्री-विरोधी अपराधों का ग्राफ़ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। देश के किसी न किसी कोने से बलात्कार, एसिड हमले, दहेज के लिए हत्या और छेड़छाड़ के रूप में आये दिन भारतीय समाज की घृणित मर्दवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति ख़बरों में आती रहती है। अभी हाल ही में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के छात्रावास में रहने वाली छात्राओं के माँसाहार पर रोक लगाना, रात 8 बजे तक हॉस्टल में वापस आना और रात नौ बजे के बाद मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होने जैसे ऊल-जलूल नियम बनाये गये है। जबकि ऐसी कोई भी रोक छात्रों के लिए नहीं है। जब इन छात्राओं ने इसका विरोध किया तो इन्हें डराया-धमकाया जा रहा है।
‘गौ-रक्षा दल’ द्वारा गुजरात में दलितों पर बर्बर अत्याचार के खिलाफ आव़ाज उठाओ!!
दलित युवाओं को पीटे जाने की इस घटना से यह साफ हो जाता है कि अगर आर.एस.एस. और भाजपा अपनी हिंदुत्ववादी फासीवादी एजेंंडे को लागू करने में पूरी तरह सफल हो गयी तो दलितों की जिन्दगी कैसी होगी। और यहाँ बात सिर्फ दलितों तक ही सीमित नहीं है। इसी तरह गोमांस की अफवाह फैलाकर अखलाक नाम के एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मार डालने वाले भी यही कट्टरपंथी ताकतें थी। ये फासीवाद हमेशा कमजोर तबकों के खिलाफ होता है, चाहे वे दलित हों, अल्पसंख्यक हों या महिलायें हों।
सावधान! सावधान! सावधान! ज़हरखुरानी गिरोह से सावधान!
पहले इस गिरोह को चड्ढी गेंग या कच्छा-बनियान गिरोह नाम से जाना जाता था लेकिन विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि अब यह अपना चोला बदलने की फ़िराक में है। हर ख़ासो-आम को आगाह किया जाता है कि नई पैकिंग से धोखा न खायें क्योंकि अन्दर का माल वही है।
मानखुर्द, गोवण्डी से लगातार गायब हो रहे बच्चे
मानव अंगों के विश्वव्यापी व्यापार, चाइल्ड पोर्नोग्राफी और बाल वेश्यावृत्ती के फैलते धंधे और बच्चों को अगवा कर उनसे भीख मंगवाने, बंधुआ मजदुरी कराने या घरेलु नौकर के रूप में बेच देने वाले गिरोह आज पुरे देश स्तर पर सक्रिय हैं। अगर हम गरीब मेहनतकश लोग जिनके बच्चों को ये गिरोह निशाना बनाते हैं, खुद खड़े नहीं होंगे तो हमारी सहायता करने कोई नहीं आने वाला।
नौजवानों से दो बातें
आज मैं नौजवानों को सम्बोधित करना चाहता हूं। बूढ़े इस पैम्फ़लेट को रख दें और ऐसी बातें पढ़कर अपनी आंखें न दुखायें जो उन्हें कुछ भी नहीं देंगी। जाहिर है बूढ़ों से मेरा मतलब उनसे है जो दिल और दिमाग से बूढ़े हैं। मैं यह मानकर चल रहा हूं कि आप अठारह या बीस वर्ष की उम्र के हैं; कि आपने अपनी अप्रेण्टिसशिप या पढ़ाई पूरी कर ली है; कि आप जीवन में बस प्रवेश कर रहे हैं। मैं यह मानकर चलता हूं कि आपका दिमाग उस अंधविश्वास से मुक्त है जो आपके अध्यापक आप पर थोपने की कोशिश करते रहे; कि आप शैतान से नहीं डरते, और आप पादरियों और धर्माचार्यों की अनाप-शनाप बातें सुनने नहीं जाते। इसके साथ ही, आप उन सजे-धजे छैलों, एक सड़ रहे समाज के उन उत्पादों में से नहीं हैं जिन्हें देखकर अफ़सोस होता है, जो अपनी बढ़िया काट की पतलूनों और बंदर जैसे चेहरे लिये पार्कों में घूमते-फि़रते हैं और जिनके पास इस कम उम्र में ही सिर्फ़ एक ही चाहत होती है किसी भी कीमत पर मौज-मस्ती लूटने की कभी न बुझने वाली चाहत।… इसके उलट, मैं यह मानता हूं कि आपके सीनों में गर्मजोशी से भरा एक दिल धड़कता है और इसीलिए मैं आपसे बात कर रहा हूं।
The Questions we need to answer for Annihilation of Caste!
we also need to abandon the identity politics for the struggle of justice for Rohith Vemula. Have we already not sustained huge damage due to this politics of identity? Has not this identity politics already provided enough fuel to the politics of Fascist and brahminical hegemony? We humbly propose that we need to contemplate these questions with utmost seriousness to advance in the right direction of struggle for justice for Rohith. The need to make the entire project of annihilation of caste an integral part of the class struggle and the project of revolutionary transformation has become more pressing than ever. The revolutionary movement of India has been unsuccessful in carrying out this task and this failure has been responsible for the flourishing and proliferation of identity politics. There cannot be a more opportune time to rectify this mistake and only this can be our true revolutionary tribute to Rohith.
अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के 105 वर्ष पूरे होने के अवसर पर
हम बेहद बिगड़ चुके हालात में 105वें स्त्री दिवस पर पहुँचे हैं। यह दिन हमें हमेशा स्त्रियों की समानता, उनकी मुक्ति और उनके अधिकारों के लिए शानदार संघर्ष की याद दिलाता है। लेकिन आज के दौर में स्त्रियों के सामाजिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। स्त्री-विरोधी अपराधों का ग्राफ़ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। देश के किसी न किसी कोने से बलात्कार, एसिड हमले, दहेज के लिए हत्या और छेड़छाड़ के रूप में आये दिन भारतीय समाज की घृणित मर्दवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति ख़बरों में आती रहती है। 16 दिसम्बर की घटना के बाद स्त्रियों के लिए सुरक्षा अध्यादेश 3 फरवरी 2013 को पास करवाया गया, लेकिन उसके बाद भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। भगाणा, बदायूँ, लखनऊ, ढण्डारी, रोहतक की घटनाएँ जनआन्दोलनों के दबाव के कारण तो सुर्खियों में आयीं भी लेकिन कई घटनाएँ तो दर्ज भी नहीं हो पातीं।
हरियाणा में बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों के खि़लाफ़ आवाज उठाओ!!
हिन्दू धर्म के तमाम ठेकेदार आये दिन अपने बीमार मानस का परिचय देते रहते हैं, कपड़ों, रहन-सहन और बाहर निकलने को लेकर तो ये बेहूदा बयानबाजियाँ करते हैं लेकिन तमाम स्त्री विरोधी अपराधों के खि़लाफ़ बेशर्म चुप्पी साध लेते हैं। यह हमारे समाज का दोगलापन ही है कि पीड़ा भोगने वालों को ही दोषी करार दे दिया जाता है, नृशंसता के कर्ता-धर्ता अपराधी आमतौर पर बेख़ौफ़ होकर घूमते हैं।
अहमदनगर में बर्बर दलित-विरोधी अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाओ!
अहमदनगर में 21 अक्टूबर को एक दलित परिवार के तीन लोगों की बेरहमी से हत्या और उसके बाद में उनके टुकड़े–टुकड़े करके कुएँ में फ़ेंक दिये जाने के काण्ड ने एक बार फिर महाराष्ट्र की मेहनतकश आबादी को झकझोर कर रख दिया है। तमाम दलितवादी चुनावी पार्टियाँ अपने संकीर्ण हितों के लिए इस घटना को भी एक “सुनहरे अवसर” के तौर पर देख रही हैं और दलितों के हित के नाम पर इसका पूरा फायदा उठाने की कवायद में लग गयी हैं। वहीं पूँजीवादी मीडिया हर बार की तरह इस बार भी या तो इस घटना पर पर्दा डालने का काम कर रहा है या फिर इस घटना को महज़ दो परिवारों के बीच आपसी रंजिश का नाम देकर दलितों पर हो रहे अत्याचारों को ढँकने का प्रयास कर रहा है। लेकिन मेहनतकश दलित आबादी जानती है कि चाहे मसला कुछ भी हो हर विवाद में अन्त में दलितों को ही इन बर्बर अत्याचारों का शिकार होना पड़ता है। ऐसा क्यों होता है कि हमेशा ग़रीब दलितों को ही इन बर्बर काण्डों का निशाना बनाया जाता है? हमेशा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर आबादी को ही ये ज़ुल्म क्यों सहने पड़ते हैं?